वल्लभाचार्य

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वल्लभाचार्य
वल्लभाचार्य
पूरा नाम वल्लभाचार्य
जन्म संवत 1530
मृत्यु संवत 1588
संतान दो पुत्र- गोपीनाथविट्ठलनाथ
कर्म भूमि ब्रज
प्रसिद्धि पुष्टिमार्ग के प्रणेता
विशेष योगदान शुद्धाद्वैत के संदर्भ में वल्लभाचार्य द्वारा भागवत पर रचित सुबोधिनी टीका का महत्त्व बहुत अधिक है।
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख अद्वैतवाद, वल्लभ सम्प्रदाय, ब्रह्मसूत्र
अन्य जानकारी वल्लभाचार्य ने दार्शनिक समस्याओं के समाधान में अनुमान को अनुपयुक्त मानकर शब्द प्रमाण को वरीयता दी है।

वल्लभाचार्य (जन्म: संवत 1530[1] - मृत्यु: संवत 1588[2])[3] भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तंभ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता माने जाते हैं। जिनका प्रादुर्भाव ईः सन् 1479, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ। उन्हें 'वैश्वानरावतार अग्नि का अवतार' कहा गया है। वे वेद शास्त्र में पारंगत थे। श्री रुद्रसंप्रदाय के श्री विल्वमंगलाचार्य जी द्वारा इन्हें 'अष्टादशाक्षर गोपाल मन्त्र' की दीक्षा दी गई। त्रिदंड सन्न्यास की दीक्षा स्वामी नारायणेन्द्र तीर्थ से प्राप्त हुई। विवाह पंडित श्रीदेव भट्ट जी की कन्या महालक्ष्मी से हुआ, और यथासमय दो पुत्र हुए- श्री गोपीनाथविट्ठलनाथ

जीवन परिचय

श्री वल्लभाचार्य जी विष्णुस्वामी संप्रदाय की परंपरा में एक स्वतंत्र भक्ति-पंथ के प्रतिष्ठाता, शुद्धाद्वैत दार्शनिक सिद्धांत के समर्थक प्रचारक और भगवत-अनुग्रह प्रधान एवं भक्ति-सेवा समन्वित 'पुष्टि मार्ग' के प्रवर्त्तक थे। वे जिस काल में उत्पन्न हुए थे, वह राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक सभी दृष्टियों से बड़े संकट का था

पूर्वज और माता-पिता

श्री वल्लभाचार्य जी के पूर्वज आंध्र राज्य में गोदावरी तटवर्ती कांकरवाड़ नामक स्थान के निवासी थे। वे भारद्धाज गोत्रीय तैलंग ब्राह्मण थे उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट दीक्षित प्रकांड विद्वान और धार्मिक महापुरुष थे। उनका विवाह विद्यानगर (विजयनगर) के राजपुरोहित सुशर्मा की गुणवती कन्या इल्लम्मगारू के साथ हुआ था; जिससे रामकृष्ण नामक पुत्र और सरस्वती एवं सुभद्रा नाम की दो कन्याओं की उत्पत्ति हुई थी।

जन्म

श्री लक्ष्मण भट्ट अपने संगी-साथियों के साथ यात्रा के कष्टों को सहन करते हुए जब वर्तमान मध्य प्रदेश में रायपुर ज़िले के चंपारण्य नामक वन में होकर जा रहे थे, तब उनकी पत्नी को अकस्मात प्रसव-पीड़ा होने लगी। सांयकाल का समय था। सब लोग पास के चौड़ा नगर में रात्रि को विश्राम करना चाहते थे; किन्तु इल्लमा जी वहाँ तक पहुँचने में भी असमर्थ थीं। निदान लक्ष्मण भट्ट अपनी पत्नी सहित उस निर्जंन वन में रह गये और उनके साथी आगे बढ़ कर चौड़ा नगर में पहुँच गये। उसी रात्रि को इल्लम्मागारू ने उस निर्जन वन के एक विशाल शमी वृक्ष के नीचे अठमासे शिशु को जन्म दिया। बालक पैदा होते ही निष्चेष्ट और संज्ञाहीन सा ज्ञात हुआ, इसलिए इल्लम्मागारू ने अपने पति को सूचित किया कि मृत बालक उत्पन्न हुआ है। रात्रि के अंधकार में लक्ष्मण भट्ट भी शिशु की ठीक तरह से परीक्षा नहीं कर सके। उन्होंने दैवेच्छा पर संतोष मानते हुए बालक को वस्त्र में लपेट कर शमी वृक्ष के नीचे एक गड़ढे में रख दिया और उसे सूखे पत्तों से ढक दिया। तदुपरांत उसे वहीं छोड़ कर आप अपनी पत्नी सहित चौड़ा नगर में जाकर रात्रि में विश्राम करने लगे।

दूसरे दिन प्रात:काल आगत यात्रियों ने बतलाया कि काशी पर यवनों की चढ़ाई का संकट दूर हो गया। उस समाचार को सुन कर उनके कुछ साथी काशी वापिस जाने का विचार करने लगे और शेष दक्षिण की ओर जाने लगे। लक्ष्मण भट्ट काशी जाने वाले दल के साथ हो लिये। जब वे गत रात्रि के स्थान पर पहुंचे, तो वहाँ पर उन्होंने अपने पुत्र को जीवित अवस्था में पाया। ऐसा कहा जाता है उस गड़ढे के चहुँ ओर प्रज्जवलित अग्नि का एक मंडल सा बना हुआ था और उसके बीच में वह नवजात बालक खेल रहा था। उस अद्भुत दृश्य को देख कर दम्पति को बड़ा आश्चर्य और हर्ष हुआ। इल्लम्मा जी ने तत्काल शिशु को अपनी गोद में उठा लिया और स्नेह से स्तनपान कराया। उसी निर्जन वन में बालक के जातकर्म और नामकरण के संस्कार किये गये। बालक का नाम 'वल्लभ' रखा गया, जो बड़ा होने पर सुप्रसिद्ध महाप्रभु वल्लभाचार्य हुआ। उन्हें अग्निकुण्ड से उत्पन्न और भगवान की मुखाग्नि स्वरूप 'वैश्वानर का अवतार' माना जाता है।

