वाराणसी

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काशी महाजनपद

काशी / बनारस / वाराणसी

वाराणसी, काशी अथवा बनारस भारत देश के उत्तर प्रदेश का एक प्राचीन और धार्मिक महत्ता रखने वाला शहर है। वाराणसी का पुराना नाम काशी है। वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा हुआ शहर है। यह गंगा नदी किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दो नदियों वरुणा और असि के मध्य बसा होने के कारण इसका नाम वाराणसी पडा। बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक ग्रन्थों में मिलता है। संस्कृत पढने प्राचीन काल से ही लोग वाराणसी आया करते थे। वाराणसी के घरानों की हिन्दुस्तानी संगीत मे अपनी ही शैली है।

इतिहास

ऐतिहासिक आलेखों से प्रमाणित होता है कि ईसा पूर्व की छठी शताब्दी में वाराणसी भारतवर्ष का बड़ा ही समृद्धशाली और महत्वपूर्ण राज्य था । मध्य युग में यह कन्नौज राज्य का अंग था और बाद में बंगाल के पाल नरेशों का इस पर अधिकार हो गया था । सन् 1194 में शहाबुद्दीन गौरी ने इस नगर को लूटा- पाटा और क्षति पहुँचायी । मुग़ल काल में इसका नाम बदल कर मुहम्मदाबाद रखा गया । बाद में इसे अवध दरबार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखा गया । बलवंत सिंह ने बक्सर की लड़ाई में अंग्रेज़ों का साथ दिया और इसके उपलक्ष्य में वाराणसी को अवध दरबार से स्वतंत्र कराया । सन् 1911 में अंग्रेज़ों ने महाराज प्रभुनारायण सिंह को वाराणसी का राजा बना दिया । सन् 1950 में यह राज्य स्वेच्छा से भारतीय गणराज्य में शामिल हो गया।

वाराणसी विभिन्न मत-मतान्तरों की संगम स्थली रही है । विद्या के इस पुरातन और शाश्वत नगर ने सदियों से धार्मिक गुरुओं, सुधारकों और प्रचारकों को अपनी ओर आकृष्ट किया है । भगवान बुद्ध और शंकराचार्य के अलावा रामानुज, वल्लभाचार्य, संत कबीर, गुरु नानक, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु, रैदास आदि अनेक संत इस नगरी में आये ।

विश्वनाथ मन्दिर, वाराणसी
Vishwanath Temple, Varanasi

भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन

भारतीय स्वातंत्रता आंदोलन में भी वाराणसी सदैव अग्रणी रही है । राष्ट्रीय आंदोलन में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों का योगदान स्मरणीय है । इस नगरी को क्रांतिकारी सुशील कुमार लाहिड़ी, अमर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद तथा जितेद्रनाथ सान्याल सरीखे वीर सपूतों को जन्म देने का गौरव प्राप्त है । महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे विलक्षण महापुरुष के अतिरिक्त राजा शिव प्रसाद गुप्त, बाबूराव विष्णु पराड़कर, श्री श्रीप्रकाश, डॉ. भगवान दास, लाल बहादुर शास्री, डॉ. संपूर्णानंद, कमलेश्वर प्रसाद, मन्मथनाथ गुप्त, मुकुटबिहारी लाल जैसे महापुरुषों का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा

वैदिक साहित्य में वाराणसी

वारणसी (काशी) की प्राचीनता का इतिहास वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होता है। वैदिक साहित्य के तीनों स्तरों (संहिता, ब्राह्मण एवं उपनिषद) में काशी का विवरण मिलता है।

  • वैदिक साहित्य[1] में कहा है कि आर्यों का एक काफिला विदेध माथव के नेतृत्व में आधुनिक उत्तर प्रदेश के मध्य से सदानीरा अथवा गंडक के किनारे जा पहुँचा और वहाँ कोशल जनपद की नींव पड़ी। जब आर्यों ने उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया तो आर्यों की एक जाति कासिस ने बनारस के समीप 1400 से 1000 ई.पू. के मध्य अपने को स्थापित किया।[2]
  • वाराणसी का सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद की पैप्पलाद शाखा[3] में हुआ है। एक मंत्र में मंत्रकार एक रोगी से कहता है कि उसका ‘तक्मा’ (ज्वर) दूर हो जाए और ज्वर का प्रसार काशी, कोशल और मगध जनपदों में हो। इससे स्पष्ट है कि इस काल में ये तीनों जनपद पार्श्ववर्ती थे।
  • शतपथ ब्राह्मण[4] के एक उद्धरण के अनुसार भरत ने सत्वत लोगों के साथ व्यवहार किया था उसी प्रकार सत्राजित के पुत्र शतानिक ने काशीवासियों के पवित्र यज्ञीय अश्व को पकड़ लिया था। शतानिक ने इसी अश्व द्वारा अपना अश्वमेघ यज्ञ पूरा किया। इस घटना के परिणामस्वरूप काशीवासियों ने अग्निकर्म और अग्निहोत्र करना ही छोड़ दिया था।[5]
  • मोतीचंद्र[6] काशीवासियों में वैदिक प्रक्रियायों के प्रति तिरस्कार की भावना पाते हैं। वे तीसरी सदी ई.पू. के पहले काशी के धार्मिक महत्त्व की बात स्वीकार नहीं करते।

परस्पर संबंधों पर प्रकाश

वैदिक साहित्य में काशी और अन्य जनपदों के परस्पर संबंधों पर भी प्रकाश पड़ता है। कौषीतकी उपनिषद[7] में काश्यों और विदेहों के नाम का एक स्थान पर उल्लेख है। वृहदारण्यक उपनिषद्[8] में अजातशत्रु[9] को काशी अथवा विदेह का शासक कहा गया है। इसके अतिरिक्त शांखायन[10] और बौधायन श्रोतसूत्र[11] में भी काशी तथा विदेह का पास-पास उल्लेख हुआ है। स्वतंत्र राज्यसत्ता नष्ट हो जाने के पश्चात् काशी के कोशल राज्य में सम्मिलित हो जाने का भी उल्लेख मिलता है। काशि, कोशल का सर्वप्रथम उल्लेख गोपथ ब्राह्मण[12] में आया है। पतंजलि के महाभाष्य[13] में काशीकोशलीया (काशी कोशल संबंधी) उदाहरण के रूप में उद्धृत है। वाराणसी के संबंध में उपर्युक्त उल्लेखों से यह सुस्पष्ट है कि वैदिक साहित्य में इसका उल्लेख अपेक्षाकृत बाद में मिलता है। लेकिन हम यह निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि वाराणसी एक प्राचीन है क्योंकि अथर्ववेद[14] में वरणावती नदी का उद्धरण है और इसी के नाम पर वाराणसी का नामकरण हुआ। वैदिक साहित्य में उल्लिखित काशी का कोशल और विदेह से संबंध तथा कुरु और पाँचाल से शत्रुता, संभवत: राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों अंतर्विरोधों का परिणाम था।

