जैन धर्म

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जैन धर्म
जैन धर्म का प्रतीक चिह्न
विवरण जैन धर्म अर्थात् 'जिन' भगवान का धर्म। 'जैन धर्म' भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है।
जैन एवं जिन 'जैन' उन्हें कहते हैं, जो 'जिन' के अनुयायी हों। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' यानी जीतना। 'जिन' अर्थात् जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया हो, वे 'जिन' कहलाते है।
प्राचीनता जैन धर्म के अनुयायियों की मान्यता है कि उनका धर्म 'अनादि'[1] और सनातन है।
शाखाएँ दिगम्बर और श्वेताम्बर
तीर्थंकर जैन धर्म में 24 तीर्थंकर माने गए हैं, जिन्हें इस धर्म में भगवान के समान माना जाता है। वर्धमान महावीर, जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान श्री ऋषभनाथ[2] की परम्परा में 24वें तीर्थंकर थे।
धर्म ग्रंथ भगवान महावीर ने सिर्फ़ प्रवचन ही दिए थे। उन्होंने किसी ग्रंथ की रचना नहीं की थी, लेकिन बाद में उनके गणधरों ने उनके अमृत वचन और प्रवचनों का संग्रह कर लिया। यह संग्रह मूलत: प्राकृत भाषा में है।
जैन अनुश्रुति मथुरा में विभिन्न कालों में अनेक जैन मूर्तियाँ मिली हैं, जो जैन संग्रहालय मथुरा में संग्रहीत हैं।
अन्य जानकारी जैन परम्परा में 63 शलाका महापुरुष माने गए हैं। पुराणों में इनकी कथाएँ तथा धर्म का वर्णन आदि है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्य देशी भाषाओं में अनेक पुराणों की रचना हुई है।

जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला धर्म और दर्शन है। 'जैन' उन्हें कहते हैं, जो 'जिन' के अनुयायी हों। 'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से। 'जि' यानी जीतना। 'जिन' अर्थात् जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं 'जिन'। जैन धर्म अर्थात् 'जिन' भगवान का धर्म। वस्त्र-हीन बदन, शुद्ध शाकाहारी भोजन और निर्मल वाणी एक जैन-अनुयायी की पहली पहचान है। यहाँ तक कि जैन धर्म के अन्य लोग भी शुद्ध शाकाहारी भोजन ही ग्रहण करते हैं तथा अपने धर्म के प्रति बड़े सचेत रहते हैं।

प्राचीनता

जैन धर्म के अनुयायियों की मान्यता है कि उनका धर्म 'अनादि'[3] और सनातन है। सामान्यत: लोगों में यह मान्यता है कि जैन सम्प्रदाय का मूल उन प्राचीन पंरपराओं में रहा होगा, जो आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में प्रचलित थीं। किंतु यदि आर्यों के आगमन के बाद से भी देखा जाये तो ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा वेदों तक पहुँचती है।

अन्तिम अनुबद्ध (केवली) श्री 1008 जम्बूस्वामी

महाभारत के युद्ध के समय इस संप्रदाय के प्रमुख नेमिनाथ थे, जो जैन धर्म में मान्य तीर्थंकर हैं। ई. पू. आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका जन्म काशी (वर्तमान बनारस) में हुआ था। काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था। इन्हीं के नाम पर सारनाथ का नाम प्रचलित है। जैन धर्म में श्रमण संप्रदाय का पहला संगठन पार्श्वनाथ ने किया था। ये श्रमण वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे। महावीर तथा बुद्ध के काल में ये श्रमण कुछ बौद्ध तथा कुछ जैन हो गए थे। इन दोनों ने अलग-अलग अपनी शाखाएँ बना लीं। भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे, जिनका जन्म लगभग ई. पू. 599 में हुआ और जिन्होंने 72 वर्ष की आयु में देहत्याग किया। महावीर स्वामी ने शरीर छोडऩे से पूर्व जैन धर्म की नींव काफ़ी मजबूत कर दी थी। अहिंसा को उन्होंने जैन धर्म में अच्छी तरह स्थापित कर दिया था। सांसारिकता पर विजयी होने के कारण वे 'जिन' (जयी) कहलाये। उन्हीं के समय से इस संप्रदाय का नाम 'जैन' हो गया।[4]

