प्राचीन साहित्य में वाराणसी

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वेद पाठ कराते ब्राह्मण, वाराणसी
वर्ष- 1870

वाराणसी (काशी) की प्राचीनता का इतिहास वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। वैदिक साहित्य के तीनों स्तरों (संहिता, ब्राह्मण एवं उपनिषद) में वाराणसी का विवरण मिलता है।

वैदिक साहित्य[1] में कहा है कि आर्यों का एक क़ाफ़िला विदेध माथव के नेतृत्व में आधुनिक उत्तर प्रदेश के मध्य से सदानीरा अथवा गंडक के किनारे जा पहुँचा और वहाँ कोशल जनपद की नींव पड़ी। जब आर्यों ने उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया तो आर्यों की एक जाति कास्सी ने वाराणसी के समीप 1400 से 1000 ई. पू. के मध्य अपने को स्थापित किया।[2]

महाकाव्यों में वर्णित वाराणसी

महाकाव्यों में वाराणसी के संदर्भ में कई उल्लेख मिलते हैं।

महाभारत

महाभारत में वाराणसी का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। महाभारत से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वरना का ही प्राचीन नाम वाराणसी था।[3] आदिपर्व में काशिराज की पुत्री सार्वसेनी का विवाह दुष्यंत के पुत्र भरत के साथ होने का विवरण मिलता है।[4] एक अन्य स्थल पर भीष्म द्वारा काशिराज की तीन पुत्रियों- अंबा, अंबिका और अम्बालिका के स्वयंवर में जीते जाने का उल्लेख है।[5] काशी के शासक प्रतर्दन तथा मिथिला के शासक जनक के मध्य युद्ध की चर्चा भी महाभारत में मिलती है।[6]

वाल्मीकि रामायण

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वाल्मीकि रामायण में वाराणसी से संबंधित प्रकरण अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। उत्तरकांड में काशिराज पुरुरवा का नाम आया है।[7] इसी कांड में यह भी आया है कि ययाति का पुत्र पुरु प्रतिष्ठान के साथ ही वाराणसी का भी शासक था।[8] रामायण के एक अन्य स्थल पर काशी-कोशल जनपद का एक साथ उल्लेख मिलता है।[9]

पुराणों में वाराणसी

पुराणों में वाराणसी की धार्मिक समृद्धि की चर्चा है। इस नगर को शिवपुरी के नाम से संबोधित किया गया है[10] तथा इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है[11]

शिवपुराण

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शिवपुराण में वाराणसी को भारतवर्ष में स्थित प्रमुख बारह स्थानों में एक बताया गया है। मान्यता थी कि जो व्यक्ति प्रतिदिन प्रात:काल उठकर इन बारह नामों का पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है, और संपूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है।[12]

ब्रह्मपुराण

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ब्रह्मपुराण में शिव पार्वती से कहते है ‘हे सुखवल्लभे, वरुणा और असी इन दोनों नदियों के बीच में ही वाराणसी क्षेत्र है और उससे बाहर किसी को नहीं बसना चाहिए।’’[13] लोगों का ऐसा विश्वास था कि शिव के भक्तों के वाराणसी में रहने के कारण लौकिक एवं पारलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।[14] उल्लेखनीय है कि ह्वेन त्सांग ने भी यहाँ निवास करने वाले शैव समर्थकों का उल्लेख किया है, जो लंबे केशों को धारण करते थे तथा शरीर पर भस्म लगाते थे।[15]

अग्निपुराण

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अग्निपुराण में 'वरणा' और 'असी' नदियों के बीच स्थित वाराणसी का विस्तार पूर्व से पश्चिम दो योजन और दूसरी जगह आधा योजन दिया है।[16]

मत्स्यपुराण

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मत्स्यपुराण में इसकी लंबाई-चौड़ाई का स्पष्ट विवरण विस्तार[17] में मिलता है, जहाँ इसका विस्तार पूर्व से पश्चिम दो योजन तथा दक्षिण से उत्तर अर्द्धयोजन कहा गया है। यहीं इसका विस्तार वाराणसी नदी से लेकर शुक्ल नदी तक एवं भीष्मचंडी से लेकर पर्वतेश्वर तक विस्तृत था।[18]

जैन साहित्य में वाराणसी

जैन साहित्य में भी वाराणसी के संबंध में प्रचुर विवरण मिलते हैं।

पार्श्वनाथ के जन्म के अनुसार

जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म (ईसा पूर्व 8वीं शताब्दी) वाराणसी में महावीर से 250 वर्ष पूर्व हुआ था। जैन अनुश्रुति के अनुसार इनके पिता अश्वसेन बनारस के राजा थे।[19]

महाकवि अश्वघोष के अनुसार

महाकवि अश्वघोष ने बुद्धचरित में ‘वाराणसी’ और ‘काशी’ को एक ही नगर माना है।[20] एक स्थान पर उल्लेखित[21] है कि बुद्ध वणारा के पास एक वृक्ष की छाया में पहुँचे। संभवत: अश्वघोष द्वारा वर्णित वणारा आधुनिक वरुणा नदी है।