महाकाव्यों में वर्णित वाराणसी

महाभारत

महाकाव्यों में वाराणसी के संदर्भ में यत्र-तत्र उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में काशी का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। महाभारत से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि बरना का ही प्राचीन नाम वाराणसी था।[15] आदिपर्व में काशिराज की पुत्री सार्वसेनी का विवाह दुष्यंत के पुत्र भरत के साथ होने का विवरण मिलता है।[16] एक अन्य स्थल पर भीष्म द्वारा काशिराज की तीन पुत्रियों- अंबा, अंबिका और अम्बालिका के स्वयंवर में जीते जाने का उल्लेख है।[17] काशी के शासक प्रतर्दन तथा मिथिला के शासक जनक के मध्य युद्ध की चर्चा भी महाभारत में मिलती है।[18]

व्यास की सतसाहस्त्री संहिता में काशी का उल्लेख दो प्रसंगों में हुआ है-

  1. तीर्थ के रूप में।
  2. महाभारत के युद्ध में पांडवों की ओर से लड़ने के प्रसंग में।

रोचक है कि काशी का तीर्थरूप में वर्णन सबसे पहले महाभारत में ही हुआ है। वनपर्व में पांडवों के अज्ञातवास के अवसर पर उनके काशी आने का उल्लेख मिलता है। इसी पर्व में उल्लिखित है कि उस समय काशी में ‘कपिलाहद’ नामक तीर्थ बड़ा प्रसिद्ध था। [19] यही तीर्थ आजकल कपिलधारा के नाम से विख्यात है और नगर के भीतर न होकर पंचक्रोशी के प्रदक्षिणा मार्ग में अवस्थित है। महाभारत युद्ध में काशिराज का पांडवों की ओर लड़ने का प्रसंग आता है। काशिराज का युद्धक्षेत्र में सुवर्ण्य माल विभूषित घोड़ों पर चढ़ने का[20] तथा पांडव सेना के बीच तीन हजार रथों के साथ स्थित रहने का उल्लेख मिलता है।[21] उल्लेखनीय है कि यहाँ काशी के राजा का उल्लेख ‘काशिराज’ अथवा ‘काश्य’ शब्दों से किया गया है। परंतु काशी का कौन-सा राजा महाभारत युद्ध में लड़ने गया था, उसके नाम का उल्लेख नहीं मिलता। महाभारत में एक जगह कृष्ण द्वारा वाराणसी के जलाए जाने का वर्णन है।[22] जिसकी पुष्टि विष्णुपुराण से भी होती है।[23]

वाल्मीकि रामायण

बाल्मीकि रामायण में वाराणसी से संबंधित प्रकरण अपेक्षाकृत कम मिलते हैं। उत्तरकांड में काशिराज पुरुरवा का नाम आया है।[24] इसी कांड में यह भी आया है कि ययाति का पुत्र पुरु प्रतिष्ठान के साथ ही काशी का भी शासक था।[25] रामायण के एक अन्य स्थल पर काशी-कोशल जनपद का एक साथ उल्लेख मिलता है।[26] दशरथ ने अपने अश्वमेध यज्ञ में काशिराज को भी आमंत्रित किया था।[27] अयोध्याकांड के अनुसार कैकेयी के क्रोध को शांत करने के लिए राजा दशरथ ने इस देश (काशी राज्य) से उत्पन्न होने वाली वस्तुओं को भी प्राप्त करने का आदेश दिया था।[28] किष्किंधाकांड के अनुसार सुग्रीव ने इस देश में सीता को खोजने के लिए विनत को भेजा था।[29] वाल्मीकि ने यहाँ की अन्य घटनाओं का भी उल्लेख किया है। [30]

पुराणों में वाराणसी

पुराणों में वाराणसी की धार्मिक समृद्धि की चर्चा है। इस नगर को शिवपुरी के नाम से संबोधित किया गया है[31] तथा इसकी गणना भारत की सात मोक्षदायिनी पुरियों में की गई है[32]

शिवपुराण

शिवपुराण में वाराणसी को भारतवर्ष में स्थित प्रमुख बारह स्थानों में एक बताया गया है। मान्यता थी कि जो व्यक्ति प्रतिदिन प्रात:काल उठकर इन बारह नामों का पाठ करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है, और संपूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है।[33]

ब्रह्मपुराण

ब्रह्मपुराण में शिव पार्वती से कहते है ‘हे सुखवल्लभे, वरुणा और असी इन दोनों नदियों के बीच में ही वाराणसी क्षेत्र है और उससे बाहर किसी को नहीं बसना चाहिए।’’[34] लोगों का ऐसा विश्वास था कि शिव के भक्तों के वाराणसी में रहने के कारण लौकिक एवं पारलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है।[35] उल्लेखनीय है कि ह्वेनसाँग ने भी यहाँ निवास करने वाले शैव समर्थकों का उल्लेख किया है, जो लंबे केशों को धारण करते थे तथा शरीर पर भस्म लगाते थे।[36]

पुराणों में अनेक स्थलों पर ऐसा वर्णन मिलता है कि वाराणसी में जो निवास करता है उसके सभी कष्ट दूर हो जाते हैं। पद्मपुराण, [37] कूर्मपुराण[38] तथा लिंगपुराण [39] में इस तथ्य का स्पष्ट उल्लेख है। वाराणसी में गंगा नदी पश्चिमवाहिनी हो जाती है,[40] संभवत: इसीलिए इस नगर की धार्मिक महत्ता बढ़ जाती है। वाराणसी नगर की सीमाओं के विषय में भी पुराणों में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं।

अग्निपुराण

अग्निपुराण में वरणा और असी नदियों के बीच स्थित वाराणसी का विस्तार पूर्व से पश्चिम दो योजन और दूसरी जगह आधा योजन दिया है।[41]

