वैदिक काल

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सिंधु सभ्यता के पतन के बाद जो नवीन संस्कृति प्रकाश में आयी उसके विषय में हमें सम्पूर्ण जानकारी वेदों से मिलती है। इसलिए इस काल को हम 'वैदिक काल' अथवा वैदिक सभ्यता के नाम से जानते हैं। चूँकि इस संस्कृति के प्रवर्तक आर्य लोग थे इसलिए कभी-कभी आर्य सभ्यता का नाम भी दिया जाता है। यहाँ आर्य शब्द का अर्थ- श्रेष्ठ, उदात्त, अभिजात्य, कुलीन, उत्कृष्ट, स्वतंत्र आदि हैं। यह काल 1500 ई.पू. से 600 ई.पू. तक अस्तित्व में रहा।

ऋग्वैदिक काल 1500-1000 ई.पू.

स्रोत- ऋग्वैदिक काल के अध्ययन के लिए दो प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं-

  1. पुरातात्विक साक्ष्य
  2. साहित्यिक साक्ष्य

पुरातात्विक साक्ष्य

इसके अंतर्गत निम्नलिखित साक्ष्य उपलब्ध प्राप्त हुए हैं-

  • चित्रित धूसर मृदभाण्ड
  • खुदाई में हरियाणा के पास भगवान पुरा में मिले 13 कमरों वाला मकान तथा पंजाब में भी प्राप्त तीन ऐसे स्थल जिनका सम्बन्ध ऋग्वैदिक काल से जोड़ा जाता है।
  • बोगाज-कोई अभिलेख / मितल्पी अभिलेख (1400 ई.पू- इस लेख में हित्ती राजा शुब्विलुलियुम और मित्तान्नी राजा मत्तिउआजा के मध्य हुई संधि के साक्षी के रूप में वैदिक देवता इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य का उल्लेख है।

साहित्यिक साक्ष्य

ऋग्वेद में 10 मण्डल एवं 1028 मण्डल सूक्त है। पहला एवं दसवाँ मण्डल बाद में जोड़ा गया है जबकि दूसरा से 7 वाँ मण्डल पुराना है।

आर्यो का आगमन काल

आर्यो के आगमन के विषय में विद्धानों में मतभेद है विक्टरनित्ज ने आर्यो के आगमन की तिथि के 2500 ई. निर्धारित की है जबकि बालगंगाधर तिलक ने इसकी तिथि 6000 ई.पू. निर्धारित की है। मैक्समूलर के अनुसार इनके आगमन की तिथि 1500 ई.पू. है। वर्तमान समय में मैक्सूमूलन ने मत स्वीकार्य हैं।

आर्यो का मूल स्थान

आर्यो के आदि स्थल
आदि (मूल स्थान) मत
सप्तसैंधव क्षेत्र डॉ. अविनाश चंद्र, डॉ. सम्पूर्णानन्द
ब्रह्मर्षि देश पं गंगानाथ
मध्य देश डॉ. राजबली पाण्डेय
कश्मीर एल.डी. कल्ला
देविका प्रदेश (मुल्तान) डी.एस. त्रिवेदी
उत्तरी धु्रव प्रदेश बाल गंगाधर तिलक
हंगरी (यूरोप) (डेन्यूब नदी की घाटी) पी गाइल्स
दक्षिणी रूस नेहरिंग गार्डन चाइल्ड्स
जर्मनी पेन्का
यूरोप फिलिप्पो सेस्सेटी, सर विलियम जोन्स
पामीर एवं बैक्ट्रिया एडवर्ड मेयर एवं ओल्डेन वर्ग जे.जी. रोड
मध्य एशिया मैक्समूलर
तिब्बत दयानन्द सरस्वती
हिमालय (मानस) के.के. शर्मा
  1. डॉ. अविनाश चन्द्र द्रास ने अपनी पुस्तक 'Rigvedic India' (ऋग्वैदिक इंडिया) में भारत में सप्त सैंधव प्रदेश को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
  2. महामोपाध्याय पं. गंगानाथ झा ने भारत में ब्रहर्षि देश को आर्यो का मूल निवास स्थान माना हैं।
  3. डॉ.राजबली पाण्डेय ने भारत में मध्य देश को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
  4. एल.डी. कल्ला ने भारत में कश्मीर अथवा हिमालय प्रदेश आर्यों का मूल निवास स्थान माना है।
  5. श्री डी.एस. त्रिवेदी ने मुल्तान प्रदेश में देविका नदी के आस पास के क्षेत्र को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
  6. स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तिब्बत को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है। यह वर्णन इनकी पुस्तक 'सत्यार्थ प्रकाश' एवं 'इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रेडिशन' में मिलता है।
  7. मैक्स मूलर ने मध्य एशिया को आर्यो का मूल निवास स्थान बताया। मैक्स मूलन ने इसका उल्लेख लेक्चर्स आन द साइंस आफ लैग्युएजेज में किया है।
  8. जे.जी.रोड आर्यो का आदि देश बैक्ट्रिया मानते है।
  9. बाल गंगाधर तिलक ने उत्तरी ध्रुव को आर्यो का मूल निवास माना है। यह वर्णन इनकी पुस्तक 'The Arctic HOme of the Aryans' में मिलता है।
  10. पी. गाइल्स ने यूरोप में डेन्यूब नदी की घाटी एवं हंगरी को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
  11. पेन्का ने जर्मनी को आर्यो का मूल निवास स्थान बताया है।
  12. एडवर्ड मेयर, ओल्डेनवर्ग, कीथ ने मध्य एशिया के पामीर क्षेत्र को आर्यो का मूल स्थान माना है।
  13. नेहरिंग एवं गार्डन चाइल्स ने दक्षिणी रूस को आर्यो का मूल स्थान माना है।

आर्यो के मूल निवास के सन्दर्भ में सर्वाधिक प्रमाणिक मत आल्पस पर्व के पूर्वी भाग में स्थित यूरेशिया का है।

राजनीतिक विस्तार

डॉ. जैकोबी के अनुसार आर्यो ने भारत में कई बार आक्रमण किया और उनकी एक से अधिक शाखाएं भारत में आयी। सबसे महत्वपूर्ण कबीला भारत था। इसके शासक वर्ग का नाम त्रित्सु था। संभवतः सृजन और क्रीवी कबीले भी उनसे सम्बद्ध थे। ऋग्वेद में आर्यो के जिन पांच कबीलों का उल्लेख है उनमें- पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रुह्म प्रमुख थे। ये पंचयन के नाम से जाने जाते थे। चदु और तुर्वस को दास कहा जाता था। यदु और तुर्वश के विषय में ऐसा माना जाता था कि इन्द्र उन्हे बाद में लाए थे। यह ज्ञात होता है कि सरस्वती दृषद्वती एवं आपया नदी के किनारे भरत कबीले ने अग्नि की पूजा की।

