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[[चित्र:Birbal.jpg|thumb|बीरबल<br /> Birbal]]
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राजा बीरबल (जन्म-1528 - मृत्यु- 1586) (वास्तविक नाम- महेश दास) [[मुग़ल]] सम्राट [[अकबर]] के प्रशासन में [[मुग़ल]] दरबार का प्रमुख [[वज़ीर]] था और [[अकबर के नवरत्न|अकबर के नवरत्नों]] में से एक था।  
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|चित्र=Birbal.jpg
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|चित्र का नाम=बीरबल
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|पूरा नाम=राजा बीरबल
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|अन्य नाम=महेशदास
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|जन्म=1528 ई.
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|जन्म भूमि=त्रिविक्रमपुर, [[कानपुर]], [[उत्तर प्रदेश]]<ref name="birbal"/>
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|मृत्यु तिथि=1586 ई.
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|उपाधि= [[अकबर]] ने बीरबल को 'राजा' और 'कविराय' की उपाधि से सम्मानित किया था।
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|प्रसिद्धि=[[अकबर के नवरत्न|अकबर के नवरत्नों]] में से एक
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|शासन काल=
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|संबंधित लेख=
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|शीर्षक 1=उपनाम
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|पाठ 1=बीरबल का उपनाम ब्रह्म था।<ref>दरबारी अकबरी में (पृ. 295) उपनाम बुर्हिया लिखा है। बदायूँनी लो कृत अनु. पृ. 161) में ब्रह्मदास है। मआसिरुल्उमरा के सम्पादकों ने बरहन: (नंगा) लिखा है। यह सब फ़ारसी लिपि की माया मात्र है। वास्तव में ब्रह्म ही ठीक है। मिश्रबंधुविनोद (सं. 77, भाग 1, पृ. 296-8) में इनकी कविता का उद्धरण दिया हुआ है।</ref>
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|पाठ 2=
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|अन्य जानकारी=राजा बीरबल दान देने में अपने समय अद्वितीय थे और पुरस्कार देने में संसार-प्रसिद्ध थे। गान विद्या भी अच्छी जानते थे। उनके [[कवित्त]] और [[दोहा|दोहे]] प्रसिद्ध हैं।
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|बाहरी कड़ियाँ=
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'''बीरबल''' (जन्म-1528 ई.; मृत्यु- 1586 ई.) [[मुग़ल]] बादशाह [[अकबर]] के [[अकबर के नवरत्न|अकबर के नवरत्नों]] में सर्वाधिक लोकप्रिय एक [[ब्राह्मण]] दरबारी था। बीरबल की व्यंग्यपूर्ण कहानियों और काव्य रचनाओं ने उन्हें प्रसिद्ध बनाया था। बीरबल ने [[दीन-ए-इलाही]] अपनाया था और [[फ़तेहपुर सीकरी]] में उनका एक सुंदर मकान था।<ref>पुस्तक- भारत ज्ञानकोश खंड-4 |प्रकाशन- एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका| पृष्ठ संख्या- 26 </ref> बादशाह अकबर के प्रशासन में बीरबल मुग़ल दरबार का प्रमुख [[वज़ीर]] था और राज दरबार में उसका बहुत प्रभाव था। बीरबल कवियों का बहुत सम्मान करता था। वह स्वयं भी [[ब्रजभाषा]] का अच्छा जानकार और कवि था।
 
==परिचय==
 
==परिचय==
बीरबल का जन्म सन् 1528 ई. में हुआ था। बीरबल की व्यंग्यपूर्ण कहानियों और काव्य रचनाओं ने उन्हें प्रसिद्ध बनाया था। बीरबल ने [[दीन--इलाही]] अपनाया था और [[फ़तेहपुर सीकरी]] में उनका एक सुंदर मकान था। बीरबल एक राजपूत सरदार था, जो अपनी स्वेच्छा से बादशाह अकबर की सेवा में आ गया था और उनका मुहँ लगा स्नेह-पात्र बन गया था। अकबर ने बीरबल को 'राजा' पदवी दी थी। बीरबल उतना प्रभावशाली सेनापति नहीं था, जितना प्रभावशाली कवि था। बीरबल को 1586 ई. में पश्चिमोत्तर सीमा के यूसुफ़जाई क़बीले पर चढ़ाई करने के लिए मुग़ल सेना का नायक बनाकर भेजा गया।
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राजा बीरबल का जन्म [[संवत]] 1584 [[विक्रमी संवत|विक्रमी]] में [[कानपुर]] ज़िले के अंतर्गत 'त्रिविक्रमपुर' अर्थात् [[तिकवांपुर]] में हुआ था। [[भूषण|भूषण कवि]] ने अपने जन्मस्थान त्रिविक्रमपुर में ही इनका जन्म होना लिखा है।<ref name="birbal"/>[[प्रयाग]] के [[अशोक स्तंभ|अशोक-स्तंभ]] पर यह लेख है-  
====अकबर के नवरत्नों में एक====
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<blockquote>संवत 1632 शाके 1493 मार्ग बदी 5 [[सोमवार]] गंगादास सुत महाराज बीरबल श्री तीरथराज की यात्रा सुफल लिखितं।</blockquote>
[[अकबर]] के नवरत्नों में सबसे अधिक लोकप्रिय बीरबल [[कानपुर]] के [[कान्यकुब्ज]] ब्राह्मण गंगादास का पुत्र था। बीरबल का असली नाम महेशदास था। कुछ इतिहासकारों ने बीरबल को राजपूत सरदार बताया है। बीरबल अकबर का स्नेहपात्र था। अकबर ने बीरबल को 'राजा' और 'कविराय' की उपाधि से सम्मानित किया था। पर उनका साहित्यिक जीवन अकबर के दरबार में मनोरंजन करने तक ही सीमित रहा।
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[[बदायूंनी, अब्दुल क़ादिर|बदायूंनी]] ने बीरबल के उपनाम ब्रह्म में दास मिलाकर इनका नाम ब्रह्मदास लिखा है।<ref> (बदायूंनी, लो, पृ. 164) </ref>ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे।<ref name="birbal">पुस्तक- 'मुग़ल दरबार के सरदार' भाग-1| लेखक: मआसिरुल् उमरा | प्रकाशन: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी | पृष्ठ संख्या: 127-130 </ref> अकबर ने बीरबल को 'राजा' पदवी दी थी। बीरबल उतना प्रभावशाली सेनापति नहीं था, जितना प्रभावशाली कवि था। कुछ इतिहासकारों ने बीरबल को राजपूत सरदार बताया है। बीरबल अकबर का स्नेहपात्र था। अकबर ने बीरबल को 'राजा' और 'कविराय' की उपाधि से सम्मानित किया था। पर उनका साहित्यिक जीवन अकबर के दरबार में मनोरंजन करने तक ही सीमित रहा।  
 