मत्स्यपुराण

मत्स्यपुराण में इसकी लंबाई-चौड़ाई का स्पष्ट विस्तार[42] में मिलता है, जहाँ इसका विस्तार पूर्व से पश्चिम दो योजन तथा दक्षिण से उत्तर अर्द्धयोजन कहा गया है। यहीं इसका विस्तार वाराणसी नदी से लेकर शुक्ल नदी तक एवं भीष्मचंडी से लेकर पर्वतेश्वर तक विस्तृत था।[43]

  • कृत्यकल्पतरु[44] में वाराणसी नदी को वरणा बताया गया है।
  • पद्मपुराण के एक अन्य स्थल पर वाराणसी के चतुर्दिक सीमाओं का उल्लेख मिलता है।
  • इस नगर की सीमाएँ उत्तर में वरणा नदी, दक्षिण में असी, पूर्व में गंगा तथा पश्चिम में पाशपाणिगणेश निश्चित की गई हैं।[45]

इसके अतिरिक्त पुराणों में उस नगर के शासकों के वंशानुक्रम का भी उल्लेख मिलता है। इस वंश परंपरा में दिवोदास प्रथम, अष्टारथ, हर्यश्व, सुदेव, दिवोदास द्वितीय एवं प्रतर्दन के नाम उल्लेखनीय हैं।[46] लेकिन पुराणों की रचना और संकलन का निश्चित तिथिक्रम नहीं मिलता, जिससे उपयोगी सूचनाएँ भी संदर्भरहित हो जाती हैं। मत्स्यपुराण में अलर्क राजा का उल्लेख मिलता है। इन्हीं के नाम के आधार पर वाराणसी को अलर्कपुरी कहा गया है।[47] वाराणसी का धार्मिक महत्त्व परवर्ती कालों में और बढ़ता गया और यह नगर दान, जप, तप, अध्ययन तथा अध्यापन की धार्मिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझा जाने लगा।[48] यहाँ पर वैदिक यज्ञों का अनुष्ठान भी होता था। काशी के एक अभिलेख से विदित होता है कि भारशिव नरेशों ने दस अश्वेमेघ यज्ञों का अनुष्ठान इस नगर में किया था।[49]

जैन साहित्य में वाराणसी

जैन साहित्य में भी वाराणसी के संबंध में प्रचुर विवरण मिलते हैं।

पार्श्वनाथ के जन्म के अनुसार

जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म (ईसा पूर्व 8वीं शताब्दी) वाराणसी में महावीर से 250 वर्ष पूर्व हुआ था। जैन अनुश्रुति के अनुसार इनके पिता अश्वसेन बनारस के राजा थे।[50] पार्श्वनाथ को जैन साहित्य में पुरिसादानीय[51] और पालि साहित्य मे पुरिसाजानीय[52] कहा गया है। संभवत: इन शब्दों का प्रयोग असाधारण व्यक्तित्व के निमित्त किया गया है।

महाकवि अश्वघोष के अनुसार

महाकवि अश्वघोष ने बुद्धचरित में ‘वाराणसी’ और ‘काशी’ को एक ही नगर माना है।[53] एक स्थान पर उल्लिखित[54] है कि बुद्ध वणारा के पास एक वृक्ष की छाया में पहुँचे। संभवत: अश्वघोष द्वारा वर्णित वणारा आधुनिक बरना नदी हे। इससे यह विदित होता है कि कम से कम पहली शताब्दी में वाराणसी और काशी समानार्थक थे। जैन साहित्य से हमें पता चलता है कि ई. पू. की शताब्दियों में यहाँ यक्ष पूजा बहुत प्रचलित थी और उत्तर भारत के प्रमुख नगरों में यक्षों के चैत्य होते थे। वाराणसी में गंडि-तिदुंग नाम के यक्ष का उल्लेख मिलता है।[55] ये यक्ष लोगों की रक्षा करते थे।[56] उल्लेखनीय है कि सारनाथ के समीप अकथा नामक पुरास्थल से द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व की एक यक्ष प्रस्तर प्रतिमा मिली थी जो अब सारनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है।

भगवतीसूत्र में उल्लेख

  • जैन ग्रंथ भगवतीसूत्र[57] में सोलह जनपदों की सूची में काशी का भी नाम मिलता है। उस समय भारत की मुख्य राजधानियों में वाराणसी एक थी।[58] प्राचीन जैन सूत्रों में काशी और कोशल में अट्ठारह गणराज्यों का उल्लेख है। मोतीचंद्र के अनुसार यह अट्ठारह उपराज्य थे, जो काशी-कोशल के राजा प्रसेनजित के अधीन थे। जब तीर्थंकर महावीर की मृत्यु हुई थी, तब काशी और कोशल के 10 संयुक्त राजाओं ने लिच्छवियों और मल्लों के साथ प्रकाश किया था।[59]

बौद्ध साहित्य में वाराणसी

बौद्ध ग्रंथों में वाराणसी का उल्लेख काशी जनपद की राजधानी के रूप में हुआ है।[60] बुद्ध पूर्व काल में काशी एक समृद्ध एवं स्वतंत्र राज्य था। इसका साक्ष्य देते हुए स्वयं बुद्ध ने इसकी प्रशंसा की है।[61] वाराणसी को वरुणा नदी पर स्थित बतलाया गया है।[62] यह नगर विस्तृत, समृद्ध और जनाकीर्ण था। [63] महापरिनिब्बानसुत्त [64] में तत्कालीन छ: प्रसिद्ध नगरों में वाराणसी का उल्लेख किया गया है। बौद्ध साहित्य से पता चलता है कि बुद्ध इस नगर में कई बार ठहरे थे।

ऋषिपतन मृगदाव (आधुनिक सारनाथ) का भी उल्लेख बौद्ध साहित्य में आया है। जातकों में इसे मिगाचीर कहा गया है।[65] जिसे मललसेकर ने इसिपतन मिगदाय का प्राचीन नाम माना है।[66] बोध-गया में ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् बुद्ध ने अपना पहला उपदेश इसिपतन मिगदाय (मृगदाव) में ही दिया था। इस स्थान का ऋषिपतन मृगदाव नाम संभवत: ऋषियों के वायु मार्ग से उतरने के कारण पड़ा था और इसीलिए इसे ऋषिपतन भी कहा जाता था।[67] मृगों के स्वच्छंदता से घूमने के कारण इसे मृगदाव कहा जाने लगा।[68]

