रसखान- रूढ़ि लक्षणा
रूढ़ि-लक्षणा वह है जिसमें रूढ़ि के कारण मुख्यार्थ को छोड़कर उससे संबंध रखने वाला अन्य अर्थ ग्रहण किया जाय।[1] रसखान के काव्य में रूढ़ि-लक्षणा यत्र-तत्र मिल जाती है। रूढ़ि-लक्षणा का सफल प्रयोग कवि के भाषाधिकार का परिचायक है—
कुंजगली में अली निकसी तहाँ सांकरे ढोटा कियौ भटभेरी।
माइ री वा मुख की मुसकान गयौ मन बूड़ि फिरै नहिं फेरो।
डोरि लियौ दृग चोरी लियो चित डारयौ है प्रेम को फंद घनेरो।
कैसी करौं अब क्यौं निकसौं रसखानि परयौ तन रूप को घेरो॥[2]
- 'मन बूड़ने' में रूढ़ि-लक्षणा है। मन वास्तव में डूबा नहीं। इसका लक्ष्यार्थ यह है कि मन कृष्ण के सौंदर्य के वशीभूत हो गया।
- 'रूप के घेरो' का लक्ष्यार्थ यह है कि एक बार देखने के बाद गोपी का हृदय कृष्ण के स्वरूप से प्रभावित हो गया है।
- बार ही गौरस बेंचि री आज तूं माई के मूड़ चढ़ै कत मौडी।[3] मूड़ चढ़ने में रूढ़ि लक्षण है।
काल्हि परयौ मुरली-धुनि मैं रसखानि जू कानन नाम हमारो।
ता दिन ते नहिं धीर रह्यौ जग जानि लयौ अति कीनो पँवारो।
गाँवन गाँवन मैं अब तौ बदनाम भई सब सौ कै किनारो।
तौ सजनी फिरि कहौं पिय मेरो वही जग ठोंकि नगारो।[4]
इस पद में रसखान ने तीन बार रूढ़ि-लक्षणा का सफल प्रयोग किया है। वास्तव में नगाड़ा ठोंका नहीं गया। कहने का तात्पर्य यह है कि बात सब में प्रसिद्ध हो गई है।
- कहाँ लौं सयानी चंदा हाथन छिपाइबो।[5] चंद्रमा को हाथ से छिपाया नहीं जा सकता। चंदा को छिपाने में लक्ष्यार्थ बात छिपाने से है। इस पंक्ति में रूढ़ि लक्षणा को चमत्कारिक ढंग से व्यक्त किया गया है।
- आँख से आँख लड़ी जबहीं तब सौं ये रहैं अँसुवा रंग भीनी।[6] यहाँ आंख लड़ने का लक्ष्यार्थ दर्शन होने से है। रसखान के काव्य में रूढ़ि लक्षणा के अनेक उदाहरण मिलते हैं। ये प्रयोग भाव एवं भाषा सुन्दर बनाने में सहायक हुए हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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