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'भारतीय शास्त्रीय संगीत' भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है। लगभग तीन हज़ार वर्ष पूर्व रचे गए वेदों को संगीत का मूल स्रोत माना जाता है। यह माना जाता है कि [[ब्रह्मा]] ने [[नारद मुनि]] को संगीत वरदान में दिया था। चारों वेदों में, [[सामवेद]] के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या समगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था। गुरू शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरू से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था। उनमें किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका मूल स्वरूप लुप्त होता गया। [[भरतमुनि]] द्वारा रचित '[[नाट्यशास्त्र भरतमुनि|नाट्यशास्त्र]]', भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है। इसकी रचना के समय के बारे में कई मतभेद हैं। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है। भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' के बाद [[शारंगदेव]] द्वारा रचित '[[संगीत रत्नाकर]]' ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण [[ग्रंथ]] माना जाता है। 12वीं सदी के पूर्वाद्ध में लिखे गये सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में [[संगीत]] व [[नृत्य]] का विस्तार से वर्णन किया गया है।<ref name="ab">{{cite web |url=http://bharatiya-sangeet.blogspot.in/ |title=संगीत|accessmonthday=16 दिसम्बर|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
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'भारतीय शास्त्रीय संगीत' भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है। लगभग तीन हज़ार वर्ष पूर्व रचे गए वेदों को संगीत का मूल स्रोत माना जाता है। यह माना जाता है कि [[ब्रह्मा]] ने [[नारद मुनि]] को संगीत वरदान में दिया था। चारों वेदों में, [[सामवेद]] के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या समगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था। गुरु शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरु से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था। उनमें किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका मूल स्वरूप लुप्त होता गया। [[भरतमुनि]] द्वारा रचित '[[नाट्यशास्त्र भरतमुनि|नाट्यशास्त्र]]', भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है। इसकी रचना के समय के बारे में कई मतभेद हैं। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है। भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' के बाद [[शारंगदेव]] द्वारा रचित '[[संगीत रत्नाकर]]' ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण [[ग्रंथ]] माना जाता है। 12वीं सदी के पूर्वाद्ध में लिखे गये सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में [[संगीत]] व [[नृत्य]] का विस्तार से वर्णन किया गया है।<ref name="ab">{{cite web |url=http://bharatiya-sangeet.blogspot.in/ |title=संगीत|accessmonthday=16 दिसम्बर|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
 
====संगीत रत्नाकर====
 
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'संगीत रत्नाकर' में कई [[ताल वाद्य|तालों]] का उल्लेख है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में उस समय बदलाव आने शुरू हो चुके थे और संगीत पहले से उदार होने लगा था। एक हज़ारवीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को प्रबंध कहा जाने लगा। प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे-
 
'संगीत रत्नाकर' में कई [[ताल वाद्य|तालों]] का उल्लेख है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में उस समय बदलाव आने शुरू हो चुके थे और संगीत पहले से उदार होने लगा था। एक हज़ारवीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को प्रबंध कहा जाने लगा। प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे-
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#कर्नाटक शैली
 
#कर्नाटक शैली
  
उत्तर भारतीय संगीत में काफ़ी बदलाव आए। संगीत अब मंदिरों तक ही सीमित न रहकर शहंशाहों के दरबार की शोभा बन चुका था। इसी समय कुछ नई शैलियाँ भी प्रचलन में आईं, जैसे- [[ख़याल]], ग़जल आदि और भारतीय संगीत का कई नए [[वाद्य यंत्र|वाद्यों]] से भी परिचय हुआ, जैसे- [[सरोद]], [[सितार]] इत्यादि। बाद में [[सूफ़ी आन्दोलन|सूफ़ी आंदोलन]] ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व [[घराना|घरानों]] का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नए वाद्य प्रचलन में आए। आम जनता में भी प्रसिद्ध आज का वाद्य [[हारमोनियम]], उसी समय प्रचलन में आया था। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्वपूर्ण योगदान रहा।<ref name="ab"/>
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उत्तर भारतीय संगीत में काफ़ी बदलाव आए। संगीत अब मंदिरों तक ही सीमित न रहकर शहंशाहों के दरबार की शोभा बन चुका था। इसी समय कुछ नई शैलियाँ भी प्रचलन में आईं, जैसे- [[ख़याल]], ग़जल आदि और भारतीय संगीत का कई नए [[वाद्य यंत्र|वाद्यों]] से भी परिचय हुआ, जैसे- [[सरोद]], [[सितार]] इत्यादि। बाद में [[सूफ़ी आन्दोलन|सूफ़ी आंदोलन]] ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व [[घराना|घरानों]] का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नए वाद्य प्रचलन में आए। आम जनता में भी प्रसिद्ध आज का वाद्य [[हारमोनियम]], उसी समय प्रचलन में आया था। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।<ref name="ab"/>
 