बुद्ध के काल में बनारस उत्तरी भारत में शिक्षा के एक प्रमुख केंद्र के रूप में विख्यात था।[69] बनारस की कुछ शिक्षा संस्थाएँ तक्षशिक्षा से भी पुरानी थीं।[70] तक्षशिक्ष के शंख नामक एक ब्राह्मण ने अपने पुत्र सुसीम को शिक्षा के लिए बनारस भेजा था।[71] यह उत्तर भारत के उन छ: महानगरों में एक था जिन्हें आनंद ने भगवान् बुद्ध की अंतिम यात्रा के योग्य चुना था।[72]

वाणिज्य और व्यापार का प्रमुख केंद्र

वाराणसी नगर वाणिज्य और व्यापार का एक प्रमुख केंद्र था। स्थल तथा जल मार्गों द्वारा यह नगर भारत के अन्य नगरों से जुड़ा हुआ था। काशी से एक मार्ग राजगृह को जाता था।[73] काशी से वेरंजा जाने के लिए दो रास्ते थे-

  1. सोरेय्य होकर
  2. प्रयाग में गंगा पार करके।

दूसरा मार्ग बनारस से वैशाली को चला जाता था।[74] वाराणसी का एक सार्थवाह पाँच सौ गाड़ियों के साथ प्रत्यंत देश गया था और वहाँ से चंदन लाया था।[75]

समुद्री व्यापार

वाराणसी के व्यापारी समुद्री व्यापार भी करते थे। काशी से समुद्र यात्रा के लिए नावें छूटती थीं।[76] इस नगर के धनी व्यापारियों को व्यापार के उद्देश्य से समुद्र पार जाने का उल्लेख है।[77] जातकों में भी व्यापार के उद्देश्य से बाहर जाने का उल्लेख मिलता है। एक जातक में उल्लेख है कि बनारस के व्यापारी दिशाकाक लेकर समुद्र यात्रा को गए थे।[78] एक अन्य व्यापारी मित्रविदंक जहाज लेकर समुद्र यात्रा पर गया था, जहाँ उसे अनेक कष्टों का सामना करना पड़ा।[79]

  • महावग्ग[80] में काशिराज ब्रह्मदत्त को विपुल धन का स्वामी, भोग-विलास की सामग्री से परिपूर्ण कहा गया है। इससे यह विदित होता है कि अन्य नगरों या जनपदों की तुलना में काशी की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। *दीघनिकाय में संख नामक राजा के राजत्व में सातरत्नों- चक्करतन, हस्तिरत्नं, मणिरत्नं, हत्थिरत्नं, गृहपतिरत्नं एवं परिणायक रत्न- से युक्त वाराणसी नगरी को केतुमती नामक समृद्ध एवं बहुजना तथा आकिष्णनुमा होने की भविष्यवाणी की गई है।[81] यह विवरण इसकी समृद्धि का सूचक है।

बहुमूल्य वस्त्रों के लिए विख्यात

बुद्ध काल में वाराणसी नगरी सुंदर, बहुमूल्य वस्त्रों के लिए भी विख्यात थी जिसका उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में अनेक स्थलों पर मिलता है। संयुक्त निकाय के वत्थिसुत्त में काशी का बना कपड़ा अन्य समस्त जगहों से बने हुए कपड़ों में अग्र (श्रेष्ठ) बताया गया है।[82]

  • माज्झिमनिकाय की अट्ठकथा में यहाँ के वस्त्रों की प्रभूत प्रशंसा की गई है।[83] एक स्थल पर एक धूर्त ने जीवकाम्रवन को जाती हुई शुभा भिक्षुणी को काशी के सूक्ष्म वस्त्रों का लोभ दिलाकर भुलाने की चेष्टा में उससे कहा था कि ‘‘काशी के उत्तम वस्त्रों को धारण करने वाली मुझ रूपवती को छोड़कर तुम कहाँ जाओगे।’’[84]
  • मिलिंदपन्हों में उल्लिखित है कि यवन शासक मिलिंद की राजधानी सागल (स्यालकोट) में भी काशी के वस्त्र विक्रय के लिए जाते थे।[85]

इस प्रकार यह सुविदित है कि बुद्ध काल में काशी के वस्त्र महत्त्वपूर्ण थे।

चंदन के लिए प्रसिद्ध

बहुमूल्य वस्त्रों के अतिरिक्त काशी जनपद चंदन के लिए भी प्रसिद्ध था। जातकों और अंगुत्तरनिकाय[86] में ‘कासि विलेपन’ और ‘कासि चंदन’ का उल्लेख मिलता है। काशी में चंदन की लकड़ी का उद्योग मिलिंदपन्हों में भी मिलता है।(109) इस प्रकार यह निश्चित है कि बौद्ध साहित्य में वाराणसी व्यापार और वाणिज्य के क्षेत्र में समृद्धिप्राप्त थी जिसका विवरण बौद्ध ग्रंथों में अनेकश: मिलता है।

नामकरण

‘वाराणसी’ शब्द ‘वरुणा’ और ‘असी’ दो नदीवाचक शब्दों के योग से बना है। पौराणिक अनुश्रुतियों के अनुसार वरुणा और असि नाम की नदियों के बीच में बसने के कारण ही इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।

  • 'पद्मपुराण' के एक उल्लेख के अनुसार दक्षिणोत्तर में ‘वरना’ और पूर्व में ‘असि’ की सीमा से घिरे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा।[87]
  • 'अथर्ववेद'[88] में वरणावती नदी का उल्लेख है। संभवत: यह आधुनिक वरुणा का ही समानार्थक है।
  • 'अग्निपुराण' में नासी नदी का उल्लेख मिलता है।

पौराणिक उल्लेख

वाराणसी के संदर्भ में इस तरह के अनेक पौराणिक और लोकमिथक प्रचलित हैं। इन मिथकों की व्याख्या का प्रयास विद्वानों ने किया है। कनिंघम[89] ने ‘बरना’ और ‘असि’ के मध्य वाराणसी की स्थिति स्वीकार की है। एम. जूलियन महोदय ने कनिंघम के मत पर संदेह व्यक्त करते हुए ‘बरना’ नदी का ही प्राचीन नाम ‘वाराणसी’ माना है।[90] यद्यपि वे अपने मत की पुष्टि में कोई प्रमाण नहीं देते, परंतु इतना तो निश्चित है कि वैदिक पौराणिक उल्लेखों में ‘असि’ का नदी के रूप में कहीं भी वर्णन नहीं मिलता।