====प्रभावशाली कवि====
 
====प्रभावशाली कवि====
महाराज बीरबल [[ब्रजभाषा]] के अच्छे कवि थे और कवियों का बड़ी उदारता के साथ सम्मान करते थे। कहते हैं, [[केशवदास|केशवदास जी]] को इन्होंने एक बार छह लाख रुपये दिए थे और केशवदास की पैरवी से [[ओरछा]] नरेश पर एक करोड़ का जुरमाना मुआफ करा दिया था। इनके मरने पर [[अकबर]] ने यह सोरठा कहा था, -  
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महाराज बीरबल [[ब्रजभाषा]] के अच्छे कवि थे और कवियों का बड़ी उदारता के साथ सम्मान करते थे। कहते हैं, [[केशवदास|केशवदास जी]] को इन्होंने एक बार छह लाख रुपये दिए थे और केशवदास की पैरवी से [[ओरछा]] नरेश पर एक करोड़ का ज़ुर्माना मुआफ करा दिया था। इनके मरने पर [[अकबर]] ने यह [[सोरठा]] कहा था, -  
 
<poem>दीन देखि सब दीन, एक न दीन्हों दुसह दुख।
 
<poem>दीन देखि सब दीन, एक न दीन्हों दुसह दुख।
 
सो अब हम कहँ दीन, कछु नहिं राख्यो बीरबल</poem>
 
सो अब हम कहँ दीन, कछु नहिं राख्यो बीरबल</poem>
*इनकी कोई पुस्तक नहीं मिलती है, पर कई सौ कवित्तों का एक संग्रह [[भरतपुर]] में है। इनकी रचना [[अलंकार]] आदि काव्यांगों से पूर्ण और सरस होती थी। कविता में ये अपना नाम '''ब्रह्म''' रखते थे। -
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*इनकी कोई पुस्तक नहीं मिलती है, पर कई सौ कवित्तों का एक संग्रह [[भरतपुर]] में है। इनकी रचना [[अलंकार]] आदि काव्यांगों से पूर्ण और सरस होती थी। कविता में ये अपना नाम '''ब्रह्म''' रखते थे।
 
<poem>उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर,
 
<poem>उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर,
 
उरग पै केकिन के लपटै लहकि हैं।
 
उरग पै केकिन के लपटै लहकि हैं।
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एकी करी केहरि, न बोलत बहकि है।
 
एकी करी केहरि, न बोलत बहकि है।
 
कहै कवि ब्रह्म वारि हेरत हरिन फिरैं,
 
कहै कवि ब्रह्म वारि हेरत हरिन फिरैं,
बैहर बहत बड़े जोर सो जहकि हैं।
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बैहर बहत बड़े ज़ोर सो जहकि हैं।
 
तरनि कै तावन तवा सी भई भूमि रही,
 
तरनि कै तावन तवा सी भई भूमि रही,
 
दसहू दिसान में दवारि सी दहकि है
 
दसहू दिसान में दवारि सी दहकि है
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====कविराय पद====
 
====कविराय पद====
बीरबल [[हिन्दी]] की अच्छी कविताएँ करते थे, इससे पहले इनको कविराय (जो मलिकुश्शोअरा अर्थात् कवियों के राजा के प्राय: बराबर है) की पदवी मिली थी। 18वें वर्ष जब बादशाह ने [[नगरकोट]] के राजा [[जयचन्द]] पर क्रुद्ध होकर उसे क़ैद कर लिया, तब उसका पुत्र विधिचन्द्र (जो अल्पवयस्क था) अपने को उसका उत्तराधिकारी समझ कर विद्रोही हो गया। बादशाह ने वह प्रान्त कविराय को (जिसकी जागीर पास ही थी) दे दी और [[पंजाब]] के सूबेदार [[हुसेन कुली ख़ाँ]] ख़ानेजहाँ को आज्ञापत्र भेजा कि उस प्रान्त के सरदारों के साथ वहाँ जाकर नगरकोट विधिचन्द्र से छीनकर कविराय के अधिकार में दे दे। इन्हें राजा बीरबल (जिसका अर्थ बहादुर है) की पदवी देकर उस कार्य पर नियत किया।
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बीरबल [[हिन्दी]] की अच्छी कविताएँ करते थे, इससे पहले इनको कविराय (जो मलिकुश्शोअरा अर्थात् कवियों के राजा के प्राय: बराबर है) की पदवी मिली थी। 18वें वर्ष जब बादशाह ने [[नगरकोट]] के राजा जयचन्द पर क्रुद्ध होकर उसे क़ैद कर लिया, तब उसका पुत्र विधिचन्द्र (जो अल्पवयस्क था) अपने को उसका उत्तराधिकारी समझ कर विद्रोही हो गया। बादशाह ने वह प्रान्त कविराय को (जिसकी जागीर पास ही थी) दे दी और [[पंजाब]] के सूबेदार [[हुसैन कुली ख़ाँ]] ख़ानेजहाँ को आज्ञापत्र भेजा कि उस प्रान्त के सरदारों के साथ वहाँ जाकर नगरकोट विधिचन्द्र से छीनकर कविराय के अधिकार में दे दे। इन्हें राजा बीरबल (जिसका अर्थ बहादुर है) की पदवी देकर उस कार्य पर नियत किया।
  
