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अकबर का युग

हुमायूँ जब बीकानेर से लौट रहा था तो अमरकोट के राणा ने साहस करके उसे सहारा और सहायता दी। अमरकोट में ही 1542 में मुग़लों में महानतम शासक अकबर का जन्म हुआ। जब हुमायूँ ईरान की ओर भागा तो उसके बच्चे अकबर को उसके चाचा कामरान ने पकड़ लिया। उसने बच्चे का भली-भाँति पालन-पोषण किया। कन्धार पर फिर से हुमायूँ का अधिकार हो जाने पर अकबर फिर अपने माता-पिता से मिला। हुमायूँ की मृत्यु के समय अकबर पंजाब में कलानौर में था, और अफ़ग़ान विद्रोहियों से निपटने में व्यस्त था। 1556 में कलानौर में ही अकबर की ताजपोशी हुई। उस समय वह तेरह वर्ष और चार महीने का था।

अकबर को कठिन परिस्थितियाँ विरासत में मिली। आगरा के पार अफ़ग़ान अभी भी सबल थे और हेमू के नेतृत्व में अन्तिम लड़ाई की तैयारी कर रहे थे। क़ाबुल पर आक्रमण करके घेरा डाला जा चुका था। पराजित अफ़ग़ान सरदार सिकन्दर सूर शिवालिक की पहाड़ियों में घूम रहा था। लेकिन अकबर के उस्ताद और हुमायूँ के स्वामिभक्त और योग्य अधिकारी बैरमख़ाँ ने परिस्थिति का कुशलता से सामना किया। वह ख़ान-ए-ख़ाना की उपाधि धारण करके राज्य का वकील बन गया और उसने मुग़ल सेनाओं का पुनर्गठन किया। हेमू की ओर से ख़तरे को सबसे गंभीर समझा गया। उस समय चुनार से लेकर बंगाल की सीमा तक प्रदेश शेरशाह के एक भतीजे आदिलशाह के शासन में था। हेमू ने अपना जीवन इस्लामशाह के राज्यकाल में बाज़ारों के अधीक्षक के रूप में शुरू किया था और आदिलशाह के काल में उसने यकायक उन्नति की थी। उसने बाईस लड़ाईयों में से एक भी नहीं हारी थी। आदिलशाह ने उसे विक्रमजीत की उपाधि प्रदान करके वज़ीर नियुक्त कर लिया था। उसने उसे मुग़लों को खदेड़ने का उत्तरदायित्व सौंप दिया। हेमू ने आगरा पर अधिकार कर लिया और 50,000 घुड़सवार, 500 हाथी और विशाल तोपख़ाना लेकर दिल्ली की ओर बढ़ दौड़ा।

एक संघर्षपूर्ण लड़ाई में हेमू ने मुग़लों को पराजित कर दिया और दिल्ली पर अधिकार कर लिया। लेकिन परिस्थिति का सामना करने के लिए बैरमख़ाँ ने साहस पूर्ण कदम उठाये। उसके इस साहसिक क़दम से मुग़ल सेना में एक नयी शक्ति का संचार हुआ और उसने हेमू की अपनी स्थिति मज़बूत करने का अवसर दिए बिना दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। हेमू के नेतृत्व में अफ़ग़ान फौज और मुग़लों के बीच पानीपत के मैदान में एक बार फिर लड़ाई हुई (5 नवम्बर 1556)। मुग़लों की एक टुकड़ी ने हेमू के तोपख़ाने पर पहले अधिकार कर लिया लेकिन पलड़ा हेमू का ही भारी था। लेकिन तभी एक तीर हेमू की आंख में लगा और वह बेहोश हो गया। नेतृत्वहीन अफ़ग़ान सेना पराजित हो गई। हेमू को पकड़कर मार डाला गया। इस प्रकार अकबर को साम्राज्य पुनः लड़कर लेना पड़ा।

सरदारों से संघर्ष

(1556-67)

बैरमख़ाँ लगभग चार वर्षों तक साम्राज्य का सरगना रहा। इस दौरान उसने सरदारों को क़ाबू में रखा। क़ाबुल पर ख़तरा टल गया था और साम्राज्य की सीमा का विस्तार क़ाबुल से पूर्व में स्थित जौनपुर तक और पश्चिम में अजमेर तक हो गया था। ग्वालियर पर भी अधिकार कर लिया गया था और रणथम्भोर और मालवा को जीतने का भी भरसक प्रयास किया गया। इधर अकबर भी परिपक्व हो रहा था। बैरमख़ाँ ने बहुत से प्रभावशाली व्यक्तियों को नाराज़ कर लिया था। उन्होंने शिकायत की कि बैरमख़ाँ शिया है और वह अपने समर्थकों और शियाओं को उच्च पदों पर नियुक्त कर रहा है। ये दोषारोपण अपने आप में बहुत गंभीर नहीं थे लेकिन बैरमख़ाँ बहुत उद्धत हो गया था और इस बात को भूल रहा था अकबर बड़ा हो रहा है। छोटी-छोटी बातों पर दोनों में मतभेद हो गया और अकबर को यह अनुभव हुआ कि लम्बे समय तक राज्य कार्य किसी दूसरे के हाथ में नहीं सौंपा जा सकता।

अकबर ने बहुत ही होशियारी से काम लिया। वह शिकार के बहाने आगरा से निकला और दिल्ली पहुँच गया। दिल्ली से उसने बैरमख़ाँ को अपदस्थ करते हुए एक फ़रमान जारी किया और सब सरदारों को व्यक्तिगत रूप से अपने सामने हाज़िर होने का आदेश दिया। बैरमख़ाँ ने जब यह महसूस किया कि अकबर सारे अधिकार अपने हाथ में लेना चाहता है, वह इसके लिए तैयार था। लेकिन उसके विराधी उसे नष्ट करने पर तुले हुए थे। उन्होंने उसे इतना जलील किया कि वह विद्रोह पर उतारू हो गया। इस विद्रोह के कारण साम्राज्य में छः महीने तक अव्यवस्था रही। अन्ततः बैरमख़ाँ समर्पण करने पर विवश हो गया। अकबर ने विनम्रता से उसका स्वागत किया और उसके सामने दो विकल्प रखे कि या तो वह उसके दरबार में कार्य करता रहे या मक्का चला जाये। बैरमख़ाँ ने मक्का चला जाना बेहतर समझा लेकिन रास्ते में अहमदाबाद के निकट पाटन में अफ़ग़ानों ने व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण उसकी हत्या कर दी। बैरमख़ाँ की पत्नी और उसके छोटे बच्चे को अकबर के पास लाया गया। अकबर ने बैरम की विधवा के साथ जो उसकी रिश्ते में बहन लगती थी, विवाह कर लिया और बच्चे को बेटे की तरह पाला। यह बच्चा बाद में अब्दुर रहीम ख़ान-ए-ख़ाना के नाम से प्रसिद्ध हुआ और साम्राज्य के महत्वपूर्ण पद और सैनिक पद भी उसके पास रहे। बैरमख़ाँ के साथ अकबर के चरित्र की कुछ विलक्षणताएं स्पष्ट होती हैं। एक बार रास्ता निर्धारित कर लेने पर वह झुकता नहीं था लेकिन किसी प्रतिद्वन्दी के समर्पण कर देने पर वह उसके प्रति बहुत दयालु भी हो उठता था।