आर्यो का भौगोलिक क्षेत्र

भारत में आर्यो का आगमन 1500 ई.पू. से कुछ पहले हुआ। भारत में उन्होंने सर्वप्रथम सप्त सैन्धव प्रदेश में बसना प्रारम्भ किया। इस प्रदेश में बहने वाली सात नदियों का जिक्र हमें ऋग्वेद से मिलता है। ये हैं सिंधु, सरस्वती, शतुद्रि (सतलुज) विपशा (व्यास), परुष्णी (रावी), वितस्ता (झेलम), अस्किनी (चिनाब) आदि।

कुछ अफगानिस्तान की नदियों का जिक्र भी हमें ऋग्वेद से मिलता है। ये हैं- कुभा (काबुल नदी), क्रुभु (कुर्रम), गोमती (गोमल) एवं सुवास्तु (स्वात) आदि। इससे यह पता चलता है कि अफगानिस्तान भी उस समय भारत का ही एक अंग था। हिमालय पर्वत का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। हिमालय की एक चोटी को मूजदन्त कहा गया है जो सोम के लिए प्रसिद्व थी। इस प्रकार आर्य हिमालय से परिचत थे। आर्यों ने अगले पड़ाव के रूप में कुरूक्षेत्र के निकट के प्रदेशों पर कब्जा कर उस क्षेत्र का नाम 'ब्रह्मवर्त' (आर्यावर्त) रखा। ब्रह्मवर्त से आगे बढ़कर आर्यो ने गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र एवं उसके नजदीक के क्षेत्रों पर कब्जा कर उस क्षेत्र का नाम ब्रह्मर्षि देश रखा। इसके बाद हिमालय एवं विन्ध्यांचल पर्वतों के बीच के क्षेत्र पर कब्जा कर उस क्षेत्र का नाम 'मध्य प्रदेश' रखा। अन्त में बंगाल एवं बिहार के दक्षिण एवं पूर्वी भागों पर कब्जा कर समूचे उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया, कालान्तर में इस क्षेत्र का नाम 'आर्यावत' रखा गया।

मनुस्मृति में सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच के प्रदेश को ब्रह्मवर्त पुकारा गया।


ऋग्वेद में नदियों का उल्लेख

ऋग्वैदिककालीन नदियाँ
प्राचीन नाम आधुनिक नाम
क्रुभु कुर्रम
कुभा काबुल
वितस्ता झेलम
आस्किनी चिनाव
पुरुष्णी रावी
शतद्रि सतलज
विपाशा व्यास
सदानीरा गंडक
दृषद्वती घग्घर
गोमती गोमल
सुवास्तु स्वात
सिंधु सिन्ध
सरस्वती / दृशद्वर्ती घघ्घर / रक्षी / चित्तग
सुषोमा सोहन
मरुद्वृधा मरुवर्मन

ऋग्वेद मे 25 नदियों का उल्लेख है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण नदी सिन्धु नदी है, जिसका वर्णन कई बार आया है। यह सप्त सैन्धव क्षेत्र की पश्चिमी सीमा थी। क्रुमु (कुर्रम),गोमती (गोमल), कुभा (काबुल) और सुवास्तु (स्वात) नामक नदियां पश्चिम किनारे में सिन्धु की सहायक नदी थीं। पूर्वी किनारे पर सिन्धु की सहायक नदियों में वितास्ता (झेलम) आस्किनी (चेनाब), परुष्णी (रावी), शतुद्र (सतलज), विपासा (व्यास) प्रमुख थी। विपास (व्यास) नदी के तट पर ही इन्द्र ने उषा को पराजित किया और उसके रथ को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। सिन्धु नदी को उसके आर्थिक महत्व के कारण हिरण्यनी कहा गया है। सिन्धु नदी द्वार ऊनी वस्त्रों के व्यवसाय होने का कारण इसे सुवासा और ऊर्पावर्ती भी कहा गया है। ऋग्वेद में सिन्धु नदी की चर्चा सर्वाधिक बार हुयी है।

सरस्वती - ऋग्वेद में सरस्वती नदी को नदियों की अग्रवती, नदियों की माता, वाणी, प्रार्थना एवं कविता की देवी, बुद्धि को तीव्र करने वाली और संगीत प्रेरणादायी कहा गया है। सरस्वती ऋग्वेद की सबसे पवित्र नदी मानी जाती थी। इसे नदीतमा (नदियों की माता) कहा गया। सरस्वती जो अब राजस्थान की रेगिस्तान में विलीन हो गई है। इसकी जगह अब घग्घर नदी बहती है।

दृषद्वती- (आधुनिक चितंग अथवा घघ्घर) यह सिन्धु समूल की नदी नही थी।

आपया- यह दृषद्वती एवं सरस्वती नदी के बीच में बहती थी।

सरयू - यह गंगा की सहायक नदी थी। ऋग्वेद के अनुसार संभवतः यदु एवं तुर्वस के द्वारा चित्ररथ और अर्ण सरयू नदी के किनारे ही पराजित किए गए थे।

यमुना- ऋग्वेद में यमुना की चर्चा तीन बार की गयी हैं।

गंगा - गंगा का उल्लेख ऋग्वेद में एक ही बार हुआ है। नदी सूक्त की अन्तिम नदी गोमती है।

समुद्र- ऋग्वेद में समुद्र की चर्चा हुई है और भुज्य की नौका दुर्घटना वाली कहानी में जलयात्रा पर प्रकाश पड़ता है। वैदिक तौल की ईकाई मन एवं वेबीलोन की इकाई मन में समानता से भी समुद्र यात्रा पर पड़ता है। ऋग्वेद के दो मन्त्रों (9वें ओर 10वें मण्डल के) में चार समुद्रों का उल्लेख है।

पर्वत - ऋग्वैदिक आर्य हिमालय पहाड़ से परिचित थे। परन्तु विन्ध्य या सतपुड़ा से परिचित नहीं थें। कुछ महत्वपूर्ण चोटियों की चर्चा है, यथा जैसे हिमवंत, मंजदंत, शर्पणावन्, आर्जीक तथा सुषोम।

मरुस्थल- ऋग्वेद में मरुस्थल के लिए धन्व शब्द आया है। आर्यो को सम्भवतः मरुस्थल का ज्ञात था, क्योंकि इस बात की चर्चा की जाती है कि पर्जन्य ने मरुस्थल को पर करने योग्य बनाया।

क्षेत्र- प्रारम्भिक वैदिक साहित्य में केवल एक क्षेत्र 'गांधारि' की चर्चा है। इसकी पहचान आधुनिक पेशावर एवं रावलपिण्डी ज़िलों से की गई है।

