रसखान का शांतरस

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हिन्दी साहित्य में कृष्ण भक्त तथा रीतिकालीन कवियों में रसखान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'रसखान' को रस की ख़ान कहा जाता है। इनके काव्य में भक्ति, श्रृगांर रस दोनों प्रधानता से मिलते हैं। रसखान कृष्ण भक्त हैं और प्रभु के सगुण और निर्गुण निराकार रूप के प्रति श्रद्धालु हैं। संसार से अत्यन्त निर्वेद होने पर या तत्त्व ज्ञान द्वारा वैराग्य का उत्कर्ष होने पर शांत रस की प्रतीति होती है। 'शांत रस वह रस है जिसमें 'शम' रूप स्थायी भाव का आस्वाद हुआ करता है। इसके आश्रय उत्तम प्रकृति के व्यक्ति हैं, इसका वर्ण कुंद-श्वेत अथवा चंद्र-श्वेत है। इसके देवता श्री भगवान नारायण हैं। अनित्यता किंवा दु:खमयता आदि के कारण समस्त सांसारिक विषयों की नि:सारता का ज्ञान अथवा साक्षात् परमात्मा स्वरूप का ज्ञान ही इसका आलम्बन-विभाव है। इसके उद्दीपन हैं पवित्र आश्रम, भगवान की लीला भूमियाँ, तीर्थ स्थान, रम्य कानन, साधु-संतों के संग आदि आदि। रोमांच आदि इसके अनुभाव हैं इसके व्यभिचारी भाव हैं- निर्वेद, हर्ष, स्मृति, मति, जीव, दया आदि। [1] रसखान संसार की असारता से ऊब उठे हैं, सार तत्त्व की पहचानते हैं। इसलिए उनके काव्य में कहीं-कहीं शांत रस का पुट मिल जाता है। वे कहते हैं कि किसी प्रकार सोच न करके माखन-चाखनहार का ध्यान करो जिन्होंने महापापियों का उद्धार किया है।

द्रौपदी औ गनिका गज गीध अजामिल सों कियौ सो न निहारो।
गौतम-गेहिनी कैसी तरी, प्रहलाद कों कैसें हरयौ दु:ख भारो।
काहे कों सोच करै रसखानि कहा करि हैं रबिनंद बिचारो।
ता खन जा खन राखियै माखन-चाखनहारो सो राखनहारो।[2]

यहाँ कृष्ण आलंबन हैं, उनके द्वारा किये गए कार्य उद्दीपन विभाव हैं। संचारी भाव स्मृति है। निर्वेद स्थायी भाव द्वारा शांत रस का पूर्ण परिपाक हो रहा है।

सुनियै सब की कहियै न कछू रहियै इमि या मन-बागर मैं।
करियै ब्रत-नेम सचाई लियें, जिन तें तरियै मन-सागर मैं।
मिलियै सब सों दुरभाव बिना, रहियै सतसंग उजागर मैं।
रसखानि गुबिंदहिं यौं भजियै जिमि नागरि को चित गागर मैं।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शान्त: शमस्थायिभाव उत्तम प्रकृतिमेत:।
    कुंदे सुंदरच्छाय: श्री नारायण दैवत:॥
    अनित्यत्वादि शेष वस्तुनि: सारता तु या।
    परमात्मस्वरूपं वा तस्यालंवनमिष्यते॥
    पुण्याश्रम हरि क्षेत्र तीर्थ रम्य वनादय:।
    महापुरुष संगाद्यास्तस्योद्दीपन रूपिण:॥
    रोमाश्चाद्यानु भावास्तथास्यु व्यभिचारिण:।
    निर्वेद हर्ष स्मरण मति भूत दया दय:॥ - साहित्य दर्पण, पृ0 263
  2. सुजान रसखान, 18
  3. सुजान रसखान, 8

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