 
==अकबर और बीरबल==
 
==अकबर और बीरबल==
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बीरबल महेशदास नामक बादफ़रोश<ref>(प्रशंसा बेचने वाले)</ref> [[ब्राह्मण]] थे जिसे [[हिन्दी]] में भाट कहते हैं। यह जाति धनाढ्यों की प्रशंसा करने वाली थी। यद्यपि बीरबल कम पूँजी के कारण बुरी अवस्था में दिन व्यतीत कर रहे थे, पर बीरबल में बुद्धि और समझ भरी हुई थी। '''अपनी बुद्धिमानी और समझदारी के कारण यह अपने समय के बराबर लोगों में मान्य हो गए।''' जब सौभाग्य से अकबर बादशाह की सेवा में पहुँचे, तब अपनी वाक्-चातुरी और हँसोड़पन से बादशाही मजलिस के मुसाहिबों और मुख्य लोगों के गोल में जा पहुँचे और धीरे-धीरे उन सब लोगों से आगे बढ़ गए। बहुधा बादशाही पन्नों में इन्हें मुसाहिबे-दानिशवर राजा बीरबल लिखा गया है। <br />
बीरबल महेशदास नामक बादफ़रोश<ref>(प्रशंसा बेचने वाले)</ref> [[ब्राह्मण]] थे जिसे [[हिन्दी]] में भाट कहते हैं।<ref name="birbal">राजा बीरबल का जन्म सं. 1584 वि. में [[कानपुर]] ज़िले के अंतर्गत त्रिविक्रमपुर अर्थात् तिकवांपुर में हुआ था। [[भूषण|भूषण कवि]] ने अपने जन्मस्थान त्रिविक्रमपुर में ही इनका जन्म होना लिखा है। [[प्रयाग]] के अशोक-स्तंभ पर यह लेख है-
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जब राजा [[लाहौर]] पहुँचे तो हुसैन कुली ख़ाँ ने जागीरदारों के साथ ससैन्य नगरकोट पहुँचकर उसे घेर लिया। जिस समय दुर्ग वाले कठिनाई में पड़े हुए थे, दैवात् उसी समय इब्राहीम हुसेन मिर्ज़ा का बलवा आरम्भ हो गया था और इस कारण कि उस विद्रोह का शान्त करना उस समय का आवश्यक कार्य था, इससे दुर्ग विजय करना छोड़ देना पड़ा। अंत में राजा की सम्मति से विधिचन्द्र से पाँच मन सोना और ख़ुतबा पढ़वाने, बादशाही सिक्का ढालने तथा दुर्ग [[काँगड़ा]] के फाटक के पास मसजिद बनवाने का वचन लेकर घेरा उठा लिया गया। 30वें वर्ष सन् 994 हि. (सन् 1586 ई.) में जैन ख़ाँ कोका यूसुफ़जई जाति को, जो स्वाद और बाजौर नामक पहाड़ी देश की रहनेवाली थी, दंड देने के लिए नियुक्त हुआ था। उसने बाजौर पर चढ़ाई करके [[स्वात]] <ref>जो पेशावर के उत्तर और बाजौर के पश्चिम है, चालीस [[कोस]] लम्बा और पाँच से पंद्रह कोस तक चौड़ा है और जिसमें चालीस सहस्र मनुष्य उस जाति के बसते थे</ref> पहुँच कर उस जाति को दंड दिया।<br />
सं. 1632 शाके 1493 मार्ग बदी 5 सोमवार गंगादास सुत महाराज बीरबल श्री तीरथराज की यात्रा सुफल लिखितं।
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घाटियाँ पार करते-करते सेना थक गई थी, इसलिये [[जैन ख़ाँ कोका]] ने बादशाह के पास नई सेना के लिए सहायतार्थ प्रार्थना की। शेख [[अबुल फ़ज़ल]] ने उत्साह और स्वामिभक्ति से इस कार्य के लिये बादशाह ने अपने को नियुक्त किये जाने की प्रार्थना की। बादशाह ने इनके और राजा बीरबल के नाम पर गोली डाली। दैवात् वह राजा के नाम की निकली। इनके नियुक्त होने के अनन्तर शंका के कारण  हक़ीम अबुलफ़जल के अधीन एक सेना पीछे से और भेज दी। जब दोनों सरदार पहाड़ी देश में होकर कोका के पास पहुँचे तब, यद्यपि कोकलताश तथा राजा के बीच पहिले ही से मनोमालिन्य था, तथापि कोका ने मजलिस करके नवागंतुकों को निमन्त्रित किया। राजा ने इस पर क्रोध प्रदर्शित किया। कोका धैर्य को काम में लाकर राजा के पास गया और जब राय होने लगी; तब राजा ( जो हकीम से भी पहिले ही से मनोमालिन्य रखता था) से कड़ी-कड़ी बातें हुईं और अंत में गाली-गलौज तक हो गया।
[[बदायूंनी, अब्दुल क़ादिर|बदायूंनी]] ने बीरबल के उपनाम ब्रह्म में दास मिलाकर इनका नाम ब्रह्मदास लिखा है। (बदायूंनी, लो, पृ. 164) ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे।</ref> यह जाति धनाढ्यों की प्रशंसा करने वाली थी। यद्यपि बीरबल कम पूँजी के कारण बुरी अवस्था में दिन व्यतीत कर रहे थे, पर बीरबल में बुद्धि और समझ भरी हुई थी। '''अपनी बुद्धिमानी और समझदारी के कारण यह अपने समय के बराबर लोगों में मान्य हो गए।''' जब सौभाग्य से अकबर बादशाह की सेवा में पहुँचे, तब अपनी वाक्-चातुरी और हँसोड़पन से बादशाही मजलिस के मुसाहिबों और मुख्य लोगों के गोल में जा पहुँचे और धीरे-धीरे उन सब लोगों से आगे बढ़ गए। बहुधा बादशाही पन्नों में इन्हें मुसाहिबे-दानिशवर राजा बीरबल लिखा गया है।  
 
 
 
जब राजा [[लाहौर]] पहुँचे तो हुसेन कुली ख़ाँ ने जागीरदारों के साथ ससैन्य नगरकोट पहुँचकर उसे घेर लिया। जिस समय दुर्ग वाले कठिनाई में पड़े हुए थे, दैवात् उसी समय इब्राहीम हुसेन मिर्ज़ा का बलवा आरम्भ हो गया था और इस कारण कि उस विद्रोह का शान्त करना उस समय का आवश्यक कार्य था, इससे दुर्ग विजय करना छोड़ देना पड़ा। अंत में राजा की सम्मति से विधिचन्द्र से पाँच मन सोना और ख़ुतबा पढ़वाने, बादशाही सिक्का ढालने तथा दुर्ग [[काँगड़ा]] के फाटक के पास मसजिद बनवाने का वचन लेकर घेरा उठा लिया गया। 30वें वर्ष सन् 994 हि. (सन् 1586 ई.) में जैन ख़ाँ कोका यूसुफ़जई जाति को, जो स्वाद और बाजौर नामक पहाड़ी देश की रहनेवाली थी, दंड देने के लिए नियुक्त हुआ था। उसने बाजौर पर चढ़ाई करके [[स्वात]] <ref>जो पेशावर के उत्तर और बाजौर के पश्चिम है, चालीस [[कोस]] लम्बा और पाँच से पंद्रह कोस तक चौड़ा है और जिसमें चालीस सहस्र मनुष्य उस जाति के बसते थे</ref> पहुँच कर उस जाति को दंड दिया।
 
