कन्नड़

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कन्नड़ एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- कन्नड़ (बहुविकल्पी)

कन्नड़ भाषा कन्नड़ी भी कहलाती है। दक्षिण-पश्चिम भारत के कर्नाटक राज्य की राजभाषा, जो दक्षिण द्रविड़ शाखा से सम्बद्ध है और साहित्यिक परम्परा वाली चार प्रधान द्रविड़ भाषाओं में दूसरी सबसे प्राचीन भाषा है। हालमिदी स्थित पहला कन्नड़ अभिलेख 450 ई. का है।

लिपि

कन्नड़ लिपि का विकास अशोक की ब्राह्मी लिपि के दक्षिणी प्रकारों से हुआ है और तेलुगु लिपि से इसका निकट सम्बन्ध है। इन दोनों की उत्पत्ति एक प्राचीन कन्नड़ लिपि (10वीं शताब्दी) से हुई है। इस भाषा के विकास में तीन ऐतिहासिक चरणों की पहचान की गई है।

  • प्राचीन कन्नड़ (450-1200 ई.),
  • मध्य कन्नड़ (1200-1700 ई.) और
  • आधुनिक कन्नड़ (1700 ई. से वर्तमान काल तक)।

व्याकरण

कन्नड़ मुख्यतः कर्नाटक और इसके पड़ोसी राज्यों में बोली जाती है। तुलु और काडगु बोलने वालों की यह दूसरी भाषा है। 1997 में कन्नड़भाषी लोगों की संख्या अनुमानतः चार करोड़ साठ लाख थी। वाक्य में शब्द क्रम कर्ता–कर्म–क्रिया का होता है, जैसा अन्य द्रविड़ भाषाओं में है। क्रियाओं को पुरुष, वचन और लिंग के आधार पर चिह्नित किया जाता है। इस भाषा में मूर्धन्य व्यंजन होते हैं, उदाहरण के लिए, ट, ड और न की ध्वनियों का उच्चारण तालु पर मुड़ी हुई जिह्वा के छोर की स्थिति से होता है। जो एक ख़ास द्रविड़ लक्षण है। सबसे प्राचीन उपलब्ध व्याकरण नागवर्मा (आरम्भिक 12वीं शताब्दी) का है। केशिराज (1260 ई.) के शब्द मणि दर्पण को अब भी सम्मान प्राप्त है।

सामान्य बोलचाल

कन्नड़ के तीन क्षेत्रीय प्रकारों की पहचान की जा सकती है, दक्षिणी (मैसूर), उत्तरी (धारवाड़) और तटीय (मंगलोर)। सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक कारकों के आधार पर इस भाषा में बोलीगत भिन्नताएँ भी परिलक्षित होती हैं। इसी तरह से औपचारिक और सामान्य बोलचाल के प्रकार भी हैं। बंगलोर और मैसूर में बोली जाने वाली भाषा को उत्कृष्ट कोटि का माना जाता है।

कन्नड तथा कर्नाटक शब्दों की व्युत्पत्ति के संबंध में यदि किसी विद्वान्‌ का यह मत है कि 'कंरिदुअनाडु' अर्थात्‌ 'काली मिट्टी का देश' से कन्नड शब्द बना है तो दूसरे विद्वान्‌ के अनुसार 'कपितु नाडु' अर्थात्‌ 'सुगंधित देश' से 'कन्नाडु' और 'कन्नाडु' से 'कन्नड' की व्युत्पत्ति हुई है। कन्नड साहित्य के इतिहासकार आर.नरसिंहाचार ने इस मत को स्वीकार किया है। कुछ वैयाकरणों का कथन है कि कन्नड़ संस्कृत शब्द 'कर्नाट' का तद्भूव रूप है। यह भी कहा जाता है कि 'कर्णयो अटति इति कर्नाटक' अर्थात जो कानों में गूँजता है वह कर्नाटक है।

प्राचीन ग्रंथों में कन्नड, कर्नाट, कर्नाटक शब्द समानार्थ में प्रयुक्त हुए हैं। महाभारत में कर्नाट शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है।[1] दूसरी शताब्दी में लिखे हुए तमिल 'शिलप्पदिकारम्‌' नामक काव्य में कन्नड भाषा बोलनेवालों का नाम 'करुनाडर' बताया गया है। वराहमिहिर के बृहत्संहिता, सोमदेव के 'कथासरित्सागर' गुणाढय की पैशाची 'बृहत्कथा' आदि ग्रंथों में भी कर्नाट शब्द का बराबर उल्लेख मिलता है।

अंग्रेजी में कर्नाटक शब्द विकृत होकर कर्नाटिक अथवा केनरा, फिर केनरा से केनारीज़ बन गया है। उत्तरी भारत की हिंदी तथा अन्य भाषाओं में कन्नड़ शब्द के लिए कनाडी, कन्नडी, केनारा, कनारी का प्रयोग मिलता है। आजकल कर्नाटक तथा कन्नड शब्दों का निश्चित अर्थ में प्रयोग होता है–'कर्नाटक' प्रदेश का नाम है और 'कन्नड' भाषा का।