महाभारत[91] में उल्लेख आया है कि बरना का प्राचीन नाम वाराणसी था और इसमें दो नदियों के नाम निकालने की प्रक्रिया अपेक्षाकृत बाद की है। पद्मपुराण[92] में ‘वरणासि’ का एक नदी के रूप में उल्लेख हैं। विभिन्न पुराणों के इन प्रसंगों से किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने में कठिनाई होती है। मोतीचंद्र ने वाराणसी में ‘वरुणा’ और ‘असी’ की संगति की अवधारणा को काल्पनिक प्रक्रिया माना है। संभव है कि अस्सी पर बसने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ा हो। ‘वरुणा’ और ‘असि’ के मध्य वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और कालांतर में यह कल्पना स्थिर हो गई।[93]

इस तथ्य से प्राय: सभी विद्वान् सहमत हैं कि प्राचीन वाराणसी आधुनिक राजघाट के ऊँचे मैदान पर बसा था, और इसका प्राचीन विस्तार (भग्नावशेषो के आधार पर) वरना (वरुणा) के उस पार (बाएँ तट पर) भी था। बरना से असी की ओर का विस्तार परवर्ती है। उल्लेखनीय है कि प्राचीन वाराणसी सदैव बरना पर ही स्थित नहीं थी, बल्कि गंगा तक उसका प्रसार था। कम से कम पतंजलि के काल में (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में) उसका बसाव गंगा के किनारे-किनारे था जैसाकि अष्टाध्यायी के एक सूत्र[94] पर पतंजलि के भाष्य[95] से स्पष्ट है।

वृक्ष के नाम के आधार पर

वाराणसी के नामकरण के संबंध में एक दूसरी संभावना भी है। वरणा शब्द एक वृक्ष विशेष का द्योतक है। प्राचीन काल में वृक्षों के नाम के आधार पर नगरों का नामकरण किया गया था। यथा-कोसंब से कोशांबी, रोहीत से रोहीतक इत्यादि। अत: बहुत संभव है कि उसी परम्परा में वाराणसी और वरणावती दोनों का नाम यहाँ पर अधिक उत्पन्न होने वाले वरणा वृक्ष के कारण पड़ा हो।

दूसरा नाम ‘काशी’

वाराणसी का दूसरा नाम ‘काशी’ प्राचीन काल में एक जनपद के रूप में प्रख्यात था और वाराणसी उसकी राजधानी थी। इसकी पुष्टि पाँचवीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री फाह्यान के यात्रा विवरण से भी होती है।[96] हरिवंशपुराण में उल्लेख आया है कि ‘काशी’ को बसाने वाले पुरुरवा के वंशज राजा ‘काश’ थे। अत: उनके वंशज ‘काशि’ कहलाए।[97] संभव है इसके आधार पर ही इस जनपद का नाम ‘काशी’ पड़ा हो। काशी नामकरण से संबद्ध एक पौराणिक मिथक भी उपलब्ध है। उल्लेख है कि विष्णु ने पार्वती के मुक्तामय कुंडल गिर जाने से इस क्षेत्र को मुक्त क्षेत्र की संज्ञा दी और इसकी अकथनीय परम ज्योति के कारण तीर्थ का नामकरण काशी किया।[98]

स्थिति

वाराणसी भारतवर्ष की सांस्कृतिक एवं धार्मिक नगरी के रूप में विख्यात है। इसकी प्राचीनता की तुलना विश्व के अन्य प्राचीनतम नगरों जेरुसलम, एथेंस तथा पीकिंग से की जाती है।[99] वाराणसी गंगा के बाएँ तट पर अर्द्धचंद्राकार में 25० 18’ उत्तरी अक्षांश एवं 83० 1’ पूर्वी देशांतर पर स्थित है। प्राचीन वाराणसी की मूल स्थिति विद्वानों के मध्य विवाद का विषय रही है।

विद्वानों के मतानुसार

शेरिंग,[100] मरडाक,[101] ग्रीब्ज,[102] और पारकर[103] प्रभृति विद्वानों के मतानुसार प्राचीन वाराणसी वर्तमान नगर के उत्तर में सारनाथ के समीप स्थित थी। किसी समय वाराणसी की स्थिति दक्षिण भाग में भी रही होगी। लेकिन वर्तमान नगर की स्थिति वाराणसी से पूर्णतया भिन्न है, जिससे यह प्राय: निश्चित है कि वाराणसी नगर की प्रकृति यथासमय एक स्थान से दूसरे स्थान पर विस्थापित होने की रही है। यह विस्थापन मुख्यतया दक्षिण की ओर हुआ है। पर किसी पुष्ट प्रमाण के अभाव में विद्वानों का उक्त मत समीचीन नहीं प्रतीत होता है।

हेवेल की दृष्टि में

हेवेल की दृष्टि में वाराणसी नगर की स्थिति विस्थापन प्रधान थी, अपितु प्राचीन काल में भी वाराणसी का वर्तमान स्वरूप सुरक्षित था।[104] हेवेल के मतानुसार बुद्ध पूर्व युग में आधुनिक सारनाथ एक घना जंगल था और यह विभिन्न धर्मावलंबियों का आश्रय स्थल भी था। भौगोलिक दशाओं के परिप्रेक्ष्य में हेवेल का मत युक्तिसंगत प्रतीत होता है। वास्तव में वाराणसी नगर का अस्तित्व बुद्ध से भी प्राचीन है तथा उनके आविर्भाव के सदियों पूर्व से ही यह एक धार्मिक नगरी के रूप में ख्याति प्राप्त था। सारनाथ का उद्भव महात्मा बुद्ध के प्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन के उपरांत हुआ। रामलोचन सिंह ने भी कुछ संशोधनों के साथ हेवेल के मत का समर्थन किया है। उनके अनुसार नगर की मूल स्थिति प्राय: उत्तरी भाग में स्वीकार करनी चाहिए।[105] हाल के अकथा उत्खनन से इस बात की पुष्टि होती है कि वाराणसी की प्राचीन स्थिति उत्तर में थी जहाँ से 1300 ईसा पूर्व के अवशेष प्रकाश में आये हैं।

भौगोलिक स्वरूप

वाराणसी नगर की रचना गंगा के किनारे है, जिसका विस्तार लगभग 5 मील में है। ऊँचाई पर बसे होने के कारण अधिकतर वाराणसी बाढ़ की विभीषिका से सुरक्षित रहता है, परंतु वाराणसी के मध्य तथा दक्षिणी भाग के निचने इलाके प्रभावित होते हैं।