आरंभिक जीवन

वल्लभाचार्य जी का आरंभिक जीवन काशी में व्यतीत हुआ था, जहाँ उनकी शिक्षा-दीक्षा तथा उनके अध्ययनादि की समुचित व्यवस्था की गई थी। उनके पिता श्री लक्ष्मण भट्ट ने उन्हें गोपाल मन्त्र की दीक्षा दी थी और श्री माधवेन्द्र पुरी के अतिरिक्त सर्वश्री विष्णुचित तिरूमल और गुरुनारायण दीक्षित के नाम भी मिलते हैं। वे आरंभ से ही अत्यंत कुशाग्र बुद्धि और अद्भुत प्रतिभाशाली थे। उन्होंने छोटी आयु में ही वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, काव्यादि में तथा विविध धार्मिक ग्रंथों में अभूतपूर्व निपुणता प्राप्त की थी। वे वैष्णव धर्म के अतिरिक्त जैन, बौद्ध, शैव, शाक्त, शांकर आदि धर्म-संप्रदायों के अद्वितीय विद्वान थे। उन्होंने अपने ज्ञान और पांडित्य के कारण काशी के विद्वत समाज में आदरणीय स्थान प्राप्त किया था।

कुटुम्ब-परिवार

उनका कुटुम्ब परिवार काफ़ी बड़ा और समृद्ध था, जिसके अधिकांश व्यक्ति दक्षिण के आंध्र प्रदेश में निवास करते थे। उनकी दो बहिनें और तीन भाई थे। बड़े भाई का नाम रामकृष्ण भट्ट था। वे माधवेन्द्र पुरी के शिष्य और दक्षिण के किसी मठ के अधिपति थे। उन्होंने तपस्या द्वारा बड़ी सिद्धि प्राप्त की थी। संवत 1568 में वे वल्लभाचार्य जी के साथ बदरीनाथ धाम की यात्रा को गये थे। अपने उत्तर जीवन में वे संन्यासी हो गये थे। उनकी सन्न्यासावस्था का नाम केशवपुरी था। वल्लभाचार्य जी के छोटे भाई रामचन्द्र और विश्वनाथ थे। रामचंद्र भट्ट बड़े विद्वान और अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे। उनके एक पितृव्य ने उन्हें गोद ले लिया था और वे अपने पालक पिता के साथ अयोध्या में निवास करते थे। उन्होंने अनेक ग्रंथो की रचना की थी, जिनमें 'श्रृंगार रोमावली शतक' (रचना-काल संवत 1574), 'कृपा-कुतूहल', 'गोपाल लीला' महाकाव्य और 'श्रृंगार वेदान्त' के नाम मिलते हैं।

वल्लभाचार्य जी का अध्ययन सं. 1545 में समाप्त हो गया था। तब उनके माता-पिता उन्हें लेकर तीर्थ यात्रा को चले गये थे। वे काशी से चल कर विविध तीर्थों की यात्रा करते हुए जगदीश पुरी गये और वहाँ से दक्षिण चले गये। दक्षिण के श्री वेंकटेश्वर बाला जी में संवत 1546 की चैत्र कृष्ण 9 को उनका देहावसान हुआ था। उस समय वल्लभाचार्य जी की आयु केवल 11-12 वर्ष की थी, किन्तु तब तक वे प्रकांड विद्वान और अद्वितीय धर्म-वेत्ता के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। उन्होंने काशी और जगदीश पुरी में अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी। वल्लभाचार्य जी के दो पुत्र हुए थे। बड़े पुत्र गोपीनाथ जी का जन्म संवत 1568 की आश्विन कृष्ण द्वादशी को अड़ैल में और छोटे पुत्र विट्ठलनाथ जी का जन्म संवत 1572 की पौष कृष्ण 9 को चरणाट में हुआ था। दोनों पुत्र अपने पिता के समान विद्वान और धर्मनिष्ठ थे।

अद्वैतवाद

अद्वैत वेदान्त की प्रतिक्रियास्वरूप ही वेदान्त के अन्य सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ। रामानुज, निम्बार्क, मध्व और वल्लभ ने ज्ञान के स्थान पर भक्ति को अधिक प्रश्रय देकर वेदान्त को जनसामान्य की पहुँच के योग्य बनाने का प्रयास किया। उपनिषद, गीता और ब्रह्मसूत्र के विश्लेषण पर ही शंकर के अद्वैतवाद का भवन खड़ा हुआ था। इसी कारण अन्य आचार्यों ने भी प्रस्थानत्रयी के साथ साथ भागवत को भी अपने मत का आधार बनाया। यद्यपि वल्लभाचार्य ने वेद, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र तथा श्रीमद्भागवत की व्याख्याओं के माध्यम से अपने मत का उपस्थान किया, किन्तु उनका यह भी विचार रहा है कि उपर्युक्त स्रोत ग्रन्थों में से उत्तरोत्तर का प्रामाण्य अधिक है। इस प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि शुद्धाद्वैत के संदर्भ में वल्लभाचार्य द्वारा भागवत पर रचित सुबोधिनी टीका का महत्त्व बहुत अधिक है। दर्शन में भक्ति का पुट श्रीमद्भागवत से अधिक शायद ही किसी अन्य ग्रन्थ में उपलब्ध होता हो। अत: वल्लभाचार्य के लिए यह स्वाभाविक ही था कि वह श्रीमद्भागवत को अधिक महत्त्व देते।[3]

