जोगीमारा गुफ़ाएँ

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जोगीमारा गुफ़ाएँ
जोगीमारा गुफ़ाएँ
विवरण 'जोगीमारा गुफ़ाएँ छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में से एक हैं। इन गुफ़ाओं की भित्तियों पर विभिन्न चित्र अंकित हैं।
राज्य छत्तीसगढ़
निर्माण काल सम्राट अशोक के समय में जोगीमारा गुफ़ाओं का निर्माण हुआ था।
विशेष ये शैलकृत गुफ़ाएँ हैं, जिनमें 300 ई.पू. के कुछ रंगीन भित्तिचित्र विद्यमान हैं।
संबंधित लेख छत्तीसगढ़, सरगुजा, सीताबेंगरा
अन्य जानकारी जोगीमारा गुफ़ाओं के समीप ही सीताबेंगरा गुफ़ा है। इस गुफ़ा का महत्त्व इसके नाट्यशाला होने से है। कहा जाता है कि यह एशिया की अतिप्राचीन नाट्यशाला है।

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जोगीमारा गुफाएँ छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में से एक हैं। ये गुफ़ाएँ अम्बिकापुर (सरगुजा ज़िला) से 50 किलोमीटर की दूरी पर रामगढ़ स्थान में स्थित है। यहीं पर सीताबेंगरा, लक्ष्मण झूला के चिह्न भी अवस्थित हैं। इन गुफ़ाओं की भित्तियों पर विभिन्न चित्र अंकित हैं। ये शैलकृत गुफ़ाएँ हैं, जिनमें 300 ई.पू. के कुछ रंगीन भित्तिचित्र विद्यमान हैं।

निर्माण काल

चित्रों का निर्माण काल डॉ. ब्लाख ने यहाँ से प्राप्त एक अभिलेख के आधार पर निश्चित किया है। सम्राट अशोक के समय में जोगीमारा गुफ़ाओं का निर्माण हुआ था। ऐसा माना जाता है कि जोगीमारा के भित्तिचित्र भारत के प्राचीनतम भित्तिचित्रों में से हैं। विश्वास किया जाता है कि देवदासी सुतनुका ने इन भित्तिचित्रों का निर्माण करवाया था।

चित्रों की विषयवस्तु

चित्रों में भवनों, पशुओं और मनुष्यों की आकृतियों का आलेखन किया गया है। एक चित्र में नृत्यांगना बैठी हुई स्थिति में चित्रित है और गायकों तथा नर्तकों के खुण्ड के घेरे में है। यहाँ के चित्रों में झाँकती रेखाएँ लय तथा गति से युक्त हैं। चित्रित विषय सुन्दर है तथा तत्कालीन समाज के मनोविनोद को दिग्दर्शित करते हैं। इन गुफ़ाओं का सर्वप्रथम अध्ययन असित कुमार हलधर एवं समरेन्द्रनाथ गुप्ता ने 1914 में किया था।

प्रस्तुतिकरण

जोगीमारा गुफ़ाओं के समीप ही सीताबेंगरा गुफ़ा है। इस गुफ़ा का महत्त्व इसके नाट्यशाला होने से है। कहा जाता है कि यह एशिया की अतिप्राचीन नाट्यशाला है। भास के नाटकों के समय निर्धारण में यह पुराता देवदीन पर प्रेमासक्तत्त्विक खोज महत्त्वपूर्ण हो सकती है। क्योंकि नाटक प्रविधि को 'भास' ने लिखा था तथा उसके नाटकों में चित्रशालाओं के भी सन्दर्भ दिये हैं। यह विश्वास किया जाता है कि गुफ़ा का संचालन किसी सुतनुका देवदासी के हाथ में था। यह देवदासी रंगशाला की रूपदक्ष थी। देवदीन की चेष्टाओं में उलझी नारी सुलभ हृदया सुतनुका को नाट्यशाला के अधिकारियों का 'कोपभाजन' बनना पड़ा और वियोग में अपना जीवन बिताना पड़ा। रूपदक्ष देवदीन ने इस प्रेम प्रसंग को सीताबेंगरा की भित्ति पर अभिलेख के रूप में सदैव के लिए अंकित करा दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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