बैरमख़ाँ के विद्रोह के दौरान सरदारों में बहुत से व्यक्ति और दल राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गये थे। इनमें अकबर की धाय माँ महम अनगा और उसके संबंधी भी थे। यद्यपि महम अनगा ने शीघ्र ही सन्यास ले लिया परन्तु उसका पुत्र आदमख़ाँ एक महत्वाकांक्षी नौजवान था। उसे मालवा के विरुद्ध एक अभियान का सेनापति बनाकर भेजा गया। लेकिन जब उसे अपदस्थ कर दिया गया तो उसने वज़ीर के पद की मांग की और जब उसकी मांग स्वीकार नहीं की गई तो उसने कार्यवाहक वज़ीर को छुरा घोंप दिया। इससे अकबर बहुत क्रोधित हुआ और आदमख़ाँ को क़िले की दीवार से फिंकवा देने का आदेश दिया। इस प्रकार आदमख़ाँ 1561 में मर गया। परन्तु अकबर को सम्पूर्ण अधिकार स्थापित करने में बहुत वर्ष लगे। उज़बेकों ने सरदारों में एक अपना शक्तिशाली दल बना लिया था। उनके पास पूर्वी उत्तर-प्रदेश, बिहार और मालवा में महत्वपूर्ण पद थे। यद्यपि उन्होंने उन क्षेत्रों में शक्तिशाली अफ़ग़ान दलों को दबाये रखकर साम्राज्य की बहुत सेवा की परन्तु वे बहुत उद्धत हो गये थे और तरुण शासक की हुक़्मउदूली करने लगे थे। 1561 और 1567 के बीच उन्होंने कई बार विद्रोह किय जिससे विवश होकर अकबर को उनके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी। प्रत्येक बार अकबर ने उन्हें क्षमा कर दिया लेकिन जब 1565 में उन्होंने फिर विद्रोह किया तो अकबर इतना उत्तेजित हुआ कि उसने निर्णय किया कि जब तक वह उन्हें मिटा नहीं देगा तब तक जौनपुर को राजधानी बनाये रखेगा। इसी बीच मिर्ज़ाओं के विद्रोह ने अकबर को उलझा लिया। मिर्ज़ा अकबर के संबंधी थे और तैमूर वंशी थे। इन्होंने आधुनिक उत्तर प्रदेश के पश्चिम में पड़ने वाले क्षेत्रों में गड़बड़ मचाई। अकबर के सौतेले भाई मिर्जा हक़ीम ने क़ाबुल पर अधिकार करके पंजाब की ओर कूच किया और लाहौर पर घेरा डाल दिया। लेकिन उज़बेक विद्रोहियों ने अकबर को औपचारिक रूप से अपना शासक स्वीकार कर लिया।

हेमू के दिल्ली पर अधिकार करने के बाद अकबर के सामने यह गंभीर संकट था। परन्तु अकबर की कुशलता और भाग्य ने उसे विजय दिलाई। वह जौनपुर से लाहौर की ओर बढ़ा जिससे मिर्ज़ा हक़ीम पीछे हटने को मजबूर हो गया। इस बीच मिर्ज़ाओं के विद्रोह को कुचल दिया गया और वे मालवा और गुजरात की ओर भाग गये। अकबर लाहौर से जौनपुर लौटा। वर्षा ऋतु में इलाहाबाद के निकट यमुना पार करके उज़बेक सरदारों के नेतृत्व ने विद्रोह करने वालों को आश्चर्यचकित कर दिया और उन्हें पूरी तरह से पराजित किया। उज़बेक नेता लड़ाई में मारे गये और इस प्रकार यह लम्बा विद्रोह समाप्त हो गया। उन सरदारों सहित जो स्वतंत्रता का सपना देख रहे थे, सभी विद्रोही सरदार पस्त पड़ गये। अब अकबर अपने साम्राज्य के विस्तार की ओर ध्यान देने के लिये मुक्त था।

साम्राज्य का प्रारम्भिक विस्तार

(1567-76)

बैरमख़ाँ के संरक्षण में साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार हुआ था। अजमेर के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण विजय थीः मालवा और गढ़-कटंगा। उस समय मालवा पर एक युवा राजकुमार बाज़बहादुर का शासन था। वह संगीत और काव्य में प्रवीण था। बाज़बहादुर और सुंदरी रूपमती की प्रेम गाथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं। सुंदर होने के साथ-साथ रूपमती संगीत और काव्य में भी सिद्धहस्त थी। बाज़बहादुर के समय में माँडू संगीत का केन्द्र था। लेकिन बाज़बहादुर ने सेना की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था। मालवा के विरुद्ध अभियान का सेनापति अकबर की धाय माँ महम अनगा का पुत्र आदमख़ाँ था। बाज़बहादुर बुरी तरह पराजित हुआ (1561) और मुग़लों के हाथ रूपमती सहित बहुत कीमती सामान हाथ लगा। लेकिन रूपमती ने आदमख़ाँ के हरम में जाने की बजाय आत्महत्या करना उचित समझा। आदमख़ाँ और उसके उत्तराधिकारियों के अविवेकपूर्ण ज़ुल्मों के कारण मुग़लों के विरुद्ध वहाँ प्रतिक्रिया हुई। जिससे बाजबहादुर को पुनः राज्य प्राप्त करने का अवसर मिला।

बैरमख़ाँ के विद्रोह से निपटने के पश्चात अकबर ने मालवा के विरुद्ध एक और अभियान छेड़ा। बाज़बहादुर को वहाँ से भागना पड़ा। उसने कुछ समय के लिए मेवाड़ के राणा के पास शरण ली। एक के बाद एक दूसरे इलाके में भटकने के बाद बाज़बहादुर अकबर के दरबार में पहुँचा और उस मनसबदार बना दिया गया। कालांतर में वह दो हज़ारी के मनसब (पद) तक बढ़ा। परम्परा के अनुसार रूपमती की समाधि के निकट उज्जैन में उसकी भी समाधि बनाई गई थी। इस प्रकार मालवा का विस्तृत क्षेत्र मुग़लों के शासन में आ गया। इसी समय के लगभग मुग़ल सेनाओं ने गढ़-कटंगा पर विजय प्राप्त की। गढ़-कटंगा के राज्य में नर्मदा घाटी और आधुनिक मध्य प्रदेश के उत्तरी इलाक़े सम्मिलित थे। इस राज्य की स्थापना पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अमन दास ने की थी। अमनदास ने रायसेन को जीतने में गुजरात के बहादुरशाह की सहायता की थी और उसे इससे संग्रामशाह की उपाधि प्राप्त हुई।


