रसतरंगिणी
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रसतरंगिणी नामक ग्रंथ के रचयिता शम्भुनाथ मिश्र थे। इतिहासकार इस ग्रंथ के बारे में या तो प्राय: मौन हैं या उन्होंने भ्रमपूर्ण सूचनाएँ उपस्थित की हैं। यह ग्रंथ अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है।
- इस ग्रंथ का रचनाकाल लेखक ने स्वयं इस प्रकार दिया है-
"रस वसु ससिधर बरस मैं पाय कविन को पंथ। फागुन बदि एकादमी पूरन कीनौं ग्रंथ[1]"
- 'रसतरंगिणी' का रचनाकाल प्राय: सन 1749 ई. (संवत 1806) माना गया है। 'हिन्दी साहित्य का बृहत इतिहास', षष्ठ भाग में दो स्थान पर यही संवत मानकर भी पृष्ठ 402 पर इसका समय संवत 1820 के लगभग बताया गया है और 'नागरी प्रचारिणी सभा' की किसी खण्डित प्रति के आधार पर सर्वथा किसी अन्य ग्रंथ का परिचय दे डाला गया है।[2]
- 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' में सुरक्षित सम्पूर्ण प्रति देखने में आयी है और उसमें आरम्भ तथा अंत में कवि के गुरु का नाम सुखदेव बताया गया है तथा प्रारम्भ में लेखक का नाम शम्भुनाथ तथा अंत में समाप्ति पर शम्भुनाथ मिश्र स्पष्ट दिया गया है।
- 'रसतरंगिणी' का विषय रस निरूपण तथा नायिका भेद मात्र है।
- सम्पूर्ण ग्रंथ भानुदत्त मिश्र की 'रसतरंगिणी' का भाषानुवाद मात्र है, केवल उदाहरणों में लेखक ने अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की हैं।
- इस ग्रंथ में कुल 445 छन्द हैं। लक्षण उदाहरण दोहों में दिये गये हैं। नवीनता केवल रस दृष्टि के कुछ नामों में है, यथा- कुणिता के स्थान पर कुत्सिता नाम दिया गया है, अर्द्धविकसिता, अर्द्धविवर्त्तिता तथा शून्या छोड़ दिये गये हैं तथा आवर्त्तिता, धर्मवर्त्तिता और अर्द्धवर्त्तिता नये रखे गये हैं। अनुवाद स्पष्ट और उदाहरण साधारण हैं।
- इस ग्रंथ को देखते हुए 'हिन्दी साहित्य का बृहद इतिहास' में दिया गया परिचय[3] अग्राह्य है, जो 'नागरी प्रचारिणी सभा' की किसी अन्य खण्डित प्रति के आधार पर दिया गया प्रतीत होता है।[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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