अनुलोम विवाह
अनुलोम विवाह के अर्थ में 'अनुलोम' एवं 'प्रतिलोम' शब्दों का व्यवहार वैदिक साहित्य में नहीं पाया जाता। पाणिनी [1] ने इन शब्दों से व्युत्पन्न शब्द अष्टाध्यायी में गिनाए हैं और इसके बाद स्मृतिग्रंथों में इन शब्दों का बहुतायत से प्रयोग होता दिखाई देता है[2], जिससे अनुमान होता है कि उत्तर वैदिक काल के समाज में अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाहों का प्रचार बढ़ा।
अनुलोम विवाह का सामान्य अर्थ है अपने वर्ण से निम्नत्तर वर्ण में विवाह करना। इसके विपरीत किसी निम्नस्तर वर्ण के पुरुष और उच्चत्तर वर्ण की कन्या के बीच संबंध का स्थापित होना प्रतिलोम विवाह कहलाता है। प्राय: धर्मशास्त्रों की परीक्षा इसी सिद्धांत का प्रतिपादन करती है कि अनुलोम विवाह ही शास्त्रकारों को मान्य थे, यद्यपि दोनों प्रकार के दृष्टांत स्मृतिग्रंथों में मिलते हैं। अनुलोम विवाह से उत्पन्न संतान के विषय में ऐसा सामान्य मत जान पड़ता है कि उसे माता के वर्ण के अनुरूप मानते हैं। इसका एक विपरीत उदाहरण बौद्ध जातकों में फिक ने 'भद्दसाल जातक' में ढूँढ़ा है; जिसके अनुसार माता का कुल नहीं देखा जाता, पिता का ही कुल देखा जाता है। अनुलोम से उत्पन्न संतानों और प्रजातियों के संबंध में विभिन्न शास्त्रों में विभिन्न मत पाए जाते हैं, जिन सबका यहाँ उल्लेख करना कठिन है। मनु के अनुसार अंबष्ठ, निषाद और उग्र अनुलोम विवाहों से उत्पन्न जातियाँ थीं।
प्रसिद्ध उदाहरण
अनुलोम विवाहों के उदाहरण भारत में मध्य काल तक काफ़ी पाए जाते हैं। कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्' से पता चलता है कि अग्निमित्र ने, जो ब्राह्मण था, क्षत्राणी मालविका से विवाह किया था। चंद्रगुप्त द्वितीय की राजकन्या प्रभावती गुप्ता ने वाकाटक 'ब्राह्मण' रुद्रसेन द्वितीय से विवाह किया और उसकी पट्टमहिषी बनी। कदंबकुल के सम्राट् काकुत्स्थ वर्मा[3] के तालगुंड अभिलेख से विदित होता है कि कदंबकुल के संस्थापक मयूर शर्मा ब्राह्मण थे, उन्होंने कांची पल्लवों के विरुद्ध शस्त्र ग्रहण किया।[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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