गढ़-कटंगा में कुछ गोंडे और राजपूत रियासतें भी थीं। यह गौंडों द्वारा स्थापित एक शक्तिशाली राज्य था। कहा जाता है कि राजा के सेनापतित्व में 20,000 पैदल सिपाही, एक बड़ी संख्या घुड़सवारों की और 1,000 हाथी थे। लेकिन इन संख्याओं की विश्वसनीयता का कोई प्रमाण नहीं है। संग्रामशाह ने अपने एक पुत्र की शादी महोबा के चंदेल शासक की राजकुमारी से करके अपनी स्थिति और मजबूत कर ली थी। यह राजकुमारी, शीघ्र ही विधवा हो गई, लेकिन उसने अपने वयस्क पुत्र को गद्दी पर बिठलाया और बड़े साहस और कुशलता के साथ राज्य किया। वह एक कुशल बंदूक़ची और तीर-अन्दाज थी। वह शिकार की शौक़ीन थी। एक तत्कालीन लेखक के अनुसार उसे जब भी आस-पास किसी बाघ के दिखाई देने की सूचना मिलती थी, वह उसका शिकार किए बिना जल भी ग्रहण नहीं करती थी। उसने आसपास के राज्यों से कई लड़ाईयाँ सफलतापूर्वक लड़ीं। बाज़बहादुर से भी उसका युद्ध हुआ। सीमा प्रान्तों के ये संघर्ष मालवा पर मुग़लों का अधिकार हो जाने के बाद भी होते रहे। इसी बीच दुर्गावती के सौन्दर्य तथा अतुल धनराशि होने की कथाएँ इलाहाबाद के मुग़ल गवर्नर आसफ़ख़ाँ तक पहुँचीं।

आसफ़ख़ाँ 10,000 सिपाहियों को लेकर बुन्देलखण्ड की ओर से बढ़ा। गढ़ के कुछ अर्द्ध-स्वतंत्र शासकों ने गोंड का जुआ कंधों से उतार फेंकने का अच्छा अवसर देखा। अतः रानी के पास बहुत कम फौज रह गई। ज़ख़्मी होने पर भी वह, वीरतापूर्वक लड़ती रही। फिर यह देखकर की पराजय अवश्यंभावी है और उसे बंदी बनाया जा सकता है, उसने छुरा मारकर आत्महत्या कर ली। आसफ़ख़ाँ ने तब आधुनिक जबलपुर के पास स्थित उसकी राजधानी चौरागढ़ पर हल्ला बोल दिया। अबुलफ़ज़ल कहता है कि "इतने हीरे, जवाहरात, सोना, चाँदी और अन्य वस्तुएं हाथ लगीं की उनक अंश का भी हिसाब लगा पाना मुश्किल है। उस भारी लूट में आसफ़ख़ाँ ने केवल 200 हाथी दरबार में भेज दिए और शेष अपने पास रख लिया।" रानी की एक छोटी बहन कमलदेवी भी दरबार में भेज दी गई।

जब अकबर ने उज़बेक सरदारों के विद्रोह का सामना किया तो उसने आसफ़ख़ाँ को अनधिकृत रूप से अपने पास रखे लूट के माल को लौटाने को विवश किया। अकबर ने गढ़-कटंगा विक्रमशाह के छोटे पुत्र चन्द्रगाह को लौटा दिया, लेकिन मालवा में पड़ने वाले दस क़िलों को अपने पास रख लिया।

अगले दस वर्षों में अकबर ने राजस्थान का अधिकांश भाग अपने साम्राज्य में शामिल किया तथा गुजरात और बंगाल को भी जीत लिया। राजपूत रियासतों के विरुद्ध अभियान में एक महत्वपूर्ण कदम चित्त्तौड़ का घेरा था। यह दृढ़ क़िला, जिसके इतिहास में अनेक घेरे उस पर पड़ चुके थे, मध्य राजस्थान का प्रवेश द्वार समझा जाता था। यह आगरा से गुजरात जाने का सबसे छोटा मार्ग था। इससे भी अधिक उसे राजपूती संघर्ष का प्रतीक माना जाता था। अकबर ने यह अनुभव किया कि बिना चित्तौड़ जीते, अन्य राजपूत रियासतें उसका प्रभुत्व स्वीकार नहीं करेंगी। छः महीने के घेरे के बाद चित्तौड़ की पराजय हुई। सामन्तों की सलाह से प्रसिद्ध योद्धाओं जयमल और पट्टा को क़िले का भार सौंपा गया था। राजा उदयसिंह जंगलों में छिप गया। आस-पास के इलाक़ों के बहुत से किसानों ने क़िले में शरण ले ली थी। उन्होंने भी क़िले की सुरक्षा में काफ़ी योगदान दिया। जब मुग़लों ने क़िले में प्रवेश किया, तो इन किसानों और योद्धाओं का क़त्ल कर दिया गया। यह पहला और अंतिम अवसर था जब कि अकबर ने ऐसा क़त्लेआम करवाया। राजपूत योद्धाओं ने मरने से पूर्व यथा-सम्भव मुक़ाबला किया। जयमल और पट्टा की वीरता को देखते हुए अकबर ने आगरा के क़िले के मुख्य द्वार के बाहर हाथी पर सवार इन वीरों की प्रतिमाएं स्थापित करवाने का आदेश दिया।

चित्तौड़ के बाद राजस्थान के सबसे शक्तिशाली किले रणथम्भौर का पतन हुआ। जोधपुर पहले ही जीता जा चुका था। इन विषयों के परिणामस्वरूप बीकानेर और जैसलमेर सहित अनेक राजपूत रियासतों ने अकबर के आगे समर्पण कर दिया। केवल मेवाड़ ही संघर्ष करता रहा।

बहादुरशाह की मृत्यु के पश्चात से गुजरात की स्थिति बहुत ख़राब थी। अपनी उपजाऊ भूमि, उन्नत शिल्प और बाहरी दुनिया के साथ आयात-निर्यात व्यापार का केन्द्र होने के कारण गुजरात महत्वपूर्ण बन चुका था। अकबर ने यह कहकर उस पर अपना अधिकार जताया कि हुमायूँ उस पर कुछ समय तक राज्य कर चुका था। एक और कारण दिल्ली के निकट मिर्ज़ाओं का विद्रोह में असफल होकर गुजरात में शरण लेना था। अकबर इस बात के लिए तैयार नहीं था कि गुजरात जैसा समृद्ध प्रदेश मुक़ाबले की शक्ति बन जाये। 1572 में अकबर अजमेर के रास्ते से अहमदाबाद की ओर बढ़ा। अहमदाबाद ने बिना लड़े समर्पण कर दिया। अकबर ने फिर मिर्ज़ाओं की ओर ध्यान दिया। जिन्होंने भड़ौंच, बड़ौदा और सूरत पर अधिकार किया हुआ था। खम्बात में अकबर ने पहली बार समुद्र के दर्शन किए और नाव में सैर की। पुर्तग़ालियों के एक दल ने पहली बार अकबर से आकर भेंट की। इस समय पुर्तग़ालियों का भारतीय समुद्रों पर पूर्ण अधिकार था और उनकी आकांक्षा भारत में साम्राज्य स्थापित करने की थी। अकबर की गुजरात विजय से उनकी आशाओं पर तुषारापात हो गया।

