शांता सिन्हा

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शांता सिन्हा
शांता सिन्हा
शांता सिन्हा
पूरा नाम शांता सिन्हा
जन्म 7 जनवरी, 1950
जन्म भूमि नेल्लोर, आंध्र प्रदेश
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र सामाजिक कार्यकर्ता
विद्यालय उस्मानिया यूनिवर्सिटी, जवाहरलाल यूनिवर्सिटी
पुरस्कार-उपाधि 'एलर्ट शंकर इन्टरनेशनल एजुकेशन अवार्ड' (1999), 'पद्मश्री' (1999), 'रेमन मैग्सेसे पुरस्कार' (2003)।
विशेष योगदान शांता सिन्हा ने "मामिडिपुडी वैंकटरगैया फाउन्डेशन" नामक संस्था की स्थापना की है। पूरे आन्ध्र प्रदेश से बाल मजदूरी खत्म करके हर एक बच्चे को स्कूल भेजने की परम्परा डालना ही इसका लक्ष्य है।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी शान्ता सिन्हा का ध्यान केवल बाल-श्रमिकों पर ही नहीं है, बल्कि उनकी सोच में प्रौढ़ शिक्षा का भी पूरा स्थान है। शान्ता सिन्हा भारत सरकार के इस तरह बहुत-से आयोजनों से जुड़ी हुई हैं।
अद्यतन‎ 12:59, 06 अक्टूबर-2016 (IST)

शांता सिन्हा (अंग्रेज़ी: Shantha Sinha, जन्म- 7 जनवरी, 1950, नेल्लोर, आंध्र प्रदेश) अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त बालश्रम विरोधी भारतीय कार्यकर्ता हैं। शहरों तथा गाँवों में ग़रीबी का जो परिणाम ग़रीबी को स्थायी बनाए रखने की बुनियाद बनता है, वह है बाल मजदूरी। जिन ग़रीब परिवारों के बच्चे ग़रीबी के बावजूद उनके माता-पिता की सोच के चलते स्कूल तक पहुँचते हैं, वहाँ ग़रीबी के दिन थोड़े रह जाते हैं। शान्ता सिन्हा ने इस निष्कर्ष को पूरे आन्ध्र प्रदेश में व्यापक रूप से फैलाने का काम किया। उन्होंने लोगों की इस धारणा को तोड़ा कि ग़रीबों के बच्चों के काम किए बिना परिवार का गुजारा नहीं हो सकता। इस तरह उन्होंने अपनी संस्था "मामिडिपुडी वैंकटारंगैया फाउन्डेशन" (एमवीएफ़) की सेक्रेटरी के नाते बाल मजदूरी पर अकुंश लगाया और बच्चों को स्कूल की राह पर डालने की व्यवस्था की। उन्होंने इस कार्य को तमाम विरोध के बावजूद संकल्पपूर्वक निभाया, इसके लिए उन्हें वर्ष 2003 'रेमन मैग्सेसे पुरस्कार' प्रदान किया गया।

परिचय

शान्ता सिन्हा का जन्म 7 जनवरी, 1950 को आन्ध्र प्रदेश के नेल्लोर में हुआ था। उन्होंने पोलेटिकल साइंस में उस्मानिया यूनिवर्सिटी से 1972 में एम.ए. की परीक्षा पास की तथा 1976 में उन्होंने जवाहरलाल यूनिवर्सिटी से डॉक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त की। शान्ता सिन्हा बहुत शुरू से ही बाल मजदूरी की स्थिति को देखकर बेचैन रहती थीं और उनके मन में इसके लिए कुछ ठोस कार्य करने का विचार बार-बार आता था। 1987 में वह हैदराबाद यूनिवर्सिटी में थीं। तभी यूनिवर्सिटी के विस्तार कार्यक्रम में प्रमुख के नाते उन्हें मौका मिला और उन्होंने तीन महीने चलने वाले एक कैंप का आयोजन किया, जिसमें बन्धुआ मजदूरी से मुक्त कराए गए बच्चों को स्कूल भेजने की तैयारी कराई गई। उनका यह अनुभव उत्साहजनक रहा।[1]

