कचूर
कचूर | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- कचूर (बहुविकल्पी) |
कचूर हल्दी के समान एक 'क्षुप'[1] है। पूर्वोत्तर भारत तथा दक्षिण समुद्र तटवर्ती प्रदेशों में यह स्वत: उगता है। भारत, चीन तथा श्रीलंका में कचूर खेती की जाती है। कचूर 'ज़िंजीबरेसी'[2] कुल का है। इसे 'करक्यूमा' ज़ेडोयिरया[3] कहा जाता है। चिकित्सा के क्षेत्र में कचूर को कटु, तिक्त, रोचक, दीपक तथा कफ, वात, हिक्का, श्वास, कास, गुल्म एवं कुष्ठ में उपयोगी माना गया है।
आकार
'कचूर' के लिए 'कर्चूर', 'षटकचोरा' आदि मिलते-जुलते नाम भी प्रचलित हैं। इसका क्षुप तीन-चार फुट ऊँचा, पत्र कोषों का बना हुआ, नकली कांड और एक दो फुट लंबे, आयताकार, लंबाग्र, लंबे पत्रनाल से युक्त रहता है। पत्तियाँ चिकनी और मध्य भाग में गुलाबी रंग की छाया वाली होती हैं। पत्तियों के निकलने से पहले ही एक मंजरी निकलती है, जिसमें पुष्प विनाल, हल्के पीले रंग के और विपत्र रक्ताभ अथवा भड़कीले लाल रंग के होते हैं।[4]
इस प्रजाति में वास्तविक कांड भूमिगत होता है। कचूर का भूमिगत आधार भाग शंक्वाकार होता है, जिसकी बगल से मोटे, मांसल तथा लंबगोल प्रंकद निकलते हैं और इन्हीं से फिर पतले मूल निकलते हैं, जिनके अग्रभाग कंदवत् फूले रहते हैं। प्रकंद भीतर से हल्के पीले रंग के और कर्पूर के सदृश प्रिय गंध वाले होते हैं। इन्हीं के कटे हुए गोल-चिपटे टुकड़े सुखाकर व्यवहार में लाए जाते हैं और बाज़ार में कचूर के नाम से बिकते हैं।
गुण
कचूर के मूलाग्रकंदों में स्टार्च होता है, जो 'शटीफ़ूड' के नाम से बाज़ार में मिलता है। बच्चों के लिए अरारूट तथा बार्ली की तरह यह पौष्टिक खाद्य का काम देता है। इसका उत्पादन बंगाल में एक लघु उद्योग बन गया है। कचूर के चूर्ण और पतंग काष्ठ के क्वाथ से अबीर बनाया जाता है। चिकित्सा में कचूर को कटु, तिक्त, रोचक, दीपक तथा कफ, वात, हिक्का, श्वास, कास, गुल्म एवं कुष्ठ में उपयोगी माना गया है।
अन्य जातियाँ
आयुर्वेद के संहिता ग्रंथों में 'कचूर' का नाम नहीं आया है। केवल निघंटुओं में संहितोक्त 'शठी' के पर्याय रूप में अथवा स्वतंत्र द्रव्य के रूप में यह वर्णित है। ऐसा मालूम होता है कि वास्तविक शठी के सुलभ न होने पर पहले इस कचूर का प्रतिनिधि रूप में उपयोग प्रारंभ हुआ और बाद में कचर को ही 'शठी' कहा जाने लगा। कचूर को 'ज़ेडोरी', इसकी दूसरी जाति 'करक्यूमा सीसिया' को काली हल्दी, नकरचूर और ब्लैक ज़ेडारी तथा तीसरी जाति 'वनहरिद्रा' ([5]) को वनहल्दी अथवा येलो ज़ेडोरी भी कहते हैं।
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