अपनी बात -आदित्य चौधरी

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अपनी बात



        कभी-कभी ऐसा होता है कि खोजने हम कुछ और निकलते हैं और खोज कुछ और लेते हैं। जैसे मनुष्य ने 'अमृत' खोजना चाहा। ‘अमृत’ एक ऐसा पेय पदार्थ जिसे कोई पी ले तो अमर हो जाये और इसकी खोज में मनुष्य ने बेहिसाब दिमाग़ लगाया, अथाह समय लगाया। अमृत तो नहीं मिला, लेकिन पूरा चिकित्सा विज्ञान खोज लिया गया। वो चाहे आयुर्वेद हो, कोई होम्योपैथी हो या ऐलोपैथी हो, कोई भी चिकित्सा पद्धति हो। अमृत की खोज की और मिल गया चिकित्सा विज्ञान। ज्यों का त्यों अमृत तो नहीं मिला लेकिन मनुष्य ने अपनी औसत आयु बीसों साल बढ़ा ली और धीरे-धीरे बढ़ती ही चली जा रही है। इसी तरह से मनुष्य की चाहत थी ‘पारस पत्थर’ खोजने की। ‘पारस पत्थर’ एक ऐसा पत्थर जिससे लोहे को छू लें तो लोहा सोना बन जाय। ऐसा पारस पत्थर बहुत खोजा गया, उसे बनाने की बहुत कोशिश हुई। पारस पत्थर तो नहीं मिला और मिलने की कोई सम्भावना भी नहीं है, लेकिन पूरा रसायन विज्ञान इसी खोज का परिणाम है। मनुष्य ने चिड़ियों को उड़ते देखा तो उसने उड़ना चाहा। इस उड़ने की खोज में तमाम तरह के उसने प्रयास किये और उसने सारा भौतिक विज्ञान और गणित खोज लिया। मनुष्य अगर खुद नहीं उड़ पाया तो उसने एक हवाई ज़हाज़ और रॉकेट ऐसा बना दिया जिसमें उसने उड़ना शुरू कर दिया और अंतरिक्ष में चन्द्रमा तक जा पहुँचा। हम खोजना तो कुछ और चाहते हैं और पहुँच कहीं और जाते हैं।
 
        इसी तरह हमने भी भारत संबंधी जानकारी की तलाश इंटरनेट पर 'हिन्दी भाषा' में की। अंग्रेज़ी में तमाम सामग्री मिली। विभिन्न देशों की इतनी सामग्री, कि आपको साधारण रूप से कोई किताब टटोलने की या किसी पुस्तकालय को खंगालने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। हमने खोजना चाहा कि क्या हमारे भारत की जानकारी भी इसी तरह ही इंटरनेट पर उपलब्ध होगी? हमें वो सामग्री काफ़ी हद तक अंग्रेज़ी में ही मिली, हिन्दी में नहीं मिली। हिन्दी में जो भी मिली वो बड़े ख़स्ता हाल, टूटी-फूटी जानकारियाँ, संदिग्ध जानकारियाँ और बिखरी हुई थीं। कहीं किसी बेवसाइट पर, कहीं किसी ब्लॉग पर, कहीं किसी 'इंटरनेट पर उपलब्ध पुस्तक' में मिली।

        तो भारतकोश बनने की कहानी इस तरह शुरू हुई कि इंटरनेट पर खोजने पर भारत संबंधी जो जानकारियाँ हमें चाहिए थी, हमें नहीं मिली। हमें चाहिए थीं, भारत का इतिहास, भूगोल, साहित्य, दर्शन, धर्म, संस्कृति, लोग, रहन सहन, खान-पान, तीज त्योहार आदि, जो नहीं मिला...। अनेक विकसित देशों की जानकारी उनकी अपनी भाषा में थी यदि नहीं थी तो केवल भारत की जानकारी हिन्दी में नहीं थी। ये खोज तो निराशाजनक रही लेकिन इस खोज का नतीजा जो निकला वह भारतकोश के रूप में आपके सामने है। बस यहीं से शुरू हो गया था भारतकोश का काम...

