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*इन्हें वीरशासन का प्रभावक और सम्प्रसारक कहा है।  
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समन्तभद्र ने किस समय इस धरा को सुशोभित किया, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। कोई विद्वान इन्हें ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद का मानता है तो कोई ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी का। इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध इतिहासकार स्वर्गीय पंडित जुगलकिशोर मुख्तार ने अपने विस्तृत लेखों में अनेक प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थ सूत्र के दर्ता आचार्य उमास्वामी के पश्चात्‌ एवं पूज्यपाद स्वामी के पूर्व हुए हैं। अतः ये असन्दिग्ध रूप से विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के महान विद्वान थे। अभी समन्तभद्र के सम्बन्ध में यही विचार सर्वमान्य माना जा रहा है।
*इनका अस्तित्व ईसा की 2सरी 3सरी शती माना जाता है।  
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उत्तरवर्ती आचार्यों ने इनका अपने ग्रन्थों में जो गुणगान किया है वह अभूतपूर्व है। इन्हें वीरशासन का प्रभावक और सम्प्रसारक कहा है। इनका अस्तित्व ईसा की 2सरी 3सरी शती माना जाता है। स्याद्वाददर्शन और स्याद्वादन्याय के ये आद्य प्रभावक हैं। जैन न्याय का सर्वप्रथम विकास इन्होंने अपनी कृतियों और शास्त्रार्थों द्वारा प्रस्तुत किया है। इनकी निम्न कृतियाँ प्रसिद्ध हैं-  
*जैन न्याय का सर्वप्रथम विकास इन्होंने अपनी कृतियों और शास्त्रार्थों द्वारा प्रस्तुत किया है। इनकी निम्न कृतियाँ प्रसिद्ध हैं-  
 
 
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*इनमें आरम्भ की तीन रचनाएँ दार्शनिक एवं तार्किक एवं तार्किक हैं, चौथी सैद्धान्तिक और पाँचवीं काव्य है।  
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*इनकी कुछ रचनाएँ अनुपलब्ध हैं, पर उनके उल्लेख और प्रसिद्धि है। उदाहरण के लिए इनका 'गन्धहस्ति-महाभाष्य' बहुचर्चित है।  
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इनमें आरम्भ की तीन रचनाएँ दार्शनिक एवं तार्किक एवं तार्किक हैं, चौथी सैद्धान्तिक और पाँचवीं काव्य है। इनकी कुछ रचनाएँ अनुपलब्ध हैं, पर उनके उल्लेख और प्रसिद्धि है। उदाहरण के लिए इनका 'गन्धहस्ति-महाभाष्य' बहुचर्चित है। जीवसिद्धि प्रमाणपदार्थ, तत्त्वानुशासन और कर्मप्राभृत टीका इनके उल्लेख ग्रन्थान्तरों में मिलते हैं। पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने इन ग्रन्थों का अपनी 'स्वामी समन्तभद्र' पुस्तक में उल्लेख करके शोधपूर्ण परिचय दिया है।
*जीवसिद्धि प्रमाणपदार्थ, तत्त्वानुशासन और कर्मप्राभृत टीका इनके उल्लेख ग्रन्थान्तरों में मिलते हैं।  
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Disamb2.jpg समन्तभद्र एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- समन्तभद्र (बहुविकल्पी)

आचार्य समन्तभद्र जैन दार्शनिकों में आचार्य कुन्दकुन्द के बाद दिगम्बर परम्परा में अग्रणी और प्रभावशाली तार्किक हुए थे। 'रत्नकरण्डकश्रावकाचार्य' ग्रन्थ के कर्ता आचार्य समन्तभद्र स्वामी हैं। प्रतिभाशाली आचार्यों, समर्थ विद्वानों एवं पूज्य महात्माओं में इनका स्थान बहुत ऊँचा है। ये 'समन्तातभद्र' थे, अर्थात बाहर भीतर सब ओर से भद्र रूप थे। समन्तभद्र बहुत बड़े योगी, त्यागी, तपस्वी एवं तत्त्वज्ञानी महापुरुष थे। वे जैन धर्म एवं सिद्धांतों के मर्मज्ञ होने के साथ ही तर्क, व्याकरण, छन्द, अलंकार और काव्यकोषादि ग्रन्थों में पूरी तरह निष्णात थे। इनको 'स्वामी' पद से विशेष तौर पर विभूषित किया गया है।

परिचय

समन्तभद्र ने किस समय इस धरा को सुशोभित किया, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। कोई विद्वान इन्हें ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद का मानता है तो कोई ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी का। इस सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध इतिहासकार स्वर्गीय पंडित जुगलकिशोर मुख्तार ने अपने विस्तृत लेखों में अनेक प्रमाण देकर यह स्पष्ट किया है कि स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थ सूत्र के दर्ता आचार्य उमास्वामी के पश्चात्‌ एवं पूज्यपाद स्वामी के पूर्व हुए हैं। अतः ये असन्दिग्ध रूप से विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी के महान विद्वान थे। अभी समन्तभद्र के सम्बन्ध में यही विचार सर्वमान्य माना जा रहा है।

कृतियाँ

उत्तरवर्ती आचार्यों ने इनका अपने ग्रन्थों में जो गुणगान किया है वह अभूतपूर्व है। इन्हें वीरशासन का प्रभावक और सम्प्रसारक कहा है। इनका अस्तित्व ईसा की 2सरी 3सरी शती माना जाता है। स्याद्वाददर्शन और स्याद्वादन्याय के ये आद्य प्रभावक हैं। जैन न्याय का सर्वप्रथम विकास इन्होंने अपनी कृतियों और शास्त्रार्थों द्वारा प्रस्तुत किया है। इनकी निम्न कृतियाँ प्रसिद्ध हैं-

  1. आप्तमीमांसा (देवागम),
  2. युक्त्यनुशासन,
  3. स्वयम्भू स्तोत्र,
  4. रत्नकरण्डकश्रावकाचार और
  5. जिनशतक।

इनमें आरम्भ की तीन रचनाएँ दार्शनिक एवं तार्किक एवं तार्किक हैं, चौथी सैद्धान्तिक और पाँचवीं काव्य है। इनकी कुछ रचनाएँ अनुपलब्ध हैं, पर उनके उल्लेख और प्रसिद्धि है। उदाहरण के लिए इनका 'गन्धहस्ति-महाभाष्य' बहुचर्चित है। जीवसिद्धि प्रमाणपदार्थ, तत्त्वानुशासन और कर्मप्राभृत टीका इनके उल्लेख ग्रन्थान्तरों में मिलते हैं। पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने इन ग्रन्थों का अपनी 'स्वामी समन्तभद्र' पुस्तक में उल्लेख करके शोधपूर्ण परिचय दिया है।


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