वल्लभाचार्य के प्रमुख ग्रंथ

  • ब्रह्मसूत्र का 'अणु भाष्य' और वृहद भाष्य'
  • भागवत की 'सुबोधिनी' टीका
  • भागवत तत्वदीप निबंध
  • पूर्व मीमांसा भाष्य
  • गायत्री भाष्य
  • पत्रावलंवन
  • पुरुषोत्तम सहस्त्रनाम
  • दशमस्कंध अनुक्रमणिका
  • त्रिविध नामावली
  • शिक्षा श्लोक
  • 11 से 26 षोडस ग्रंथ, (1.यमुनाष्टक,2.बाल बोध,3.सिद्धांत मुक्तावली,4.पुष्टि प्रवाह मर्यादा भेद, 5.सिद्धान्त 6.नवरत्न, 7.अंत:करण प्रबोध, 8. विवेकधैयश्रिय, 9.कृष्णाश्रय, 10.चतुश्लोकी, 11.भक्तिवर्धिनी, 12.जलभेद, 13.पंचपद्य, 14.संन्सास निर्णय, 15.निरोध लक्षण 16.सेवाफल)
  • भगवत्पीठिका
  • न्यायादेश
  • सेवा फल विवरण
  • प्रेमामृत तथा
  • विविध अष्टक (1.मधुराष्टक, 2.परिवृढ़ाष्टक, 3. नंदकुमार अष्टक, 4.श्री कृष्णाष्टक, 5. गोपीजनबल्लभाष्टक आदि।)

अणुभाष्य

ब्रह्मसूत्र पर वल्लभाचार्य ने अणुभाष्य लिखा। अणु शब्द का प्रयोग आचार्य ने क्यों किया। ऐसी मान्यता है कि वल्लभाचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर दो भाष्य लिखे थे, एक बृहदभाष्य (या भाष्य) और दूसरा अणु (छोटा) भाष्य। ऐसा प्रतीत होता है कि बृहदभाष्य अब उपलब्ध नहीं होता, किन्तु अणुभाष्य उसी का लघु संस्करण है। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि श्रीमद्भागवत पर भी वल्लभाचार्य ने एक बृहद टीका (सुबोधिनी) लिखी और एक लघु टीका (सूक्ष्म टीका, जो कि अब उपलब्ध नहीं होती)। एक ही ग्रन्थ की टीकाओं के एकाधिक संस्करण अन्य आचार्यों ने भी लिखे हैं। उदाहरणतया मध्वाचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर ही चार टीकाएं लिखी थीं-

  1. भाष्य
  2. अणुभाष्य (अथवा अनुव्याख्यान)
  3. अनुव्याख्यान विवरण
  4. अणुव्याख्यान।

ये चारों ही संस्करण उपलब्ध हैं। अत: मध्वाचार्य का अनुकरण करके वल्लभाचार्य ने भी ब्रह्मसूत्र के भाष्य के दो संस्करण (एक बढ़ा और एक सूक्ष्म) लिखे हों तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। वल्लभाचार्य ने दार्शनिक समस्याओं के समाधान में अनुमान को अनुपयुक्त मानकर शब्द प्रमाण को वरीयता दी है। उनके मतानुसार ब्रह्म माया से अलिपत होने के कारण नितान्त शुद्ध है। वह सत्, चित्, आनन्द रस से युक्त है। ब्रह्म अपनी संधिनी शक्ति के सत् का, संचित् शक्ति द्वारा चित् का, और ह्लादिनी शक्ति द्वारा आनन्द का आवर्भाव करता है। वह पूर्ण पुरुषोत्तम शाश्वत तथा सर्वव्यापक होने के साथ साथ कर्ता और भोक्ता दोनों है। जगत् को वह अपने में से आविर्भूत करता है। और इस प्रकार वह जगत् का निमित्तकरण तथा उपादान कारण भी है। वह अविकृत परिणामवाद के अनुसार अपने को जगत् के रूप में आविर्भूत करता है, अत: उसके मूल स्वरूप में कोई परिवर्तन या विकार नहीं आता है।[3]

ब्रह्म के तीन रूप

सृष्टि क्रम के संदर्भ में वल्लभाचार्य ने ब्रह्म के तीन रूप बताए हैं-

  1. आधिभौतिक-पर ब्रह्म
  2. आध्यात्मिक-अक्षर ब्रह्म
  3. आधिभौतिक-जगत् ब्रह्म।

ब्रह्म रमण करने की इच्छा से जीव और जड़ का आविर्भाव करता है। इस व्यापार में उसकी क्रीड़ा करने की इच्छा का ही प्राधान्य है, न कि माया का। जिस प्रकार एक ही सर्प कुण्डल आदि बनाकर अनेक रूपों में दिखाई पड़ता है, किन्तु सर्प और उसके कुण्डलादि रूप अभिन्न हैं, उसी प्रकार ब्रह्म अनेक रूपों में स्फुरित होते हुए भी शुद्ध अद्वैत रूप ही है।