        भारत कोश पर जो टीम काम कर रही है, उसमें निश्चित रूप से विद्वानों का कोई दल काम नहीं कर रहा। भारत कोश के कार्यक्रम में मुख्यतया छात्र भाग ले रहे हैं। इन छात्रों का कम्प्यूटर सम्बंधित ज्ञान भी इतना परिष्कृत नहीं है जिसका कोई विशेष उल्लेख किया जाये। तो कैसे कर पा रहे हैं हम काम? हमारा काम फिर भी भारत सरकार, अनेक संस्थाओं और विद्वानों द्वारा सराहा जा रहा है। हमें जो संदेश आ रहे हैं- ब्लॉग और ई-मेल के माध्यम से, वे सभी प्रशंसा के आ रहे हैं। वो विद्वानों आदि के संदेश ही नहीं बल्कि उनके भी संदेश हैं जो साधारण पाठक हैं। ये संदेश केवल भारत से ही नहीं बल्कि सारे विश्व से आ रहे हैं। अनेक लोग भारत कोश के माध्यम से हिन्दी सीख रहे हैं, सीखना चाह रहे हैं। भारत कोश पर उपलब्ध जानकारी हिन्दी में है। हिन्दी के प्रति उनका रुझान बढ़ता जा रहा है।
        
        भारत कोश की गुणवत्ता का मुख्य कारण है, भारत कोश पर काम करने वालों की नेक नीयत। हमारी नीयत साफ़ और अच्छी है, इसलिए हम यह काम कर पा रहे हैं। हमारी योग्यताओं पर, हमारी कार्यक्षमताओं पर, हमारे भाषा ज्ञान पर, हमारी विद्वत्ता पर अनेक प्रश्न चिह्न लगाये जा सकते है, लेकिन हमारी निष्ठा, हमारे श्रम और हमारी नीयत पर कोई प्रश्न चिह्न लगा पाना सम्भव नहीं है। इसलिए हमारे काम की गुणवत्ता दिन ब दिन अच्छी होती जा रही है।
 
        यह ठीक ऐसी ही स्थिति है जैसे प्रत्येक माँ अपने बच्चे को पालती है। बच्चे पालने की शिक्षा के लिए कहीं कोई कॉलेज या विश्वविद्यालय नहीं है लेकिन हर माँ अपना बच्चा पालती है। सभी माएँ अपने बच्चे को एक स्वभाविक रूप से अच्छी तरह से पालन पोषण कर उन्हें योग्य बनाने का पूरा प्रयास करती हैं, और बना भी देती हैं। कारण होता है बच्चे के प्रति वात्सल्य, उसकी निष्ठा, उसकी नीयत, वो हर क़ीमत पर हर परिस्थिति में अपने बच्चे के साथ पूरा न्याय करने की कोशिश करती है और बच्चे को अच्छी तरह से पाल लेती है। भारतकोश के लिए हमारी भावना वही है जो संतान के लिए होती है।

        ‘भारत राष्ट्र' के प्रति हमारा दृष्टिकोण वही है जो हमारे अपने माता-पिता के लिए होता है लेकिन 'भारत गणराज्य' 15 अगस्त, 1947 को जन्मा है और इसके जन्मदाता हम भारतवासी ही हैं। इसलिए हमें इसकी देखभाल संतान की तरह ही करनी चाहिए, इसके प्रति हमारी भावनाऐं वही होनी चाहिए जो अपनी संतान के प्रति होती हैं। बचपन में हम अपने माता-पिता के सामने झूठे या चोर हो सकते हैं। सब बच्चे बचपन में चोरी करते हैं, झूठ बोलते हैं, ऊटपटाँग तरीक़े से ऊधम करते हैं, लेकिन अपने बच्चों के सामने हम अच्छी मिसाल हमेशा बनना चाहते हैं। उनके सामने हम साफ़-सुथरे रहते हैं। किसी के भी माता-पिता से पूछा जाये तो माँ का जबाव होगा कि ये तो बचपन में झूठ बोलता था, बिना कपड़ों के घूमता था, गंदा-संदा रहता था, नहाता नहीं था, वग़ैरा-वग़ैरा।

        ठीक इसका उलट होता है जब हमारे बच्चों से हमारे बारे में पूछा जाता है तो वह हमेशा कहेंगे हमारे माता पिता तो चोर नहीं हो सकते, हमेशा साफ़-सुथरे रहते हैं, बड़े ईमानदार हैं, सच बोलते हैं आदि-आदि। ये सारी बातें इसलिए होती हैं, क्योंकि उनके सामने हमने अपनी छवि अच्छी बनाकर रखी है। जिस दिन हम ये सोचना शुरू कर देगें कि भारत गणराज्य हमारी संतान है, उसी दिन से सड़कों पर पान की पीक थूकने में, कोई हरा पेड़ काटने में और पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करने में हम सभी को कष्ट होगा। हम भारत गणराज्य के साथ भारत माता की सोच लेकर चलते हैं। माता के सामने तो बच्चा कैसे भी रह सकता है लेकिन अपनी संतान के सामने अपना आदर्श व्यक्तित्व ही रखता है।
 
हमने यही सोच भारत कोश के लिए बनाकर रखी है।

-आदित्य चौधरी

संस्थापक एवं प्रधान सम्पादक


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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