====शास्त्रीय संगीत का आधार====
 
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भारतीय शास्त्रीय संगीत [[स्वर (संगीत)|स्वरों]] व [[ताल वाद्य|ताल]] के अनुशासित प्रयोग पर आधारित है। सात स्वरों व बाईस श्रुतियों के प्रभावशाली प्रयोग से विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। सात स्वरों के समुह को 'सप्तक' कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के ये सात स्वर इस प्रकार हैं-
 
भारतीय शास्त्रीय संगीत [[स्वर (संगीत)|स्वरों]] व [[ताल वाद्य|ताल]] के अनुशासित प्रयोग पर आधारित है। सात स्वरों व बाईस श्रुतियों के प्रभावशाली प्रयोग से विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। सात स्वरों के समुह को 'सप्तक' कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के ये सात स्वर इस प्रकार हैं-
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#निषाद (नि)
 
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'सप्तक' को मूलत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है- 'मन्द्र सप्तक', 'मध्य सप्तक' व 'तार सप्तक', अर्थात सातों स्वरों को तीनों सप्तकों में गाया और बजाया जा सकता है। षड्ज व पंचम स्वर अचल स्वर कहलाते हैं, क्योंकि इनके स्थान में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया जा सकता और इन्हें इनके शुद्ध रूप में ही गाया बजाया जा सकता है। जबकि अन्य स्वरों को उनके कोमल व तीव्र रूप में भी गाया जाता है। इन्हीं स्वरों को विभिन्न प्रकार से गूँथ कर [[राग|रागों]] की रचना की जाती है।<ref name="ab"/>
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'सप्तक' को मूलत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है- 'मन्द्र सप्तक', 'मध्य सप्तक' व 'तार सप्तक', अर्थात् सातों स्वरों को तीनों सप्तकों में गाया और बजाया जा सकता है। षड्ज व पंचम स्वर अचल स्वर कहलाते हैं, क्योंकि इनके स्थान में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया जा सकता और इन्हें इनके शुद्ध रूप में ही गाया बजाया जा सकता है। जबकि अन्य स्वरों को उनके कोमल व तीव्र रूप में भी गाया जाता है। इन्हीं स्वरों को विभिन्न प्रकार से गूँथ कर [[राग|रागों]] की रचना की जाती है।<ref name="ab"/>
 
====हिन्दुस्तानी शैली====
 
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ऋंगार, प्रकृति और [[भक्ति]] ये हिन्दुस्तानी शैली के प्रमुख विषय हैं। [[तबला वादक]] हिन्दुस्तानी संगीत में लय बनाये रखने में मददगार सिद्ध होते हैं। [[तानपुरा]] एक अन्य संगीत [[वाद्ययंत्र]] है, जिसे पूरे गायन के दौरान बजाया जाता है। अन्य वाद्ययंत्रों में [[सारंगी]] व [[हारमोनियम]] शामिल हैं। फ़ारसी संगीत के वाद्ययंत्रों और शैली, इन दोनों का ही हिन्दुस्तानी शैली पर काफ़ी हद तक प्रभाव पड़ा है।
 