भगवतीसूत्र में उल्लेख

जैन ग्रंथ भगवतीसूत्र[22] में सोलह जनपदों की सूची में वाराणसी का भी नाम मिलता है। उस समय भारत की मुख्य राजधानियों में वाराणसी एक थी।[23] प्राचीन जैन सूत्रों में काशी और कोशल में अट्ठारह गणराज्यों का उल्लेख है। मोतीचंद्र के अनुसार यह अट्ठारह उपराज्य थे, जो काशी-कोशल के राजा प्रसेनजित के अधीन थे। जब तीर्थंकर महावीर की मृत्यु हुई थी, तब काशी और कोशल के 10 संयुक्त राजाओं ने लिच्छवियों और मल्लों के साथ प्रकाश किया था।[24]

बौद्ध साहित्य में वाराणसी

बौद्ध ग्रंथों में वाराणसी का उल्लेख काशी जनपद की राजधानी के रूप में हुआ है।[25] बुद्ध पूर्व काल में काशी एक समृद्ध एवं स्वतंत्र राज्य था। इसका साक्ष्य देते हुए स्वयं बुद्ध ने इसकी प्रशंसा की है।[26] वाराणसी को वरुणा नदी पर स्थित बतलाया गया है।[27] यह नगर विस्तृत, समृद्ध और जनाकीर्ण था। [28]महापरिनिब्बानसुत्त [29] में तत्कालीन छ: प्रसिद्ध नगरों में वाराणसी का उल्लेख किया गया है। बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि बुद्ध इस नगर में कई बार ठहरे थे।

जातकों में वर्णित वाराणसी

जातकों में वाराणसी नगर के संदर्भ में विशद विवरण मिलता है। इस नगर को सुदर्शन[30], सुरुद्धन[31], ब्रह्मवर्द्धन[32], रम्मनगर (रम्यनगर)[33] तथा मोलिनी[34] जैसे अन्य उपनामों से समीकृत किया गया है। वाराणसी के विभिन्न नामों के संबंध में यह कहना कठिन है कि ये इस नगर के अलग-अलग उपनगरों के नाम थे, अथवा पूरे वाराणसी नगर के भिन्न-भिन्न नाम थे।