ब्रह्म का दूसरा रूप अक्षर ब्रह्म है। वह भी सत्, चित् तथा आनन्दमय है, किन्तु परब्रह्म में आनन्द असीमित मात्रा में है, जबकि अक्षर ब्रह्म में वह सीमित होता है। यह अक्षर ब्रह्म ही अवतार के रूप में आविर्भूत होता है। अक्षर ब्रह्म एक प्रकार से आधिवैदिक परब्रह्म का आध्यात्मिक (कायिक) रूप है। कहीं कहीं अक्षर ब्रह्म को परब्रह्म का पुच्छ भी कहा गया है। अक्षर ब्रह्म के अतिरिक्त काल, कर्म और स्वभाव भी परब्रह्म के ही रूपान्तर हैं। सृष्टि के आरम्भ में, अक्षर ब्रह्म प्रकृति और पुरुष के रूप में आविर्भूत होता है। प्रकृति ही विभिन्न सोपानों में परिणत होती हुई जगत् का सृजन करती है। इसलिए प्रकृति को कारणों का कारण कहा जाता है। काल, कर्म और स्वभाव इस सृष्टि प्रक्रिया में अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं। यद्यपि अक्षर, काल, कर्म और स्वभाव सृष्टि से पूर्व विद्यमान रहते हैं, किन्तु इनकी गिनती उन 28 तत्वों में नहीं की जाती, जिनका उल्लेख तत्वार्थदीप में इस प्रकार किया गया है- सत्व, रजस्, पुरुष, प्रकृति, महत्, अहंकार, पंचतन्मात्र, पंचमहाभूत, पंचकर्मेन्द्रियां, पंचज्ञानेन्द्रियां तथा मनस्। यह ज्ञातव्य है कि नाम साम्य होने पर भी तत्वार्थदीप में गिनाए गए तत्व सांख्य के तत्वों से भिन्न हैं।[3]

जीव ब्रह्म

वल्लभाचार्य के अनुसार जीव ब्रह्म ही है। यह भगवत्स्वरूप ही है, किन्तु उनका आनन्दांश-आवृत रहता है। जीव ब्रह्म से अभिन्न है, जब परब्रह्म की यह इच्छा हुई कि वह एक से अनेक हो जाये तो अक्षर ब्रह्म हज़ारों की संख्या में लाखों जीव उसी तरह से उद्भूत हुए, जैसे कि आग में से हज़ारों स्फुलिंग निकलते हैं। कुछ विशेष जीव अक्षर ब्रह्म की अपेक्षा सीधे ही परब्रह्म से आविर्भूत होते हैं। जीव का व्युच्चरण होता है उत्पत्ति नहीं। जीव इस प्रकार ब्रह्म का अंश है और नित्य है। लीला के लिए जीव में से आनन्द का अंश निकल जाता है, जिससे की जीव बंधन और अज्ञान में पड़ जाता है। जीव का जन्म और विनाश नहीं होता, शरीर की उत्पत्ति और नाश होता है। शंकर जीवात्मा को ज्ञानस्वरूप मानते हैं। वल्लभाचार्य के अनुसार वह ज्ञाता है। जीव अणु है किन्तु वह सर्वव्यापक और सर्वज्ञ नहीं है, चैतन्य के कारण वह भोग करता है। लीला के उद्देश्य से जगत् में वैविध्य लाने के लिए जीवों की तीन कोटियां बताई गई हैं-

  1. शुद्ध, जिस जीव में आनन्दांश का तिरोभाव रहता है, पर अविद्या से जिसका सम्बन्ध नहीं रहता, वह शुद्ध कहलाता है।
  2. संचारी, जब जीव का अविद्या से सम्बन्ध हो जाता है और वह जन्मादि क्रियाओं के बन्धन का विषय हो जाता है तो वह संचारी कहलाता है, संचारी जीव भी देव और आसुरभेद दो प्रकार के होते हैं।
  3. मुक्त, जो जीव ईश्वर के अनुग्रह से सच्चिदानंद रूप का प्राप्त करते हैं और ईश्वरमय हो जाते हैं, वे मुक्त कहलाते हैं।

पति रूप या स्वामी रूप में श्रीकृष्ण की सेवा करना जीव का धर्म है। जीवों का जीवत्व, ईश्वर की आविर्भाव एवं तिरोभाव क्रियाओं का परिणाम है। इन क्रियाओं के द्वारा ही ईश्वर की कुछ शक्तियां एवं गुण जीव में तिरोभूत और कुछ आविर्भूत हो जाते हैं। वल्लभाचार्य के मतानुसार जगत् नित्य है। वह ब्रह्म का आधिभौतिक रूप है। उसमें सत् तो विद्यमान है, किन्तु चित् और आनंद प्रच्छन्न या अदृश्य रहते हैं। जगत् ब्रह्म की आविर्भाव दशा है। अत: कारणरूप ब्रह्म और कार्य रूप जगत् में कोई भेद नहीं है। वल्लभाचार्य के अनुसार जगत् ब्रह्मरूप ही है। कार्यरूप जगत् कारणरूप ब्रह्म से आविर्भूत हुआ है। सृष्टि ब्रह्म की आत्मकृति है। ब्रह्म से जगत् आविर्भूत हुआ, फिर भी ब्रह्म में कोई विकृति नहीं आती। यही अविकृत परिणामवाद है। जगत् की न तो उत्पत्ति होती है और न ही विनाश। उसका आविर्भाव-तिरोभाव होता है।

आविर्भाव का आशय

आविर्भाव का आशय है- अनुभव का विषय बनाना और तिरोभाव का अर्थ है- अनुभव का विषय न बनना।

उपादानस्य कार्य या व्यवहारणोचरं करोति, साशक्तिराविर्भांविका, तिरोभावश्च तदयोग्यत्वम्[4]