आर्यो का संघर्ष

आर्यो का संघर्ष गैरिक मृदभांण्ड एवं लाल और काले मृदभाण्ड वाले लोगों से हुआ।

आर्यो के विजयी होने के कारण

आर्य निम्नलिखित कारणों से विजयी होते रहे।

  1. घोड़े चलित रथ
  2. काँसे के अच्छे उपकरण
  3. कवच (वर्म)
  • आर्य सम्भवतः विशिष्ट प्रकार के दुर्ग का प्रयोग करते थे। इसे पुर कहा जाता था। वे धनुष-वाण का प्रयोग करते थे। प्रायः दो प्रकार के बाणों में एक विषाक्त एवं सींग के सिरा (मुख) वाला तथा दूसरा ताँबा के मुख वाला होता था। इसके अतिरिक्त बरछी, भाला, फरसा और तलवार का प्रयोग भी करते थे। पुरचष्णि शब्द का अर्थ था- दुर्गों को गिराने वाला।
  • दास एवं दस्यु आर्यो के शस्त्रु थे। दस्यु को अनसा (चपटी नाक वाला), अकर्मन (वैदिक कर्मो में विश्वास न करने वाला) एवं शिश्नदेवा (लिंगपूजक) कहा जाता था। पुरु नामक कबीला त्रास दस्यु के नाम से जाना जाता था।
  • भरत जन को विश्वामित्र का सहयोग प्राप्त था। इसी सहयोग के बल पर उसने व्यास एवं शुतुद्री को जीता। किन्तु शीघ्र ही भरतों ने वशिष्ठ को अपना गुरु मान लिया। अतः क्रुध होकर विश्वामित्र ने भरत जन के विरोधियों को समर्थन दिया। परुष्णी नदी के किनारे 10 राजाओं का युद्ध हुआ। इसमें भरत के विरोध में पाँच आर्य एवं पाँच अनार्य कबीले मिलकर संघर्ष कर रहे थे। आर्यो के पाँच कबीले थे - पुरु, यदु, तुर्वश, द्रुह्म, और अनु। पाँच अनार्य कबीले थे- अलिन, पक्थ, भलानस, विसाणिन और शिव। इसमें भरत राजा सुदास की विजय हुई। दश राजाओं का युद्ध पश्चिमोत्तर प्रदेश में बसे हुए पूर्वकालीन जल तथा ब्रह्मवर्त के उत्तर कालीन आर्यो के बीच उत्तराधिकार के प्रश्न पर लड़ा गया था।
  • ऋग्वेद में करीब 25 नदियों का उल्लेख मिलता है जिनमे महत्वपूर्ण नदी सिंधु का वर्णन कई बार आया है। उनके द्वारा उल्लिखित दूसरी नदी है सरस्वती जो अब राजस्थान के रेगिस्तान में तिरोहित हो गयी है। इसकी जगह अब घग्घर नदी बहती है। ऋग्वेद में सरस्वती नदी को 'नदीतमा' (नदियों में प्रमुख) कहा गया है। इसके अतिरिक्त गंगा का ऋग्वेद में एक बार एवं यमुना का तीन बार जिक्र आया है। ऋग्वेद में केवल हिमालय पर्वत एवं इसकी चोटी मोजवंत का उल्लेख मिलता है।

राजनीतिक अवस्था

सर्वप्रथम जब आर्य भारत में आये तो उनका यहाँ के दास अथवा दस्यु कहे जाने वाले पाँच लोगों से संघर्ष, अन्ततः आर्यो को विजय मिली। ऋग्वेद में आर्यो के पांच कबीले के होने की वजह से पंचजन्य कहा गया। ये थे पुरु, यदु, तुर्वश, द्रुह्म और अनु। भरत, क्रिव एवं त्रित्सु आर्य शासक वंश के थे। भरत कुल के नाम से ही इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इनके पुरोहित थे वशिष्ठ। कालान्तर में भरत वंश के राजा सुदास तथा अन्य दस जनों, पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रह्म अकिन, पक्थ, भलानस, विषणिन और शिव के मध्य दाशराज्ञ यु़द्ध परुष्णी (रावी) नदी के किनारे लड़ा गया जिसमें सुदास को विजय मिली। कुछ समय पश्चात् पराजित राजा पुरु और भरत के बीच मैत्री सम्बन्ध स्थापित होने से एक नवीन कुरु वंश की स्थापना की गयी।

ऋग्वैदिक काल में समाज कबीले के रूप में संगठित था, कबीले को जन भी कहा जाता था। कबीले या जन का प्रशासन कबीले का मुखिया करता था, जिसे 'राजन' कहा जाता था। इस समय तक राजा का पद आनुवंशिक हो चुका था। राजा का जनस्थ गोपा तथा पुरचेत्ता कहा जाता था। इसके अतिरिक्त राजा की अनेक उपधियाँ थी - विशापति,गणपति, ग्रामणी, आदि। कबीले के लोग स्वेच्छा से राजा का कर देते थें। इसे वलि कहा जाता था। 'राष्ट्र' की क्षेत्रीय अवधारणा धीरे-धीरे विकसित हो रही थीं क्योंकि ऋग्वेद के 10 वें मण्डल में राजा से 'राष्ट्र' की रक्षा करने का कहा गया है। ऋग्वेद में 'जन' शब्द का उल्लेख 275 बार मिलता है जबकि जनपद शब्द का उल्लेख एक बार भी नहीं मिलता है। राजा कोई भी निर्णय कबायली संगठनों के सलाह से लेता था। राजा की सहायता हेतु पुरोहित, सेनानी, एवं ग्रामणी नामक प्रमुख अधिकारी थी। प्रायः पुरोहित का पद वंशानुगत होता था। लड़ाकू दल के प्रधान ग्रामणी कहलाते थे। सैन्य संचालन वा्रत, गण, ग्राम व सर्ध नामक कबीलाई टुकडिया करती थीं ऋग्वेद में युद्ध प्रायः धनुष-वाणों से होता था। ऋग्वेद में पुरपथरिष्णु का उल्लेख हुआ है,जो प्रायः दुर्गो को गिराने के लिए एक यन्त्र था। सूत, रथकार तथा कम्मादि आदि पदाधिकारी 'रत्नी' कहे जाते थे। इनकी संख्या राजा सहित करीब 12 होती थी। ये राजा के राज्याभिषेक के समय उपस्थित रहते थे। 'पुरप' दुर्गपति होते थे। 'स्पश' जनता की गतिविधियों को देखने वाले गुप्तचर होते थे। दूत समय समय पर सन्धि-विग्रह के प्रस्तावों को लेकर राजा के पास जाता था। वाजपति गोचर भूमि का अधिकारी एवं कुलप परिवार का मुखिया होता था।

कुछ कबीलाई संस्थाएं अस्तित्व में थी, जैसे-सभा, समितद, विदथ तथा गण। अथर्ववेद के अनुसार सभा और समिति प्रजापति की दो पुत्रियाँ थी।