चीनी यात्रियों का इतिवृत

चीनी यात्री फ़ाह्यान ने एक जनपद के रूप में काशी का उल्लेख किया है, जबकि ह्वेन त्सांग ने वाराणसी का उल्लेख किया है। फ़ाह्यान ने इस नगर के संदर्भ में संक्षिप्त विवरण दिया हे। वह स्वयं पाटलिपुत्र में 22 योजन पश्चिम चलकर वाराणसी नगर में पहुँचा था। उसने नगर के उत्तर-पूर्व 10 लीटर में ऋषियों के ‘मृग-उद्यान’ (सारनाथ) के पास विहारों को देखा था।[35] सातवीं शताब्दी के आरंभ में बनारस की धार्मिक और सामाजिक स्थिति पर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के वर्णन से पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। कुशीनगर से 500 ली (100 मील) दक्षिण-पश्चिम चलकर यह चीनी यात्री वाराणसी जनपद पहुँचा था।[36] इसके अनुसार बनारस 4000 ली (667 मील) की परिधि में विस्तृत था। नगर (राजधानी) के पश्चिमी किनारे पर गंगा नदी बहती थी। नगर 18 या 19 ली लंबा और 5 या 6 ली चौड़ा था। [37] यहाँ की आबादी घनी थी। लोग हुत धनवान थे और उनके घरों में बहुमूल्य वस्तुओं का संग्रह था। यहाँ की जलवायु सुखकर थी और फ़सलें अच्छी होती थी। यहाँ 30 संघाराम थे, जिनमें सम्मितिय निकाय के 3000 भिक्षु निवास करते थे। नगर में 100 से अधिक देवमंदिर थे जिनमें इनके धर्मों के अनुयायियों की संख्या 1000 से ऊपर थी। इनमें शैवों की संख्या अधिक थी। मुख्य राजधानी में 20 देव-मंदिर थे। इन मंदिरों में महेश्वरदेव की काँसे की बनी सौ फुट ऊँची एव मूर्ति स्थापित थी, जो अपनी सजीवता और प्रभावपूर्ण कांति से सजीव-सी प्रतीत होती थी।[38]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शतपथ ब्राह्मण, 1/4/1/10-17: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 19
  2. ई.बी.हैवेल, बनारस, दि सेक्रेड सिटी, (कलकत्ता पुनर्मुदित, 1968 ई.),पृष्ठ 2
  3. महाभारत, 6/10/30
  4. तत्रेव, आदिपर्व, अध्याय 95
  5. तत्रेव, उद्योगपर्व, 72/74
  6. तत्रैव, 12/99/1-2
  7. वाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड 56/25
  8. तत्रैव, 59/19
  9. महीकाल मही चापि शैल कानन शोभिताम्। ब्रह्ममालांविदेहाश्च मालवान काशि कोशलान्॥ वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड, 20,22
  10. ‘‘यत्र नारायणो देवो महादेवी दिवीश्वर:।’’ वायु पुराण, अध्याय 34, पंक्ति 100
  11. ‘‘अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सपैते मोक्षदायिका:।’’ पद्मपुराण, अध्याय 33, पंक्ति 102
  12. ‘‘सौराष्ट्रे सोमनाथ च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
    उज्जयिन्याँ महाकालमोकारे परमेश्वरम्॥
    केदार हिमवत्पृष्ठे डाकिन्या भीमशंकरम्।
    वाराणस्या च विश्वेशं त्रम्व्यकं गौतमीतटे॥
    वैद्यनाथ चिताभूमौ नागेशं दारुकावने।
    सेतुबंधे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये॥
    द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थान य: पठेत्।
    सर्वपापैविनिर्युक्त: सर्वसिद्धिफलं लभेत्। शिवपुराण, कोटि रुद्रसंहिता, संख्या 1/21-24
  13. मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 5
  14. ‘‘मद्भक्तास्तत्र गच्छन्ति मामेब प्रविशन्ति च’’ पद्मपुराण, अध्याय 33, पंक्ति 102
  15. वाटर्स, भाग 2, पृष्ठ 47
  16. द्वियोजन तु पर्व स्याद्योजनार्द्ध तदन्यथा। वरुणा च नदी चासी मध्ये वाराणसी तयो॥ अग्निपुराण, अध्याय 11, पृष्ठ 6
  17. मत्स्यपुराणद्वियोजनम् तु तत्क्षेत्रं पूर्वपश्चिमत: स्मृतम:।
    अर्द्धयोजन विस्तीर्ण तत्क्षेत्रं दक्षिणोत्तरम्॥
    वाराणसी तदीया च यावतछुल्कनदीतु वै॥
    भीष्मचण्डीकमारभ्य पर्वतेश्वर मत्रिके॥ मत्स्यपुराण, 183/61-62
  18. संभवत: वाराणसी नदी आधुनिक वरणा है। शुक्ल नदी गंगा है और भीष्मचंडी आधुनिक भीमचंडी है जो पंचक्रोशी के रास्ते पर पड़ता है। पर्वतेश्वर की निश्चित जानकारी नहीं हो पाई है लेकिन यह संभवत: राजघाट के आसपास कहीं रहा होगा।
  19. कल्पसूत्र, 6/149-169: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृष्ठ 38
  20. वाराणसी प्रविश्याथ भासा संभासयन्जिन:। चकार काशिदेशीयान् कौतुकाक्रांतचेतस:। बुद्धचरित, 15/101
  21. हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक ऑफ़ दि ईस्ट, जिल्द 49, भाग 1, पृष्ठ 169
  22. भगवती सूत्र, पृष्ठ 15
  23. स्थानांगसूत्र 10, 717 निशीरथ सूत्र 9, 19
  24. हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक ऑफ़ दि ईस्ट, जिल्द 22, पृष्ठ 266 और 271
  25. सुमंगलविलासिनी, जिल्द 2, पृष्ठ 383
  26. ‘‘भूतपुब्बं भिक्खवे ब्रह्मदत्ते नाम काशिराजा अहोसि अड्ढो महद्धनो महब्बलो, महाबाहनो, महाविजितो, परिपुण्णकोसकोट्ठामारो।’’
    महाबग्गो (विनयपिटक), दुतियो भागो, पृष्ठ 262
  27. महावस्तु, भाग 3, पृष्ठ 402
  28. दिव्यावदान, पृष्ठ 73 : देखें, विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल
  29. दीघनिकाय, भाग। (सलक्खंधसुत्त), पृष्ठ 84 (हिन्दी
  30. जातक, (भदंत आनंद कौसल्यायन संस्करण), जिल्द पाँचवीं, पृष्ठ 177 (सुतसोम जातक
  31. 111- तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 104 (उदय जातक
  32. 112- तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 119 (सोणदंड जातक
  33. तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 119 (युवंजय जातक
  34. तत्रैव, जिल्द चौथी, पृष्ठ 15 (शंख जातक
  35. जेम्स लेग्गे, दि ट्रेवेल्स ऑफ़ फ़ाह्यान् (ओरियंटल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1972 ई.) पृष्ठ 94-96
  36. थामस वार्ट्स, आन युवॉन च्वांग्स ट्रेवेल्स इन इंडिया, (लंदन, रायल एशियाटिक सोसायटी, 1905 ई.), भाग 2, पृष्ठ 46
  37. ए. कनिंघम, दि ऐंश्येंट् ज्योग्राफी ऑफ़ इंडिया (इंडोलाजिकल बुक हाउस, वाराणसी, 1963), पृष्ठ 367
  38. यात्रा विवरण के मूल को इकट्ठा करने वाले फाङ्चि का कहना है कि इस देव मंदिर में 100 फीट ऊंचे शिवलिंग की पूजा की जाती थी।

बाहरी कड़ियाँ

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