उत्तर वैदिक काल
उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.) भारतीय इतिहास में उस काल को, जिसमें सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद तथा ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों एवं उपनिषद की रचना हुई, को उत्तर वैदिक काल कहा जाता है। चित्रित धूसर मृद्भाण्ड इस काल की विशिष्टता थी, क्योंकि यहाँ के निवासी मिट्टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों तथा थालियों का प्रयोग करते थे। वे लोहे के हथियारों का भी प्रयोग करते थे। 1000 ई.पू. में पाकिस्तान के गांधार में लोहे के उपकरण प्राप्त हुए हैं। वहाँ क़ब्र में मृतकों के साथ लोहे के उपकरण प्राप्त हुए हैं। 800 ई.पू. के आस-पास इसका उपयोग गंगा - यमुना दोआब में होने लगा था। उत्तरी दोआब में चित्रित धूसर मृद्भाण्ड के 700 स्थल मिले हैं जिसमें चार की खुदाई हुई है-
- अतरंजीखेड़ा
- जखेड़ा
- हस्तिनापुर
- नोह।
अभी तक उत्खनन में केवल अतरंजीखेड़ा से ही लौह उपकरण के साक्ष्य मिले हैं। उत्तर वैदिक ग्रन्थों में लोहे के लिए लौह अयस एवं कृष्ण शब्द का प्रयोग हुआ है। अतरंजीखेड़ा में पहली बार कृषि से सम्बन्धित लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं।
उत्तर वैदिककालीन सभ्यता
उत्तर वैदिक काल में आर्यो ने यमुना, गंगा एवं सदानीरा (गण्डक) नदियों के मैदानों को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। दक्षिण में आर्यो का फैलाव विदर्भ तक हुआ। उत्तर वैदिककालीन सभ्यता का मुख्य केन्द्र 'मध्य प्रदेश' था, जिसका प्रसार सरस्वती से लेकर गंगा दोआब तक था। यही पर कुरु एवं पांचाल जैसे विशाल राज्य थे। यहीं से आर्य संस्कृति की पूर्वी ओर प्रस्थान कर कोशल, काशी एवं विदेह तक फैली। गोत्र व्यवस्था का प्रचलन भी उत्तर वैदिक काल से ही प्रारम्भ हुआ माना जाता है। मणव एवं अंग प्रदेश आर्य सभ्यता के क्षेत्र के बाहर थे। मगध में निवास करने वाले लोगों को अथर्ववेद में 'व्रात्य' कहा गया है। ये प्राकृत भाषा बोलते थे। उत्तर वैदिक काल में पुरु और भरत कबीला मिलकर 'कुरु' तथा 'तुर्वश' और 'क्रिवि' कबीला मिलकर 'पंचाल' (पांचाल) कहलाये। आरम्भ में कुरुओं की राजधानी असनदिवन्त में थी जिसमे अन्तर्गत कुरुक्षेत्र (सरस्वती और दृषद्वती के बीच भूमि) सम्मिलित था। शीघ्र ही कुरुओं ने दिल्ली एवं उत्तरी दोआब पर अधिकार कर लिया। अब उनकी राजधानी हस्तिनापुर हो गयी। बलिहव प्रतिपीय, राजा परीक्षित, जनमेजय आदि इसी राजवंश के प्रमुख राजा थे। परीक्षित का नाम अथर्ववेद में मिलता है। जनमेजय के बारे में माना जाता है कि उसने सर्पसत्र एवं दो अश्वमेध यज्ञ कराया था। कुरु वंश का अन्तिम शासक निचक्षु था। वह हस्तिनापुर से राजधानी कौशाम्बी ले आया, क्योंकि हस्तिनापुर बाढ़ में नष्ट हो गया था। पञ्चाल क्षेत्र के अंतर्गत आधुनिक बरेली, बदायूँ, एवं फ़र्रुख़ाबाद आता है। इनकी राजधानी काम्पिल्य थी। पञ्चालों के एक महत्त्वपूर्ण शासक प्रवाहण जैवलि थे, जो विद्धानों के संरक्षक थे। पञ्चाल दार्शनिक राजाओं के लिए भी जाना जाता था। आरुणि श्वेतकेतु पञ्चाल क्षेत्र के ही थे। उत्तरवैदिक कालीन सभ्यता का केन्द्र मध्य देश था। यह सरस्वती से गंगा के दोआब तक फैला हुआ था। गंगा यमुना दोआब से सरयू नदी तक हुआ। इसके बाद आर्यो का विस्तार वरुणा-असी नदी तक हुआ और काशी राज्य की स्थापना हुई। शतपथ ब्राह्मण में यह उल्लेख मिलता है कि विदेधमाधव ने अपने गुरु राहुगण की सहायता से अग्नि के द्वारा इस क्षेत्र का सफाया किया था। अजातशत्रु एक दार्शनिक राजा माना जाता था। वह बनारस से सम्बद्ध था। सिन्धु नदी के दोनों तटों पर गांधार जनपद था। गांधार और व्यास नदी के बीच कैकेय देश स्थित था। छान्दोग्य-उपनिषद के अनुसार उसने दावा किया कि मेरे राज्य में चोर, मद्वसेवी, क्रियाहीन, व्यभिचारी और अविद्यान नहीं है।