जब अकबर की सेनाओं ने सूरत पर घेरा डाला हुआ था, तभी अकबर ने राजा मानसिंह और आमेर के भगवानदास सहित 200 सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी लेकर माही नदी को पार किया और मिर्ज़ाओं पर आक्रमण कर दिया। कुछ समय के लिए अकबर का जीवन ख़तरे में पड़ गया। लेकिन उसके आक्रमण की प्रचण्डता से मिर्ज़ाओं के पैर उखड़ गये। परन्तु, जैसे ही अकबर गुजरात से लौटा, यहाँ विद्रोह फूट पड़ा। यह सुनकर अकबर लौट पड़ा। उसने ऊँटों, घेड़ों और गाड़ियों में यात्रा करते हुए नौ दिन में सारा राजस्थान पार किया और ग्याहरवें दिन अहमदाबाद पहुँच गया। यह यात्रा सामान्यतः छः सप्ताहों में पूर्ण हो सकती थी। केवल, 3,000 सिपाही ही अकबर के साथ पहुँच पाये। इसी छोटी सी सेना की सहायता से उसने 30,000 सैनिकों की सेना को परास्त किया।

इसके पश्चात अकबर ने अपना ध्यान बंगाल की ओर लगाया। बंगाल के अफ़ग़ानों ने उड़ीसा को रौंद डाला था और उसके शासक को भी मार डाला था। लेकिन मुग़लों को नाराज होने का मौका न देने के लिए अफगान शासक ने औपचारिक रूप से स्वयं को सुल्तान घोषित नहीं किया था, और अकबर के नाम का खुत्वा पढ़ता रहा था। अफगानों की आंतरिक लड़ाई और नये शासक दाऊदखाँ द्वारा स्वतंत्रता की घोषणा से अकबर को वह अवसर मिल गया, जिसकी उसे तलाश थी। अकबर अपने साथ एक मजबूत नौका बेड़ा लेकर आगे बढ़ा। ऐसा विश्वास किया जाता था अफगान सुल्तान के पास बहुत बड़ी सेना है, जिसमें 40,000 सुसज्जित घुड़सवार, 1,50,000 पैदल सैनिक, कई हजार बन्दूकें और हाथी तथा युद्धक नावों का विशाल बेड़ा था। यदि अकबर सावधानी से काम न लेता और अफगानों के पास बेहतर नेता होता, तो हो सकता है कि हुमायूँ और शेरशाह की ही पुनरावृत्ति होती। अकबर ने पहले पटना पर अधिकार किया और इस प्रकार बिहार में मुग़लों के लिए संचार के साधनों को सुरक्षित कर लिया। उसके बाद उसने एक अनुभवी अधिकारी खान-ए-खानाँ मुनीसखाँ को अभियान का नेता बनाया और स्वयं आगरा लौट गया। मुग़ल सेनाओं ने बंगाल पर आक्रमण किया और काफी संघर्ष के बाद दाऊदखाँ को शान्ति की संधि के लिए विवश कर दिया। उसने शीघ्र ही दुबारा विद्रोह किया। यद्यपि बिहार और बंगाल में में मुग़लों की स्थिति अभी कमजोर थी, यद्यपि उनकी सेनाएँ अधिक संगठित और बेहतर नेतृत्व वाली थीं। 1576 में बिहार में एक तगड़ी लड़ाई में दाऊदखाँ पराजित हुआ और उसे उसी समय मार डाला गया। इस प्रकार उत्तर भारत से अफ़ग़ान शासन का पतन हुआ। इसी बीच अकबर के साम्राज्य विस्तार का पहला दौर भी समाप्त हुआ। प्रशासन गुजरात विजय के बाद के दशक में अकबर को साम्राज्य के प्रशानिक मामलों की ओर ध्यान देने का समय मिला। शेरशाह द्वारा स्थापित पद्धति में इस्लामशाह की मृत्यु के बाद गड़बड़ हो गई थी। इसलिए अकबर को नये सिरे से कार्य करना था। अकबर के सामने सबसे बड़ी समस्या भू-राजस्व के प्रशासन की थी। शेरशाह ने ऐसी पद्धति का प्रचलन किया था जिसमें औसत कीमतें कृषि-भूमि की नाप करके तय की जाती थीं और यह फ़सल की उत्पाद-औसत पर निर्धारित होती थीं। अकबर ने शेरशाह की पद्धति को हि अपनाया। लेकिन कुछ समय बाद यह अनुभव किया कि बाजार-भावों को निर्धारित करने में काफ़ी समय लग जाता है और फिर क़ीमतों का निर्धारण शाही दरबार के आस-पास की क़ीमतों पर आधारित होता था जो अक्सर ग्रामीण क्षत्रों की क़ीमतों से अधिक होती थीं। इससे किसानों को अधिक अंश कर के रूप में देना पड़ता था। अतः अकबर ने वार्षिक अनुमान की पद्धति को फिर से लागू किया। क़ानूनगो जो वंशगत भूमिधर होते थे, तथा अन्य स्थानिय अफ़सरों को, जो स्थानिय परिस्थितियों से परिचित होते थे, को वास्तविक उत्पादन, खेती की स्थिति, स्थानिय क़ीमतों, आदि की सूचना उपलब्ध कराने का आदेश दिया जाता था। लेकिन हर क्षेत्र के क़ानूनगो बेईमान थे और वे वास्तविक उत्पादन को अक्सर छिपा जाते थे। इसलिए वार्षिक अनुमान की पद्धति से भी किसानों और राज्य की परेशानियाँ कम नहीं हुईं। गुजरात से लौटने पश्चात् (1573) अकबर ने भू-राजस्व पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दिया। समस्त उत्तर भारत में करोड़ी पद के अधिकारियों की नियुक्ति हुई। एक करोड़ दाम (रु0 2,50,000) कर के रूप में एकत्र करना उनका उत्तरदायित्व था। वास्तविक उत्पादन, स्थानीय क़ीमतें, उत्पादकता, आदि पर उनकी सूचना के आधार पर, अकबर ने 1580 में दह-साला नाम की नयी प्रणाली लागू की। इस प्रणाली के अंतर्गत अलग-अलग फ़सलों के पिछले दस (दह) वर्ष के उत्पादन और इसी अवधि में उनकी क़ीमतों का औसत निकाला जाता था। इस औसत उपज का तिहाई राजस्व होता था। लेकिन राज्य की माँग नगद भुगतान की होती थी। उपज से नक़दी में यह परिवर्तन दस वर्षों की क़ीमतों के औसत पर आधारित होता था। इस प्रकार बीघा में कुल उत्पादन मनों में दिया जाता था और क़ीमतों के औसत के आधार पर प्रति बीघा रुपयो में परिवर्तित कर दिया जाता था। बाद में इस प्रणाली में और सुधार किया गया। इसके लिए न के केवल स्थानीय क़ीमतों को आधार बनाया गया बल्कि एक ही तरह के कृषि-उत्पादन वाले परगनों को विभिन्न कर हलक़ों में विभाजित किया गया। इस प्रकार किसान को भू-राजस्व स्थानीय क़ीमत और स्थानीय