ऋंगार, प्रकृति और [[भक्ति]] ये हिन्दुस्तानी शैली के प्रमुख विषय हैं। [[तबला वादक]] हिन्दुस्तानी संगीत में लय बनाये रखने में मददगार सिद्ध होते हैं। [[तानपुरा]] एक अन्य संगीत [[वाद्ययंत्र]] है, जिसे पूरे गायन के दौरान बजाया जाता है। अन्य वाद्ययंत्रों में [[सारंगी]] व [[हारमोनियम]] शामिल हैं। फ़ारसी संगीत के वाद्ययंत्रों और शैली, इन दोनों का ही हिन्दुस्तानी शैली पर काफ़ी हद तक प्रभाव पड़ा है।
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:'''(5.) टप्पा''' - [[हिन्दी]] मिश्रित [[पंजाबी भाषा]] का श्रृंगार प्रधान गीत टप्पा है। यह गायन शैली चंचलता व लच्छेदार तान से युक्त होती है।
 
:'''(5.) टप्पा''' - [[हिन्दी]] मिश्रित [[पंजाबी भाषा]] का श्रृंगार प्रधान गीत टप्पा है। यह गायन शैली चंचलता व लच्छेदार तान से युक्त होती है।
 
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====कर्नाटक शैली====
कर्नाटक शास्त्रीय शैली में [[राग|रागों]] का गायन अधिक तेज और हिन्दुस्तानी शैली की तुलना में कम समय का होता है। त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री को कर्नाटक संगीत शैली की त्रिमूर्ति कहा जाता है, जबकि पुरंदर दास को अक्सर कर्नाटक शैली का पिता कहा जाता है। कर्नाटक शैली के विषयों में [[पूजा]]-अर्चना, मंदिरों का वर्णन, दार्शनिक चिंतन, नायक-नायिका वर्णन और देशभक्ति शामिल हैं।
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कर्नाटक शास्त्रीय शैली में [[राग|रागों]] का गायन अधिक तेज और हिन्दुस्तानी शैली की तुलना में कम समय का होता है। [[त्यागराज]], मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री को [[कर्नाटक संगीत|कर्नाटक संगीत शैली]] की त्रिमूर्ति कहा जाता है, जबकि पुरंदर दास को अक्सर कर्नाटक शैली का पिता कहा जाता है। कर्नाटक शैली के विषयों में [[पूजा]]-अर्चना, मंदिरों का वर्णन, दार्शनिक चिंतन, नायक-नायिका वर्णन और देशभक्ति शामिल हैं।
 
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कर्नाटक शैली के प्रमुख रूप इस प्रकार हैं-
 
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:'''(1.) वर्णम''' - इसके तीन मुख्य भाग 'पल्लवी', 'अनुपल्लवी' तथा 'मुक्तयीश्वर' होते हैं। वास्तव में इसकी तुलना हिन्दुस्तानी शैली की [[ठुमरी]] के साथ की जा सकती है।<br />
 
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:'''(2.) जावाली''' - यह प्रेम प्रधान गीतों की शैली है। [[भरतनाट्यम]] के साथ इसे विशेष रूप से गाया जाता है। इसकी गति काफ़ी तीव्र होती है।<br />
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:'''(3.) तिल्लाना''' - [[उत्तरी भारत]] में प्रचलित 'तराना' के समान ही [[कर्नाटक संगीत]] में तिल्लाना शैली होती है। यह भक्ति प्रधान गीतों की गायन शैली है।
  
 
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08:00, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

भारतीय शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है। सामवेद में संगीत के बारे में गहराई से चर्चा की गई है। भारतीय शास्त्रीय संगीत गहरे तक आध्यात्मिकता से प्रभावित रहा है, इसलिए इसकी शुरुआत मनुष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य 'मोक्ष' की प्राप्ति के साधन के रूप में हुई। संगीत की महत्ता इस बात से भी स्पष्ट है कि भारतीय आचार्यों ने इसे 'पंचम वेद' या 'गंधर्व वेद' की संज्ञा दी है। भरतमुनि का 'नाट्यशास्त्र' पहला ऐसा ग्रंथ था, जिसमें नाटक, नृत्य और संगीत के मूल सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया था।