मद्र देश पंजाब में सियालकोट और उसके आस-पास स्थित था। मत्स्य राज्य के अन्तर्गत राजस्थान के जयपुर, अलवर, भरतपुर थे। आर्यों में विन्ध्याचल तक अपना विस्तार किया। गंगा-यमुना दोआब एवं उसके आस-पास का क्षेत्र ब्रह्मर्षि देश कहलाता था। हिमाचल और विन्ध्याचल का बीच का क्षेत्र मध्य देश कहलाता था। उपनिषद काल में विदेह ने पञ्चाल का स्थान ग्रहण कर लिया। विदेह के राजा जनक प्रसिद्ध दार्शनिक थे। दक्षिण में आर्यो का फैलाव विदर्भ तक हुआ। मगध और अंग प्रदेश आर्य क्षेत्र से बाहर थे।
कुल और क़बीले
उत्तर वैदिक काल में छोटे कबीले एक दूसरे में विलीन होकर बड़े क्षेत्रगत जनपदों को जन्म दे रहे थे। उदाहरण के लिए 'पुरु' एवं 'भरत' मिलकर कुरु और 'तुर्वष' तथा 'क्रिवि' मिलकर पांचाल कहलाए। इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में कुरु, पांचाल, काशी का विदेह प्रमुख राज्य थे। इन 'कुरु' और 'पञ्चालों' का अधिपत्य दिल्ली पर एवं दोआब के मध्य एवं ऊपरी भागों पर फैला था। उत्तर वैदिक काल में आर्यो का विस्तार अधिक क्षेत्र पर इसलिए हो गया क्योंकि अब वे लोहे के हथियार एवं अश्वचालित रथ का उपयोग जान गए थे। उत्तर वैदिक काल में पञ्चाल सर्वाधिक विकसित राज्य था। शतपथ ब्राह्मण में इन्हे वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा गया है।
'अथर्ववेद' में कुरु राज्य की समृद्धि का चित्रण है। परीक्षित और जनमेजय यहाँ के प्रमुख राजा थे। परीक्षित को मृत्यु लोक का देवता कहा गया है। अथर्ववेद के 'छान्दोग्योपनिषद' में कहा गया है कि कुरु जनपद में कभी-कभी भी ओले नहीं पड़े और न ही टिड्डियों के उपद्रव के कारण अकाल पड़ा। कुरु कुल का इतिहास महाभारत यु़द्ध[1] के नाम से विख्यात है।[2]
- उत्तर वैदिक काल में त्रिककुद, कैञ्ज तथा मैनाम (हिमालय क्षेत्र में स्थित) पर्वतों का उल्लेख भी मिलता है।
राजनीतिक संगठन
उत्तर वैदिक काल में 'राजतंत्र' ही शासन तंत्र का आधार था, पर कहीं-कहीं पर गणराज्यों के उदाहरण भी मिले है। सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में ही राजा की उत्पत्ति का सिद्धान्त मिलता है। इस काल में राजा का अधिकार ऋग्वेद काल की अपेक्षा कुछ बढ़ा। अब उसे बड़ी-बड़ी उपाधियां मिलने लगीं जैसे- अधिराज, राजाधिराज, सम्राट, एकराट्। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार प्रात्य (पूर्व) का शासक सम्राट की उपाधि धारण करते थे, पश्चिम के स्वराट, उत्तर के विराट्, दक्षिण के भोज तथा मध्य देश के राजा होते थे। प्रदेश का संकेत करने वाला शब्द 'राष्ट्र' सर्वप्रथम उत्तर वैदिक काल में ही प्रयोग किया गया। इस काल के उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि शायद राजा का चुनाव पहले जनता (विश) द्वारा एवं कालान्तर में जनता के प्रतिनिधियों द्वारा होता था, पर अन्ततः राजा का पद वंशानुगत हो गया।
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार
शतपथ ब्राह्मण में राजा के निर्वाचन की चर्चा है और ऐसे राजा विशपति कहलाते थे। अत्याचारी शासक को जनता पदच्युत भी कर देती थी। उदाहरण के लिए सृजंयों ने दुष्ट ऋतु से पौशायन को बाहर निकाल दिया था। ताण्ड्य ब्राह्मण प्रजा के द्वारा राजा के विनाश के लिए एक विशेष यज्ञ किए जाने का भी उल्लेख है। वैराज्य का अर्थ उस राज्य से है जहाँ राजा नहीं होता था। शतपथ ब्राह्मण में उस राज्य के लिए राष्ट्री शब्द का प्रयोग किया गया है जो निरंकुशता पूर्वक जनता की सम्पत्ति का उपभोग करता था। अथर्ववेद मे राजा को विषमत्ता (जनता का भक्षक) कहा गया। अथर्ववेद में कहा गया है कि समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का शासक एकराट होता है।
ऐतरेय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण में ऐसे राजाओं की सूची मिलती है। अथर्ववेद के एक परिच्छेद में कहा गया है कि राजा राष्ट्र (क्षेत्र) का स्वामी होता है और राजा को वरुण, बृहस्पति, इन्द्र तथा अग्नि देवता दृढ़ता प्रदान करते हैं। राजा के राज्याभिषेक के समय 'राजसूय यज्ञ' का अनुष्ठान किया जाता था। जिसमें राजा द्वारा राज्य के 'रत्नियों' को हवि प्रदान की जाती थी। यहाँ हवि से मतलब है कि राज्य प्रत्येक रत्नी के घर जाकर उनका समर्थन एवं सहयोग प्राप्त करता था। राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान से यह समझा जाता था कि राजा को दिव्य शक्ति मिल गयी है। राजसूय यज्ञ का वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। यह दो दिन तक चलता था। राजसूय यज्ञ में वरुण देवता पार्थिव शरीर में प्रकट होते थे। राजा की शक्ति में अभिवृद्वय के लिए अश्वमेध और वाजपेय यज्ञों का भी विधान किया गया। अश्वमेध यज्ञ से समझा जाता था। राजा द्वारा इस यज्ञ में छोड़ा गया घोड़ा जिन-जिन क्षेत्रों से बेरोक गुजरेगा, उन सारे क्षेत्रों पर राजा का एक छत्र अधिपत्य हो जायेगा।
शतपथ ब्राह्मण में भरतों के दो राजाओं भरत दौषयन्ति और शतनिक सत्राजित द्वारा अश्वमेध यज्ञ कराने का उल्लेख हैं। वाजपेय (रथदौड़) यज्ञ में राजा का रथ अन्य सभी बन्धुओं के रथों से आगे निकल जाता था। इन सभी अनुष्ठानों से प्रजा के चित्त पर राजा बढ़ती शक्ति और महिमा गहरी छाप पड़ती थी। गोपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा को राजसूय यज्ञ, सम्राट को वाजपेय, स्वराट को अश्वमेध, विराट को पुरुषमेघ और सर्वराट को सर्वमेघ करना चाहिए। किन्तु आपस्तम्भ श्रोत सूत्र के अनुसार अश्वमेध यज्ञ केवल सर्वभौम ही कर सकता है। वाजपेय यज्ञ शक्ति प्राप्त करने वाला एक सोम यज्ञ था जो साल में 17 दिन तक चलता था। राजसूय यज्ञ करने पुरोहिताध्यक्ष को दक्षिणा के रूप में 240,000 गायें दी जाती थी।
शतपथ ब्राह्मण में 13 रत्नियों का उल्लेख किया गया है-
- ब्राह्मण (पुरोहित)
- राजन्य
- बवाता (प्रियरानी)
- परिवृत्ती (राजा की उपेक्षित प्रथम पत्नी)
- सेनानी (सेना का नायक)
- सूत (सारथी)
- ग्रामणी (ग्राम प्रधान)
- क्षतृ (कोषाधिकारी)
- संगहीत्ट (सारथी या कोषाध्यक्ष)
- भगदुध (कर संग्रहकर्ता)
- अक्षवाप (पासे का अधीक्षक अथवा पासा फेंकने वाला)
- गोविकर्तन (आखेटक)
- पालागल (सन्देशवाहक)
ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित शासन प्रणाली
क्षेत्र | शासन | उपाधि |
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पूर्व | साम्राज्य | सम्राट |
पश्चिम | स्वराज्य | स्वराट |
उत्तर | वैराज्य | विराट |
दक्षिण | भोज्य | भोज |
मध्य प्रदेश | राज्य | राजा |
इन्हें भी देखें: वैदिक काल
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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