बनारसी दास

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बनारसी दास
बनारसी दास
अन्य नाम बाबू बनारसी दास
जन्म 8 जुलाई 1912
जन्म भूमि बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 3 अगस्त 1985
नागरिकता भारतीय
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी व राजनीतिज्ञ
पार्टी जनता पार्टी
पद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री (भूतपूर्व)
कार्य काल 28 फ़रवरी 1979 से 17 फ़रवरी 1980 तक
अन्य जानकारी बनारसी दास जी ने दलितोद्धार आंदोलन में भी अहम भूमिका निभायी थी और तमाम कठिन मौंकों पर समाज के सबसे दबे-कुचले तबकों के साथ वे खड़े हुए।

बनारसी दास (अंग्रेज़ी: Banarasi Das, जन्म- 8 जुलाई 1912, बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश; मृत्यु- 3 अगस्त 1985) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। उन्हें "बाबू बनारसी दास" के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ मात्र 15 वर्ष की आयु में मोर्चा खोल दिया था। स्वतंत्रता संग्राम में उनका अहम योगदान रहा। वर्ष 1979 में बनारसी दास उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे। वे 1962 में सिकंदराबाद सीट से कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए। फिर खुर्जा से भी विधायक चुने गए। इसके बाद 28 फ़रवरी 1979 से 17 फ़रवरी 1980 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। बाबू बनारसी दास ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के परिचय ग्रंथों का प्रकाशन कराया था।

परिचय

बाबू बनारसी दास का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य के बुलंदशहर ज़िले में 8 जुलाई 1912 में हुआ था। उनकी प्राथमिक शिक्षा गांव के ही प्राइमरी स्कूल में शुरू हुई। छठीं कक्षा में उन्होंने बुलंदशहर के राजकीय विद्यालय में प्रवेश लिया।[1] मात्र 15 वर्ष की उम्र में ही बनारसी दास स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए थे। 1928 में 'नौजवान भारत सभा' और 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के सक्रिय कार्यकर्ता बन गए। 3 नवंबर 1929 को महात्मा गांधी ने बुलंदशहर में दौरा किया तो वहां एकदम माहौल बन गया।

फिर 1930 में जब गांधीजी ने नमक सत्याग्रह किया तो माहौल जज्बे में बदल गया। 1930 का साल बनारसी दास के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण था। 1 अप्रैल, 1930 को यू.पी. के तत्कालीन गवर्नर सर मैल्कम हेली ने बुलंदशहर की यात्रा की। लोगों ने दबा के विरोध किया। विरोध का पुलिस ने जमकर दमन किया। युवाओं पर जमकर लाठियां बरसीं। बनारसी दास भी उन्हीं युवाओं में से थे। साइकिल पर गांव-गांव घूमते थे। 16 की उम्र में बनारसी दास ने अपने गांव में कन्या पाठशाला लगाई थी, जिसमें वह खुद पढ़ाते थे। उसी वक्त गांधीजी की बातों से प्रभावित होकर उन्होंने छुआछूत मिटाने के लिए सहभोज कर लिया। इसके चलते गांव तो गांव, इनके परिवार ने भी इनका बहिष्कार कर दिया।[2] बनारसी दास ने 1936 में विद्यावती देवी के साथ विवाह किया।

क्रांतिकारी गतिविधियाँ

12 सितंबर 1930 को गुलावठी में एक भयानक कांड हुआ। बाबू बनारसी दास की नेतागिरी में गुलावठी में एक विशाल जनसभा आयोजित हुई। यह शांतिपूर्ण थी, लेकिन पुलिस ने उस पर हमला कर 23 राउंड गोली चला दी। आजादी के 8 दीवाने शहीद हो गए। इसके बाद उग्र किसानों ने पुलिस पर भी हमला कर दिया। इस कांड में पुलिस ने करीब एक हजार लोगों को गिरफ्तार किया और भारी यातनाएं दीं। 45 लोगों पर मुकदमा चला। 2 अक्टूबर, 1930 को बनारसी दास को मथुरा से गिरफ्तार करके बुलंदशहर लाया गया, लेकिन जिला और सेशन जज ने बनारसी दास को 14 जुलाई 1931 को छोड़ दिया। हालांकि गुलावठी कांड के कई कैदी 1937 में यूपी में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद ही छूट पाए थे। पर बनारसी दास इसके बाद रुके नहीं। 1935 में क्रांतिकारी अंजुम लाल के साथ उन्होंने एक स्वदेशी स्कूल स्थापित किया। 1930 से 1942 के दौरान ही बनारसी दास चार बार जेल में गए। मार भी खाई, फिर भारत छोड़ो आंदोलन और व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन में वे 2 अप्रैल, 1941 को गिरफ्तार हुए। पहले तो उनको छह महीने की सजा दी गई, फिर 100 रुपए का जुर्माना किया गया। लेकिन जुर्माना देने से इंकार करने पर तीन माह की और सजा मिली। इसी तरह अगस्त 1942 में भी इनको खतरनाक मानते हुए गिरफ्तार कर नजरबंद कर दिया गया।