मतभेद तथा विभाजन

जैन धर्म के 24 तीर्थंकर
क्रमांक संख्या तीर्थकर का नाम
1. ॠषभनाथ तीर्थंकर
2. अजितनाथ
3. सम्भवनाथ
4. अभिनन्दननाथ
5. सुमतिनाथ
6. पद्मप्रभ
7. सुपार्श्वनाथ
8. चन्द्रप्रभ
9. पुष्पदन्त
10. शीतलनाथ
11. श्रेयांसनाथ
12. वासुपूज्य
13. विमलनाथ
14. अनन्तनाथ
15. धर्मनाथ
16. शान्तिनाथ
17. कुन्थुनाथ
18. अरनाथ
19. मल्लिनाथ
20. मुनिसुब्रनाथ
21. नमिनाथ
22. नेमिनाथ तीर्थंकर
23. पार्श्वनाथ तीर्थंकर
24. वर्धमान महावीर

मौर्य सम्राट अशोक के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उसके समय में मगध में जैन धर्म का प्रचार था। लगभग इसी समय मठों में बसने वाले जैन मुनियों में यह मतभेद शुरू हुआ कि तीर्थंकरों की मूर्तियाँ कपड़े पहनाकर रखी जाएँ या नग्न अवस्था में। इस बात पर भी मतभेद था कि जैन मुनियों को वस्त्र पहनना चाहिए या नहीं। आगे चलकर यह मतभेद और भी बढ़ गया। ईसा की पहली सदी में आकर जैन मतावलंबी मुनि दो दलों में बंट गए। एक दल 'श्वेताम्बर' और दूसरा दल 'दिगम्बर' कहलाया। 'श्वेताम्बर' और 'दिगम्बर' इन दोनों संप्रदायों में मतभेद दार्शनिक सिद्धांतों से अधिक चरित्र को लेकर है। दिगम्बर आचरण पालन में अधिक कठोर माने जाते हैं, जबकि श्वेताम्बर कुछ उदार हैं। श्वेताम्बर संप्रदाय के मुनि श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, जबकि दिगम्बर मुनि निर्वस्त्र रहकर साधना करते हैं। यह नियम केवल मुनियों पर लागू होता है। दिगम्बर संप्रदाय यह मानता है कि मूल आगम ग्रंथ लुप्त हो चुके हैं, 'कैवल्य ज्ञान' प्राप्त होने पर सिद्ध को भोजन की आवश्यकता नहीं रहती और स्त्री शरीर से 'कैवल्य ज्ञान' संभव नहीं है; किंतु श्वेताम्बर संप्रदाय ऐसा नहीं मानते हैं।

शाखाएँ

जैन धर्म की दिगम्बर शाखा में तीन शाखाएँ हैं-
  1. मंदिरमार्गी
  2. मूर्तिपूजक
  3. तेरापंथी
श्वेताम्बर में शाखाओं की संख्या दो है-
  1. मंदिरमार्गी
  2. स्थानकवासी

दिगम्बर संप्रदाय के मुनि वस्त्र नहीं पहनते। 'दिग्‌' अर्थात् दिशा। दिशा ही अंबर है, जिसका वह 'दिगम्बर'। वेदों में भी इन्हें 'वातरशना' कहा गया है। जबकि श्वेताम्बर संप्रदाय के मुनि सफ़ेद वस्त्र धारण करते हैं। लगभत तीन सौ वर्षों पहले श्वेताम्बरों में ही एक अन्य शाखा और निकली 'स्थानकवासी'। ये लोग मूर्तियों की पूजा नहीं करते हैं।

  • जैनियों की अन्य शाखाओं में 'तेरहपंथी', 'बीसपंथी', 'तारणपंथी' और 'यापनीय' आदि कुछ और भी उप-शाखाएँ हैं। जैन धर्म की सभी शाखाओं में थोड़ा-बहुत मतभेद होने के बावजूद भगवान महावीर तथा अहिंसा, संयम और अनेकांतवाद में सबका समान विश्वास है।[5]