सभा

सभा की उत्पत्ति ऋग्वेद के उत्तरकाल में हुई थी। यह वुद्ध (श्रेष्ठ) एवं अभिजात (संभ्रान्त) लोगों की संस्था थीं। यह समिति की अपेक्षा छोटी थी। सभा में भागेदारी करने वालों का सभेय कहा जाता था। अथर्ववेद में सभा एक स्थान पर 'नरिष्टा' कहा गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ अनुलंधनीय है। इससे ज्ञात होता है कि सभी द्वारा लिया गया निर्णय अनुलंघनीय होता था। वेदों में इसके सदस्यों को पितरः (पिता) कह कर सम्बोधित कहा गया है । इसका अध्यक्ष सभापति कहा जाता था। सभी का प्रमुख कार्य न्याय प्रदान करना था। ऋग्वेद में 8 बार सभा की चर्चा की गई है।

समिति

यह एक आम जनप्रतिनिधि सभा (केन्द्रीय राजनीतिक) थी। समिति राजा का निर्वाचन करती थी तथा उस पर नियन्त्रण रखती थी। इस समिति के अध्यक्ष कोपति या ईशान कहा जाता था। समिति में राजकीय विषयों पर चर्चा होती थी तथा सहमति से निर्णय होता था। आरुणिपुत्र श्वेतकेतु पंचाल देशीय लोगों को समिति में आया था। उससे जीवन पुत्र प्रवाहण जैबलि ने पांच प्रश्न पूछा था जिसका उत्तर वह नहीं दे पाया था। इससे पता चलता है कि संभवतः समिति में राजनैतिक गैरराजनीतिक विषयों पर भी चर्चा होती थी यह राष्ट्रीय एकेडमी का भी काम करती थी। ऋग्वेद में 9 बार समिति की चर्चा हुई है।

विदथ

यह आर्यो की सर्वप्राचीन संस्था थी। इसे जनसभा भी कहा जाता था। रॉथ के अनुसार 'विदथ' संस्था सैनिक असैनिक तथा धार्मिक कार्यो से संम्बद्ध थी। इसी कारण के.पी. जायसवाल विद्थ को एक मौलिक बड़ी सभा मानते हैं। रामशरण शर्मा इसे आर्यो की प्राचीनतम संस्था मानते हैं, उनका मानना है कि ऋग्वेद में विद्थ का उल्लेख 22 बार हुआ है। आपके अनुसार विद्थ ऐसी संस्था थी जो यु़द्ध में लूटी गयी वस्तुओं अथवा उपहार और समय-समय पर मिलने वाली भेटों की सामग्रियों का वितरण करती थी। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियाँ भी सभा और विद्थ में भाग लेती थी। इस प्रकार, सभा, समिति, विद्थ और परिषद् वैदिक राजतंत्र में सहायक के रूप में काम करती थी। ऋग्वेद तथा इस पर लिख गए ब्राह्मण एवं ऐतरेय ब्राह्मण दोनों में राजा के निर्वाचन सम्बन्धी सूक्त पाये जाते हैं।

भागदुध

विशिष्ट अधिकारी, जो राजा के अनुयायियों के मध्य बलि (भेंट) का समुचित बंटवारा एवं कर का निर्धारण करता था।

प्रशासनिक इकाई

ऋग्वैदिक काल में प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल या गृह था। उसके ऊपर ग्राम था। उसके ऊपर विश था। सबसे ऊपर जन होता था। ऋग्वेद में जन शब्द का उल्लेख 275 बार हुआ है, जबकि जनपथ शब्द का उल्लेख एक बार भी नहीं हुआ है। विश शब्द का उल्लेख 170 बार हुआ है।

ऋग्वैदिक भारत का राजनीतिक ढाँचा आरोही क्रम में- कुल > ग्राम > विशस > जन > राष्ट्र

इसमें कुल सबसे छोटी इकाई थी । कुल का मुखिया कुलप था। ग्राम का शासन ग्रामणी देखता था। विश ग्राम से बड़ी प्रशासनिक ईकाई थी। इसका शासक विश्पति कहा जाता था। जन काबीलाई संगठन था। इनका शासन प्रमुख पुरोहित हुआ करता था। इन्ही के नाम पर आगे जनपद बने। राष्ट्र शासन की सबसे बड़ी ईकाई थी। इसका शासक राजा होता था।

न्याय व्यवस्था

न्याय व्यवस्था धर्म पर आधारित होती थी। राजा कानूनी सलाहकारों तथा पुरोहित की सहायता से न्याय करता था। चोरी, डकैती, राहजनी, आदि अनेक अपराधों का उल्लेख मिलता है। इसमें पशुओं की चोरी सबसे अधिक होती थी जिसे पणि लोग करते थे। इनके अधिकांश युद्ध गाय को लेकर हुए हैं। ऋग्वेद में युद्ध का पर्याय गाविष्ठ (गाय का अन्वेषण) है। मुत्यु दंड की प्रथा नहीं थी। अपराधियों को शरीरदण्ड तथा जुर्माने की सजा दी जाती थी। वेरदेय (बदला चुकाने की प्रथा) का प्रचलन था। एक व्यक्ति को शतदाय कहा जाता था क्योंकि उसके जान की कीमत 100 गाय थी। हत्या का दण्ड द्रव्य के रूप में दिया जाता था। सूद का भुगतान वस्तु के ऊपर में किया जाता था। दिवालिए को ऋणदाता का दास बनाया जाता था। पुत्र सम्पत्ति का अधिकारी होता था।

सामाजिक जीवन

ऋग्वैदिक समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार या कुल होती थी। ऋग्वेद में 'कुल' शब्द का उल्लेख नहीं है। परिवार के लिए 'गृह' शब्द का प्रयुक्त हुआ है। कई परिवार मिलकर ग्राम या गोत्र तथा कई ग्राम मिलकर विश का निर्माण एवं कई विश मिलकर जन का निर्माण करते थे। ऋग्वेद में जन शब्द लगभग 275 तथा विश शब्द 170 बार प्रयुक्त हुआ है।

ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक समाज था। पिता ही परिवार का मुखिया होता था। ऋग्वेद के कुछ उल्लेखों से पिता के असीमित अधिकारों की पुष्टि होती है। ऋजाश्व के उल्लेख से पता चलता है कि उसके पिता ने एक मादा भेड़ के लिए सौ भेड़ों का वध कर देने के कारण उसे अन्धा बना दिया था। वरूणसूक्त के शुनः शेष के आख्यान से ज्ञात होता है कि पिता अपनी सन्तान को बेच सकता था। किन्तु उद्धरणों से यह तात्पर्य कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि पिता-पुत्र के संबंध कटुतापूर्ण थे। इसे अपवादस्वरूप ही समझा जाना चाहिए। पुत्र प्राप्ति हेतु देवताओं से कामना की जाती थी और परिवार संयुक्त होता था।