धरातल की संरचना

वाराणसी के धरातल की संरचना ठोस कंकड़ों से हुई हैं। आधुनिक राजघाट का चौरस मैदान जहाँ नदी-नालों के कटाव नहीं मिलते, शहर बसाने के लिए उपयुक्त था। वाराणसी शहर के उत्तर में वरुणा और दक्षिण में अस्सी नाला है, उत्तर-पश्चिम की ओर यद्यपि ऐसा कोई प्राकृतिक साधन (पहाड़ियाँ, झील, नदी इत्यादि) नहीं है जिससे नगर की सुरक्षा हो सके, तथापि यह निश्चित है कि काशी के समीपवर्ती गहन वन, जिनका उल्लेख जातकों, जैन एवं पौराणिक ग्रंथों में आया है, काशी की सुरक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे होंगे।[106]

अर्थव्यव्स्था

उद्योग

वाराणसी के कारीगरों के कला- कौशल की ख्याति सुदूर प्रदेशों तक में रही है। वाराणसी आने वाला कोई भी यात्री यहाँ के रेशमी किमखाब तथा जरी के वस्रों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । यहाँ के बुनकरों की परंपरागत कुशलता और कलात्मकता ने इन वस्तुओं को संसार भर में प्रसिद्धि और मान्यता दिलायी है । विदेश व्यापार में इसकी विशिष्ट भूमिका है । इसके उत्पादन में बढ़ोत्तरी और विशिष्टता से विदेशी मुद्रा अर्जित करने में बड़ी सफलता मिली है । रेशम तथा जरी के उद्योग के अतिरिक्त, यहाँ पीतल के बर्तन तथा उन पर मनोहारी काम और संजरात उद्योग भी अपनी कला और सौंदर्य के लिए विख्यात हैं । इसके अलावा यहाँ के लकड़ी के खिलौने भी दूर- दूर तक प्रसिद्ध हैं, जिन्हें कुटीर उद्योगों में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं ।

कला

संगीत

वाराणसी गायन एवं वाद्य दोनों ही विद्याओं का केंद्र रहा है । सुमधुर ठुमरी भारतीय कंठ संगीत को वाराणसी की विशेष देन है । इसमें धीरेंद्र बाबू, बड़ी मोती, छोती मोती, सिध्देश्वर देवी, रसूलन बाई, काशी बाई, अनवरी बेगम, शांता देवी तथा इस समय गिरिजा देवी आदि का नाम समस्त भारत में बड़े गौरव एवं सम्मान के साथ लिया जाता है । इनके अतिरिक्त बड़े रामदास तथा श्रीचंद्र मिश्र, गायन कला में अपनी सानी नहीं रखते । तबला वादकों में कंठे महाराज, अनोखे लाल, गुदई महाराज, कृष्णा महाराज देश- विदेश में अपना नाम कर चुके हैं । शहनाई वादन एवं नृत्य में भी काशी में नंद लाल, उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ाँ तथा सितारा देवी जैसी प्रतिभाएँ पैदा हुई हैं ।

गंगा नदी, वाराणसी
Ganga River, Varanasi

साहित्य

वाराणसी संस्कृत साहित्य का केंद्र तो रही ही है, लेकिन इसके साथ ही इस नगर ने हिन्दी तथा उर्दू में अनेक साहित्यकारों को भी जन्म दिया है, जिन्होंने साहित्य सेवा की तथा देश में गौरव पूर्ण स्थान प्राप्त किया । इनमें भारतेंदु हरिश्चंद्र, अयोध्यासिंह उपाध्याय "हरिऔध', जयशंकर प्रसाद, प्रेमचंद, श्याम सुंदर दास, राय कृष्ण दास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामचंद्र वर्मा, बेचन शर्मा "उग्र", विनोदशंकर व्यास, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ तथा डॉ. संपूर्णानंद उल्लेखनीय हैं । इनके अतिरिक्त उर्दू साहित्य में भी यहाँ अनेक जाने- माने लेखक एवं शायर हुए हैं । जिनमें मुख्यतः श्री विश्वनाथ प्रसाद शाद, मौलवी महेश प्रसाद, महाराज चेतसिंह, शेखअली हाजी, आगा हश्र कश्मीरी, हुकुम चंद्र नैयर, प्रो. हफीज बनारसी, श्री हक़ बनारसी तथा नजीर बनारसी का नाम आता है।

वाराणसी में गंगा नदी के घाट
Ghats of Ganga River in Varanasi

पर्यटन

वाराणसी, पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है । यहाँ अनेक धार्मिक, ऐतिहासिक एवं सुंदर दर्शनीय स्थल है, जिन्हें देखने के लिए देश के ही नहीं, संसार भर से पर्यटक आते हैं और इस नगरी तथा यहाँ की संस्कृति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं । कला, संस्कृति, साहित्य और राजनीति के विविध क्षेत्रों में अपनी अलग पहचान बनाये रखने के कारण वाराणसी अन्य शहरों की अपेक्षा अपना विशिष्ट स्थान रखती है । देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी की जननी संस्कृत की उद्भव स्थली काशी सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है ।