धर्म का प्रचार-प्रसार

ईसा की पहली शताब्दीं में कलिंग के राजा खारवेल ने जैन धर्म स्वीकार किया। ईसा की आरंभिक सदियों में उत्तर में मथुरा और दक्षिण में मैसूर जैन धर्म के बहुत बड़े केंद्र थे। पाँचवीं से बारहवीं शताब्दीं तक दक्षिण के गंग, कदम्ब, चालुक्य और राष्ट्रकूट राजवंशों ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में बहुत सहयोग एवं सहायता प्रदान की। इन राजाओं के यहाँ अनेक जैन कवियों को आश्रय एवं सहायता प्राप्त थी। ग्याहरवीं सदी के आस-पास चालुक्य वंश के राजा सिद्धराज और उनके पुत्र कुमारपाल ने जैन धर्म को राजधर्म बना दिया तथा गुजरात में उसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया। हिन्दी के प्रचलन से पूर्व अपभ्रंश भाषा का प्रयोग होता था। अपभ्रंश भाषा के कवि, लेखक एवं विद्वान् हेमचन्द्र इसी समय के थे। हेमचन्द्र राजा कुमारपाल के दरबार में ही थे। सामान्यत: जैन मतावलंबी शांतिप्रिय स्वभाव के होते थे। इसी कारण मुग़ल काल में इन पर अधिक अत्याचार नहीं हुए। उस समय के साहित्य एवं अन्य विवरणों से प्राप्त जानकारियों के अनुसार अकबर ने जैन अनुयाइयों की थोड़ी बहुत मदद भी की थी। किंतु धीरे-धीरे जैनियों के मठ टूटने एवं बिखरने लगे। जैन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है। भारत के अतिरिक्त पूर्वी अफ़्रीका में भी जैन धर्म के अनुयायी मिलते हैं।[4]

जैन अनुश्रुति

मथुरा में विभिन्न कालों में अनेक जैन मूर्तियाँ मिली हैं, जो जैन संग्रहालय मथुरा में संग्रहीत हैं। अवैदिक धर्मों में जैन धर्म सबसे प्राचीन है, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव माने जाते हैं। जैन धर्म के अनुसार भी ऋषभदेव का मथुरा से संबंध था। जैन धर्म की प्रचलित अनुश्रुति के अनुसार नाभिराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव के आदेश से इन्द्र ने 52 देशों की रचना की थी। शूरसेन देश और उसकी राजधानी मथुरा भी उन देशों में थी।[6] जैन `हरिवंश पुराण' में प्राचीन भारत के जिन 18 महाराज्यों का उल्लेख हुआ है, उनमें शूरसेन और उसकी राजधानी मथुरा का नाम भी है। जैन मान्यता के अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए थे।

धर्म ग्रंथ

जैन धर्म ग्रंथ पर आधारित धर्म नहीं है। भगवान महावीर ने सिर्फ़ प्रवचन ही दिए थे। उन्होंने किसी ग्रंथ की रचना नहीं की थी, लेकिन बाद में उनके गणधरों ने उनके अमृत वचन और प्रवचनों का संग्रह कर लिया। यह संग्रह मूलत: प्राकृत भाषा में है, विशेष रूप से मागधी में। प्रोफेसर महावीर सरन जैन का मत है कि जैन साहित्य की दृष्टि से दिगम्बर आम्नाय के आचार्य गुणधर एवं आचार्य धरसेन के ग्रंथों में मागधी प्राकृत का नहीं अपितु शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग हुआ है। ये ग्रंथ गद्य में हैं। आचार्य धरसेन का समय सन् 87 ईसवीं के लगभग मान्य है। आचार्य गुणधर का समय आचार्य धरसेन के पूर्व माना जाता है। आचार्य गुणधर की रचना कसाय पाहुड सुत्त तथा आचार्य धरसेन एवं उनके शिष्यों आचार्य पुष्पदंत तथा आचार्य भूतबलि द्वारा रचित षटखंडागम है जिनमें प्रथम शताब्दी के लगभग की शौरसेनी प्राकृत का प्रयोग हुआ है।

धर्मः सर्व सुखाकरो हितकरो, घर्म बुधाश्चिन्वते ।
धर्मेणैव समाप्यते शिवसुखं, धर्माय तस्मै नमः ।
धर्मान्नास्त्यपरः सुहृद्भवभृतां, धर्मस्य मूलं दया ।
धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं, हे धर्म ! माँ पालय ।।1 ।।