उत्पादन के अनुसार देना होता था। इस प्रणाली के कई लाभ थे। जैसे ही किसान द्वारा बोये गये खेत की लोहे के दल्लों से जुड़े बाँसों द्वारा नाप लिया जाता था, किसान और राज्य दोनों को यह पता चल जाता था कि कर की राशि कितनी होगी। यदि सूखा या बाढ़ आदि के कारण फ़सल खराब हो जाती थी, तो किसान को राजस्व में छूट मिलती थी। माप और उस पर आधारित कर-निर्धारण की प्रणाली को ज़ाब्ती-प्रणाली कहा जाता था। अकबर ने इस प्रणाली को लाहौर से इलाहाबाद और मालवा तथा गुजरात के क्षेत्रों में लागू किया। दह-साला-प्रणाली जाब्ती-प्रणाली का विकास थी। अकबर के शासनकाल में कर-निर्धारण की अन्य पद्धतियाँ अपनाई गईं। सबसे पुरानी और सामान्यतः प्रचलित प्रणाली बटाई अथवा गल्ला बख्शी कहलाती थी। इस प्रणाली में गल्ले को और किसानों और राज्य में निश्चित अनुपात में बांट लिया जाता था। उत्पादन को साफ़ करने के पश्चात या उस समय जब काटने के पश्चात उसके गठ्ठर बाँध दिए जाते थे अथवा कटाई से पूर्व कभी भी विभाजित कर दिया जाता था। यह प्रणाली काफ़ी सीधी और आसान थी, लेकिन उसके लिए काफ़ी बड़ी संख्या में ईमानदार कर्मचारियों की आवश्यकता पड़ती थी, जिन्हें अनाज के पकते समय और कटाई के समय खेतों में उपस्थित रहना पड़ता था। कुछ परिस्थितियों में किसानों को जब्ती या बटाई प्रणाली चुनने की छूट होती थी।फ उदाहरण के लिए जब खेती नष्ट हो जाती थी, तो किसानों को इस प्रकार की छूट दी जाती थी। बंटाई प्रणाली के अंतर्गत किसानों को उपज या नगदी में कर-भुगतान की छूट थी, यद्यपि राज्य नगदी में कर लेना उचित सतझता था। कपास, नील, तेल-बीज, ईख जैसी उपज पर तो नगद ही कर लिया जाता था। इसीलिए इन्हें नगदी-खेती कहा जाता था। अकबर के शासनकाल में एक तीसरी प्रणाली नसक भी काफ़ी प्रचलित थी, लेकिन इसके विषय में निश्चित जानकारी नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्रणाली किसानों द्वारा पिछले वर्षों में किए गए भुगतान के आधार पर कच्चे अनुमान पर आधारित थी। इस विषय में कतिपय आधुनिक इतिहासकारों का मत है कि यह कर-निर्धारण के स्थान पर कृषि-कर का लेखा जोखा करने की प्रणाली थी। अन्य विद्वानों का मत यह है कि यह प्रणाली खेती के निरीक्षण और पिछले अनुभवों पर आधारित अनुमित कर निर्धारण की प्रणाली थी, जो गांवे को सामूहिक रूप से भुगतान करना होता था। कर-निर्धारण की इस कच्ची प्रणाली को कंकूत भी कहा जाता था। कर-निर्धारण की कई अन्य प्रणालियाँ भी अलग-अलग क्षेत्रों में प्रचलित रहीं। भू-राजस्व निर्धारित करते समय बोआई की निस्तरता का भी ध्यान रखा जाता था। जिस ज़मीन पर हर साल बोआई होती थी, उसे पोलज कहा जाता था। जब उस पर बोआई नहीं होती थी, तो उसे परती कहा जाता था। परती ज़मीन की बोआई होने पर कर की पूरी दर (पोलज) देनी पड़ती थी। जब ज़मीन दो-तीन सालों तक बिन बोई रहती थी, तो उसे चचार कहा जाता था, और उससे अधिक समय तक बिन बोई रहने पर बंजर कहलाती थी। इस ज़मीन पर कर रियासती दरों पर लगाया जाता था, या उस पर पाँचवें या आँठवें साल पोलज दर लगाई जाती थी। इस प्रकार राज्य खाली पड़ी ज़मीन पर खेती करने को प्रोत्साहित करता था। ज़मीन को उपज के आधार पर वर्गीकृत भी किया जाता था, लेकिन यह कर-निर्धारण की पद्धति आदि पर भी निर्भर करता था। अकबर खेती के विस्तार और आधार में बहुत रुचि लेता था। वह आमिलों को किसानों से पितावत व्यवहार करने को कहता था। आवश्यकता पड़ने पर वह किसानों को बीज, औजारों, पशुओं आदि के लिए तक़ावी ऋण भी देता था। इन ऋणों को आसान किश्तों में वापस लिया जाता था। यह किसानों को अधिक से अधिक ज़मीन पर जुताई करने और घटिया फ़सलों के स्थान पर बढ़िया फ़सलों को उगाने के लिए प्रोत्साहन देने हेतु किया जाता था। इसके लिए उस क्षेत्र के जमींदारों को भी सहायता करने के लिए कहा जाता था। जमींदारों को पैदावार का कुछ अंश स्वयं लेने का वंशागत अधिकार प्राप्त था। किसानों को भी जुताई-बुआई का अधिकार वंशगत था, और वे जब तक कर देते रहते थे, उन्हें बेदखल नहीं किया जा सकता था। दह-साला प्रणाली में दस सालों के लिए एक ही दर के कर निर्धारित नहीं किये जाते थे। यह स्थायी भी नहीं होती थी। परन्तु, फिर भी अकबर की प्रणाली कुछ परिवर्तनों के साथ सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक मुग़ल साम्राज्य की नीति रही। जाब्ती-प्रणाली का श्रेय राजा टोडरमल को जाता है, और उसे राजा टोडरमल का बन्दोबस्त भी कहा जाता है। टोडरमल एक योग्य राजस्व अधिकारी था, जो पहले शेरशाह के अधीन कार्य करता था। लेकिन वह अकबर के शासनकाल के याग्य राजस्व अधिकारियों में से एक था। अकबर बिना सुदृढ़ सेना के न तो साम्राज्य का विस्तार कर सकता था, और न ही उस पर अपना अधिकार बनाये रख सकता था। इसके लिए अकबर को अपने सैनिक-अधिकारियों और सिपाहियों को सुगठित करना था। अकबर ने इन दोनों लक्ष्यों की पूर्ति मनसबदारी प्रणाली से की। इस प्रणाली में प्रत्येक सरदार और दूसरे अफ़सरों को एक पद (मनसब) दिया गया। निम्नतम पद 10 सिपाहियों के ऊपर था और सरदारों के लिए उच्चतम पद 5,000 सिपाहियों पर था। अकबर के शासनकाल के अंत में इसको 7,000 सिपाहियों तक बढ़ा दिया गया। रक्त से सम्बद्ध