वाराणसी के घाट

वाराणसी (काशी) में गंगा तट पर अनेक सुंदर घाट बने हैं, इनमें से असी, दशाश्वमेध, तुलसी, हनुमान, केदार, मानमंदिर, हरिश्चंद्र, मणिकर्णिका, सिंधिया तथा राजघाट आदि प्रमुख घाट हैं। ये सभी घाट किसी- न-किसी पौराणिक या धार्मिक कथा से संबंधित हैं । वाराणसी के घाट गंगा नदी के धनुष की आकृति होने के कारण मनोहारी लगते हैं। सभी घाटों के पूर्वार्भिमुख होने से सूर्योदय के समय घाटों पर पहली किरण दस्तक देती है। उत्तर दिशा में राजघाट से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अस्सी घाट तक सौ से अधिक घाट हैं। मणिकर्णिका घाट पर चिता की अग्नि कभी शांत नहीं होती, क्योंकि बनारस के बाहर मरने वालों की अन्त्येष्टी पुण्य प्राप्ति के लिये यहीं की जाती है । कई हिन्दू मानते हैं कि वाराणसी में मरने वालों को मोक्ष प्राप्त होता है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. शतपथ ब्राह्मण, 1/4/1/10-17: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृ. 19
  2. ई.बी.हैवेल, बनारस, दि सेक्रेड सिटी, (कलकत्ता पुनर्मुदित, 1968 ई.),पृ. 2
  3. शतपथ ब्राह्मण, 5/12/14
  4. शतानीक: समत्तासु, मेध्यं सात्राजितो हयम्। आयत यज्ञं काशीनां, भरत: सत्वतामिव॥ - शतपथ ब्राह्मण, 13/5/4/21
  5. सात्राजित ईजे काश्यस्याश्वमादाय ततो हैतदर्वाक् काशयोऽग्नीन्नादधात्। आत्सोमपोथा: स्म इति वदंत:। देखें, शतपथ ब्राह्मण, 13/5/4/19
  6. काशी का इतिहास, पृ. 20
  7. कौषीतकी उपनिषद, 4/1
  8. वृहदारण्यक उपनिषद, 3/8/2: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृ. 21
  9. उल्लेखनीय है कि यह अजातशत्रु सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक मगध नरेश नहीं था।
  10. शांखायन श्रोतसूत्र 16/9/5
  11. बौधायन श्रोतसूत्र 21/13
  12. गोपथ ब्राह्मण (पूर्व भाग), 1, 29
  13. अष्टाध्यायी, 4/8/45: कीलहार्न, 2/280
  14. अथर्ववेद, 4/7/71
  15. महाभारत, 6/10/30
  16. तत्रेव, आदिपर्व, अध्याय 95
  17. तत्रेव, उद्योगपर्व, 72/74
  18. तत्रैव, 12/99/1-2
  19. अविमुक्तं समासाद्य, तीर्थसेवी कुरुदह। दर्शानात् देवदेवस्यमुच्यते अह्महत्यया।
    ततो वाराणसी गत्वा देवकर्यय वृषध्वजम्। कपिला-हृदमुपस्पृश्य, राजसूय फलं लाभेत्॥
  20. महाभारत, द्रोणपर्व, 22/38
  21. तत्रैव, भीष्मपर्व, अध्याय 50
  22. तत्रैव, उद्योगपर्व, 47/40
  23. विष्णुपुराण, 5/34: देखें, मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृ0 25
  24. बाल्मीकि रामायण, उत्तरकांड 56/25
  25. तत्रैव, 59/19
  26. महीकाल मही चापि शैल कानन शोभिताम्। ब्रह्ममालांविदेहाश्च मालवान काशि कोशलान्॥ बाल्मीकिरामायण, किष्किंधाकांड, 20,22
  27. तत्रैव, बालकांड, 2/13/23
  28. तत्रैव, 2/10/37-38
  29. तत्रैव, किष्किंधाकांड, 40/22
  30. वद् भवान च काशेय। पुरी वाराणसी व्रज रमणीया त्वया गुप्त, सुप्रकारां सुतोरणाम्॥
    राधवेण कृतानुज्ञ: काशेयो हयकुतोभय:। वाराणसी यर्या तूर्ण राधवेण विसर्जित:॥ बाल्कीकि रामायण, 7/38/17, 29
  31. ‘‘यत्र नारायणो देवो महादेवी दिवीश्वर:।’’ वायुपुराण, अध्याय 34, पंक्ति 100
  32. ‘‘अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका। पुरी द्वारावती चैव सपैते मोक्षदायिका:।’’ पद्मपुराण, अध्याय 33, पंक्ति 102
  33. ‘‘सौराष्ट्रे सोमनाथ च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
    उज्जयिन्याँ महाकालमोकारे परमेश्वरम्॥
    केदार हिमवत्पृष्ठे डाकिन्या भीमशंकरम्।
    वाराणस्या च विश्वेशं त्रम्व्यकं गौतमीतटे॥
    वैद्यनाथ चिताभूमौ नागेशं दारुकावने।
    सेतुबंधे च रामेशं घुश्मेशं तु शिवालये॥
    द्वादशैतानि नामानि प्रातरुत्थान य: पठेत्।
    सर्वपापैविनिर्युक्त: सर्वसिद्धिफलं लभेत्। शिवपुराण, कोटि रुद्रसंहिता, संख्या 1/21-24

