कृषि

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खेत की जुताई करता भारतीय किसान

कृषि भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानी जाती है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों एवं प्रयासों से कृषि को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में गरिमापूर्ण दर्जा मिला है। कृषि क्षेत्रों में लगभग 64% श्रमिकों को रोज़गार मिला हुआ है। 1950-51 में कुल घरेलू उत्पाद में कृषि का हिस्सा 59.2% था जो घटकर 1982-83 में 36.4% और 1990-91 में 34.9% तथा 2001-2002 में 25% रह गया। यह 2006-07 की अवधि के दौरान औसत आधार पर घटकर 18.5% रह गया। दसवीं योजना (2002-2007) के दौरान समग्र सकल घरेलू उत्पाद की औसत वार्षिक वृद्धि पद 7.6% थी जबकि इस दौरान कृषि तथा सम्बद्ध क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि दर 2.3% रही। 2001-02 से प्रारंभ हुई नव सहस्त्राब्दी के प्रथम 6 वर्षों में 3.0% की वार्षिक सामान्य औसत वृद्धि दर 2003-04 में 10% और 2005-06 में 6% की रही।

देश में राष्ट्रीय आय का लगभग 28% कृषि से प्राप्त होता है। लगभग 70% जनसंख्या अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। देश से होने वाले निर्यातों का बड़ा हिस्सा भी कृषि से ही आता है। ग़ैर कृषि-क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में उपभोक्ता वस्तुएं एवं बहुतायत उद्योगों को कच्चा माल इसी क्षेत्र द्वारा भेजा जाता है।

व्यवसाय के रूप में

कपास की कटाई

कृषि खेती और वानिकी के माध्यम से खाद्य और अन्य सामान के उत्पादन से सम्बंधित व्यवसाय है। इसने सभ्यताओं के उदय और विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। डॉक्टर नॉरमन बोरलॉग, जिन्हें भारत में 'हरितक्रांति' का जनक माना जाता है, उन्होंने देश को खाद्यान्न सम्पन्न बनाने के लिए कई योजनाएँ चलाई थीं। खेती में पशुपालन, जंतु पालन का भी योगदान है। पौधों को उगाने तथा खाद्यान्न जुटाने के लिए इस व्यवसाय की विकास हुआ। बागबानी भी कृषि का ही एक रूप है। तकनीकों और जानकारियो की बहुत सी श्रेणियाँ कृषि के अर्न्तगत आती है, इसमें वे तरीके शामिल हैं जिनसे पौधे उगाने के लिए उपयुक्त भूमि का विस्तार किया जाता है, इसके लिए पानी के चैनल खोदे जाते हैं और सिंचाई के अन्य रूपों का उपयोग किया जाता है। कृषि योग्य भूमि पर फ़सलों को उगाना और चरागाहों और पर पशुधन को गड़रियों के द्वारा चराया जाना मुख्यतः कृषि से सम्बंधित कार्य हैं। कृषि के भिन्न रूपों की पहचान करना व उनका विकास करना पिछली शताब्दी में विचार के मुख्य मुद्दे बन गए हैं।

