कविकुलकल्पतरु
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कविकुलकल्पतरु एक रीतिकालीन ग्रंथ है जिसका रचनाकाल मिश्रबन्धुओं तथा रामचन्द्र शुक्ल ने 1650 ई. (सं. 1707) माना है परंतु इसमें 'शृगार मंजरी' का भी उल्लेख है जिसकी रचना 1663 ई. (सं. 1720) ले लगभग मानी गयी है। ऐसी दशा में सत्यदेव चौधरी का विचार है कि इसका रचनाकाल 1668 ई. (सं. 1725) के आसपास होना चाहिए।[1] भगीरथ मिश्र ने इस ग्रंथ की एक हस्तलिखित प्रतिका दतिया के राजकीय पुस्तकालय में होने का उल्लेख किया है। इसका प्रकाशन नवलकिशोर प्रेम लीथो टाइप में सन् 1875 ई. में लखनऊ से हुआ है।
विशेषताएँ
- 'कविकुलकल्पतरु' में कुल 1133 पद्य हैं और यह आठ प्रकरणों में विभाजित है। प्रथम प्रकरण में काव्य-भेद, काव्य-लक्षण, काव्य-पुरुष-रूपक और गुण विवेचन है। दूसरे और तीसरे प्रकरणों में शब्द और अर्थ के भेद के साथ अलंकारों का निरूपण है। चौथे प्रकरण में काव्यगत दोषों पर विचार किया गया है। पाँचवें प्रकरण के तीन भाग हैं- प्रथम भाग में शब्दार्थ निरूपण है, दूसरे में रसध्वनि को छोड़कर ध्वनि के शेष भेदोपभेदों का तथा तीसरे में रसध्वनि का समावेश किया गया है।
- नायिकाभेद का प्रसंग दूसरे भाग के अंतर्गत सन्निहित है तथा नायकभेद तीसरे भाग में। दोनों की समाप्ति 'राधावर्णनम्' और 'कृस्नप्रत्यंगर्णनम्' के नाम से की गयी है।
- चिंतामणि ने नायक-नायिका-भेद के प्रसंग को रस-निरूपण के अंतर्गत रखकर विश्वनाथ का पहली बार अनुसरण किया है।
- मम्मट की तरह उन्होंने ध्वनि-प्रकरण में इसकी अपेक्षा नहीं की।
- भानुदत्त का आश्रय अवश्य अतिरिक्त रूप से लिया है, जैसा रीतिकाल के अन्य अनेक कवियों ने किया है। ध्वनि का विस्तार ग्रंथ के अंत तक है और श्रृंगार रस आदि विषय तथा ध्वनि से सम्बन्ध अन्य प्रसंग इसी अंतिम अंश में निरूपित किये गये हैं।
- गुणीभूतव्यंग्य का निरूपण चिंतामणि ने नहीं किया है, यह विशेषकर उल्लेखनीय है। 'काव्य-प्रकाश' और 'साहित्य- दर्पण' उनके मुख्य आधार ग्रंथ रहे है। वस्तु विभाजन और क्रम निर्धारण में कहीं-कहीं चिंतामणि के स्वतंत्र व्यक्तित्व का परिचय मिलता है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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