'मामिडिपुडी वैंकटरगैया फाउन्डेशन' की स्थापना

1991 में उन्होंने अपना विचार अपने परिवार के सामने रखा और अपने दादा जी के नाम पर एक संस्था स्थापित की। उस संस्था का नाम "मामिडिपुडी वैंकटरगैया फाउन्डेशन" रखा गया। इस संस्था का लक्ष्य बना कि पूरे आन्ध्र प्रदेश से बाल मजदूरी खत्म करके हर एक बच्चे को स्कूल भेजने की परम्परा डालनी है। अपने इस काम की शुरुआत शान्ता ने रंगारेड्डी ज़िले के ग़रीबी से ग्रस्त गाँवों से की। शान्ता की संस्था के सदस्य वहाँ के स्थानीय लोगों से मिले। वहाँ इनका अनुभव बहुत चुनौती भरा रहा। संस्था के लोग इस तलाश में थे कि वह बाल मजदूरी कर रहे बच्चों के परिवार से मिलकर उन्हें बच्चों को स्कूल भेजने के लिए प्रेरित करें। इस कोशिश में सबकी धारणा यही थी कि इस ग़रीबी में काम में लगे परिवार के सदस्य को काम से हटा कर स्कूल भेजना कैसे सम्भव है…? उन परिवारों के लिए उनके बच्चे जो मजदूरी कर रहे थे, वह परिवार के एक कमाऊ सदस्य जैसे थे। बाल या बचपन जैसे विशेषण उनकी जिन्दगी में कोई मायने नहीं रखते थे। उन्हें यह लगता था कि पढ़ाई, स्कूल, सब पैसे वाले परिवारों की बातें हैं, जब कि एमवीएफ़ की तरफ से संस्था के लोगों का कहना था कि पढ़-लिख कर ही ग़रीबी से छुटकारा पाया जा सकता है। यह स्थिति एमवीएफ़ तथा शान्ता के लिए कठिन थी, जिसे उन लोगों को हर हाल में जीतना था।

कैम्प आयोजन व अनुदान

शान्ता सिन्हा ने हार नहीं मानी। इन्होंने इस काम के लिए ट्रांसिशन कैम्प लगाए। अपने साथ स्कूल के अध्यापकों तथा स्थानीय अधिकारियों को लिया, ताकि उनके समझाने का अधिक प्रभाव पड़े। शान्ता सिन्हा ने यह भी प्रबंध किया कि उनके साथ वे मालिक लोग भी आएँ, जिनके पास बच्चों ने कभी काम किया हो। इस तरह लम्बे समय तक एमवीएफ़ द्वारा यह कार्य किया जाता रहा, कि लोगों की धारणा बदले और वे बच्चों की पढ़ाई को महत्त्वपूर्ण मानें। शान्ता तथा उनके सहयोगियों के अथक प्रयास से उन्हें स्थानीय तथा अन्तर राष्ट्रीय अनुदान मिलने लगा और 1997 तक उनके लिए पाँच सौ गाँवों में एमवीएफ़ की गतिविधियाँ फैल गईं। धीरे-धीरे शान्ता सिन्हा के अस्थायी स्कूल जो बच्चों को शुरुआती दौर की तैयारी कराने के लिए खोले गए थे, इतने विकसित हो गए कि उनमें तैयार बच्चे सामान्य स्कूलों में लिए जा सकें। उन्हें बुनियादी तौर पर सामान्य स्कूलों जैसे ही गीत और कविताएँ सिखाई गईं। अखबारों तथा स्वैच्छिक अध्यापकों ने बच्चों में उनकी प्रारम्भिक क्षमताएँ विकसित की और उनमें खुद-ब-खुद रुचिपूर्वक पढ़ने की आदत डलवाई। उन्हें पढ़ने में आनन्द आने लगा, वह इस स्थिति तक पहुँच गए। फिर उनको धीरे-धीरे औपचारिक पाठ्‌यक्रम के लिए तैयार किया गया, जिसके लिए वह सामान्य स्कूलों में जाने लायक बन गए थे।[1]