बुलंदशहर जेल में बनारसी दास को इतनी यातनाएं दी गईं कि यूपी में हल्ला मच गया। फिर 5 फ़रवरी, 1943 को प्रिजनर्स एक्ट के तहत तत्कालीन अंग्रेज़ कलेक्टर हार्डी ने रात को जेल खुलवा कर बनारसी दास को बैरक से निकाल कर एक जामुन के पेड़ से बांध दिया और कपड़े उतरवा कर तब तक मारा जब तक वे बेहोश नहीं हो गए। जेल में भी बनारसी दास ने पढ़ाई-लिखाई नहीं छोड़ी। बहुत कुछ पढ़ लिया। इसी दौरान वह पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद, लालबहादुर शास्त्री, के. कामराज, सरोजिनी नायडू, गोविंद बल्लभ पंत और ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार ख़ान समेत तमाम चोटी के नेताओं के संपर्क में आ चुके थे। इन सारी बातों ने उनको बेहद ख़ास बना दिया था। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1946 के विधानसभा चुनाव में बनारसी दास बुलंदशहर से निर्विरोध चुने गए। इसी साल वे बुलंदशहर कांग्रेस कमिटी के अध्यक्ष भी बन गए। फिर एक ऐसा काम किया, जिसने इनकी लोकप्रियता को और बढ़ा दिया। 1947 में बुलंदशहर में जब 20,000 से अधिक पाकिस्तानी विस्थापित पहुंचे तो जिले भर में अजीब अफरा-तफरी का आलम था। ये कहां रहेंगे, कैसे रहेंगे, इनको कौन संभालेगा, ये सारी बातें सबके जेहन में तैर रही थीं, लेकिन बनारसी दास ने जिले के व्यापारियों को तैयार कर सारा इंतजाम करवा दिया।[2]

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री

फिर वह वक्त भी आया, जब बनारसी दास को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया। रामनरेश यादव के जाने के बाद ये 28 फ़रवरी, 1979 से 17 फ़रवरी, 1980 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। वे प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने कालिदास मार्ग की मुख्यमंत्री की सरकारी कोठी के बजाय कैंट के अपने मकान में ही रहना पसंद किया। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने लंबा तामझाम नहीं रखा। बनारसी दास ने खादी और ग्रामोद्योग के विकास के लिए भी बहुत-सी योजनाएं चलाईं। वे कई सालों तक 'उत्तर प्रदेश हरिजन सेवक संघ' के अध्यक्ष भी रहे। वे 1977 से खादी ग्रामोद्योग चिकन संस्थान के संस्थापक और अध्यक्ष रहे और जनसेवा ट्रस्ट बुलंदशहर के संस्थापक अध्यक्ष भी।

अनूठा रिकॉर्ड

राज्यसभा में एक सभापति होता है और एक उप-सभापति। सभापति उप-राष्ट्रपति होता है। ये ही सदस्यों को शपथ दिलाते हैं। लेकिन एक प्रोटेम चेयरमैन भी होता है। दोनों के न रहने पर वही सदस्यों को शपथ दिलाता है, किन्तु भारत के इतिहास में सिर्फ एक बार ऐसा हुआ है कि प्रोटेम चेयरमैन ने सदस्यों को शपथ दिलाई थी। ये चेयरमैन थे- बाबू बनारसी दास। ये मौका आया था 1977 में। उप-राष्ट्रपति बी. डी. जत्ती को कार्यकारी राष्ट्रपति का पद संभालना पड़ा और उप-सभापति गोदे मुराहरी लोकसभा के सांसद चुन लिए गये थे। जब 20 मार्च 1977 को ये पद भी खाली हो गया तो राष्ट्रपति के आदेश पर 20 मार्च से 30 मार्च 1977 तक बाबू बनारसी दास को राज्यसभा का चेयरमैन बनाया गया और यह इतिहास बन गया।[2]

महत्त्वपूर्ण निर्णय

  • बाबू बनारसी दास 28 फ़रवरी 1979 से 17 फ़रवरी 1980 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने अपने सीमित मुख्यमंत्री काल में भी तमाम परंपराएं कायम कीं। बाबूजी प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने कालिदास मार्ग की मुख्यमंत्री की सरकारी कोठी हासिल करने के बजाय कैंट के अपने मकान में ही रहना पसंद किया। इसी तरह मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने न लंबा तामझाम रखा न सुरक्षा। हमेशा उऩका प्रयास रहा कि आम आदमी उनसे आसानी से मिल सके। उन्होंने पहली बार मुख्यमंत्री विवेकाधीन कोष को पारदर्शी बनाने के लिए उसके ऑडिट करने का आदेश दिया था।
  • बनारसी दास जी ने दलितोद्धार आंदोलन में भी अहम भूमिका निभायी थी और तमाम कठिन मौंकों पर समाज के सबसे दबे-कुचले तबकों के साथ वे खड़े हुए। उनके चलते कई जगहों पर दलित-वंचित तबकों को सार्वजनिक कुओं से पानी लेने औऱ मंदिरों तथा धर्मशालाओं में प्रवेश का मौका मिला। इसी दौरान सहभोज का आयोजन करने के साथ, उनकी बस्तियों में सफाई अभियान चला तथा अनेठ पाठशालाऐं उनके बच्चों को शिक्षित बनाने के लिए खोली गयीं।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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