गोमतेश्वर की प्रतिमा, श्रवणबेलगोला, मैसूर

समस्त आगम ग्रंथों को चार भागों मैं बाँटा गया है-

  1. प्रथमानुयोग
  2. करनानुयोग
  3. चरर्नानुयोग
  4. द्रव्यानुयोग।
12 अंगग्रंथ

आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, भगवती, ज्ञाता धर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृतदशा, अनुत्तर उपपातिकदशा, प्रश्न-व्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद। इनमें 11 अंग तो मिलते हैं, किंतु बारहवाँ दृष्टिवाद अंग नहीं मिलता।

12 उपांगग्रंथ

औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, चंद्र प्रज्ञप्ति, सूर्य प्रज्ञप्ति, निरयावली या कल्पिक, कल्पावतसिका, पुष्पिका, पुष्पचूड़ा और वृष्णिदशा।

10 प्रकीर्णग्रंथ

चतुःशरण, संस्तार, आतुर प्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तण्डुल वैतालिक, चंदाविथ्यय, देवेन्द्रस्तव, गणितविद्या, महाप्रत्याख्यान और वीरस्तव।

6 छेदग्रंथ

निशीथ, महानिशीथ, व्यवहार, दशशतस्कंध, बृहत्कल्प और पञ्चकल्प।

4 मूलसूत्र

उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक और पिण्डनिर्य्युक्ति।

2 स्वतंत्र ग्रंथ

अनुयोग द्वार और नन्दी द्वार।

जैन पुराण परिचय

जैन परम्परा में 63 शलाका महापुरुष माने गए हैं। पुराणों में इनकी कथाएँ तथा धर्म का वर्णन आदि है। प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश तथा अन्य देशी भाषाओं में अनेक पुराणों की रचना हुई है। दोनों सम्प्रदायों का पुराण साहित्य विपुल परिमाण में उपलब्ध है। इनमें भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलती है। मुख्य पुराण हैं- जिनसेन का 'आदिपुराण' और जिनसेन (द्वि.) का 'अरिष्टनेमि' (हरिवंशपुराण), रविषेण का 'पद्मपुराण' और गुणभद्र का 'उत्तरपुराण'। प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं में भी ये पुराण उपलब्ध हैं। भारत की संस्कृति, परम्परा, दार्शनिक विचार, भाषा, शैली आदि की दृष्टि से ये पुराण बहुत महत्त्वपूर्ण हैं।

अन्य ग्रंथ

षट्खण्डागम, धवला टीका,षट्खण्डागम- सिद्धान्तचिन्तामणि टीका, महाधवला टीका, कसायपाहुड, जयधवला टीका, समयसार, योगसार प्रवचनसार, पञ्चास्तिकायसार, बारसाणुवेक्खा, आप्तमीमांसा, अष्टशती टीका, अष्टसहस्री टीका, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, तत्त्वार्थसूत्र, तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक टीका, समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, भगवती आराधना, मूलाचार, गोम्मटसार, द्रव्यसङ्ग्रह, अकलङ्कग्रन्थत्रयी, लघीयस्त्रयी, न्यायकुमुदचन्द्र टीका, प्रमाणसङ्ग्रह, न्यायविनिश्चयविवरण, सिद्धिविनिश्चयविवरण, परीक्षामुख, प्रमेयकमलमार्तण्ड टीका, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय भद्रबाहु संहिता आदि।[7]

एक प्रसंग

जीवंधर कुमार नाम के एक राजकुमार ने एक बार मरते हए कुत्ते को महामंत्र णमोकार सुनाया, जिससे उसकी आत्मा को बहुत शान्ति मिली और वह मरकर सुंदर देवता यक्षेन्द्र हो गया। वहाँ जन्म लेते ही उसे याद आ गया कि मुझे एक राजकुमार ने महामंत्र सुनाकर इस देवयोनि को दिलाया है| तब वह तुरंत अपने उपकारी राजकुमार के पास आया और उन्हें नमस्कार किया। राजकुमार तब तक उस कुत्ते को लिये बैठे हुए थे, देव ने उनसे कहे- "राजन् ! मैं आपका बहुत अहसान मानता हूँ कि आपने मुझे इस योनि में पहुँचा दिया।" जीवंधर कुमार यह दृश्य देखकर बड़े प्रसन्न हुए और उसे सदैव उस महामंत्र को पढ़ने की प्रेरणा दी। देव ने उनसे कहा- "स्वामिन् ! जब भी आपको कभी मेरी ज़रूरत लगे तो मुझे अवश्य याद करना और मुझे कुछ सेवा का अवसर अवश्य प्रदान करना। मैं आपका उपकार हमेशा स्मरण करूँगा।"