शान्ता सिन्हा का ऐसा मानना था कि ये बच्चे तो बुनियादी स्कूलों से निकले हैं, उन्हें नियमित स्कूलों में जाना चाहिए, न कि ‘पार्ट टाइम स्कूलों’ में। पार्ट टाइम स्कूल, इस स्तर तक बच्चों में वह उत्साह नहीं संचारित करते, जितना उन्हें इस समय चाहिए। इसलिए शान्ता सिन्हा की कोशिश रही कि वह सामान्य स्कूलों के रूप में पब्लिक स्कूलों की मानसिकता में ऐसे बच्चों के लिए एक जगह स्वीकार करें और उन्हें बराबर समझकर, व्यवहार करें। इसके लिए शान्ता सिन्हा की टीम, जिसमें बच्चों के माता-पिता, उनके शिक्षक, कुछ चुने हुए अधिकारीगण तथा वह स्वयं प्रयासरत रहीं कि ऐसे बच्चों के लिए अनुकूल स्कूलों की तलाश की जा सके, तथा उन्हें, इस अभियान में जोड़ा जा सके। इस क्रम में शान्ता सिन्हा वर्ष 2000 तक करीब ढाई लाख ऐसे बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था कर पाई, जो पहले कभी बाल-श्रमिक थे।

प्रौढ़ शिक्षा का ध्यान

अपने इस अभियान में शान्ता सिन्हा का ध्यान केवल बाल-श्रमिकों पर नहीं था, बल्कि उनकी सोच में प्रौढ़ शिक्षा का पूरा स्थान था। शान्ता सिन्हा भारत सरकार के इस तरह बहुत से आयोजनों से जुड़ी हुई थीं। अस्सी के दशक के दौरान शान्ता हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पोलेटिकल साइंस विभाग से जुड़ी हुई थीं और उनका ध्यान इस ओर पूरी तरह से केन्द्रित था कि काम में लगे हुए वयस्क/प्रौढ़ कामगारों को किस तरह से इस दिशा में एकजुट किया जाए।

श्रमिक विद्यापीठ की निदेशक

शान्ता सिन्हा श्रमिक विद्यापीठ की निदेशक रहीं। यहाँ से जुड़ने के बाद उन्हें इस परेशान कर देने वाले तथ्य की जानकारी मिली कि चालीस प्रतिशत बन्धुआ मजदूर बच्चे हैं, तब तक देश में एक भी ऐसी एजेंसी काम नहीं कर रही थी, जो पूरी तरह से इस दिशा में समर्पित हो। तब शान्ता सिन्हा ने यह चुनौती स्वीकार की और बाल-श्रमिकों तथा बाल बंधुआ-मजदूरों को मुक्त कराने का बीड़ा उठा लिया।

सम्मान व पुरस्कार

एमवीएफ़ के बुनियादी स्कूलों तथा उसके अन्य कार्यक्रमों का आन्ध्रप्रदेश भर में भरपूर विस्तार एवं विकास हुआ है और उनका प्रभाव सर्वत्र देखा जाने लगा है। शान्ता सिन्हा को 1999 में 'एलर्ट शंकर इन्टरनेशनल एजुकेशन अवार्ड' दिया गया, जो अमेरिका द्वारा प्रदान किया जाता है। उन्हें वर्ष 1999 में ही भारत सरकार ने 'पद्मश्री' की उपाधि से भी अलंकृत किया। उन्हें वर्ष 2003 'रेमन मैग्सेसे पुरस्कार' प्रदान किया गया। उनकी सक्रियता अभी भी थमी नहीं है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 शांता सिन्हा का जीवन परिचय (हिंदी) कैसे और क्या। अभिगमन तिथि: 05 अक्टूबर, 2016।

बाहरी कड़ियाँ

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