महत्त्वपूर्ण फ़सलों के तीन सबसे बड़े उत्पादक राज्य, 2007-08
फ़सल/फ़सल समूह राज्य उत्पादन (मिलियन टन) देश के कुल उत्पादन का प्रतिशत
खाद्यान्न
चावल पश्चिम बंगाल 14.72 15.22
आंध्र प्रदेश 13.32 13.78
उत्तर प्रदेश 11.78 12.18
गेहूँ उत्तर प्रदेश 25.68 32.68
पंजाब 15.72 20.01
हरियाणा 10.24 13.03
मक्का आंध्र प्रदेश 3.62 19.09
कर्नाटक 3.25 17.14
राजस्थान 1.96 10.34
मोटे अनाज राजस्थान 7.12 17.47
महाराष्ट्र 7.09 17.4
कर्नाटक 6.94 17.03
दालें महाराष्ट्र 3.02 20.46
मध्य प्रदेश 2.45 16.6
आंध्र प्रदेश 1.7 11.52
खाद्यान्न उत्तर प्रदेश 42.09 18.24
पंजाब 26.82 11.62
आंध्र प्रदेश 19.3 8.36
तिलहन
मूंगफली गुजरात 3.3 35.95
आंध्र प्रदेश 2.6 28.32
तमिलनाडु 1.05 11.44
रेपसीड व सरसों राजस्थान 2.36 40.48
उत्तर प्रदेश 1 17.15
हरियाणा 0.6 10.29
सोयाबीन मध्य प्रदेश 5.48 49.95
महाराष्ट्र 3.98 36.28
राजस्थान 1.07 9.75
सूरजमुखी कर्नाटक 0.59 40.41
आंध्र प्रदेश 0.44 30.14
महाराष्ट्र 0.2 13.7
तिलहन मध्य प्रदेश 6.35 21.34
महाराष्ट्र 4.87 16.36
गुजरात 4.73 15.89
नकदी फ़सलें
गन्ना उत्तर प्रदेश 124.67 35.81
महाराष्ट्र 88.44 25.4
तमिलनाडु 38.07 10.93
कपास[1] गुजरात 8.28 31.99
महाराष्ट्र 7.02 27.13
आंध्र प्रदेश 3.49 13.49
जूट व मेस्ता[2] पश्चिम बंगाल 8.29 73.95
बिहार 1.46 13.02
असम 0.68 6.07
आलू उत्तर प्रदेश 9.99 41.77
पश्चिम बंगाल 7.46 31.21
बिहार 1.23 5.16
प्याज़ महाराष्ट्र 2.47 28.44
गुजरात 2.13 24.52
कर्नाटक 0.87 10.02

भारत में पाँचवें दशक के शुरुआती वर्षों में अनाज की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता 395 ग्राम थी, जो 1990-91 में बढ़कर 468 ग्राम, 1996-97 में 528.77 ग्राम, 1999-2000 में 467 ग्राम, 2000-01 में 455 ग्राम, 2001-02 में 416 ग्राम, 2002-03 में 494 ग्राम और 2003-04 में 436 ग्राम तक पहुँच गई। वर्ष 2005-06 में यह उपलब्धता प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 412 ग्राम हो गई। विश्व में सबसे अधिक क्षेत्रों में दलहनी खेती करने वाला देश भी भारत ही है। इसके बावजूद प्रति व्यक्ति दाल की दैनिक उपलब्धता संतोषजनक नहीं रही है। इसमें सामान्यत: प्रति वर्ष गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 1951 में दाल की प्रति व्यक्ति दैनिक उपलब्धता 60.7 ग्राम थी वही यह 1961 में 69.0 ग्राम, 1971 में 51.2 ग्राम, 1981 में 37.5 ग्राम, 1991 में 41.6 ग्राम और 2001 में 30.0 ग्राम हो गई। वर्ष 2005 में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दाल की निवल उपलब्ध मात्रा 31.5 ग्राम तथा 2005-06 के दौरान 33 ग्राम प्रतिदिन प्रति व्यक्ति हो गई। भारत में ही सर्वप्रथम कपास का संकर बीज तैयार किया गया है। विभिन्न कृषि क्षेत्रों में आधुनिकतम एवं उपयुक्त प्रौद्योगिकी का विकास करने में भी भारतीय वैज्ञानिकों ने सफलता अर्जित की है।

फ़सल-चक्र विविधतापूर्ण हो गया है। हरित क्रान्ति के शुरू होने के बाद के समय में 1967-68 से 2005-06 तक कृषि उत्पादन की वार्षिक वृद्धि दर लगभग 2.45% रही। 1964-65 में खाद्यान्न उत्पादन 890 लाख टन से बढ़कर 1999-2000 में 2098 लाख टन, 2000-01 में 1968 लाख टन, 2001-02 में 2119 लाख टन, 2002-03 में 1748 लाख टन, 2003-04 में 2132 लाख टन, 2004-05 में 1984 लाख टन और 2005-06 में 2086 लाख टन हो गया जबकि 2006-07 के दौरान 2173 लाख खाद्यान्न उत्पांदन संभावित है। फ़सल-चक्र में परिवर्तन के परिणामस्वरूप सूरजमुखी, सोयाबीन तथा गर्मियों में होने वाली मूँगफली जैसी ग़ैर परम्परागत फ़सलों का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। 1970-71 में कृषि उत्पादन सूचकांक 85.9 था। यह सूचकांक 1980-81 के सूचकांक 102.1 और 1990-91 के सूचकांक 148.4 से बढ़कर 2001-2002 में 178.8, 2002-03 में 150.4, 2003-04 में 182.8, 2004-05 में 177.3 और 2005-06 में यह सूचकांक 191.6 हो गया जबकि 2006-07 में यह सूचकांक 197.1 संभावित है। इसका मुख्य कारण चावल, गेहूँ, दाल, तिलहन, गन्ना तथा अन्य नक़दी फ़सलों की पैदावार में वृद्धि रही है।