वह महामंत्र इस प्रकार है-

णमो अरिहंताणं।
णमो सिद्धाणं।
णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं।
णमो लोए सव्वसाहूणं॥

अर्थात- अरिहंतो को नमस्कार, सिद्धों को नमस्कार, आचार्यों को नमस्कार, उपाध्यायों को नमस्कार, सर्व साधुओं को नमस्कार।

जैन शास्त्रों के अनुसार हस्तिनापुर तीर्थ करोड़ों वर्ष प्राचीन माना गया है। श्री जिनसेनाचार्य द्वारा रचित आदिपुराण ग्रन्थ के अनुसार प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने युग की आदि में यहाँ एक वर्ष के उपवास के पश्चात् राजा श्रेयांस के द्वारा जैन विधि से नवधा भक्ति पूर्वक पड़गाहन करने के बाद इक्षु रस का आहार ग्रहण किया था। उनकी स्मृति में वहाँ जम्बूद्वीप तीर्थ परिसर में उनकी आहार मुद्रा की प्रतिमा विराजमान हैं। उसके दर्शन करके भक्तगण प्राचीन इतिहास से परिचित होते हैं।

तीर्थंकर

जैन धर्म में 24 तीर्थंकर माने गए हैं, जिन्हें इस धर्म में भगवान के समान माना जाता है। 'तीर्थंकर' शब्द का जैन धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। 'तीर्थ' का अर्थ है- "जिसके द्वारा संसार समुद्र तरा जाए, पार किया जाए।" जैन धर्म अहिंसा प्रधान धर्म है। इसमें उन 'जिनों' एवं महात्माओं को तीर्थंकर कहा गया है, जिन्होंने प्रवर्तन किया, उपदेश दिया और असंख्य जीवों को इस संसार से 'तार' दिया। इन 24 तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्ममार्ग से च्युत हो रहे जन-समुदाय को संबोधित किया और उसे धर्ममार्ग में लगाया। इसी से इन्हें धर्ममार्ग और मोक्षमार्ग का नेता तीर्थ प्रवर्त्तक 'तीर्थंकर' कहा गया है। जैन सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं। आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है- "बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना" अर्थात् बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।

तीर्थंकर ऋषभदेव

ऋषभदेव

जैन तीर्थंकरों में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं। जैन साहित्य में इन्हें प्रजापति, आदिब्रह्मा, आदिनाथ, बृहद्देव, पुरुदेव, नाभिसूनु और वृषभ नामों से भी समुल्लेखित किया गया है। युगारंभ में इन्होंने प्रजा को आजीविका के लिए कृषि[8], मसि[9], असि[10], शिल्प, वाणिज्य[11] और सेवा- इन षट्कर्मों (जीवनवृतियों) के करने की शिक्षा दी थी, इसलिए इन्हें ‘प्रजापति’[12], माता के गर्भ से आने पर हिरण्य (सुवर्ण रत्नों) की वर्षा होने से ‘हिरण्यगर्भ’[13], विमलसूरि-[14], दाहिने पैर के तलुए में बैल का चिह्न होने से ‘ॠषभ’, धर्म का प्रवर्तन करने से ‘वृषभ’[15], शरीर की अधिक ऊँचाई होने से ‘बृहद्देव’[16]एवं पुरुदेव, सबसे पहले होने से ‘आदिनाथ’[17] और सबसे पहले मोक्षमार्ग का उपदेश करने से ‘आदिब्रह्मा’[18]कहा गया है। ऋषभदेव के पिता का नाम नाभिराय होने से इन्हें ‘नाभिसूनु’ भी कहा गया है। इनकी माता का नाम मरुदेवी था। ऋषभदेव भगवान का जन्म कोड़ा कोड़ी वर्ष पूर्व अयोध्या नगरी में चैत्र कृष्ण नवमी के दिन माता मरुदेवी के गर्भ से हुआ था। पुनः लाखों वर्षों तक राज्य सत्ता संचालन करने के बाद चैत्र कृष्णा नवमी के दिन ही उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली थी, ऐसा जैन शास्त्रों में कथन मिलता है। उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष दिगंबर जैन समाज की ओर से जन्मदिन का मेला आयोजित किया जाता है। अयोध्या दिगंबर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के वर्तमान अध्यक्ष स्वस्ति श्री कर्मयोगी पीठाधीश रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी - जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर वाले हैं।उनके नेतृत्व में पूरे देश की जैनसमाज के श्रद्धालु भक्त मेले में भाग लेने हेतु अयोध्या पहुँचते हैं। वहाँ भगवान ऋषभदेव का मस्तकाभिषेक - रथयात्रा - सभा आदि का आयोजन होता है। इस वर्ष यह वार्षिक मेला 4 अप्रैल - 2013 चैत्र कृष्णा नवमी को आयोजित हो रहा है।[19]