 
 
घाटियाँ पार करते-करते सेना थक गई थी, इसलिये [[जैन ख़ाँ कोका]] ने बादशाह के पास नई सेना के लिए सहायतार्थ प्रार्थना की। शेख [[अबुल फ़ज़ल]] ने उत्साह और स्वामिभक्ति से इस कार्य के लिये बादशाह ने अपने को नियुक्त किये जाने की प्रार्थना की। बादशाह ने इनके और राजा बीरबल के नाम पर गोली डाली। दैवात् वह राजा के नाम की निकली। इनके नियुक्त होने के अनन्तर शंका के कारण  हक़ीम अबुलफ़जल के अधीन एक सेना पीछे से और भेज दी। जब दोनों सरदार पहाड़ी देश में होकर कोका के पास पहुँचे तब, यद्यपि [[कोकलताश]] तथा राजा के बीच पहिले ही से मनोमालिन्य था, तथापि कोका ने मजलिस करके नवागंतुकों को निमन्त्रित किया। राजा ने इस पर क्रोध प्रदर्शित किया। कोका धैर्य को काम में लाकर राजा के पास गया और जब राय होने लगी; तब राजा ( जो हकीम से भी पहिले ही से मनोमालिन्य रखता था) से कड़ी-कड़ी बातें हुईं और अंत में गाली-गलौज तक हो गया।<ref name="birbal"/>
 
  
 
फल यह हुआ कि किसी का [[हृदय]] स्वच्छ नहीं रहा और हर एक दूसरे की सम्मति को काटने लगा। यहाँ तक कि आपस की फूट और झगड़े से बिना ठीक प्रबन्ध किए वे बलंदरी की घाटी में घुसे। [[अफ़ग़ान|अफ़ग़ानों]] ने हर ओर से तीर और पत्थर फेंकना आरम्भ किया और घबराहट से [[हाथी]], घोड़े और मनुष्य एक में मिल गए। बहुत आदमी मारे गए और दूसरे दिन बिना क्रम ही के कूच करके अँधेरे में घाटियों में फँस कर बहुत से मारे गए। राजा बीरबल भी इसी में मारे गए।<ref>अकबरनामा, इलि. डाउ., जि. 5, पृष्ठ. 80-84 में विस्तृत विवरण दिया है।</ref>
 
फल यह हुआ कि किसी का [[हृदय]] स्वच्छ नहीं रहा और हर एक दूसरे की सम्मति को काटने लगा। यहाँ तक कि आपस की फूट और झगड़े से बिना ठीक प्रबन्ध किए वे बलंदरी की घाटी में घुसे। [[अफ़ग़ान|अफ़ग़ानों]] ने हर ओर से तीर और पत्थर फेंकना आरम्भ किया और घबराहट से [[हाथी]], घोड़े और मनुष्य एक में मिल गए। बहुत आदमी मारे गए और दूसरे दिन बिना क्रम ही के कूच करके अँधेरे में घाटियों में फँस कर बहुत से मारे गए। राजा बीरबल भी इसी में मारे गए।<ref>अकबरनामा, इलि. डाउ., जि. 5, पृष्ठ. 80-84 में विस्तृत विवरण दिया है।</ref>
  
कहते हैं कि जब राजा कराकर पहुँचे थे, तब किसी ने उनसे कहा था कि आज की रात में [[अफ़ग़ान]] आक्रमण करेंगे; इससे तीन चार कोस ज़मीन (जो सामने है) पार कर ली जाय तो रात्रि-आक्रमण का खटका न रह जाएगा। राजा ने जैन ख़ाँ को बिना इसका पता दिए ही संध्या समय कूच कर दिया। उनके पीछे कुल सेना चल दी। जो होना था सो हो गया। बादशाही सेना का भारी पराजय हुआ और लगभग सहस्त्र मनुष्य मारे गए जिनमें से कुछ ऐसे थे जिन्हें बादशाह पहचानते थे। राजा ने बहुत कुछ हाथ पैर मारा (कि बाहर निकल जायें) पर मारा गया।<ref>जुब्दतुत्तवारीख, इलि. डाउ., जि. 5, पृ. 191 में इसी प्रकार यह घटना लिखी गई है।</ref>
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कहते हैं कि जब राजा कराकर पहुँचे थे, तब किसी ने उनसे कहा था कि आज की रात में [[अफ़ग़ान]] आक्रमण करेंगे; इससे तीन चार [[कोस]] ज़मीन (जो सामने है) पार कर ली जाय तो रात्रि-आक्रमण का खटका न रह जाएगा। राजा ने जैन ख़ाँ को बिना इसका पता दिए ही संध्या समय कूच कर दिया। उनके पीछे कुल सेना चल दी। जो होना था सो हो गया। बादशाही सेना का भारी पराजय हुआ और लगभग सहस्त्र मनुष्य मारे गए जिनमें से कुछ ऐसे थे जिन्हें बादशाह पहचानते थे। राजा ने बहुत कुछ हाथ पैर मारा (कि बाहर निकल जायें) पर मारा गया।<ref>जुब्दतुत्तवारीख, इलि. डाउ., जि. 5, पृ. 191 में इसी प्रकार यह घटना लिखी गई है।</ref>
  
