हित चौरासी
हित चौरासी
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लेखक | हित हरिवंश गोस्वामी | |
मूल शीर्षक | 'हित चौरासी' | |
देश | भारत | |
भाषा | ब्रजभाषा | |
विषय | राधा-कृष्ण का अनन्य प्रेम, नित्य विहार, रासलीला, मान, विरह, वृन्दावन, सहचरी आदि ही इस ग्रंथ के वर्ण्य विषय हैं। | |
विधा | पद संग्रह | |
अन्य नाम | ‘हरिवंश चौरासी, ‘हित चौरासी धनी’ तथा 'चतुराशीजी’। | |
टिप्पणी | ‘हित चौरासी’ पर अभी तक लगभग दो दर्जन टीकाएँ प्रस्तुत हो चुकी हैं। इन टीकाओं का क्रम सोलहवीं शताब्दी ही दृष्टिगत होता है। |
हित चौरासी ब्रजभाषा में लिखा गया प्रसिद्ध ग्रंथ है। श्रीहित हरिवंश गोस्वामी द्वारा रचित ब्रजभाषा के चौरासी पदों का संग्रह ग्रंथ ‘हित चौरासी’ 'राधावल्लभ सम्प्रदाय' का आकर ग्रंथ माना जाता है। इसी ग्रंथ के आधार पर राधावल्लभीय भक्ति-सिद्धांत को हृदयंगम किया जा सकता है। इसी ग्रंथ की हस्तलिखित प्राचीनतम प्रति सत्रहवीं शती की उपलब्ध है। यह रसोपासना के आधारभूत सिद्धांतों को हृदयंगम करके स्वतंत्र रूप से लिखे गए चौरासी पदों का संकलन है।
भक्ति ग्रन्थ
इस ग्रंथ को प्रेम-लक्षण या माधुर्य भक्ति का प्रतिपादक भक्ति ग्रन्थ कहा जा सकता है। कुछ विद्वानों का ऐसा भी आग्रह है कि इसमें चौरासी पद रखने में हरिवंश गोस्वामी का आशय यह था कि एक-एक पद के मर्म को समझने से लाख योनियों में चक्कर काटने से जीव बच सकता है। इस प्रकार चौरासी लाख योनियों का चक्कर मनुष्य से छूट सकता है।[1]
अन्य नाम
'हित चौरासी' ग्रंथ के ‘हरिवंश चौरासी, ‘हित चौरासी धनी’, चतुराशीजी’ नाम भी प्रसिद्ध हैं, किंतु मूल ग्रन्थ का नाम ‘हित चौरासी’ ही है। अन्य सब नाम अप्रमाणिक हैं।
वर्ण्य विषय
‘हित चौरासी’ एक मुक्तक पद रचना है, जिसमें भाववस्तु या वर्ण्य वस्तु का कोई कोटिक्रम नहीं है। समय प्रबंध की दृष्टि से कुछ विद्वानों ने इसमें पदों का वर्गीकरण किया है, किंतु यह परवर्ती और साम्प्रदायिक दृष्टि से किया गया है। मूल प्रणेता का इस प्रकार वर्गीकरण करने का कोई आग्रह नहीं है। ‘हित चौरासी’ का वर्ण्य विषय मुख्य रूप से अंतरंग भावना से सम्बंध रखता है। श्रृंगार रस की पृष्ठभूमि पर उन विषयों को हित हरिवंश ने प्रस्तुत किया है, जो उनकी भक्ति पद्धति के मेरुदण्ड हैं। राधा-कृष्ण का अनन्य प्रेम, नित्य विहार, रासलीला, मान, विरह, वृन्दावन, सहचरी आदि ही इस ग्रंथ के वर्ण्य विषय हैं। सबसे पहले हित हरिवंश ने राधावल्लभीय प्रेमपद्धति का प्रतिपादन ’तत्सुखी’ भाव के प्रेम वर्णन द्वारा प्रथम पद में ही प्रस्तुत किया है-
"जोई जोई प्यारों करे सोई मोहि भावे, भावे मोहि जोई, सोई सोई प्यारे।“
उपरोक्त पद में अद्वय भाव की सृष्टि के लिए प्रिया-प्रियतम का एक-दूसरे में लीन हो जाना ही प्रेम की पराकाष्ठा है। इस प्रकार के अद्वैत को कुछ विद्वानों ने राधावल्लभीय ‘सिद्धाद्वैत’ कहने की चेष्टा की है। प्रेम का वर्णन करने में हित हरिवंश की शैली स्वतंत्र और उन्मुक्त है। उन्होंने बंधनमय प्रेम प्रतीति को स्वीकार नहीं किया। “प्रीति न काहू की कानि विचारे” कह कर प्रेम को स्वतंत्र मार्ग कहा है।[1]