प्रमुख फ़सलें

भारत में मुख्य रूप से तीन फ़सलों बोई जाती है- यथा ख़रीफ़, रबी एवं गर्मी (ज़ायद)। ख़रीफ़ की फ़सल में मुख्य रूप से मक्का, ज्वार, बाजरा, धान, मूँगफली, सोयाबीन, अरहर आदि हैं। रबी की मुख्य फ़सलों में गेहूँ, जौ, चना, मटर, सरसों, तोरिया आदि है। गर्मी की फ़सलों में मुख्य रूप से सब्ज़ियाँ ही बोई जाती है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 3287.3 लाख हेक्टेयर का 93.1% खेती के प्रयोग में लिया जाता है।

कृषि एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें उत्पादन के बहुत से कारक हैं जिन पर कृषक या वैज्ञानिकों का कोई वश नहीं चलता हे। इस तरह के कारकों में जलवायु सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है। विभिन्न स्थानों पर सामान्य मौसम-चक्र के अतिरिक्त भी कब मौसम कैसा हो जाएगा कोई पता नहीं। इसके अलावा फ़सलें जलवायु के अनुसार बदली जाती हैं, न कि फ़सल के अनुसार जलवायु। अतएव किसी स्थान पर कौन-सी फ़सल बोई जाय, यह वहाँ की जलवायु, मृदा, ऊँचाई, वर्षा आदि पर निर्भर करता है। आज भारत में कृषि वैज्ञानिकों को अनेक सुअवसर उपलब्ध हैं। उन्हें प्रयोगशालाएँ तथा शोध आदि के लिए भी समस्त सुविधाएँ मुहैया कराई गयी हैं, जिससे देश को खाद्यान्न सम्पन्न बनाया जा सके। कृषि वैज्ञानिकों के उत्साहवर्धन और उनके सम्मान के लिए उन्हें 'बोरलॉग पुरस्कार' भी प्रदान किया जाता है।

भारतीय कृषि की विशेषताएँ

भारतीय कृषि की एक झलक

धान की खेती

गेहूँ की कटाई

चावल की फ़सल

गन्ने की फ़सल

चाय का बाग़ान

अनाज बरसाती महिला

भारतीय कृषि की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार हैं-

  1. भारतीय कृषि का अधिकांश भाग सिचाई के लिए मानसून पर निर्भर करता है।
  2. भारतीय कृषि की महत्त्वपूर्ण विशेषता जोत इकाइयों की अधिकता एवं उनके आकार का कम होना है।
  3. भारतीय कृषि में जोत के अन्तर्गत कुल क्षेत्रफल खण्डों में विभक्त है तथा सभी खण्ड दूरी पर स्थित हैं।
  4. भूमि पर प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से जनसंख्या का अधिक भार है।
  5. कृषि उत्पादन मुख्यतया प्रकृति पर निर्भर रहता है।
  6. भारतीय कृषक ग़रीबी के कारण खेती में पूँजी निवेश कम करता है।
  7. खाद्यान्न उत्पादन को प्राथमिकता दी जाती है।
  8. कृषि जीविकोपार्जन की साधन मानी जाती हें
  9. भारतीय कृषि में अधिकांश कृषि कार्य पशुओं पर निर्भर करता है।