जब कोई कृतघ्नता और अकृतज्ञता से धन्यवाद देने के बदले में बुराई करने लगता है, तब यह कंटकमय संसार उसे जल्दी उसके कामों का बदला दे देता है। कहते हैं कि जब राजा उस पार्वत्य प्रदेश में पहुँचा, तब उसका मुख और हृदय बिगड़ा हुआ था और अपने साथियों से कहता था कि 'हम लोगों का समय ही बिगड़ा हुआ है कि एक हक़ीम के साथ कोका की सहायता के लिए जंगल और पहाड़ नापना पड़ेगा। इसका फल न जाने क्या हो! यह नहीं जानता था कि स्वामी के काम करने और उसकी आज्ञा मानने में ही भलाई है। यह कारण कितना ही असंतोषजनक रहा हो, पर यह प्रकट है कि जैन ख़ाँ धाय-भाई और ऊँचे [[मन्सब]] का होने से उच्चपदस्थ था। राजा केवल दो हज़ारी मन्सबदार था<ref>यह आश्चर्य की बात है कि अकबर का इतना प्रिय व्यक्ति को केवल दो हज़ारी मन्सब मिला हुआ था जो इतिहासकारों की समझ में नहीं आता है।</ref>, पर उसने मुसाहिबी और मित्रता (जो बादशाह के साथ थी) के घमंड में ऐसा बर्ताब किया था।
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जब कोई कृतघ्नता और अकृतज्ञता से धन्यवाद देने के बदले में बुराई करने लगता है, तब यह कंटकमय संसार उसे जल्दी उसके कामों का बदला दे देता है। कहते हैं कि जब राजा उस पार्वत्य प्रदेश में पहुँचा, तब उसका मुख और हृदय बिगड़ा हुआ था और अपने साथियों से कहता था कि 'हम लोगों का समय ही बिगड़ा हुआ है कि एक हक़ीम के साथ कोका की सहायता के लिए जंगल और पहाड़ नापना पड़ेगा। इसका फल न जाने क्या हो! यह नहीं जानता था कि स्वामी के काम करने और उसकी आज्ञा मानने में ही भलाई है। यह कारण कितना ही असंतोषजनक रहा हो, पर यह प्रकट है कि जैन ख़ाँ धाय-भाई और ऊँचे [[मन्सब]] का होने से उच्चपदस्थ था। राजा केवल दो हज़ारी मन्सबदार था<ref>यह आश्चर्य की बात है कि अकबर का इतना प्रिय व्यक्ति को केवल दो हज़ारी मन्सब मिला हुआ था जो इतिहासकारों की समझ में नहीं आता है।</ref>, पर उसने मुसाहिबी और मित्रता (जो बादशाह के साथ थी) के घमंड में ऐसा बर्ताब किया था।<ref name="birbal"/>
  
 
==बीरबल की मृत्यु==
 
==बीरबल की मृत्यु==
पंक्ति 47: पंक्ति 77:
 
<blockquote><poem>
 
<blockquote><poem>
 
'''शोक ! सहस्त्र शोक !'''
 
'''शोक ! सहस्त्र शोक !'''
 
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कि इस शराबखाने की शराब में दु:ख मिला हुआ है !  
कि इस शराबखाने की शराब में दुख मिला हुआ है !  
 
 
इस मीठे संसार की मिश्री हलाहल मिश्रित है।  
 
इस मीठे संसार की मिश्री हलाहल मिश्रित है।  
 
संसार मृग-तृष्णा के समान प्यासों से कपट करता है और पड़ाव गड्ढ़ों और टीलों से भरा पड़ा है !  
 
संसार मृग-तृष्णा के समान प्यासों से कपट करता है और पड़ाव गड्ढ़ों और टीलों से भरा पड़ा है !  
पंक्ति 54: पंक्ति 83:
 
कुछ रुकावटें न आ पड़तीं तो स्वयं जाकर अपनी आँखों से बीरबल का शव देखता और उन कृपाओं और और दयाओं (जो हमारी उस पर थीं) को प्रदर्शित करता।"</poem></blockquote>
 
कुछ रुकावटें न आ पड़तीं तो स्वयं जाकर अपनी आँखों से बीरबल का शव देखता और उन कृपाओं और और दयाओं (जो हमारी उस पर थीं) को प्रदर्शित करता।"</poem></blockquote>
  
====शैर का अर्थ====  
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====शेर का अर्थ====  
 
<blockquote>'"हे हृदय, ऐसी घटना से मेरे कलेजे में रक्त तक नहीं रह गया और हे नेत्र, कलेजे का रंग भी अब लाल नहीं रह गया है।'"</blockquote>
 
<blockquote>'"हे हृदय, ऐसी घटना से मेरे कलेजे में रक्त तक नहीं रह गया और हे नेत्र, कलेजे का रंग भी अब लाल नहीं रह गया है।'"</blockquote>
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'''राजा बीरबल दान देने में अपने समय अद्वितीय थे और पुरस्कार देने में संसार-प्रसिद्ध थे। गान विद्या भी अच्छी जानते थे। उनके [[कवित्त]] और [[दोहा|दोहे]] प्रसिद्ध हैं। उनके कहावतें और लतीफ़े सब में प्रचलित हैं।''' उनका उपनाम ब्रह्म था।<ref>दरबारी अकबरी में (पृ. 295) उपनाम बुर्हिया लिखा है। बदायूँनी लो कृत अनु. पृ. 161) में ब्रह्मदास है। मआसिरुल्उमरा के सम्पादकों ने बरहन: (नंगा) लिखा है। यह सब फ़ारसी लिपि की माया मात्र है। वास्तव में ब्रह्म ही ठीक है। मिश्रबंधुविनोद (सं. 77, भाग 1, पृ. 296-8) में इनकी कविता का उद्धरण दिया हुआ है।</ref> बड़े पुत्र का नाम लाला था<ref>दूसरे पुत्र का हरिहरराय नाम था जिसका [[अकबरनामा]] जि. 3, पृष्ठ. 820 में इस प्रकार उल्लेख है कि वह दक्षिण से [[शहज़ादा दानियाल]] का पत्र लाया था।</ref>, जिसे योग्य मन्सब मिला था। यह कुस्वभाव और बुरी लत से व्यय अधिक करता था जिससे इसकी इच्छा बढ़ी, पर जब आय नहीं बढ़ी, तब इसके सिर पर स्वतंत्रता से दिन व्यतीत करने की सनक चढ़ी। इसलिये इसको 46 वें वर्ष में बादशाही दरबार छोड़ने की आज्ञा मिल गई।
  