राधा का रूप वर्णन
‘हित चौरासी’ में राधा का रूप वर्णन बहुत ही मार्मिक और उदात्त कोटि का है। लगभग एक दर्जन पदों में राधा की रूप माधुरी का वर्णन है। नखशिख की पूर्णता के लिए अवकाश न होने पर भी लेखक ने उसका परिपूर्ण आभास इन पदों में दे दिया है। रास वर्णन, वृन्दावन छवि वर्णन, नित्य विहार वर्णन और कृष्ण वर्णन के पद भी काव्य सौष्ठव तथा प्रांजल शैली के सुंदर निदर्शन हैं।
टीकाएँ
‘हित चौरासी’ पर अभी तक लगभग दो दर्जन टीकाएँ प्रस्तुत हो चुकी हैं। इन टीकाओं का क्रम सोलहवीं शताब्दी ही दृष्टिगत होता है। दामोदार दास (सेवकजी) ने ‘सेवकवाणी’ लिखकर एक प्रकार से ‘हित चौरासी’ के प्रतिपाद्य का ही वर्णन किया था। इसलिए ‘हित चौरासी’ और ‘सेवकवाणी’ को एक साथ पढ़ने, छापने, लिखने और रखने का विधान बन गया है। टीकाओं में प्रेमदास, लोकनाथ, केलिदास, रसिकदास और गोस्वामी सुखलाल की टीकाएँ पर्याप्त प्रसिद्ध हैं।
पद लालित्य तथा माधूर्य
‘हित चौरसी’ यद्यपि साम्प्रदायिक ग्रंथ माना जाता है, किंतु उसके माध्यम से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि गोस्वामी हरिवंश का ध्यान इस ग्रंथ के पदों का प्रणयन करते समय किसी संकीर्ण भावना से आवृत नहीं हुआ था। उन्होंने इन पदों को रस में निमज्जित होकर सहज स्फूर्त रूप में ही प्रस्तुतु किया है। हित हरिवंश के इन पदों का मूलाधार रस ही है। इन पदों का पाठ करते ही भक्त के मन में ही नहीं, सामान्य साहित्य प्रेमी के हृदय में भी अनाविल राधा-कृष्ण प्रेम का अपार पारावार लहराने लगता है। पदों के लालित्य और माधुर्य को देखकर लगता है कि कदाचित भक्तों ने इन पदों के माधुर्य के कारण ही हरिवंश को वंशी का अवतार कहा होगा। ब्रजभाषा का ऐसा परिष्कृत और प्रांजल रूप सूरदास और नंददास के पदों में भी दिखाई नहीं देता है।[1]
तत्सम पदावली के प्राचुर्य के साथ उनका उचित स्थान पर प्रयोग मणि-कांचन संयोग का स्मरण कराने वाला है। भाषा के चित्रधर्म और संगीतात्मकता को देखकर लगता है कि हित हरिवंश को ब्रजभाषा की प्रकृति का स्वाभाविक और सहज रूप विदित हो गया था। लाक्षणिक एवं ध्वन्यात्मक प्रयोगों का भी ‘हित चौरासी’ में अभाव नहीं है। संक्षेप में ‘हित चौरासी’ ब्रजभाषा का एक अनूठा भक्ति ग्रंथ है, जिसे साहित्य, संगीत और कला में समान रूप से सम्मान प्राप्त हुआ है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य कोश, भाग 2 |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |संपादन: डॉ. धीरेंद्र वर्मा |पृष्ठ संख्या: 679 |
- ↑ सहायक ग्रंथ- राधावल्लभ सम्प्रदाय-सिद्धांत और साहित्य : डॉ. विजयेंद्र स्नातक; गोस्वामी हित हरिवंश और उनका सम्प्रदाय : ललिताचरण गोस्वामी; हिंदी साहित्य का इतिहास : पं. रामचंद्र शुक्ल; हित चौरासी, प्रकाशक गोस्वामी मोहनलालजी वृन्दावन; हितामृत सिंधु, प्रकाशक हित गोवरधनदास जी
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