भूमि उपयोग

भारत में भूमि उपयोग में विविधता देखने को मिलती है। देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 3287.3 लाख हेक्टेयर में से 1950-51 में 404.8 लाख हेक्टेयर भूमि पर वन थे। 1998-99 में यह क्षेत्र बढ़कर 689.7 लाख हेक्टेयर और 2000-01 में 694-07 लाख हेक्टेयर हो गया। इसी अवधि में बुआई वाली भूमि 1,187.5 लाख हेक्टेयर से बढ़कर क्रमश: 1,426 लाख हेक्टेयर और 1,411.01 लाख हेक्टेयर हो गई। फ़सलों के प्रकार की दृष्टि से अगर देखा जाये तो कृषि वाले कुल क्षेत्रों में गैर-खाद्यान्न की अपेक्षा खाद्यान्न की कृषि अधिक होती रही है, किन्तु खाद्यान्न की कृषि जो 1950-51 में 76.7% भूमि पर हो रही थी, वह 1998-99 के दौरान घटकर 65.6% रह गई। कृषि गणना के अनुसार बड़ी जोत (10 हेक्टेयर और इससे अधिक) के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र 1985-86 में 20.1% की अपेक्षा 1990-91 में घटकर 17.3% रह गया है। इसी प्रकार सीमांत जोत (1 हेक्टेयर से कम की जोत) के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र 1985-86 में 13.4% से बढ़कर 1990-91 में 15% हो गया है।

भारतीय कृषि के प्रकार

भारतीय कृषि अनेक विविधताओं के युक्त है। जलवायविक भिन्नता, मिट्टी की उर्वरता, परिवर्तनशील मौसम, खेती करने के ढंग आदि से भारतीय कृषि प्रभावित है। उत्पादन की मात्रा तथा कृषि ढंग के आधार पर भारत की कृषि को शुद्ध और संकर कृषि के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। शुद्ध कृषि मूलत: परंपरागत प्रकार की कृषि है जिसके द्वारा कृषकों की केवल मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो पाती है।

सस्य विज्ञान

सस्य विज्ञान (Agronomy) कृषि की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत फ़सल उत्पादन तथा भूमि प्रबन्ध के सिद्धान्तों और कृषि क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। फ़सलों का महत्त्व- पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीव-जन्तुओं की जीवन परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से वनस्पतियों पर निर्भर करता है। वनस्पति से जीव-जन्तुओं को भोजन तथा आक्सीजन के अलावा जनसंख्या हेतु वस्त्र, आवास एवं दवाओं आदि की पूर्ति भी की जाती है।

फ़सलों का वर्गीकरण

  • जीवन चक्र के अनुसार वर्गीकरण
  1. एक वर्षी- ये फ़सलें अपना जीवन चक्र एक वर्ष अथवा इससे कम समय में पूरा करती है, जैसे – धान, गेहूँ, जौ, चना, सोयाबीन आदि।
  2. द्विवर्षी- ऐसे पौधों में पहले वर्ष वानस्पतिक वृद्धि होती है और दूसरे वर्ष उनमें फूल तथा बीज बनते हैं। यानी वे अपना जीवन चक्र दो वर्षों में पूरा करते हैं। यथा चुकन्दर, गन्ना आदि।
  3. बहुवर्षी- ऐसे पौधे अनेक वर्षों तक जीवित रहते हैं। परन्तु इनके जीवन चक्र में प्रतिवर्ष या एक वर्ष के अन्तराल पर फूल और फल आते हैं और जीवन चक्र पूरा हो जाता है। जैसे- लूसर्न, नेपियर घास।
  • ऋतुओं के आधार पर वर्गीकरण
  1. ख़रीफ़- इन फ़सलों को बोते समय अधिक तापमान एवं आर्द्रता तथा पकते समय शुष्क वातावरण की आवश्यकता होती है। उत्तर भारत में इनको जून-जुलाई में बोते हैं। धान, मक्का, ज्वार, बाजरा, मूँग, मूँगफली, गन्ना आदि इस ऋतु की प्रमुख फ़सलें हैं। ख़रीफ़ की फ़सलें C3 श्रेणी में आती हैं। इस श्रेणी के पौधे में जल उपयोग क्षमता और प्रकाश संश्लेषण पर दोनों ही अधिक होती है जबकि प्रकाश-श्वसन दर कम होती है।
  2. रबी- इन फ़सलों को बोआई के सयम कम तापमान तथा पकते समय शुष्क और गर्म वातावरण की आवश्यकता होती है। ये फ़सलें सामान्यत: अक्टूबर-नवम्बर के महीनों में बोई जाती हैं। गेहूँ, जौ, चना, मसूर, सरसों, बरसीम आदि इस वर्ग की प्रमुख फ़सलें हैं। रबी फ़सलें, C4 श्रेणी में आती हैं। इस श्रेणी के पौधे की विशेषता है कि इनमें जल उपयोग क्षमता एवं प्रकाश-संश्लेषण दर दोनों ही कम होती है। इस प्रकार, इन पौधों में दिन के प्रकाश में भी श्वसन एवं प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया संपन्न होती है।
  3. ज़ायद- इस वर्ग की फ़सलों में तेज़ गर्मी और शुष्क हवाएं सहन करने की अच्छी क्षमता होती है। उत्तर भारत में ये फ़सलें मुख्यत: मार्च-अप्रैल में बोई जाती हैं। तरबूज़, ककड़ी, खीरा आदि इस वर्ग की प्रमुख फ़सलें हैं।