वर्ण व्यवस्था

ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था के चिन्ह दिखाई पड़ते हैं। आर्यो को गौर वर्ण तथा दासों का कृष्ण वर्ण कहा जाता था। वर्णव्यवस्था का आधार कर्म को हो गया था। ऋग्वेद में एक छात्र लिखता है कि "मै कवि हूँ मेरे पिता चिकित्सक हैं और मेरी माता आटा पीसती है"। अर्थात् एक राजा कर्म से पुरोहित हो सकता था। और पुरोहित राजा महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय होते हुए भी कर्म से ब्राह्मण थे। ऋग्वेद के दशम् मण्डल का एकमात्र पुरुषसूक्त ही चतुवर्णो का उल्लेख करता है। इसमे कहा गया कि ब्राह्मण परम-पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उसकी जाँघों से एवं शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुआ है। ऋग्वेद के शेष भाग में कही भी वैश्य और शूद्र का वर्णन नहीं है। ऋग्वेद के शेष भाग में कही भी वैश्य और शूद्र का वर्णन नहीं है। ऋग्वेद में अनार्यो (आर्या के भारत में अभ्युदय से पहले भारत में निवास करने वाले लोग), को 'अव्रत' (व्रतों का पालन न करने वाला) मृध्रवाच (अस्पष्टवाणी बोलने वाले) एवं 'अनास' (चपटी नाक वाले) कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में पंचजनों में देव, मनुष्य, गन्धर्व, अप्सरा, सर्प एवं पितरों की गणना की गयी है। 'निरुक्त' पंचजनों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र एवं निषाद की गणना की गयी है।

स्त्रियों की स्थिति

'शतपथ ब्राह्मण' में पत्नी को पति की अर्द्धांगिनी बताया गया है। ऋग्वेद में "जायदस्तम" अर्थात पत्नी ही गृह है कहकर उसके महत्व को स्वीकारा गया है। स्त्रियों को जनसभा, विद्थ में अपनी बात कहने की छूट थी। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति सम्मानीय थी। वे अपने पति के साथ यज्ञ कार्यो में सम्मिलित होती एवं दान दिया करती थीं। पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था। स्त्रियाँ भी शिक्षा ग्रहण किया करती थीं, ऋग्वेद मे लोपामुद्रा,घोषा, सिकता, अपाला, एवं विश्वास जेसी विदुषी स्त्रियों का जिक्र मिलता है। इन विदुषी कन्याओं को 'ऋषी' उपधि से विभूषि किया गया। इस समय लड़कियों का भी उपनयन संस्कार किया जाता था। शिक्षा गुरुकुल पद्धति पर निर्भर थी, जहाँ सामान्यतः मौखिक शिक्षा का प्रचलन था। पिता की अकेली सन्तान होने अथवा विवाह न करने की स्थिति में पिता के घर मे रहने पर कन्या पिता की सम्पत्ति में हिस्सेदार होती थी।

बाल एवं बहु विवाह

सामान्यतः बाल विवाह एवं बहु विवाह का प्रचलन नहीं था। विवाह की आयु लगभग 16-17 वर्ष होती थी। विधवा विवाह, अन्तर्जातीय एवं पुनर्विवाह की संभावना का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। साधारणतया समाज में एक पत्नी प्रथा का ही प्रचलन था, पर सम्पन्न लोग एक से अधिक विवाह करते थे। दहेज प्रथा का प्रचलन था। कन्या की विदाई के समय उपहार एवं द्रव्य दिये जाते थे, जिसे वस्तु कहते थे। सती प्रथा एवं पर्दा प्रथा का विवरण नहीं मिलता। समाज में नियोग प्रथा, जिसके अन्तर्गत पुत्रविहीन विधवा पुत्र प्राप्ति हेतु अपने देवर से यौन संबंध स्थापित कर सकती थी, एवं बहुपतीत्व प्रथा का प्रचलन भी था। उदाहरण हेतु मरुतों ने रोदसी को मिलकर भोगा, सूर्या (सूर्य की पुत्री) अपने दो भाई अश्विन के साथ रहती थी। जीवनभर अविवाहित रहने वाली लड़कियों को 'अमाजू' कहा जाता था। समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी होते हुए भी दो दृष्टियों से ऋग्वैदिक समाज उन्हे अयोग्य समझता था-

  1. उन्हें राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं था।
  2. उन्हे सम्पति सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं थे।

मुख्य भोजन

ऋग्वैदिककालीन लोगों का मुख्य भोजन पदार्थ चावल और जौ था। इसके अतिरिक्त फल, दूध, दही, घी एवं मांस भोज्य पदार्थ थे। अन्न में यव, धान्य, उड़द एवं मूँग का प्रयोग करते थे। पेय पदार्थ में सोमरस का पान करते थे। ऋग्वेद के नवें मण्डल में सोम की स्तुति में कई सूक्त मिलते हैं। एक स्थान पर कण्व ऋषि दावा करते हैं कि सोम रस पीने के बाद उन्होने अमरत्व प्राप्त कर लिया और देवताओं को जान लिया। मांस में भेड़, बकरी, एवं बैल का मांस खाते थे। गाय को 'अघन्या' - (न मारने योग्य) माना जाता था। फिर भी कही-कही पर वध के प्रमाण मिलते हैं। आर्य लोग नमक एवं मछली काप प्रयोग नहीं करते थे। शतपथ ब्राह्मण में अतिथि के सम्मान में विशाल वृषभ अथवा बकरी के मारे जाने का विधान मिलता है।

ऋग्वैदिक काल के लोग 'क्षेम' (अलसी का सूत) ऊन और मृग के चमड़े से निर्मित वस्त्र धारण करते थे। आर्य मुख्यतः तीन प्रकार के वस्त्र धारण करते थे-वासस् (शरीर पर धारण किया जाने वाला मुख्य वस्त्र), अधिवास एवं उष्णीय (पगड़ी)। ऋग्वेद में 'सामूल्य' ऊनी कपड़े को एवं 'पेशस' कढ़े हुए कपड़े को कहा गया है। ऋग्वैदिक काल में मुख्य आभूषण में निष्क, कुरीर एवं कर्णशोभन का उल्लेख मिलता है। आभूषण स्त्री और पुरुष दोनों धारण करते थे। मनोरंजन के साधनों में मुख्य साधन संगीत था। इसके बाद रथ दौड़, घुड़दौड़, द्यूतक्रीड़ा एवं आखेट को महत्व दिया जाता था। सम्भवतः जुए का भी प्रचलन था।

आर्थिक जीवन

ऋग्वैदिक कालीन महत्वपूर्ण शब्द
शब्द विवरण
उर्वरा जुते हुए खेत को कहा जाता था।
खिल्य पशु चारण योग्य भूमि या चारागाह।
सीर हल
सृणि पक कर तैयार फसल को काटने का यंत्र हासिया
दात्र हासिया
पर्श कटी फसल के गढ्ढे ( बोझ)
खल खलिहान
खनित्रिमा खोदने से उत्पन्न यह सिंचाई के लिए व्यवहार में लाये जाने वाले जलाशय का द्योतक है।
कुल्या बड़ी नाली या नहर
स्थिव अन्नादि का एक सूखा नाप जो लगभग आठ गैलेन के बराबर होता था।
लांगल शब्द का प्रयोग हल के लिए हुआ है।
बृक शब्द का प्रयोग बैल के लिए प्रयुक्त हुआ है।
करीष शब्द का प्रयोग गोबर की खाद के लिए होता था।
अवत शब्द का प्रयोग कूपों के लिए होता था।
सीता शब्द का प्रयोग हल से बनी नालियों के लिए होता था।
ऊस्दर शब्द का प्रयोग अनाज नापने वाले पात्र के लिए होता था।
कीनांश शब्द का हलवाले के लिए प्रयोग किया जाता है
पर्जन्य शब्द बादल के लिए प्रयोग किया गया है।