इतिहास

'भारतीय शास्त्रीय संगीत' भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है। लगभग तीन हज़ार वर्ष पूर्व रचे गए वेदों को संगीत का मूल स्रोत माना जाता है। यह माना जाता है कि ब्रह्मा ने नारद मुनि को संगीत वरदान में दिया था। चारों वेदों में, सामवेद के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या समगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ किया जाता था। गुरु शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरु से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था। उनमें किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका मूल स्वरूप लुप्त होता गया। भरतमुनि द्वारा रचित 'नाट्यशास्त्र', भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है। इसकी रचना के समय के बारे में कई मतभेद हैं। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है। भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' के बाद शारंगदेव द्वारा रचित 'संगीत रत्नाकर' ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। 12वीं सदी के पूर्वाद्ध में लिखे गये सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीतनृत्य का विस्तार से वर्णन किया गया है।[1]

संगीत रत्नाकर

'संगीत रत्नाकर' में कई तालों का उल्लेख है। इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में उस समय बदलाव आने शुरू हो चुके थे और संगीत पहले से उदार होने लगा था। एक हज़ारवीं सदी के अंत तक, उस समय प्रचलित संगीत के स्वरूप को प्रबंध कहा जाने लगा। प्रबंध दो प्रकार के हुआ करते थे-

  1. निबद्ध प्रबंध
  2. अनिबद्ध प्रबंध

निबद्ध प्रबंध को ताल की परिधि में रह कर गाया जाता था, जबकि अनिबद्व प्रबंध बिना किसी ताल के बंधन के, मुक्त रूप में गाया जाता था। प्रबंध का एक अच्छा उदाहरण है- जयदेव द्वारा रचित 'गीत गोविंद'।

विभाजन

युग परिवर्तन के साथ संगीत के स्वरूप में भी परिवर्तन आने लगा था, किंतु मूल तत्व एक ही रहे। मुग़ल कालीन भारतीय संगीत फ़ारसीमुस्लिम संस्कृति के प्रभाव से अछूता नहीं रह सका। उत्तर भारत में मुग़ल साम्राज्य ज़्यादा फैला हुआ था, जिस कारण उत्तर भारतीय संगीत पर इस्लामिक संस्कृति व इस्लाम का प्रभाव ज़्यादा महसूस किया जा सकता है। जबकि दक्षिण भारत में प्रचलित संगीत किसी प्रकार के बाहरी प्रभाव से अछूता ही रहा। इस तरह भारतीय संगीत का दो भागों में विभाजन हो गया-

  1. उत्तर भारतीय संगीत या हिन्दुस्तानी संगीत 
  2. कर्नाटक शैली

उत्तर भारतीय संगीत में काफ़ी बदलाव आए। संगीत अब मंदिरों तक ही सीमित न रहकर शहंशाहों के दरबार की शोभा बन चुका था। इसी समय कुछ नई शैलियाँ भी प्रचलन में आईं, जैसे- ख़याल, ग़जल आदि और भारतीय संगीत का कई नए वाद्यों से भी परिचय हुआ, जैसे- सरोद, सितार इत्यादि। बाद में सूफ़ी आंदोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नए वाद्य प्रचलन में आए। आम जनता में भी प्रसिद्ध आज का वाद्य हारमोनियम, उसी समय प्रचलन में आया था। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।[1]

शास्त्रीय संगीत का आधार

भारतीय शास्त्रीय संगीत स्वरोंताल के अनुशासित प्रयोग पर आधारित है। सात स्वरों व बाईस श्रुतियों के प्रभावशाली प्रयोग से विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न करने की चेष्टा की जाती है। सात स्वरों के समुह को 'सप्तक' कहा जाता है। भारतीय संगीत सप्तक के ये सात स्वर इस प्रकार हैं-

  1. षडज (सा)
  2. ऋषभ (रे)
  3. गंधार (ग)
  4. मध्यम (म)
  5. पंचम (प)
  6. धैवत (ध)
  7. निषाद (नि)