फ़सल व उनमें होने वाले रोग

फ़सल का नाम रोग
केला पनामा (सूखा रोग)
बाजरा अर्गट, हरित बाली
चना उक्ठा
मूँगफली टिक्का
धान खेरा, टूंगरू
गन्ना लाल सड़न, ग्रासी शूट
गेहूँ करनाल बंट, ईयर कोकल
सरसों श्वेत फफोला
कपास ब्लेक आर्म
नींबू केंकर
आम कोयलिया
तिल फाइलोडी
भिंडी, पपीता, तम्बाकू पीत शिरा
अंगूर हेन व चिकन
टमाटर बक आई रोट
गेहूँ और जौ मोल्या
मटर चुर्णिल फफूंद

सिंचाई के साधन

भारत का कुल क्षेत्रफल 32.8 करोड़ हेक्टेयर है, जिसके 92.2 प्रतिशत के भूमि उपयोग सम्बन्धी आंकड़े उपलब्ध हैं। वर्तमान में देश में शुद्ध बोया गया क्षेत्र 16.2 करोड़ हेक्टेयर है। इस प्रकार कुल क्षेत्रफल का लगभग 51 प्रतिशत भाग कृषि के अन्तर्गत आता है, जबकि लगभग 4 प्रतिशत भूमि पर चारागाह, 21 प्रतिशत भूमि पर वन तथा 24 प्रतिशत भूमि बंजर अथवा बिना किसी उपयोग की है। 24 प्रतिशत बंजर भूमि में 5 प्रतिशत परती भूमि भी शामिल है, जिसमें प्रति वर्ष फसलें न बोकर तीसरे या पांचवे वर्ष बोयी जाती है, जिससे भूमि की उर्वरता संचित हो सके। इस शुद्ध बोये गये 52 प्रतिशत भू-भाग के मात्र 28 प्रतिशत भाग अर्थात् 4.5 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर ही सिंचाई की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध है, जबकि देश का समस्त सिंचित क्षेत्र 8 करोड़ हेक्टेयर है। इस प्रकार कुल कृषि भूमि के लगभग 72 प्रतिशत भाग पर की जाने वाली कृषि वर्षा पर ही निर्भर करती है और कुल सिंचित क्षेत्रफल के आधे से अधिक भाग पर सिंचाई के छोटे साधनों, कुएं, तालाब, झीलें, जलाशय, बाँध, नलकूप, मिट्टी के कच्चे बाँध, नल तथा जल स्रोतों द्वारा सिंचाई की जाती है। शेष भाग की सिंचाई बड़े साधनों यथा- नहरों, नालियों आदि के माध्यम से की जाती है।

इन्हें भी देखें: कृषि का महत्त्व एवं कृषि अनुसंधान केन्द्र


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रत्येक 170 किग्रा वजन वाली मिलियन गांठे
  2. प्रत्येक 180 किग्रा वजन वाली मिलियन गांठे

बाहरी कड़ियाँ

फ़सल व उनमें होने वाले रोग

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