'''राजा बीरबल दान देने में अपने समय अद्वितीय थे और पुरस्कार देने में संसार-प्रसिद्ध थे। गान विद्या भी अच्छी जानते थे। उनके कवित्त और दोहे प्रसिद्ध हैं। उनके कहावतें और लतीफ़े सब में प्रचलित हैं।''' उनका उपनाम ब्रह्म था।<ref>दरबारी अकबरी में (पृ. 295) उपनाम बुर्हिया लिखा है। बदायूँनी लो कृत अनु. पृ. 161) में ब्रह्मदास है। मआसिरुल्उमरा के सम्पादकों ने बरहन: (नंगा) लिखा है। यह सब फ़ारसी लिपि की माया मात्र है। वास्तव में ब्रह्म ही ठीक है। मिश्रबंधुविनोद (सं. 77, भाग 1, पृ. 296-8) में इनकी कविता का उद्धरण दिया हुआ है।</ref> बड़े पुत्र का नाम लाला था<ref>दूसरे पुत्र का हरिहरराय नाम था जिसका [[अकबरनामा]] जि. 3, पृ. 820 में इस प्रकार उल्लेख है कि वह दक्षिण से [[शहज़ादा दानियाल]] का पत्र लाया था।</ref>, जिसे योग्य मन्सब मिला था। यह कुस्वभाव और बुरी लत से व्यय अधिक करता था जिससे इसकी इच्छा बढ़ी, पर जब आय नहीं बढ़ी, तब इसके सिर पर स्वतंत्रता से दिन व्यतीत करने की सनक चढ़ी। इसलिये इसको 46 वें वर्ष में बादशाही दरबार छोड़ने की आज्ञा मिल गई।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
* मुगल दरबार के सरदार, ''लेखक''- मआसिरुल् उमरा ''प्रकाशन''-नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ''पृष्ठ संख्या''- 127-130
 
 
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14:07, 2 जून 2017 के समय का अवतरण

बीरबल
बीरबल
पूरा नाम राजा बीरबल
अन्य नाम महेशदास
जन्म 1528 ई.
जन्म भूमि त्रिविक्रमपुर, कानपुर, उत्तर प्रदेश[1]
मृत्यु तिथि 1586 ई.
मृत्यु स्थान स्वात, भारत (अब पाकिस्तान)
उपाधि अकबर ने बीरबल को 'राजा' और 'कविराय' की उपाधि से सम्मानित किया था।
धार्मिक मान्यता दीन-ए-इलाही
प्रसिद्धि अकबर के नवरत्नों में से एक
उपनाम बीरबल का उपनाम ब्रह्म था।[2]
अन्य जानकारी राजा बीरबल दान देने में अपने समय अद्वितीय थे और पुरस्कार देने में संसार-प्रसिद्ध थे। गान विद्या भी अच्छी जानते थे। उनके कवित्त और दोहे प्रसिद्ध हैं।

बीरबल (जन्म-1528 ई.; मृत्यु- 1586 ई.) मुग़ल बादशाह अकबर के अकबर के नवरत्नों में सर्वाधिक लोकप्रिय एक ब्राह्मण दरबारी था। बीरबल की व्यंग्यपूर्ण कहानियों और काव्य रचनाओं ने उन्हें प्रसिद्ध बनाया था। बीरबल ने दीन-ए-इलाही अपनाया था और फ़तेहपुर सीकरी में उनका एक सुंदर मकान था।[3] बादशाह अकबर के प्रशासन में बीरबल मुग़ल दरबार का प्रमुख वज़ीर था और राज दरबार में उसका बहुत प्रभाव था। बीरबल कवियों का बहुत सम्मान करता था। वह स्वयं भी ब्रजभाषा का अच्छा जानकार और कवि था।

परिचय

राजा बीरबल का जन्म संवत 1584 विक्रमी में कानपुर ज़िले के अंतर्गत 'त्रिविक्रमपुर' अर्थात् तिकवांपुर में हुआ था। भूषण कवि ने अपने जन्मस्थान त्रिविक्रमपुर में ही इनका जन्म होना लिखा है।[1]प्रयाग के अशोक-स्तंभ पर यह लेख है-

संवत 1632 शाके 1493 मार्ग बदी 5 सोमवार गंगादास सुत महाराज बीरबल श्री तीरथराज की यात्रा सुफल लिखितं।

बदायूंनी ने बीरबल के उपनाम ब्रह्म में दास मिलाकर इनका नाम ब्रह्मदास लिखा है।[4]ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे।[1] अकबर ने बीरबल को 'राजा' पदवी दी थी। बीरबल उतना प्रभावशाली सेनापति नहीं था, जितना प्रभावशाली कवि था। कुछ इतिहासकारों ने बीरबल को राजपूत सरदार बताया है। बीरबल अकबर का स्नेहपात्र था। अकबर ने बीरबल को 'राजा' और 'कविराय' की उपाधि से सम्मानित किया था। पर उनका साहित्यिक जीवन अकबर के दरबार में मनोरंजन करने तक ही सीमित रहा।

प्रभावशाली कवि

महाराज बीरबल ब्रजभाषा के अच्छे कवि थे और कवियों का बड़ी उदारता के साथ सम्मान करते थे। कहते हैं, केशवदास जी को इन्होंने एक बार छह लाख रुपये दिए थे और केशवदास की पैरवी से ओरछा नरेश पर एक करोड़ का ज़ुर्माना मुआफ करा दिया था। इनके मरने पर अकबर ने यह सोरठा कहा था, -

दीन देखि सब दीन, एक न दीन्हों दुसह दुख।
सो अब हम कहँ दीन, कछु नहिं राख्यो बीरबल

  • इनकी कोई पुस्तक नहीं मिलती है, पर कई सौ कवित्तों का एक संग्रह भरतपुर में है। इनकी रचना अलंकार आदि काव्यांगों से पूर्ण और सरस होती थी। कविता में ये अपना नाम ब्रह्म रखते थे।

उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर,
उरग पै केकिन के लपटै लहकि हैं।
केकिन के सुरति हिए की ना कछू है, भए,
एकी करी केहरि, न बोलत बहकि है।
कहै कवि ब्रह्म वारि हेरत हरिन फिरैं,
बैहर बहत बड़े ज़ोर सो जहकि हैं।
तरनि कै तावन तवा सी भई भूमि रही,
दसहू दिसान में दवारि सी दहकि है

पूत कपूत, कुलच्छनि नारि, लराक परोसि, लजायन सारो।
बंधु कुबुद्धि , पुरोहित लंपट, चाकर चोर, अतीथ धुतारो
साहब सूम, अड़ाक तुरंग, किसान कठोर, दीवान नकारो।
ब्रह्म भनै सुनु साह अकब्बर बारहौं बाँधि समुद्र में डारौ