ऋग्वेद में आर्यो के मुख्य व्यवसाय के रूप में पशुपालन एवं कृषि का विवरण मिलता है जबकि पूर्ववैदिक आर्यो ने पशुपालन को ही अपना मुख्य व्यवसाय बनाया था। ऋग्वैदिक सभ्यता ग्रामीण सभ्यता थी। इस वेद में ‘गव्य एवं गव्यति शब्द चारागाह के लिए प्रयुक्त है। इस काल में गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप मे भी होता था। अवि (भेड़),अजा (बकरी) का ऋग्वेद में अनेक बार जिक्र हुआ है। हाथी, बाघ, बतख,गिद्ध से आर्य लोग अपरिचित थे। धनी व्यक्ति को गोपत कहा गया था। राजा को गोपति कहा जाता था युद्ध के लिए गविष्ट, गेसू, गव्य ओर गम्य शब्द प्रचलित थे। समय की माप के लिए गोधुल शब्द का प्रयोग किया जाता था। दूरी का मान के लिए गवयतु।

ऋग्वेद में कृषि का उल्लेख मात्र 24 बार ही हुआ है, जिसमें अनेक स्थानों पर यव एवं धान्य शब्द का उल्लेख मिलता है। 'गो' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में 174 बार आया है। गाय को पवित्र माना जाता था और उसे अधन्य कहा जाता था। गाय विनिमय का मुख्य साधन थी, इसलिए इसका धार्मिक एवं सामाजिक की अपेक्षा आर्थिक महत्व अधिक था। ऋग्वेद में सम्पति का मुख्य रूप गोधन था। युद्ध का प्रमुख कारण गायों की गवेषणा अर्थात् 'गविष्टि' था। पुरोहितों को गायें और दासियाँ दक्षिणा के रूप में दी जाती थीं। दान के रूप में भूमि न देकर दास-दासियाँ ही दी जाती थी।

कृषि

ऋग्वैदिक काल में राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था। वह विशेष रूप से युद्धकालीन स्वामी होता था। ऋग्वेद में दो प्रकार के सिंचाई का उल्लेख है-

  1. खनित्रिमा (खोदकर प्राप्त किया गया जल)
  2. स्वयंजा (प्राकृतिक जल)

ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में कथन है कि अश्विन देवताओं ने मनु को हल चलाना सिखाया। ऋग्वेद में एक स्थान पर अपाला ने अपने पिता अत्रि से खेतों की समृद्धि के लिए प्रार्थना की है। इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में हांसिया (दात्र, सृणि), कोठार (स्थिति), गठ्टर (वर्ष), चलनी (तिउत), सूप (शूर्प), अनाज का ओसने वाला (धान्यकृत) आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल में खेती की प्रक्रिया का वर्णन मिलता है। यजुर्वेद में 5 प्रकार के चावल का उल्लेख है। महाब्राहि, कृष्णव्रीहि, शुक्लव्रीही, आशुधान्य और हायन। अथर्ववेद में यह उल्लेख मिलता है कि सर्वप्रथम पृथुवेन्य ने ही कृषि कार्य किया था। शतपथ ब्राह्मण मे कृषि विषय पूरी प्रक्रिया की जानकारी मिलती है। इसी के खेत जोतने के लिए कर्षण, बोने के लिए (वपन), कटाने के लिए (कर्तन) तथा माड़ने के लिए मर्दन का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में 6,8 और 12 बैलों को हल में जोते जाने का वर्णन है तथा शतपथ ब्राह्मण में 6 से 24 बैलों को हल द्वारा चलाने की बात है। अथर्ववेद में कृषि दासियों का उल्लेख मिलता है, इसी में सिंचाई के लिए नहर खोदने तथा टिड्डियों द्वारा फसल नष्ट होने की जानकारी मिलती है। श्रमिक वर्ग के अन्तर्गत भूसी साफ करने वाले को उपप्रक्षणी कहा जाता था। खिल्य भूमि की माप ईकाई थी। भूमिकर व्यक्तिगत स्वामित्व शुरू हो गया था जिसके लिए -उर्वरासा, उर्वरापत्ति, क्षेत्रसा और क्षेत्रपति शब्द वैदिक संहिताओं में मिलते हैं। पशुओं के कानों पर स्वामित्व के चिन्ह लगा दिये जाते थे। गाय को अवट कर्णी कहा जाता था। वैदिक काल में राज कोई स्थायी सेना नहीं रखता था। युद्ध में विजय की कामना से राजा प्रजा के साथ एक ही थाली में भोजन करता था।

उद्योग

ऋग्वैदिक काल में वस्त्र धुलने वाले, वस्त्र बनाने वाले (वाय), लकड़ी एवं धातु का काम करने वाले एवं बर्तन बनाने वाले शिल्पों के विकास के बारें मे विवरण मिलता है। चर्मकार एवं कुम्हार का भी उल्लेख मिलता है। सम्भवतः 'अयस' शब्द का उपयोग ऋग्वेद में करघा के लिए, 'ओत' एवं तन्तु शब्द का प्रयोग ताने-बाने के लिए एवं 'शुध्यव' शब्द का प्रयोग ऊन के लिए किया जाता था। ऋग्वेद में कपास का उल्लेख नहीं मिलता है। ऋग्वेद में हिरण्य एवं सुवर्ण शब्द का प्रयोग सोने के लिए किया गया है। 'निष्क' सोने की मुद्रा थी। तक्षन व तष्ट शब्द का प्रयोग बढ़ई के अर्थ में किया गया है। आर्यो के सामाजिक जीवन में रथों का अधिक महत्व होने के कारण 'तक्षा' सामाजिक प्रतिष्ठा अधिकर बढ़ी हुई थी। 'अनस' साधारण गाड़ी को कहा जाता था। 'नद' (नरकट) का प्रयोग ऋग्वेद काल में स्त्रियाँ चटाई बुनने के लिए करती थीं। 'चर्मग्न' चमड़ा सिझाने वालों का कहा जाता था।