राजकुमारों को बड़े मनसब दिए जाते थे। इन पदों को दो वर्गों जात और सवार में विभाजित किया गया। ज़ात का अर्थ है व्यक्तिगत। इससे व्यक्ति का पद-स्थान तथा वेतन निर्धारित होता था। सवार का अर्थ घुड़सवारों की संख्या, जो मनसबदार अपने अधीन रखता था। जिस व्यक्ति को अपने जात-पद के अनुपात में सवार रखने का अधिकार होता था, वह प्रथम श्रेणी में आता था। यदि सवारों की संख्या आधी या आधी से अधिक होती थी, तो वह दूसरी श्रेणी में आता था, और उससे नीचे तीसरी श्रेणी होती थी। इस प्रकार प्रत्येक पद (मनसब) में तीन श्रेणियाँ होती थीं। जो अपने पास बड़ी संख्या में सवार रखते थे, उन्हें ज़ात वेतन के ऊपर दो रुपये प्रति सवार का अतिरिक्त वेतन मिलता था परन्तु कोई भी अपने जात-पद से अधिक सवार नहीं रख सकता था। हालाँकि इस व्यवस्था में समय-समय पर परिवर्तन होते रहे, पर जब तक साम्राज्य रहा मूल संरचना यही रही। अपने व्यक्तिगत वेतन में से ही मनसबदार को हाथी, ऊँट, खच्चर और गाड़ियाँ रखनी पड़ती थी। ये सेना के यातायात के लिए आवश्यक थे। मुग़ल मनसबदारों को बहुत अच्छा वेतन मिलता था। सम्भवतः उनके वेतन उस समय संसार में सबसे अधिक थे। जिस मनसबदार के पास 100 ज़ात का मनसब होता था, उसे 500 रुपये वेतन मिलता था। 1,000 ज़ात का मनसब होने पर वेतन की राशि 4,400 रुपये होती थी। जबकि 5,000 ज़ात का मनसब होने पर यह राशि बढ़कर 30,000 रुपये हो जाती थी। उस काल में कोई आयकर नहीं होता था। उस समय रुपये की क्रय-शक्ति 1966 के अनुपात में 60 गुणा थी। यद्यपि मनसबदारों को अपने वेतन का आधा अंश पशु इत्यादि रखने में और अपनी जागीर की व्यवस्था पर व्यय करना पड़ता था, फिर भी वे शानोशौकत का जीवन व्यतीत करते थे। इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता था कि कि भर्ती किए जाने वाले सवार अनुभवी और कुशल हों। इस कार्य के लिए प्रत्येक सवार का खाता (चेहरा) रखा जाता था और घोड़ों पर शाही निशान लगाया जाता था। इसे दागना कहा जाता था। प्रत्येक मनसबदार को समय-समय पर अपने सैनिकों को शहनशाह द्वारा नियुक्त समिति के सामने निरीक्षण के लिए लाना पड़ता था। घोड़ों का निरीक्षण बहुत ध्यान से किया जाता था और केवल अरबी और इराकी नस्ल के घोड़े ही रखे जाते थे। प्रत्येक 10 घुड़सवारों के पीछे मनसबदार को 20 घोड़े रखने पड़ते थे। इसका कारण यह था कि कूच के समय घोड़ों को आराम दिया जाता था और युद्ध के समय नयी कुमुक की आवश्यकता होती थी। जब तक 10:20 नियम का पालन किया जाता रहा, मुग़ल घुड़सेना सशक्त रही। इस बात की भी व्यवस्था थी कि मनसबदारों के दलों में सवार मिश्रित अर्थात मुग़ल, पठान, हिन्दुस्तानी और राजपूत सभी जातियों के हों। इस प्रकार से अकबर ने जाति और विशिष्टतागत भावना को कमजोर करने का प्रयत्न किया। मुग़ल और राजपूत सरदारों को ही इस बात की अनुमति थी कि वे अपनी टुकड़ियों में केवल मुग़ल और राजपूत सवार रखें, किन्तु धीरे-धीरे मिश्रित सवारों की पद्धति सामान्य रूप से अपना ली गई। घुड़ सवारों के अतिरिक्त सेना में तीरअन्दाज, बन्दूक़ची खन्दक़ खोदने वाले भी भर्ती किए जाते थे। इनके वेतन अलग-अलग थे। एक सवार का औसत वेतन बीस रुपये प्रति मास था। ईरानी और तुर्की सवारों को कुछ अधिक वेतन मिलता था। पैदल सैनिकों को तीन रुपये प्रति मास मिलते थे। सिपाहियों के वेतन को मनसबदार के व्यक्तिगत वेतन में जोड़ दिया जाता था। मनसबदार को जागीर के रूप में वेतन दिया जाता था। कभी-कभी मनसबदारों को वेतन नक़द भी दिया जाता था। अकबर जागीर प्रथा को पसन्द नहीं करता था, किन्तु वह इसे समाप्त नहीं कर सका, क्योंकि इसकी जड़ें बहुत गहरी थीं। क्योंकि जागीर वंशगत अधिकार नहीं होती थी और उससे उस क्षेत्र में विद्यमान अधिकारों में कोई परिवर्तन नहीं होता था। इसलिए जागीर देने का केवल यही अर्थ था कि राज्य को देय भू-राजस्व जागीरदार को दिया जाता था। अकबर के पास एक बड़ी सेना थी, जो उसके अंगरक्षक का कार्य करती थी। उसके पास बहुत बड़ा अस्तबल था। उसके पास एक टुकड़ी कुलीन घुड़सवारों की भी थी। यह टुकड़ी उन सैनिकों की थी जो सरदारों से रक्त से संम्बन्धित थे किन्तु जिनके पास इतनी सुविधाएँ नहीं थीं कि अपनी टुकड़ी का निर्माण कर सकें, या इसमें वे लोग थे जिन्होंने अकबर को प्रभावित किया था। उन्हें आठ से दस घोड़े रखने का अधिकार था और उन्हें लगभग 800 रुपये वेतन प्रति मास मिलता था। वे केवल शहनशाह के प्रति उत्तरदायी थे और उनकी हाजिरी भी अलग होती थी। इन सैनिकों की तुलना मध्य युगीन यूरोप के नाइट्स से की जा सकती है। अकबर को घोड़ों और हाथियों का बहुत शौक था। उसके पास एक बृहद तोपखाना भी था। तोपों में उसकी विशेष रूचि थी। उसने खोली जा सकने वाली तोपों का निर्माण करवाया, जिन्हें हाथी या ऊँट ढो सकते थे। उसके पास घेरे के समय क़िले की दीवारें तोड़ने वाली भारी तोपें भी थी। इसमें से कुछ तो इतनी भारी थीं कि उन्हें खींचने के लिए 100 या 200 बैल और कई हाथी इस्तेमाल करने पड़ते थे। अकबर जब भी राजधानी से बाहर जाता था, एक मजबूत तोपखाना उसके साथ चलता था। इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि अकबर की योजना नौ-सेना का संगठन करने की भी