कविराय पद

बीरबल हिन्दी की अच्छी कविताएँ करते थे, इससे पहले इनको कविराय (जो मलिकुश्शोअरा अर्थात् कवियों के राजा के प्राय: बराबर है) की पदवी मिली थी। 18वें वर्ष जब बादशाह ने नगरकोट के राजा जयचन्द पर क्रुद्ध होकर उसे क़ैद कर लिया, तब उसका पुत्र विधिचन्द्र (जो अल्पवयस्क था) अपने को उसका उत्तराधिकारी समझ कर विद्रोही हो गया। बादशाह ने वह प्रान्त कविराय को (जिसकी जागीर पास ही थी) दे दी और पंजाब के सूबेदार हुसैन कुली ख़ाँ ख़ानेजहाँ को आज्ञापत्र भेजा कि उस प्रान्त के सरदारों के साथ वहाँ जाकर नगरकोट विधिचन्द्र से छीनकर कविराय के अधिकार में दे दे। इन्हें राजा बीरबल (जिसका अर्थ बहादुर है) की पदवी देकर उस कार्य पर नियत किया।

अकबर और बीरबल

बीरबल महेशदास नामक बादफ़रोश[5] ब्राह्मण थे जिसे हिन्दी में भाट कहते हैं। यह जाति धनाढ्यों की प्रशंसा करने वाली थी। यद्यपि बीरबल कम पूँजी के कारण बुरी अवस्था में दिन व्यतीत कर रहे थे, पर बीरबल में बुद्धि और समझ भरी हुई थी। अपनी बुद्धिमानी और समझदारी के कारण यह अपने समय के बराबर लोगों में मान्य हो गए। जब सौभाग्य से अकबर बादशाह की सेवा में पहुँचे, तब अपनी वाक्-चातुरी और हँसोड़पन से बादशाही मजलिस के मुसाहिबों और मुख्य लोगों के गोल में जा पहुँचे और धीरे-धीरे उन सब लोगों से आगे बढ़ गए। बहुधा बादशाही पन्नों में इन्हें मुसाहिबे-दानिशवर राजा बीरबल लिखा गया है।
जब राजा लाहौर पहुँचे तो हुसैन कुली ख़ाँ ने जागीरदारों के साथ ससैन्य नगरकोट पहुँचकर उसे घेर लिया। जिस समय दुर्ग वाले कठिनाई में पड़े हुए थे, दैवात् उसी समय इब्राहीम हुसेन मिर्ज़ा का बलवा आरम्भ हो गया था और इस कारण कि उस विद्रोह का शान्त करना उस समय का आवश्यक कार्य था, इससे दुर्ग विजय करना छोड़ देना पड़ा। अंत में राजा की सम्मति से विधिचन्द्र से पाँच मन सोना और ख़ुतबा पढ़वाने, बादशाही सिक्का ढालने तथा दुर्ग काँगड़ा के फाटक के पास मसजिद बनवाने का वचन लेकर घेरा उठा लिया गया। 30वें वर्ष सन् 994 हि. (सन् 1586 ई.) में जैन ख़ाँ कोका यूसुफ़जई जाति को, जो स्वाद और बाजौर नामक पहाड़ी देश की रहनेवाली थी, दंड देने के लिए नियुक्त हुआ था। उसने बाजौर पर चढ़ाई करके स्वात [6] पहुँच कर उस जाति को दंड दिया।
घाटियाँ पार करते-करते सेना थक गई थी, इसलिये जैन ख़ाँ कोका ने बादशाह के पास नई सेना के लिए सहायतार्थ प्रार्थना की। शेख अबुल फ़ज़ल ने उत्साह और स्वामिभक्ति से इस कार्य के लिये बादशाह ने अपने को नियुक्त किये जाने की प्रार्थना की। बादशाह ने इनके और राजा बीरबल के नाम पर गोली डाली। दैवात् वह राजा के नाम की निकली। इनके नियुक्त होने के अनन्तर शंका के कारण हक़ीम अबुलफ़जल के अधीन एक सेना पीछे से और भेज दी। जब दोनों सरदार पहाड़ी देश में होकर कोका के पास पहुँचे तब, यद्यपि कोकलताश तथा राजा के बीच पहिले ही से मनोमालिन्य था, तथापि कोका ने मजलिस करके नवागंतुकों को निमन्त्रित किया। राजा ने इस पर क्रोध प्रदर्शित किया। कोका धैर्य को काम में लाकर राजा के पास गया और जब राय होने लगी; तब राजा ( जो हकीम से भी पहिले ही से मनोमालिन्य रखता था) से कड़ी-कड़ी बातें हुईं और अंत में गाली-गलौज तक हो गया।

फल यह हुआ कि किसी का हृदय स्वच्छ नहीं रहा और हर एक दूसरे की सम्मति को काटने लगा। यहाँ तक कि आपस की फूट और झगड़े से बिना ठीक प्रबन्ध किए वे बलंदरी की घाटी में घुसे। अफ़ग़ानों ने हर ओर से तीर और पत्थर फेंकना आरम्भ किया और घबराहट से हाथी, घोड़े और मनुष्य एक में मिल गए। बहुत आदमी मारे गए और दूसरे दिन बिना क्रम ही के कूच करके अँधेरे में घाटियों में फँस कर बहुत से मारे गए। राजा बीरबल भी इसी में मारे गए।[7]

कहते हैं कि जब राजा कराकर पहुँचे थे, तब किसी ने उनसे कहा था कि आज की रात में अफ़ग़ान आक्रमण करेंगे; इससे तीन चार कोस ज़मीन (जो सामने है) पार कर ली जाय तो रात्रि-आक्रमण का खटका न रह जाएगा। राजा ने जैन ख़ाँ को बिना इसका पता दिए ही संध्या समय कूच कर दिया। उनके पीछे कुल सेना चल दी। जो होना था सो हो गया। बादशाही सेना का भारी पराजय हुआ और लगभग सहस्त्र मनुष्य मारे गए जिनमें से कुछ ऐसे थे जिन्हें बादशाह पहचानते थे। राजा ने बहुत कुछ हाथ पैर मारा (कि बाहर निकल जायें) पर मारा गया।[8]