महावीर

वर्धमान महावीर या महावीर, जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान श्री ऋषभनाथ[20] की परम्परा में 24वें तीर्थंकर थे। इनका जीवन काल 599 ईसवी, ईसा पूर्व से 527 ईस्वी ईसा पूर्व तक माना जाता है। वर्धमान महावीर का जन्म एक क्षत्रिय राजकुमार के रूप में एक राजपरिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम राजा सिद्धार्थ एवं माता का नाम प्रियकारिणी था। उनका जन्म प्राचीन भारत के वैशाली राज्य, जो अब बिहार प्रान्त में हुआ था। वर्धमान महावीर का जन्म दिन समस्त भारत में महावीर जयन्ती के रूप में मनाया जाता है। दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों के अनुसार भगवान महावीर बिहार प्रांत के कुंडलपुर नगर में आज (सन 2013) से 2612 वर्ष पूर्व महाराजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशला के गर्भ से चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को जन्मे थे। वह कुंडलपुर वर्तमान में नालंदा ज़िले में अवस्थित है।

इन्हें भी देखें: तीर्थंकर, तीर्थंकर उपदेश एवं जैन धर्म के सिद्धांत

तीर्थंकर उपदेश

जैन धर्म के 24 तीर्थंकरों ने अपने-अपने समय में धर्म मार्ग से च्युत हो रहे जनसमुदाय को संबोधित किया और उसे धर्म मार्ग में लगाया। इसी से इन्हें 'धर्म मार्ग-मोक्ष मार्ग का नेता' और 'तीर्थ प्रवर्त्तक' अर्थात् 'तीर्थंकर' कहा गया है। जैन सिद्धान्त के अनुसार 'तीर्थंकर' नाम की एक पुण्य, प्रशस्त कर्म प्रकृति है। उसके उदय से तीर्थंकर होते और वे तत्त्वोपदेश करते हैं।

  • आचार्य विद्यानंद ने स्पष्ट कहा है[21] कि 'बिना तीर्थंकरत्वेन नाम्ना नार्थोपदेशना' अर्थात् बिना तीर्थंकर-पुण्यनामकर्म के तत्त्वोपदेश संभव नहीं है।[22]
  • इन तीर्थंकरों का वह उपदेश जिन शासन, जिनागम, जिनश्रुत, द्वादशांग, जिन प्रवचन आदि नामों से उल्लिखित किया गया है। उनके इस उपदेश को उनके प्रमुख एवं प्रतिभाशाली शिष्य विषयवार भिन्न-भिन्न प्रकरणों में निबद्ध या ग्रथित करते हैं। अतएव उसे 'प्रबंध' एवं 'ग्रन्थ' भी कहते हैं। उनके उपदेश को निबद्ध करने वाले वे प्रमुख शिष्य जैनवाङमय में गणधर कहे जाते हैं। ये गणधर अत्यन्त सूक्ष्मबुद्धि के धारक एवं विशिष्ट क्षयोपशम वाले होते हैं। उनकी धारणाशक्ति और स्मरणशक्ति असाधारण होती है।