व्यापार

ऋग्वैदिक काल में व्यापार में क्रय-विक्रय हेतु विनिमय प्रणाली का शुभारम्भ हो चुका था। इस प्रणाली में वस्तु विनिमय के साथ-साथ गाय, घोड़े एवं स्वर्ण से भी क्रय-विक्रय किया जाता था। विनिमय के माध्यम के रूप में `निष्क का उल्लेख हुआ है, किन्तु इसका समीकरण विवादग्रस्त है। संभवतः यह प्रारंभ में हार जैसा कोई स्वर्णाभूषण था, कालान्तर में सिक्के के रूप में प्रयुक्त होने लगा। ऋग्वैदिक काल में व्यापार करने वाले व्यापारियों एवं व्यापार हेतु सदूरवर्ती प्रदेशों में भ्रमण करने वाले व्यक्ति को 'पणि' कहा जाता था। ऋग्वेद में एक स्थान पर देवताओं तथा पणियों के बीच संघर्ष तथा देवताओं द्वारा उनके संहार का वर्णन मिलता है। व्यापार स्थल एवं जल दोनों रास्तों से होता था, आन्तरिक व्यापार बहुधा गाड़ियों, रथों एवं पशुओं द्वारा होता था। आर्यो को समुद्र के विषय में जानकारी थी या नहीं यह बात अभी तक अस्पष्ट है। फिर भी ऋग्वेद में सौ पतवारों वाली नौका से यात्रा करने का विवरण प्राप्त होता है। एक स्थान पर तुग्र के पुत्र भुज्य की समुद्र यात्रा वर्णन है जिसने मार्ग में जलयान को नष्ट हो जाने पर आत्मरक्षा के लिए अश्विनीकुमारों से प्रार्थना की थी। अश्विनी कुमारों ने उनकी रक्षा के लिए 100 पतवार वाला जहाज भेजा था। इस काल में ऋण देकर व्याज लेने वाले वर्ग को 'बेकनाट' (सूदखोर) कहा जाता था।

धर्म

वैदिक धर्म पूर्णतः प्रतिमार्गी हैं वैदिक देवताओं में पुरुष भाव की प्रधानता है। अधिकांश देवताओं की अराधना मानव के रूप में की जाती थी किन्तु कुछ देवताओं की अराधना पशु के रुप में की जाती थी। अज एकपाद और अहितर्बुध्न्य दोनों देवताओं परिकल्पना पशु के रूप में की गई है। मरुतों की माता की परिकल्पना चितकबरी गाय के रूप में की गई है। इन्द्र की गाय खोजने वाला सरमा (कुत्तिया) स्वान के रूप में है। इसके अतिरिक्त इन्द्र क कल्पना वृषभ (बैल) के रूप में एवं सूर्य को अश्व के रूप में की गई है। ऋग्वेद में पशुओं के पूजा प्रचलन नहीं था। ऋग्वैदिक देवताओं में किसी प्रकार का उँच-नीच का भेदभाव नहीं था। वैदिक ऋषियों ने सभी देवताओं की महिमा गाई है। ऋग्वैदिक लोगों ने प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया है। इस समय 'बहुदेववाद' का प्रचलन था। ऋग्वैदिक आर्यो की देवमण्डली तीन भागों में विभाजित थी।

  1. आकाश के देवता - सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन्, विष्णु, उषा, अपांनपात, सविता, त्रिप, विंवस्वत्, आदिंत्यगग, अश्विनद्वय आदि।
  2. अन्तरिक्ष के देवता- इन्द्र, मरुत, रुद्र, वायु, पर्जन्य, मातरिश्वन्, त्रिप्रआप्त्य, अज एकपाद, आप, अहिर्बुघ्न्य।
  3. पृथ्वी के देवता- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, तथा नदियां।

इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन था, यह निर्धारित करना कठिन है ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की स्तुति की उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का अरोपण कर दिया। मैक्स मूलर ने इस प्रवृति की 'हीनाथीज्म' कहा है। सूक्तों की संख्या की दृष्टि यह मानना न्यायसंगत होगा कि इनका सर्वप्रधान देवता इन्द्र था।

ऋग्वेद में अन्तरिक्ष स्थानीय 'इन्द्र' का वर्णन सर्वाधिक प्रतापी देवता के रूप में किया गया है, ऋग्वेद के करीब 250 सूक्तों में इनका वर्णन है। इन्हे वर्षा का देवता माना जाता था। उन्होने वृक्ष राक्षस को मारा था इसीलिए उन्हे वृत्रहन कहा जाता है। अनेक किलों को नष्ट कर दिया था, इस रूप में वे पुरन्दर कहे जाते हैं। इन्द्र ने वृत्र की हत्या करके जल का मुक्त करते हैं इसलिए उन्हे पुर्मिद कहा गया। इन्द्र के लिए एक विशेषण अन्सुजीत (पानी को जीतने वाला) भी आता है। इन्द्र के पिता द्योंस हैं अग्नि उसका यमज भाई है और मरुत उसका सहयोगी है। विष्णु के वृत्र के वध में इन्द्र की सहायता की थी। ऋग्वेद में इन्द्र को समस्त संसार का स्वामी बताया गया है। उसका प्रिय आयुद्ध बज्र है इसलिए उन्हे ब्रजबाहू भी कहा गया है। इन्द्र कुशल रथ-योद्धा (रथेष्ठ), महान विजेता (विजेन्द्र) और सोम का पालन करने वाला (सोमपा) है। इन्द्र तूफान और मेध के भी देवता है । एक शक्तिशाली देवता होने के कारण इन्द्र का शतक्रतु (एक सौ शक्ति धारण करने वाला) कहा गया है वृत्र का वध करने का कारण वृत्रहन और मधवन (दानशील) के रूप में जाना जाता है। उनकी पत्नी इन्द्राणी अथवा शची (ऊर्जा) हैं प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में इन्द्र के साथ कृष्ण के विरोध का उल्लेख मिलता है।

ऋग्वेद में दूसरा महत्वपूर्ण देवता 'अग्नि' था, जिसका काम था मनुष्य और देवता के मध्य मध्यस्थ की भूमिका निभाना। अग्नि के द्वारा ही देवताओं आहुतियाँ दी जाती थीं। ऋग्वेद में करीब 200 सूक्तों में अग्नि का जिक्र किया गया है। वे पुरोहितों के भी देवता थे। उनका मूल निवास स्वर्ग है। किन्तु मातरिश्वन (देवता) न उसे पृथ्वी पर लाया। पृथ्वी पर यज्ञ वेदी में अग्नि की स्थापना भृगुओं एवं अंगीरसों ने की। इस कार्य के कारण उन्हे अथर्वन कहा गया है। वह प्रत्येक घर में प्रज्वलित होती थी इस कारण उसे प्रत्येक घर का अतिथि माना गया है। इसकी अन्य उपधियाँ जातदेवस् (चर-अचर का ज्ञात होने के कारण), भुवनचक्षु (सर्वद्रष्टा होने के कारण), हिरन्यदंत (सुरहरे दाँव वाला) अथर्ववेद में इसे प्रातः काल उचित होने वाला मित्र और सांयकाल को वरुण कहा गया है। तीसरा स्थान वरुण का माना जाता है, जिसे समुद्र का देवता, विश्व के नियामक और शासक सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात का कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य का निर्माता के रूप में जाना जाता है। ईरान में इन्हे 'अहुरमज्द' तथा यूनान में 'यूरेनस' के नाम से जाना जाता है। ये ऋतु के संरक्षक थे इसलिए इन्हे ऋतस्यगोप भी कहा जाता था। वरुण के साथ मित्र का भी उल्लेख है इन दोनों को मिलाकर मित्र वरूण कहते हैं। ऋग्वेद के मित्र और वरुण के साथ आप का भी उल्लेख किया गया है। आप का अर्थ जल होता है। ऋग्वेद के मित्र और वरुण का सहस्र स्तम्भों वाले भवन में निवास करने का उल्लेख मिलता है। मित्र के अतिरिक्त वरुण के साथ आप का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद मे वरुण को वायु का सांस कहा गया है। वरुण देव लोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। इन्हे असुर भी कहा जाता हैं। इनकी स्तुति लगभग 30 सूक्तियों में की गयी है। देवताओं के तीन वर्गो (पृथ्वी स्थान, वायु स्थान और आकाश स्थान) में वरुण का सर्वोच्च स्थान है। वे देवताओं के देवता है। ऋग्वेद का 7 वाँ मण्डल वरुण देवता को समर्पित है। दण्ड के रूप में लोगों को 'जलोदर रोग' से पीड़ित करते थे।