थी। मज़बूत नौ-सेना का अभाव मुग़ल साम्राज्य की हमेशा कमजोरी रहा। यदि अकबर को समय मिला होता तो, सम्भवतः वह इस ओर भी ध्यान देता। उसने युद्ध के लिए नावों का एक बेड़ा अवश्य गठित किया था। जिसका प्रयोग उसने पूर्व की ओर किए गए अपने अभियानों में किया। इनमें से कुछ नावें 30 मीटर लम्बी थीं और 350 टन तक बोझ ढो सकती थीं। प्रशासन का गठन स्थानीय-प्रशासन में अकबर ने कोई परिवर्तन नहीं किया। परगना और सरकार की स्थिति पहले जैसी रही। सरकार के मुख्य अधिकारी फ़ौजदार और अमालगुजार होते थे। फ़ौजदार का काम न्याय और व्यवस्था बनाए रखना होता था और अमालगुज़ार भू-राजस्व के निर्धारण और विभिन्न क्षेत्रों को जागीर, खालिसा और इनाम में विभाजित किया गया था। खालिसा क्षेत्रों की आय सीधी सरकारी खजाने में जाती थी। इनाम क्षेत्र पर जो होता था वह विद्वानों और पीरों आदि को दिया जाता था। ज़ागीर सरदारों, शाही परिवार के सदस्यों और बेगमों को दी जाती थी। अमालगुज़ार का यह उत्तरदायित्व होता था कि प्रत्येक प्रकार की ज़मीन की देखभाल करे ताकि कर निर्धारण और वसूलने के नियमों का पालन समान रूप से हो सके। केवल स्वायत्ता-प्राप्त राजाओं को यह छूट थी कि वे अपेन क्षेत्र में पारंपरिक राजस्व-प्रणाली का पालन करते रहें। अकबर उन्हें भी शाही प्रणाली अपनाने के लिए उत्साहित करता था। अकबर ने केन्द्रीय और प्रान्तीय प्रशासन के गठन की ओर बहुत ध्यान दिया। उसके केन्द्रीय शासन का ढाँचा दिल्ली सल्तनत के केन्द्रीय शासन के ढाँचे पर आधारित था, किन्तु विभिन्न विभागों क कार्यों का सावधानी से पुनर्गठन किया गया और कार्य करने के लिए बहुत स्पष्ट नियम बनाये गये। इस प्रकार अकबर ने शासन-प्रणाली को नया रूप प्रदान करके उसमें नयी जान फूँद दी। मध्य एशियाई और तैमूरी परम्परा में वज़ीर सर्वाधिक शक्तिशाली होता था और उसके अधीन विभिन्न विभागों के सर्वोच्च अधिकारी काम करते थे। वह प्रशासन और शासक के बीच प्रमुख सम्पर्क होता था। धीरे-धीरे सैनिक विभाग एक अलग विभाग बन गया। न्याय-विभाग हमेशा से ही अलग होता था। इस प्रकार व्यवहार में एक सर्वशक्तिशाली वज़ीर रखने की परम्परा समाप्त हो गई थी। परन्तु वकील होने के नाते बैरमखाँ ने सर्वशक्तिशाली वज़ीर के अधिकारों का ही उपभोग किया था। अकबर ने केन्द्रीय प्रशासन के ढाँचे में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। उसने विभिन्न विभागों को अलग-अलग अधिकार दिए ताकि एक-दूसरे से उनका संतुलन बना रहे और एक-दूसरे पर नजर भी रहे। वकील का पद समाप्त नहीं किया गया, लेकिन उसके सब अधिकार समाप्त कर दिए गए और वह केवल सजावट का पद रह गया। यह पद समय-समय पर बड़े सरदारों को दिया जाता था। किन्तु इस पद पर काम करने वाले व्यक्ति का प्रशासन के मामलों में कोई दखल नहीं होता था। राजस्व-विभाग का प्रमुख वज़ीर ही होता था और अक्सर वह बड़े सरदारों में से ही कोई होता था। कई सरदारों के पास वज़ीर से भी ऊँचे मनसब होते थे। अतः अकबर के काल में वज़ीर शासक का मुख्य सलाहकार नहीं होता था, किन्तु वह राजस्व के मामलों का विशेषज्ञ होता था। इस बात पर बल देने के लिए ही अकबर 'वज़ीर के स्थान पर दीवान या दीवान-ए-आला नामों का प्रयोग करता था। कभी-कभी एक साथ कई व्यक्तियों को दीवान का कार्य संयुक्त रूप से करने को कहा जाता था। दीवान समस्त आय और इनाम ज़मीनों का केन्द्रीय अधिकारी होता था। सैनिक विभाग का मुखिया मीर बख्शी कहलाता था। सरदारों का प्रमुख मीर बख्शी कहलता था, न क दीवान। इसलिए प्रमुख सरदारों को ही यह पद दिया जाता था। मनसब के पदों की नियुक्ति और पदोन्नति आदि की सिफ़ारिश शहनशाह के पास मीर बख्शी के माध्यम से ही जाती थी। सिफ़ारिश मंजूर हो जाने पर पुष्टि के लिए तथा पद पर नियुक्ति व्यक्ति को जागीर प्रदान करने के लिए दीवान के पास नाम भेजा जाता था। पदोन्नति के लिए भी यही पद्धति अपनायी जाती थी। साम्राज्य की गुप्तचर संस्थाओं का प्रमुख भी मीर बख्शी होता था। साम्राज्य के प्रत्येक भाग में गुप्तचर अधिकारी (बारिद) और संदेश लेखक (वाक़या-नवीस) नियुक्त किए जाते थे। उनकी सूचनाएँ मीर बख्शी के माध्यम से दरबार में पहुँचाई जाती थी। इससे यह स्पष्ट है कि दीवान और मीर बख्शी समान पदों पर थे और एक-दूसरे के पूरक थे और एक-दूसरे काम पर नजर रखते थे। तीसरा महत्वपूर्ण अधिकारी मीर सामाँ होता था। वह शाही परिवार के कामों को देखता था। जिसमें हरम के लिए आवश्यक भोजन सामग्री और अन्य वस्तुओं की आपूर्त्ति भी सम्मिलित थी। इनमें से बहुत सी वस्तुओं का उत्पादन शाही कारख़ानों में होता था। सम्राट के अत्यन्त विश्वसनीय सरदारों को ही इस पद पर नियुक्त किया जाता था। दरबार की मर्यादा का पालन कराने और शाही अंगरक्षकों का निरीक्षण भी इसी अधिकारी का उत्तरदायित्व था। चौथा महत्वपूर्ण विभाग न्याय-विभाग था, जिसका प्रमुख अधिकारी प्रधान काजी होता था। इस पद को कभी-कभी मुख्य सवर के पद के साथ मिला दिया जाता था। सदर सब कल्याण संस्थाओं और धार्मिक संस्थाओं की देखभाल करता था। इस पद के साथ बहुत से अधिकार जुड़े होते थे, और इसे पूरा संरक्षण मिलता था। यह विभाग अकबर के प्रधान क़ाज़ी अब्दुलनवी के भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के कारण बदनाम हो गया। विभिन्न व्यक्तियों को प्रदत्त अनुदानों का सावधानी से अध्ययन करने के बाद अकबर ने जागीर और खालिसा ज़मीन से इनाम की ज़मीन को अलग कर दिया तथा इनाम-ज़मीन के वितरण और प्रशासन के लिए उसने साम्राज्य को छः विभिन्न हलकों में विभाजित कर दिया। इनाम की दो विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं। पहली यह कि अकबर ने जानबूझ कर यह नीति अपनायी की इनाम बिना किसी धार्मिक भेदभाव के दिया जाए। अनेक हिन्दू मठों को दिए गए अनुदानों की सनदें अभी भी सुरक्षित हैं। दूसरी विशेषता यह थी कि अकबर ने यह नीति अपनाई कि इनाम में आधी भूमि ऐसी हो जो ख़ाली पड़ी हो, लेकिन कृषि-योग्य हो। इस प्रकार इनाम पाने वालों को खेती के विस्तार के लिए प्रोत्साहित किया गया। प्रजा से मिलने तथा दीवानों से भेंट करने के लिए अकबर ने अपनी समय-सारिणी बड़ी सावधानी से बनाई। उसका दिन महल के झरोखे पर उपस्थित होकर दर्शन देने से होता था। शहनशाह के दर्शनों के लिए बड़ी संख्या में लोग उपस्थित होते थे, और आवश्यकतानुसार अपनी फ़रियाद कर सकते थे। इन फ़रियादों पर तुरन्त या बाद में दीवान-ए-आम में कार्यवाही होती थी, जो दोपहर तक चलता था। उसके पश्चात् शहनशाह भोजन और आराम के लिए इनाम घर में चले जाते थे। मंन्त्रियों के लिए अलग समय निर्धारित होता था। गोपनीय मंत्रणा के लिए दीवानों को अकबर के गुसलखाने के निकट स्थित एक कक्ष में बुलाया जाता था। धीरे-धीरे गोपनीय मंत्रणा-कक्ष गुसलखाने के नाम से मशहूर हो गया। 1580 में अकबर ने सम्पूर्ण साम्राज्य को बारह सूबों में विभाजित कर दिया। ये थे—बंगाल, बिहार, इलाहाबाद, अवध, आगरा, दिल्ली, लाहौर, मुल्तान, काबुल, अजमेर, मालवा और गुजरात। प्रत्येक सूबे में एक सूबेदार, एक दीवान, एक बख्शी, एक सदर, एक काज़ी और एक वाक़या नवीस की नियुक्ति की गई। इस प्रकार नियन्त्रण और संतुलन के सिद्धान्त पर आधारित सुगठित प्रशासन सूबों में भी लागू किया गया। राजपूतों के साथ सम्बन्ध राजपूतों के साथ अकबर के सम्बन्धों को देश के शक्तिशाली राजाओं और जागीरदारों के प्रति मुग़ल-नीति के वृहद पृष्ठभूमि में देखना होगा। जब हुमायूँ हिन्दूस्तान लौटा, तो उसने जानबूझ कर इन तत्वों को अपनी ओर मिलाने की नीति अपनायी। अबुल फ़जल कहता है कि ज़मींदारों को शान्त करने के लिए उसने उनसे वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किए। उदाहरण के लिएजब हिन्दुस्तान के बड़े ज़मींदारों में से एक जमालखाँ मेवाती ने हुमायूँ को समर्पण किया तो हुमायूँ ने उसकी बेटी से स्वयं विवाह किया और छोटी बहन का विवाह बैरमखाँ से किया। बाद में इस नीति को अकबर ने आगे बढ़ाया। आमेर का शासक भारमल अकबर के राज्य निरीक्षण के एकदम बाद आगरा के दरबार में उपस्थित हुआ था। तरूण शासक पर उसका अच्छा प्रभाव पड़ा था। क्योंकि उस समय एक पागल हाथी के भय से लोग इधर-उधर भाग रहे थे। किन्तु भारमल के सैनिक दृढ़ता से वहाँ खड़े रहे। 1562 में जब अकबर अजमेर जा रहा था तो उसे पता लगा कि स्थानीय मुग़ल गवर्नर भारमल को परेशान कर रहा है। भारमल स्वयं अकबर से मिलने आया और अपनी छोटी बेटी बाई हर्का का अकबर विवाह कर अपनी स्वामीभक्ति को सिद्ध किया। मुस्लिम शासकों और हिन्दू अधिपतियों की कन्याओं के मध्य विवाह असाधारण बात नहीं थी। चौदहवीं और पंद्रहवीं शताब्दी में हुए इस प्रकार के अनेक विवाहों का उल्लेख पिछले अध्यायों में किया जा चुका है। जोधपुर के शक्तिशाली राजा मालदेव ने अपनी एक लड़की बाई कनका का विवाह गुजरात के सुल्तान महमूद के साथ किया था और दूसरी लड़की लाल बाई का विवाह सूर-शासक सम्भवतः इस्लामशाह सूर-के साथ किया था। इनमें से अधिकांश विवाह सम्बन्धित परिवारों के मध्य स्थायी व्यक्तिगत सम्बन्धों को स्थापित करने में सफल नहीं हुए। विवाह के पश्चात् लड़कियों को अक्सर भुला दिया जाता था और वे वापस नहीं आती थीं। अकबर ने दूसरी नीति अपनायी। उसने अपनी हिन्दु पत्नियों को पूरी धार्मिक स्वतंत्रता दी और उनके पिताओं और सम्बन्धियों को सरदारों में सम्माननीय पद प्रदान किए। भारमल को काफ़ी ऊँचा पद प्राप्त हुआ। उसका पुत्र भगवानदास पांचहजारी मनसब तक पहुँचा और उसका पोता मानसिंह सात हजारी तक। अकबर ने यह पद के केवल एक और व्यक्ति को प्रदान किया था और वह था अकबर का धाय-भाई अज़ीजखाँ कूका। अकबर ने कछवाहा शासकों के साथ अपने विशेष सम्बन्धों पर अन्य कारणों से भी बल दिया। राजकुमार धनपाल जब बच्चा था तो उसे भारमल की पत्नियों के पास पलने के लिए भेज दिया गया था। 1572 में जब अकबर ने गुजरात पर चढ़ाई की तो आगरा भारमल के सुपुर्द छोड़ा गया, जहाँ शाही परिवार की सब स्त्रियाँ थी। यह ऐसा सम्मान था जो या तो शासक के सम्बन्धी या अत्यन्त विश्वसनीय सरदार को ही दिया जाता था। परन्तु अकबर ने वैवाहिक सम्बन्धों को शर्त के तौर पर नहीं रखा। रणथम्भौर के हाड़ाओं के साथ अकबर के वैवाहिक सम्बन्ध नहीं थे, फिर भी वे अकबर के कृपा-पात्र थे। राव सुजैन हाड़ा को गढ़-कटंगा का शासन सौंपा गया था और उसका मनसब 2,000 सवारों का था। इसी प्रकार सिरोही और बाँसवाड़ा के शासकों के साथ भी जिन्होंने बाद में समर्पण किया था।