जगत् और संसार

वल्लभाचार्य के मतानुसार जगत् और संसार में अंतर है। जगत् उसे कहते हैं, जो ईश्वर की इच्छा व विलास से आविर्भूत हो। इसके विपरीत, जीव अविद्या के प्रभाव से कल्पना तथा ममता द्वारा अर्थात् अविद्या के स्वरूपज्ञान, देहध्यास, इन्द्रियाध्यास, प्राणाध्यास तथा अंत:करणाध्यास- इन 'पर्वी' द्वारा जीवों की बुद्धि में जो द्वैतमूलक भ्रम उत्पन्न होता है, उससे जिस पदार्थ वर्ग की सृष्टि करता है वह संसार कहलाता है। ज्ञान होने पर संसार का नाश हो जाता है, किन्तु जगत् ब्रह्मरूप होने के कारण नष्ट नहीं होता। शुद्धाद्वैतवाद के अनुसार जगत् ब्रह्म और जीव के समान नित्य है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो विश्व दो प्रकार का होता है, एक पृथ्वी, सूर्य, चंद्र आदि से बना हुआ जड़ जगत्, जिसमें चेतन जीव रहते हैं और दूसरा जीवों के ममत्व से उत्पन्न हुआ संसार। ब्रह्म जगत् का निमित्त कारण शरीर और उपादान कारण दोनों है। ब्रह्म को समवायिकारण भी कहा गया है, क्योंकि वह सत्, चित् और आनंद रूप में सर्वव्यापक है।

मोक्ष और माया

अद्वैतवाद में माया को उपादान कारण माना गया है। वल्लभाचार्य ने माया के दो भेद बताये हैं- अविद्या माया और विद्या माया। अविद्या माया जीव में भ्रान्ति उत्पन्न करती है, जिससे कि वह अपने चित् रूप को भूल जाता है। विद्या माया अज्ञान नाशिनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के संदर्भ में प्राय: तीन मार्गों का उल्लेख किया जाता है- कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग और भक्तिमार्ग। वेदान्त के विभिन्न सम्प्रदायों में इनके सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद रहा है। शुद्ध द्वैतवाद के अनुसार अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, पशुयाग, चातुर्मास्य और सोमयाग करने से मोक्ष प्राप्त होता है। किन्तु ऐसा मोक्ष देवयान मार्ग का अनुसरण करके ही प्राप्त होता है। जो व्यक्ति ज्ञान मार्ग का अनुसरण करता है यानी यह ज्ञान प्राप्त कर लेता है कि जगत् में जो कुछ है, वह सब ब्रह्म ही है, वह अक्षर ब्रह्म में विलीन होता है, न कि परब्रह्म में, क्योंकि ज्ञानमार्गी की सीमा अक्षर ब्रह्म तक ही है। ज्ञानमार्गी अक्षर ब्रह्म का ही अंतिम सत्ता समझता है। हाँ, यदि ब्रह्मज्ञान में भक्ति का सामंजस्य हो जाये तो व्यक्ति परब्रह्म में लीन हो सकता है। इससे भी उत्तम स्थिति वह है, जिसमें परब्रह्म अपनी ही इच्छा से किसी जीव का अपने अंदर से आविर्भाव करके उसके साथ स्वयं नित्यलीला करता है। यही भजनानंद या स्वरूपानंद की स्थिति है। शंकर ने मतानुसार जीव ब्रह्मक्य रूप मुक्ति का प्रतिपादन किया था, किन्तु वल्लभाचार्य के मतानुसार भगवद माहात्म्यज्ञानपूर्विका भक्ति ही मुक्ति का कारण है। यद्यपि भक्ति मुक्ति का साधन, परन्तु उसका महत्त्व मुक्ति से भी अधिक है। वल्लभाचार्य के शुद्धाद्वैतवाद को स्पष्ट रूप से समझने के लिए यह भी आवश्यक है कि वेदान्त के अन्य सम्प्रदायों और विशेष रूप से शंकर के सिद्धांतों के परिप्रेक्ष्य में उसकी सरसरी समीक्षा कर ली जाये।

शुद्धाद्वैतवाद का तुलनात्मक विश्लेषण

वल्लभाचार्य का दार्शनिक सिद्धांत शुद्धाद्वैत नाम से प्रचलित हुआ। शंकराचार्य ने अद्वैतवाद का प्रवर्तन करते हुए यह कहा था कि ब्रह्म और जीव में पारमार्थिक अमेद है। मध्वाचार्य ने शंकर के अद्वैतवाद के एकदम विपरीत द्वैतवाद की स्थापना की और यह प्रतिपादित किया कि ब्रह्म, जीव एवं जड़ जगत् में पारमार्थिक अमेद है। इन परस्पर विरोधी मतों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास करते हुए रामानुजचार्य ने विशिष्टाद्वैतवाद का प्रवर्तन किया, जिसके अनुसार ब्रह्म, जीव एवं जगत् की पृथक् सत्ता तो है और तीनों नित्य भी हैं, किन्तु जीव और जगत् ब्रह्म के विशेषण हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि शंकर के अनुसार जीव एकदम भिन्न सत्तायें हैं, जबकि रामानुज के अनुसार जीव की पृथक् सत्ता तो है, किन्तु वह ब्रह्म का एक प्रकार (विशेषण) है। उनमें अंशाशिभाव है। निम्बार्क के द्वैताद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म, जीव और जगत् में आश्रयाश्रयिभाव सम्बन्ध है। ईश्वर आश्रय है और जीव तथा जगत् की सत्ता आश्रय रूप ईश्वर के बिना संभव नहीं है। अत: ईश्वर, जीव और जगत् में भेद भी है और अभेद भी। वल्लभाचार्य के अनुसार जगत में ब्रह्म की आविर्भाव दशा है। जीव अणु है और ईश्वर का अंश है (अग्नि और स्फुलिंग के समान) जीव सर्वव्यापक है, किन्तु सर्वज्ञ नहीं है, फिर भी जीव और ब्रह्म में अभिन्नत्व है। जीव के समान जगत भी ईश्वर का ही रूप है। अत: वह भी ईश्वर से अभिन्न है। वल्लभ ने माया के सम्बन्ध में अलिप्त होने के कारण ब्रह्म को शुद्ध कहा है। अत: उनका सिद्धांत शुद्धाद्वैतवाद के रूप में प्रचलित हुआ है। शुद्धाद्वैत पर का विग्रह दो प्रकार से किया जा सकता है- (क) शुद्धं चेदम् अद्वैतं च (कर्मधारय) (ख) शुद्धयो: अद्वैतम् (षष्ठी तत्पुरुष)।