  34. मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृ. 5
  35. ‘‘मद्भक्तास्तत्र गच्छन्ति मामेब प्रविशन्ति च’’ पद्मपुराण, अध्याय 33, पंक्ति 102
  36. वाटर्स, भाग 2, पृ. 47
  37. यदि पापी यदि शठो यदि वाधार्मिणो नर:। वाराणसीं समासाद्य पुनाति सकलं भुवम्॥ - अध्याय 33, पृ. 38
  38. कूर्मपुराण, अध्याय 31, पृ. 321
  39. कुत्वा पापसहस्त्राणि पिशाचत्वं वरं नृणाम्। जैगीषव्य: परां सिद्धिं गतो यत्र महातपा:॥ लिंगपुराण, अध्याय 92, पृ. 53
  40. ‘‘वाराणस्यां विशेषेण गंगाविपथगामिनी’’ पद्मपुराण, अध्याय 33, पंक्ति 69
  41. द्वियोजन तु पर्व स्याद्योजनार्द्ध तदन्यथा। वरुणा च नदी चासी मध्ये वाराणसी तयो॥ अग्निपुराण, अध्याय 11, पृ0 6
  42. मत्स्यपुराणद्वियोजनम् तु तत्क्षेत्रं पूर्वपश्चिमत: स्मृतम:।
    अर्द्धयोजन विस्तीर्ण तत्क्षेत्रं दक्षिणोत्तरम्॥
    वाराणसी तदीया च यावतछुल्कनदीतु वै॥
    भीष्मचण्डीकमारभ्य पर्वतेश्वर मत्रिके॥ मत्स्यपुराण, 183/61-62
  43. संभवत: वाराणसी नदी आधुनिक वरणा है। शुक्ल नदी गंगा है और भीष्मचंडी आधुनिक भीमचंडी है जो पंचक्रोशी के रास्ते पर पड़ता है। पर्वतेश्वर की निश्चित जानकारी नहीं हो पाई है लेकिन यह संभवत: राजघाट के आसपास कहीं रहा होगा।
  44. कृत्यकल्पतरु, पृ. 39
  45. दक्षिणोत्त रर्योन धौ वरणासिश्च पूर्वत:। जाह्नवी पश्चिमे चापि पाशपाणिर्गणेश्वर:॥ पद्मपुराण उद्धृत, त्रिस्थली सेतु, पृ. 100
  46. एफ. ई. पार्जिटर, ऐंश्येंट इंडियन हिस्टारिकल ट्रेडिशन, पृ. 155
  47. मत्स्यपुराण 180/68
  48. दप्तं जप्तं हुतं चेष्टं तपस्तप्तं कृतं च यत्। ध्यानमध्ययनं ज्ञासं सर्वत्राक्षयं भवेत्॥ पद्मपुराण, अध्याय 26, पृ. 16
  49. ‘दशाश्वमेघावभृथस्नातकानां भी गीरथ्याममलजभूर्द्धाभिषिक्तानां भारशिवानाम्। (संभवत: दश अश्वमेध यज्ञ होने के कारण यहाँ के एक घाट दशाश्वमेध का नाम पड़ा।) एपिग्राफिया इंडिका 8, 269
  50. कल्पसूत्र, 6/149-169: मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृ. 38
  51. कल्पसूत्र, 6/149
  52. अंगुत्तरनिकाय, जिल्द 1, पृ. 290
  53. वाराणसी प्रविश्याथ भासा संभासयन्जिन:। चकार काशिदेशीयान् कौतुकाक्रांतचेतस:। बुद्धचरित, 15/101
  54. हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक आफ दि ईस्ट, जिल्द 49, भाग 1, पृ. 169
  55. उत्तराध्ययन, 16/16
  56. जगदीशचंद्र जैन, लाइफ इन ऐंश्येंट इंडिया, पृ. 220-221
  57. भगवती सूत्र, पृ. 15
  58. स्थानांगसूत्र 10, 717 निशीरथ सूत्र 9, 19
  59. हरमन जैकोबी, सेक्रेड बुक आफ दि ईस्ट, जिल्द 22, पृ. 266 और 271
  60. सुमंगलविलासिनी, जिल्द 2, पृ. 383
  61. ‘‘भूतपुब्बं भिक्खवे ब्रह्मदत्ते नाम काशिराजा अहोसि अड्ढो महद्धनो महब्बलो, महाबाहनो, महाविजितो, परिपुण्णकोसकोट्ठामारो।’’
    महाबग्गो (विनयपिटक), दुतियो भागो, पृ. 262
  62. महावस्तु, भाग 3, पृ. 402
  63. दिव्यावदान, पृ. 73 : देखें, विमलचरण लाहा, प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल
  64. दीघनिकाय, भाग। (सलक्खंधसुत्त), पृ. 84 (हिंदी)
  65. जातक, जिल्द पाँचवीं पृ. 64, 476, 536
  66. मललसेकर, डिक्शनरी आफ पालि प्रापर नेम्स, भाग दो, पृ. 626
  67. पपंचसूदनी, जिल्द दूसरी, पृ. 188
  68. तत्रैव, पृ. 65: देखें, ललितविस्तर, पृ. 19
  69. ए.एस. अल्तेकर, एजूकेशन इन ऐंश्येंट इंडिया, (1934), पृ. 257
  70. खुद्दकपाठ, अट्ठकथा, पृ. 198
  71. धम्मपद अट्ठकथा, 3/445
  72. दीघनिकाय, भाग दो, पृ. 146
  73. विनयपिटक, जिल्द 1, पृ. 262
  74. मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, पृ. 49
  75. सुत्तनिपात, अध्याय 2, पृ. 523
  76. कैंब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया, भाग 1, पृ. 213
  77. महावस्तु, 3, 286
  78. जातक, खंड 3, पृ. 384
  79. जातक, खंड 4, पृ. 2, काशी का इतिहास, पृ. 49
  80. महावग्ग, 10/2/3
  81. दीघनिकाय, भाग 3, 60। 1-10 (नालंदा)
  82. संयुक्तनिकाय (हिंदी अनुवाद), दूसरा भाग, पृ. 641
  83. ‘‘वाराणसियं किर कप्पासो पि मृदु, सुत्तकत्तिकायो पि तत्तवायो पि छेका। उदकंपि सुचिसिनिद्धं, तस्मां वत्थं उभतो भावविमट्ठं होति। द्वीस पस्सेसु मट्ठं मृदुसिनिद्धं खार्याते।’’ मज्झिमनिकाय, 2/3/7: देखें, भरत सिंह उपाध्याय, बुद्धकालीन भारतीय भूगोल, पृ. 368
  84. ‘‘...कासिकुत्तमधारिनि.... कस्सोहाय गच्छसि’’ -थेरीगाथा, पृ. 298
  85. 107- मिलिंदपन्हो, पृ0 222
  86. 108- अंगुत्तरनिकाय, जिल्द तीसरी, पृ. 391
  87. वाराणसीति यत् ख्यातं तम्मानं निगदामिव। दक्षिणातरयौ नयौ परणासिश्चपूर्णत:॥ - पद्मपुराण, काशी माहात्म्य 5/58
  88. अथर्ववेद, 4/7/1
  89. ऐंश्येंट ज्योग्राफी आफ इंडिया, (वाराणसी, 1963), पृष्ठ 367
  90. एम. जूलियन, लाइफ एंड पिलग्रिमेज आफ युवॉन्-च्वाङ्ग, 1/133,2/354
  91. महाभारत, 6/10/30
  92. शेरिंग, दि सेक्रेड सिटी आफ् बनारस, (लंदन, 1968), पृष्ठ 19
  93. मोतीचंद्र, काशी का इतिहास, (बंबई, प्रथम संस्करण, 1962 ई.) पृष्ठ 4
  94. यस्य आयाम:। 2/1/16, अष्टाध्यायी पाणिनि
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  96. जेम्स लेग्गे, ट्रेवेल्स् आफ् फाह्यान, (दिल्ली, 1972, द्वितीय संस्करण), पृष्ठ 94
  97. ‘‘काशस्य काशयो राजन् पुत्रोदीर्घतपस्तथा।’’ – हरिवंशपुराण, अध्याय 29
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  99. डायना एल इक, बनारस सिटी आफ् लाइट (न्यूयार्क, 1982), प्रथम संस्करण, पृष्ठ 4
  100. एम. ए. शेरिंग, दि सेक्रेड सिटीज आफ दि हिंदूज, (लंदन, 1968) पृष्ठ 19-34
  101. जे. मरडाक, काशी और बनारस (1894) पृष्ठ 5
  102. ई. ग्रीब्ज, काशी, इलाहाबाद, 1909, पृष्ठ 3-4
  103. ए. पारकर, ए हैंडबुक आफ बनारस, पृष्ठ 2
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