'द्यौ' (आकाश)

इसको ऋग्वैदिककालीन देवों में सबसे प्राचीन माना जाता है। तत्पश्चात् पृथ्वी भी दोनों द्यावा-पृथ्वी के नाम से जाने जाते थे। आकाश को सर्वश्रेष्ठ देवता के रूप में तथा सोम को वनस्पति देवता के रूप में माना जाता था।

सोमदेवता

ऋग्वेद के नवें मण्डल के सभी 144 सूक्त सोम देवता का समर्पित है। ये चन्द्रमा से सम्बन्धित देवता थे। इनकी तुलना ईरान में होम देवता तथा यूनान में दिआनासिस से की गयी है। 'ऊषा' को प्रगति एवं उत्थान के देवता के रूप में, 'अश्विन' विपत्तियों को हराने वाले देवता के रूप मे उल्लेख किया गया है।

अश्विन

यह एक कल्याणकारी देवता थे। इसका स्वरूप युगल रूप में था। यह पूषन के पिता और ऊषा के भाई थे। इन्हे नासांत्य भी कहा जाता है। ये चिकित्सा के देवता थे। अपंग व्यक्ति को कृत्रिम पैर प्रदान करते थे। दुर्घटनाग्रस्त्र नाव के यात्रियों की रक्षा करते थे। युवतियों के लिए वर की तलाश करते थे। 'पूषन' को पशुओं के देवता के रूप मे संबोधित किया गया है।

पूषण

यह भी सूर्य के सम्बद्ध देवता थे। पूषन के रथ को बकरे खीचतें थे।

विष्णु

ये तीन कदम के देवता थे। इन्हे विश्व के संरक्षक और पालनकर्ता के रूप में माना जाता था।

रूद्र

यह उग्र देवता था। उग्र रूप में रूद्र तथा मंगलकारी रूप में शिव था। अथर्ववेद में इसे 'भूपति' नीलोदर, लोहित पृष्ठ तथा नीलकण्ठ कहा गया है। उसे कृतवास (खाल धारण करने वाला) भी कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि रुद्र की उत्पत्ति सभी देवताओं के उग्र अंशो से हुई है। यजुर्वेद के शतरुद्रिय प्रकारण में इसे पशुपति, शम्भू, शंकर, शिव कहा गया है। ये अनैतिक आचरणों से सम्बद्ध माने जाते थे। ये चिकित्सा से संरक्षण थे।

मित्र

ये वरुण देवता से सम्बन्धित है। यह शपथ एवं प्रतिज्ञा के देवता हैं।

त्वष्द्रा

धातुओं के देवता, आर्य-सन्धि और विवाह के देवता, विवस्तान- ऋग्वेद में इसे देवताओं के जनक कहा जाता गया। ऋग्वेद में ऊषा, अदिति, सूर्या जैसे देवियों का उल्लेख है। पृथ्वी- यह देवी थी। इसे तीन वर्गों में रखा गया था। आप- अप्सराओं के रुप में देवी थी। अदिति पृथ्वी के विशाल स्वरूप का दैवीकरण थी। अरण्यानी- यह वन देवी थी। इसका प्रथम उल्लेख ऋक् संहिताओं में मिलता है।

इसके अतिरिक्त अन्य ऋग्वैदिक देवियों में वाक्, इला, सरस्वती, मही, पुरन्धि, धिषणा, निषा, इन्द्राणी, कुहू, प्रष्नि आदि थी। ऋग्वेद में कुछ अन्य देवता भी थे। जैसे - विश्वदेव, आर्यमन, तथा 'ऋत' की संकल्पना में विश्वास है। ऋत् एक प्रकार की नैतिक व्यवस्था थी जिससे विश्व में सुव्यवस्था तथा प्रतिष्ठा स्थापित होती है। 'वरुण' को 'ऋत्' का संरक्षक बताया गया है। ऋत् का पालन पुण्य था, उसके पालन न न करने पर वरुण देवता द्वारा दण्डित किये जाने का उल्लेख मिलता है।

इस समय देवों का पूजा की प्रधान विधि थी- स्तुति पाठ करना एवं यज्ञ में बलि चढ़ाना। बलि या यज्ञाहुति में जौ एवं शाक का प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में बहुदेववाद, एकात्मावाद एव एकेश्वरवाद का उल्लेख मिलता है। देवताओं की बहुलता एवं कर्मकांडों की जटिलता से थककर कुछ समय बाद ऋग्वैदिक लोगों ने देवताओं की संख्या कम करने के लिए उनका संयुक्तीकरण करने लगे। जैसे द्यावा-पृथ्वी, ऊषा-रात्रि, मित्रा-वरुण आदि। यही भावना एकेश्वरवाद की ओर अग्रसर हुई। इस समय मंदिर या मूर्ति पूजा का कोई प्रमाण नहीं मिला है। ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में निर्मणु ब्रह्म का वर्णन प्राप्त होता है। ऋग्वैदिक आर्य पुनर्जन्म को मानते थे, इस काल में देव पूजा के साथ पितृपूजा का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में कही भी यज्ञ कार्य सम्पन्न करने के लिए के मनुष्य की बलि का जिक्र नहीं है। ऋग्वेद के नारदीय सूक्त में निर्गुण ब्रह्म का वर्णन प्राप्त होता है स्वर्ग की मनोरम कल्पना मिलती है। नरक की कल्पना दुष्किर्मियों के लिए दण्डस्थान के रूप में की गयी है। ऋग्वैदिक ऋषियों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण पूर्णतया आशावादी था। देवताओं की स्तुति का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति था न कि मोक्ष की प्राप्ति। ऋग्वेद में स्थाई बस्ती, लिखने-पढ़ने की कला एवं स्थापत्य के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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