वल्लभाचार्य द्वारा प्रवर्तित शुद्धाद्वैत वेदान्त में ब्रह्म, जीव, जगत्, आदि का स्वरूप निम्नलिखित रूप से बतलाया गया है-

माया सम्बन्धरहितं शुद्धमित्युच्यते बुधे:।
कार्यकारणरूपं हि शुद्धं न मायिकम्।।[5]

शुद्धाद्वैतपदे ज्ञेय: कर्मधारय:।
श्रद्वैतं शुद्धयो: प्राहु: षष्ठीतत्पुरुषं बुधा:।[6]

शंकराचार्य और वल्लभाचार्य

शंकराचार्य और वल्लभाचार्य दोनों ने अद्वैतवाद का प्रतिपादन किया है। शंकर ने सजातीय-विजातीय भेद रहित अद्वैत एकरस ब्रह्म को ही परमतत्व कहा है। और वल्लभाचार्य का भी यह कथन है कि ब्रह्म माया सम्बन्ध से रहित होने के कारण शुद्ध है। शंकर ने जल में प्रतिबिम्बित सूर्य के दृष्टांत से जीव को ब्रह्म का प्रतिबिम्ब माना है। उसी प्रकार वल्लभ ने जल में प्रतिबिम्बित चंद्र के दृष्टांत से यह प्रतिपादित किया है कि देहादि का जन्म, बंध, दु:खादि रूप धर्म जीव का ही है, ईश्वर का नहीं। [7] शंकर केवल द्वैतवादी हैं, जबकि वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैतवादी। शंकर के अनुसार ब्रह्म ही परमार्थ सत्य है। जगत् की व्यावहारिक सत्ता होने पर भी उसकी पारमार्थिक सत्ता नहीं है। मायिक होने के कारण वह मिथ्या है। शंकर वेदान्त में मायाशक्ति अविद्यात्मिका एवं मिथ्या है, जबकि शुद्धाद्वैत वेदान्त में माया को ही पारमार्थिक सत्य माना गया है। शंकर के अनुसार माया का मिथ्यात्व उसकी अनिर्वचनीयता पर आधारित है (शंकर ने मायिक जगत को मिथ्या माना है), जबकि वल्लभाचार्य के अनुसार कार्यरूप जगत् ब्रह्म की ही आविर्भाव दशा होने के कारण सत्य है। शंकर ने ब्रह्म को जगत् का निमित्त कारण और माया को उपादान कारण माना है। दूसरे शब्दों में, शंकर के मतानुसार मायाशक्ति के कारण ब्रह्म जगत् का निमित्तकारण और उपादान कारण भी है, जबकि वल्लभ ब्रह्म को जगत् का समवायिकारण मानते हैं, क्योंकि जीव और जगत् को उन्होंने ब्रह्म का कार्यरूप माना है। शंकर ब्रह्म को अधिष्ठान और जगत् को अध्यारोप का फल जताते हैं। वे जगत् को ब्रह्म का विवर्त कहते हैं, जबकि वल्लभ इस संदर्भ में अविकृत परिणामवाद को स्वीकार करते हैं।

वल्लभ के अनुसार जीव और ब्रह्म में अंशांशिभाव है, जबकि शंकर के अनुसार जीव स्वरूपत: ब्रह्म ही है। शंकर यह मानते हैं कि जीव की सत्ता अविद्योपाधिक होने के कारण मिथ्या है, परन्तु वल्लभ जीव को भी मिथ्या नहीं, अपितु सत्य मानते हैं। शंकर का मत है कि ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिल सकती, यानी जब तक जीव को स्वरूप ज्ञान (अहं ब्रह्मास्मि, यह ज्ञान) नहीं होता, तब तक मोक्ष नहीं मिल सकता, जबकि वल्लभ का यह विचार है कि भक्ति से ही मुक्ति मिल सकती है, ज्ञान से नहीं। वल्लभाचार्य का सिद्धांतपक्ष शुद्धाद्वैत और आचार पक्ष पुष्टिमार्ग के नाम से विख्यात है। यह पुष्टिमार्ग सेवामार्ग भी कहलाता है। सेवामार्ग के दो भाग हैं- नामसेवा और रूपसेवा। रूपसेवा के भी तीन प्रकार हैं- तनुजा, वित्तजा और मानसी। मानसी सेवा के दो मार्ग हैं- मर्यादा मार्ग और पुष्टिमार्ग।

वल्लभ के अनुसार संसारी जीव ममत्व और माया के वशीभूत होकर ब्रह्म से विच्छिन्न होता है। पतिरूप या स्वामी रूप से ब्रह्म (श्रीकृष्ण) की सेवा करना उसका धर्म है। ब्रह्म रमण करने की इच्छा से जीव और जड़ का आविर्भाव करता है। ब्रह्म निर्गुण और सगुण दोनों है, अत: श्रीकृष्ण कहलाता है। अग्नि के स्फुलिंगों की भांति जीव अनेक हैं। व्यामोहिका माया से बद्ध संसारी जीव जब भक्ति से अपने मूल स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, तब मुक्त कहलाते हैं। वल्लभ कहते हैं कि अविद्या का सम्बन्ध होने से संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं- दैव और आसुर। दैव जीव के भी दो भेद हैं-मर्यादा मार्गीय और पुष्टि मार्गीय।