जब कोई कृतघ्नता और अकृतज्ञता से धन्यवाद देने के बदले में बुराई करने लगता है, तब यह कंटकमय संसार उसे जल्दी उसके कामों का बदला दे देता है। कहते हैं कि जब राजा उस पार्वत्य प्रदेश में पहुँचा, तब उसका मुख और हृदय बिगड़ा हुआ था और अपने साथियों से कहता था कि 'हम लोगों का समय ही बिगड़ा हुआ है कि एक हक़ीम के साथ कोका की सहायता के लिए जंगल और पहाड़ नापना पड़ेगा। इसका फल न जाने क्या हो! यह नहीं जानता था कि स्वामी के काम करने और उसकी आज्ञा मानने में ही भलाई है। यह कारण कितना ही असंतोषजनक रहा हो, पर यह प्रकट है कि जैन ख़ाँ धाय-भाई और ऊँचे मन्सब का होने से उच्चपदस्थ था। राजा केवल दो हज़ारी मन्सबदार था[9], पर उसने मुसाहिबी और मित्रता (जो बादशाह के साथ थी) के घमंड में ऐसा बर्ताब किया था।[1]

बीरबल की मृत्यु

मुग़ल सेना के नायक के रूप में पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत के एक युद्ध में सन् 1586 ई. में बीरबल की मृत्यु हो गई थी। कहते हैं कि अकबर ने उसकी मृत्यु-वार्ता सुन कर दो दिन तक खान-पान नहीं किया[10] और उस फ़रमान से (जो ख़ान-ए-ख़ाना मिर्ज़ा अब्दुर्रहीम को उसके शोक पर लिखा था और जो अल्लामी शेख़ अबुल फ़ज़ल के ग्रंथ में दिया हुआ है) प्रकट होता है कि बादशाह के हृदय में उसने कितना स्थान प्राप्त कर लिया था और दोनों में कितना घना संबंध था। बीरबल की प्रशंसा और स्वामिभक्ति के शब्दों के आगे यह लिखा हुआ है कि

शोक ! सहस्त्र शोक !
कि इस शराबखाने की शराब में दु:ख मिला हुआ है !
इस मीठे संसार की मिश्री हलाहल मिश्रित है।
संसार मृग-तृष्णा के समान प्यासों से कपट करता है और पड़ाव गड्ढ़ों और टीलों से भरा पड़ा है !
इस मजलिस का भी सबेरा होना है और इस पागलपन का फल सिर की गर्मी है !
कुछ रुकावटें न आ पड़तीं तो स्वयं जाकर अपनी आँखों से बीरबल का शव देखता और उन कृपाओं और और दयाओं (जो हमारी उस पर थीं) को प्रदर्शित करता।"

शेर का अर्थ

'"हे हृदय, ऐसी घटना से मेरे कलेजे में रक्त तक नहीं रह गया और हे नेत्र, कलेजे का रंग भी अब लाल नहीं रह गया है।'"

राजा बीरबल दान देने में अपने समय अद्वितीय थे और पुरस्कार देने में संसार-प्रसिद्ध थे। गान विद्या भी अच्छी जानते थे। उनके कवित्त और दोहे प्रसिद्ध हैं। उनके कहावतें और लतीफ़े सब में प्रचलित हैं। उनका उपनाम ब्रह्म था।[11] बड़े पुत्र का नाम लाला था[12], जिसे योग्य मन्सब मिला था। यह कुस्वभाव और बुरी लत से व्यय अधिक करता था जिससे इसकी इच्छा बढ़ी, पर जब आय नहीं बढ़ी, तब इसके सिर पर स्वतंत्रता से दिन व्यतीत करने की सनक चढ़ी। इसलिये इसको 46 वें वर्ष में बादशाही दरबार छोड़ने की आज्ञा मिल गई।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 पुस्तक- 'मुग़ल दरबार के सरदार' भाग-1| लेखक: मआसिरुल् उमरा | प्रकाशन: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी | पृष्ठ संख्या: 127-130
  2. दरबारी अकबरी में (पृ. 295) उपनाम बुर्हिया लिखा है। बदायूँनी लो कृत अनु. पृ. 161) में ब्रह्मदास है। मआसिरुल्उमरा के सम्पादकों ने बरहन: (नंगा) लिखा है। यह सब फ़ारसी लिपि की माया मात्र है। वास्तव में ब्रह्म ही ठीक है। मिश्रबंधुविनोद (सं. 77, भाग 1, पृ. 296-8) में इनकी कविता का उद्धरण दिया हुआ है।
  3. पुस्तक- भारत ज्ञानकोश खंड-4 |प्रकाशन- एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका| पृष्ठ संख्या- 26
  4. (बदायूंनी, लो, पृ. 164)
  5. (प्रशंसा बेचने वाले)
  6. जो पेशावर के उत्तर और बाजौर के पश्चिम है, चालीस कोस लम्बा और पाँच से पंद्रह कोस तक चौड़ा है और जिसमें चालीस सहस्र मनुष्य उस जाति के बसते थे
  7. अकबरनामा, इलि. डाउ., जि. 5, पृष्ठ. 80-84 में विस्तृत विवरण दिया है।
  8. जुब्दतुत्तवारीख, इलि. डाउ., जि. 5, पृ. 191 में इसी प्रकार यह घटना लिखी गई है।
  9. यह आश्चर्य की बात है कि अकबर का इतना प्रिय व्यक्ति को केवल दो हज़ारी मन्सब मिला हुआ था जो इतिहासकारों की समझ में नहीं आता है।
  10. राजा बीरबल की मृत्यु के अनंतर उनके जीवित रहने की झूठी गप्पों का वर्णन बदायूनी ने विस्तार से लिखा है (देखिए मुंत्तखबुत्तवारीख बिब. इंडि. सं. पृ. 357-58)।
  11. दरबारी अकबरी में (पृ. 295) उपनाम बुर्हिया लिखा है। बदायूँनी लो कृत अनु. पृ. 161) में ब्रह्मदास है। मआसिरुल्उमरा के सम्पादकों ने बरहन: (नंगा) लिखा है। यह सब फ़ारसी लिपि की माया मात्र है। वास्तव में ब्रह्म ही ठीक है। मिश्रबंधुविनोद (सं. 77, भाग 1, पृ. 296-8) में इनकी कविता का उद्धरण दिया हुआ है।
  12. दूसरे पुत्र का हरिहरराय नाम था जिसका अकबरनामा जि. 3, पृष्ठ. 820 में इस प्रकार उल्लेख है कि वह दक्षिण से शहज़ादा दानियाल का पत्र लाया था।

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