भरत ऋषभदेव पुत्र

ऋषभदेव के पुत्र भरत बहुत धार्मिक थे। उनका विवाह विश्वरूप की कन्या पंचजनी से हुआ था। भरत के समय से ही अजनाभवर्ष नामक प्रदेश भारत कहलाने लगा था। राज्य-कार्य अपने पुत्रों को सौंपकर वे पुलहाश्रम में रहकर तपस्या करने लगे। एक दिन वे नदी में स्नान कर रहे थे। वहाँ एक गर्भवती हिरणी भी थी। शेर की दहाड़ सुनकर मृगी का नदी में गर्भपात हो गया और वह किसी गुफ़ा में छिपकर मर गयी। भरत ने नदी में बहते असहाय मृगशावक को पालकर बड़ा किया। उसके मोह से वे इतने आवृत्त हो गये कि अगले जन्म में मृग ही बने। मृग के प्रेम ने उनके वैराग्य मार्ग में व्याघात उत्पन्न किया था, किन्तु मृग के रूप में भी वे भगवत-भक्ति में लगे रहे तथा अपनी माँ को छोड़कर पुलहाश्रम में पहुँच गये। भरत ने अगला जन्म एक ब्राह्मण के घर में लिया। उन्हें अपने भूतपूर्व जन्म निरंतर याद रहे। ब्राह्मण उन्हें पढ़ाने का प्रयत्न करते-करते मर गया, किन्तु भरत की अध्ययन में रुचि नहीं थी।

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं:-

  • निवृत्तिमार्ग
  • ईश्वर
  • सृष्टि
  • कर्म
  • त्रिरत्न
  • ज्ञान
  • स्यादवाद या अनेकांतवाद या सप्तभंगी का सिद्धान्त
  • अनेकात्मवाद
  • निर्वाण
  • कायाक्लेश
  • नग्नता
  • पंचमहाव्रत
  • पंच अणुव्रत
  • अठारह पाप
  • जैन धर्म की प्रासंगिकता
  • जैन ग्रंथ भगवान महावीर एवं जैन दर्शन में जैन धर्म एवं दर्शन की युगीन प्रासंगिकता को व्याख्यायित करते हुए यह मत व्यक्त किया है कि आज के मनुष्य को वही धर्म-दर्शन प्रेरणा दे सकता है तथा मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्याओं के समाधान में प्रेरक हो सकता है जो वैज्ञानिक अवधारणाओं का परिपूरक हो, लोकतंत्र के आधारभूत जीवन मूल्यों का पोषक हो, सर्वधर्म समभाव की स्थापना में सहायक हो, अन्योन्याश्रित विश्व व्यवस्था एवं सार्वभौमिकता की दृष्टि का प्रदाता हो तथा विश्व शान्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का प्रेरक हो। लेखक ने इन प्रतिमानों के आधार पर जैन धर्म एवं दर्शन की मीमांसा की है।

वीथिका


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अनंत समय पहले का
  2. श्री आदिनाथ
  3. अनंत समय पहले का
  4. 4.0 4.1 ऐसे जन्मा जैन धर्म (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 26 फ़रवरी, 2013।
  5. जैन धर्म- इतिहास की नजर में (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 26 फ़रवरी, 2013।
  6. जिनसेनाचार्य कृत महापुराण- पर्व 16,श्लोक 155
  7. जैन धर्म ग्रंथ और पुराण (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 26 फ़रवरी, 2013।
  8. खेती
  9. लिखना-पढ़ना, शिक्षण
  10. रक्षा हेतु तलवार, लाठी आदि चलाना
  11. विभिन्न प्रकार का व्यापार करना
  12. आचार्य समन्तभद्र, स्वयम्भुस्तोत्र, श्लोक 2|
  13. जिनसेन, महापुराण, 12-95
  14. पउमचरियं, 3-68|
  15. आ. समन्तभद्र, स्वयम्भू स्तोत्र, श्लोक 5|
  16. मदनकीर्ति, शासनचतुस्त्रिंशिका, श्लोक 6, संपा. डॉ. दरबारी लाल कोठिया।
  17. मानतुङ्ग, भक्तामर आदिनाथ स्तोत्र, श्लोक 1, 25 |
  18. मानतुङ्ग, भक्तामर आदिनाथ स्तोत्र, श्लोक 1, 25 |
  19. अद्यतन- दिनांक 20 मार्च 2013
  20. श्री आदिनाथ
  21. ऋषभादिमहावीरान्तेभ्य: स्वात्मोपलब्धये।
    धर्मतीर्थंकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमोनम:॥ अकलंक, लघीयस्त्रय, 1
  22. आप्तपरीक्षा, कारिका 16

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