भागवत के कथन 'पोषणं तदनुग्रह:' के अनुसार इस मार्ग का साधक भगवान के अनुग्रह से पोषित होता है। अनुग्रह के सम्बन्ध में मुंडोकपनिषद में भी उल्लेख मिलता है। आचार्य वल्लभ ने अणुभाष्य में स्वयं भी यह लिखा है कि-

'मर्यादा मार्ग में ज्ञान आदि से मुक्ति मिलती है, पर पुष्टिमार्ग में ईश्वर की कृपा या अनुग्रह से ही। यानी मनुष्य का निजी उद्योग नहीं बल्कि भगवदानुग्रह ही मुक्ति का साधन है।' अन्य सभी भक्तिसम्प्रदाय मर्यादा-मार्गी हैं। मुक्ति के सम्बन्ध में वल्लभाचार्य लिखते हैं कि-

'मुक्तिस्तु भक्त्या इति भाव:। तथा तत्र निरुपधिप्रीतिरेव मुख्या नानयत्।'

पुष्टिमार्ग

पुष्टिमार्ग के अनुसार पुष्टि चार प्रकार की होती है- (1) प्रवाह पुष्टि- इसमें सांसारिक कार्यों के साथ ही साधक भगवान की प्राप्ति में प्रयत्नशील रहता है।
(2) मर्यादापुष्टि- इसमें विषय भागों से संयम करके श्रवण कीर्तनादि में अग्रसर होता है।
(3) पुष्टि भक्ति- इसमें अनुग्रह प्राप्त साधक भक्ति के साथ ज्ञान की प्राप्ति में भी संलग्न रहता है।
(4) शुद्ध पुष्टि- इसमें भक्त भगवान के प्रेम में निमग्न हो जाता है।
वल्लभ के अनुसार भक्ति की तीन भूमियां होती हैं-

  1. प्रवृत्ति (प्रेम),
  2. आसक्ति
  3. व्यसन।

वल्लभ ने भक्ति पथ के तीन सौपान माने हैं- (क) गुरु सेवा- यथा श्वेताश्वतर उपनिषद में कहा गया है-'यस्य देवे पराभक्ति: यथा देवे तथा गुरी'। गरुड़ पुराण में भी यह उल्लेख है कि 'स्मुक्तिहा गुरुवागेका विद्या: सर्वाविडम्बिका। तस्माद् ज्ञानेनात्मतत्वं विशेषं श्री गुरोर्मुखात्'।
(ख) सन्त सेवा- जैसे कि गरुड़ पुराण में भी लिखा है- 'सत्संगश्च विवेकश्च निर्मलं नयनद्वयम्। यस्य नास्ति नर: सोऽन्ध: कथं न स्याद् कुमार्गग:'।
(ग) प्रभु सेवा- इसमें नामस्मरण और स्वरूप सेवा दोनों की प्रधानता है। स्वरूप सेवा क्रियात्मक और भावात्मक दोनों प्रकार की है। भावात्मक सेवा माननीय है तथा क्रियात्मक सेवा के दो विभाग है, तनुजा और और वित्तजा। इस सेवासाधाना का प्रमुख आधार है प्रेम, जो भगवान के अनुग्रह से ही उत्पन्न होता है। इसी कारण इसको प्रेम लक्षणसाधना अथवा पुष्टिमार्गीय भक्ति कहते हैं। गुरु सेवा और संत सेवा का पर्यवसान भी प्रभु में ही है।

पुष्टिमार्ग सेवा

पुष्टिमार्गीय सेवा में क्रियात्मक सेवा के पश्चात् भावनात्मक सेवा की सम्भावना मानी गई है। वल्लभाचार्य ने अनुभव किया कि यदि तनुजा और वित्तजा नामक बाह्य शक्तियां प्रभु की सेवा में लगा दी जाएं तो इसमें ममता और अंहकार का नाश होगा और फिर भावात्मक सेवा भक्त को प्रभु की ओर प्रवृत्त कर देगी। इसी को समर्पण कहते हैं। सूरदास के शब्दों में समर्पण की भावना इस प्रकार व्यक्त होती है कि-

'सब तजि तुव शरणागत आयो निजकर चरण गहेरे।'

श्रीकृष्ण की लीला के ध्यान में अपने जीवन श्रम को भुला देना और इन्हीं के भजन में मन को अनुरक्त रखना पुष्टिमार्गीय सेवा की विशिष्टता है। यह सेवा दो प्रकार की होती है-

  1. नित्य सेवा
  2. वर्षोत्सव सेवा।
नित्य सेवा के आठ अंग
  1. मंगला- इसके तीन अंग हैं- (क) जगाना, (ख) कलेऊ, (ग) आरती।
  2. श्रृंगार
  3. ग्वाल
  4. राजभोज
  5. उत्थापत
  6. भोग
  7. संख्या
  8. आरती और गायन।
वर्षोत्सव सेवा

वर्षोत्सव सेवाविधि के अवसर निम्नलिखित माने जाते हैं- 1.फूलडोल, 2.होली, 3.व्रतचर्चा, 4.रासलीला, 5.गोवर्धन-पूजा, अन्नकूट। पुष्टिमार्गीय भक्ति प्रेमलक्षण है। वल्लभ ने प्रेम का आदर्श गोपिकाओं को माना है।