'सप्तक' को मूलत: तीन वर्गों में विभाजित किया जाता है- 'मन्द्र सप्तक', 'मध्य सप्तक' व 'तार सप्तक', अर्थात् सातों स्वरों को तीनों सप्तकों में गाया और बजाया जा सकता है। षड्ज व पंचम स्वर अचल स्वर कहलाते हैं, क्योंकि इनके स्थान में किसी तरह का परिवर्तन नहीं किया जा सकता और इन्हें इनके शुद्ध रूप में ही गाया बजाया जा सकता है। जबकि अन्य स्वरों को उनके कोमल व तीव्र रूप में भी गाया जाता है। इन्हीं स्वरों को विभिन्न प्रकार से गूँथ कर रागों की रचना की जाती है।[1]

हिन्दुस्तानी शैली

ऋंगार, प्रकृति और भक्ति ये हिन्दुस्तानी शैली के प्रमुख विषय हैं। तबला वादक हिन्दुस्तानी संगीत में लय बनाये रखने में मददगार सिद्ध होते हैं। तानपुरा एक अन्य संगीत वाद्ययंत्र है, जिसे पूरे गायन के दौरान बजाया जाता है। अन्य वाद्ययंत्रों में सारंगीहारमोनियम शामिल हैं। फ़ारसी संगीत के वाद्ययंत्रों और शैली, इन दोनों का ही हिन्दुस्तानी शैली पर काफ़ी हद तक प्रभाव पड़ा है।

प्रमुख रूप

संगीत की हिन्दुस्तानी शैली के निम्न रूप हैं-

(1.) ध्रुपद - यह गायन की प्राचीनतम एवं सर्वप्रमुख शैली है। ध्रुपद गायन शैली में ईश्वर व राजाओं का प्रशस्ति गान किया जाता है। इसमें बृजभाषा की प्रधानता होती है।
(2.) ख़्याल - यह हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की सबसे लोकप्रिय गायन शैली मानी जाती है। ख़्याल की विषय वस्तु राजस्तुति, नायिका वर्णन और श्रृंगार रस आदि होते हैं।
(3.) धमार - इसका गायन भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक होली के अवसर पर होता है। धमार गायन में प्राय: भगवान श्रीकृष्ण और गोपियों के होली खेलने का वर्णन किया जाता है।
(4.) ठुमरी - ठुमरी गायन में नियमों की अधिक जटिलता नहीं दिखाई देती है। यह एक भाव प्रधान तथा चपल चाल वाला श्रृंगार प्रधान गीत है। इस शैली का जन्म अवध के नवाब वाजिदअली शाह के राज दरबार में हुआ था।
(5.) टप्पा - हिन्दी मिश्रित पंजाबी भाषा का श्रृंगार प्रधान गीत टप्पा है। यह गायन शैली चंचलता व लच्छेदार तान से युक्त होती है।

कर्नाटक शैली

कर्नाटक शास्त्रीय शैली में रागों का गायन अधिक तेज और हिन्दुस्तानी शैली की तुलना में कम समय का होता है। त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री को कर्नाटक संगीत शैली की त्रिमूर्ति कहा जाता है, जबकि पुरंदर दास को अक्सर कर्नाटक शैली का पिता कहा जाता है। कर्नाटक शैली के विषयों में पूजा-अर्चना, मंदिरों का वर्णन, दार्शनिक चिंतन, नायक-नायिका वर्णन और देशभक्ति शामिल हैं।

शैली के प्रमुख रूप

कर्नाटक शैली के प्रमुख रूप इस प्रकार हैं-

(1.) वर्णम - इसके तीन मुख्य भाग 'पल्लवी', 'अनुपल्लवी' तथा 'मुक्तयीश्वर' होते हैं। वास्तव में इसकी तुलना हिन्दुस्तानी शैली की ठुमरी के साथ की जा सकती है।
(2.) जावाली - यह प्रेम प्रधान गीतों की शैली है। भरतनाट्यम के साथ इसे विशेष रूप से गाया जाता है। इसकी गति काफ़ी तीव्र होती है।
(3.) तिल्लाना - उत्तरी भारत में प्रचलित 'तराना' के समान ही कर्नाटक संगीत में तिल्लाना शैली होती है। यह भक्ति प्रधान गीतों की गायन शैली है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 संगीत (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 16 दिसम्बर, 2012।

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