गोपिकाएं

गोपिकाएं तीन प्रकार की हैं।

  1. कुमारिकाएं- जिन्होंने कात्यायनी का व्रत रखकर पतिरूप में कृष्ण को कामना की, उनका प्रेम स्वकीय प्रेम है और मर्यादा पुष्टि के अंतर्गत आता है।
  2. गोपांगनाएं- गोपांनाओं ने लोक और वेद दोनों की मर्यादा का अतिक्रमण करके परकीया भाव से प्रेम किया था। इस प्रेम भाव को पुष्टि-पुष्टिमार्गीय कहा जाता है।
  3. व्रजांगनाएं- व्रजांगनाओं का प्रेम मातृभाव का था। उसका सम्बन्ध नित्य सेवा विधि से रहा। आचार्य वल्लभ स्वयं भी एक स्थान पर लिखते हैं कि-

कृष्णाधीना तु मर्यादा स्वाधीना पुष्टिरुच्यते।

पुष्टिमार्गीय भक्ति में भाव

पुष्टिमार्गीय भक्ति में ये भाव उपलब्ध होते हैं-

  1. वात्सल्य
  2. कान्तभाव (स्वकीया और परकीया)
  3. ब्रह्मभाव
  4. सख्यभाव।

आध्यात्मिकता के साथ लौकिकता का सामंजस्य इतना किसी अन्य भक्ति मार्ग में नहीं हुआ, जितना की पुष्टिमार्ग में। उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि भारतीय चिन्तन धारा और भक्ति पद्धति में वल्लभाचार्य ने जो योगदान किया उसका अपना विशिष्ट महत्त्व और प्रभाव है।

आचार्य जी के प्रवचन स्थल

श्री वल्लभाचार्य जी ने अपनी यात्राओं में जहाँ श्रीमद्भागवत का प्रवचन किया था अथवा जिन स्थानों का उन्होंने विशेष माहात्म्य बतलाया था, वहाँ उनकी बैठकें बनी हुई हैं, जो 'आचार्य महाप्रभु जी की बैठकें' कहलाती हैं। वल्लभ संप्रदाय में ये बैठकें मन्दिर देवालयों की भाँति ही पवित्र और दर्शनीय मानी जाती है। इन बैठकों की संख्या 84 है, और ये समस्त देश में फैली हुई हैं। इनमें से 24 बैठकें ब्रजमंडल में हैं, जो ब्रज चौरासी कोस की यात्रा के विविध स्थानों में बनी हुई हैं। ब्रज स्थिति बैठकों को विवरण इस प्रकार हैं-

  • गोकुल में – गोविन्दघाट पर है, जो संवत 1550 में आचार्य जी के सर्वप्रथम ब्रज में पधारने और वहां भागवत का प्रचलन करने के अनन्तर दामोदरदास हरसानी को ब्रह्म संबंध की प्रथम दीक्षा देने की स्मृति में बनाई गई है।
  • गोकुल में - श्री द्वारकानाथ जी के मन्दिर के बाहर है, जो 'बड़ी बैठक' कहलाती है।
  • गोकुल में - शैया मन्दिर की बैठक के नाम से प्रसिद्ध है।
  • मथुरा में - विश्राम घाट पर है, जो संवत 1550 में आचार्य जी के प्रथम बार मथुरा पधारने और वहाँ की 'यंत्र-बाधा' के निवारण एवं श्रीमद् भागवत की कथा कहने की स्मृति में बनाई गई है।
  • मधुवन में - कृष्णकुण्ड पर है।
  • कुमुदबन में - बिहार कुण्ड पर है।
  • बहुलाबन में - कुण्ड पर वट वृक्ष के नीचे है।
  • राधाकुण्ड में - वल्लभघाट पर है।
  • राधाकुण्ड में - चकलेश्वर के निकट मानसी गंगा के गंगा घाट पर है।
  • गोवर्धन में - चंद्रसरोवर पर छोंकर के वृक्ष के नीचे है।
  • गोवर्धन में - आन्यौर में सद्दू पाँडे के घर में है। इस स्थल पर श्री आचार्य जी ने संवत 1556 में श्रीनाथ जी की आरम्भिक सेवा का आयोजन किया था।
  • गोवर्धन में - गोविन्द कुण्ड पर है।
  • गोवर्धन में - जतीपुरा में श्री गिरिराज जी के मुखारविंद के सन्मुख है। यहाँ पर श्रीनाथ जी के प्राकट्य की स्मृति में ब्रज-यात्रा के अवसर पर 'कुनवाड़ा' किया जाता है।
  • कामवन में - श्रीकुण्ड पर है।
  • बरसाना में - गह्वरवन के कृष्णकुण्ड पर है।
  • करहला में - कृष्णकुण्ड पर है।
  • संकेत में - कुण्ड पर छोंकर के वृक्ष के नीचे है।
  • प्रेमसरोवर में - कुण्ड पर है।
  • नन्दगांव में - पान सरोवर पर है।
  • कोकिलाबन में - कृष्णकुण्ड पर हैं।
  • शेषशायी में - क्षीरसागर कुण्ड पर है।
  • चीरघाट में - यमुना तट पर कात्यायनी देवी के मन्दिर के निकट है।
  • मानसरोवर - कुण्ड पर है।
  • वृन्दावन में - वंशीवट पर है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सन 1473
  2. सन 1531
  3. 3.0 3.1 3.2 3.3 विश्व के प्रमुख दार्शनिक |लेखक: सी.डी. बिजल्वान |प्रकाशक: वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग |पृष्ठ संख्या: 526 |
  4. (प्रस्थान रत्नाकर, पृष्ठ 27 चौ.सं.)।
  5. - (शुद्धाद्वैतमार्तण्ड, 28)
  6. - (शुद्धाद्वैतमार्तण्ड, 27)
  7. -(सुबोधिनी, श्रीमद्भागवत, 3.7.11)

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