कन्नड भाषा तथा लिपि

द्राविड़ भाषा परिवार की भाषाएँ पंचद्राविड़ भाषाएँ कहलाती हैं। किसी समय इन पंचद्राविड भाषाओं में कन्नड, तमिल, तेलुगु, गुजराती तथा मराठी भाषाएँ सम्मिलित थीं। किंतु आजकल पंचद्राविड़ भाषाओं के अंतर्गत कन्नड़, तमिल, तेलुगु, मलयालम तथा तुलु मानी जाती हैं। वस्तुत: तुलु कन्नड की ही एक पुष्ट बोली है जो दक्षिण कन्नड जिले में बोली जाती है। तुलु के अतिरिक्त कन्नड की अन्य बोलियाँ हैं–कोडगु, तोड, कोट तथा बडग। कोडगु कुर्ग में बोली जाती है और बाकी तीनों का नीलगिरि जिले में प्रचलन है। नीलगिरि जिला तमिलनाडु राज्य के अंतर्गत है।

रामायण-महाभारत-काल में भी कन्नड बोली जाती थी, तो भी ईसा के पूर्व कन्नड का कोई लिखित रूप नहीं मिलता। प्रारंभिक कन्नड का लिखित रूप शिलालेखों में मिलता है। इन शिलालेखों में हल्मिडि नामक स्थान से प्राप्त शिलालेख सबसे प्राचीन है, जिसका रचनाकाल ४५० ई. है। सातवीं शताब्दी में लिखे गए शिलालेखों में बादामि और श्रवण बेलगोल के शिलालेख महत्वपूर्ण हैं। प्राय: आठवीं शताब्दी के पूर्व के शिलालेखों में गद्य का ही प्रयोग हुआ है और उसके बाद के शिलालेखों में काव्यलक्षणों से युक्त पद्य के उत्तम नमूने प्राप्त होते हैं। इन शिलालेखों की भाषा जहाँ सुगठित तथा प्रौढ़ है वहाँ उसपर संस्कृत का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। इस प्रकार यद्यपि आठवी शताब्दी तक के शिलालेखों के आधार पर कन्नड में गद्य-पद्य-रचना का प्रमाण मिलता है तो भी कन्नड के उपलब्ध सर्वप्रथम ग्रंथ का नाम 'कविराजमार्ग' के उपरांत कन्नड में ग्रंथनिर्माण का कार्य उत्तरोत्तर बढ़ा और भाषा निरंतर विकसित होती गई। कन्नड भाषा के विकासक्रम की चार अवस्थाएँ मानी गई हैं जो इस प्रकार है:

  1. अतिप्राचीन कन्नड[2],
  2. हळ कन्नड–प्राचीन कन्नड[3],
  3. नडु गन्नड मध्ययुगीन कन्नड[4], और
  4. होस गन्नड–आधुनिक कन्नड।[5]

चारों द्राविड भाषाओं की अपनी पृथक-पृथक लिपियाँ हैं। डॉ.एम.एच. कृष्ण के अनुसार इन चारों लिपियों का विकास प्राचीन अंशकालीन ब्राह्मी लिपि की दक्षिणी शाखा से हुआ है। बनावट की दृष्टि से कन्नड और तेलुगु में तथा तमिल और मलयालम में साम्य है। १३वीं शताब्दी के पूर्व लिखे गए तेलुगु शिलालेखों के आधार पर यह बताया जाता है कि प्राचीन काल में तेलुगु और कन्नड की लिपियाँ एक ही थी। वर्तमान कन्नड की लिपि बनावट की दृष्टि से देवनागरी लिपि से भिन्न दिखाई देती हैं, किंतु दोनों के ध्वनिसमूह में अधिक अंतर नहीं है। अंतर इतना ही है कि कन्नड में स्वरों के अतंर्गत 'ए' और 'ओ' के ्ह्रस्व रूप तथा व्यंजनों के अंतर्गत वत्स्य 'ल' के साथ-साथ मूर्धन्य 'ल' वर्ण भी पाए जाते हैं। प्राचीन कन्नड में 'र' और 'ळ' प्रत्येक के एक-एक मूर्धन्य रूप का प्रचलन था, किंतु आधुनिक कन्नड में इन दोनों वर्णो का प्रयोग लुप्त हो गया है। बाकी ध्वनिसमूह संस्कृत के समान है। कन्नड की वर्णमाला में कुल ४७ वर्ण हैं। आजकल इनकी संख्या बावन तक बढ़ा दी गई है।[6]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कर्नाटकश्च कुटाश्च पद्मजाला: सतीनरा:, सभापर्व, ७८, ९४; कर्नाटका महिषिका विकल्पा मूषकास्तथा, भीष्मपर्व ५८-५९
  2. आठवीं शताब्दी के अंत तक की अवस्था
  3. नवीं शताब्दी के आरंभ से १२वीं शताब्दी के मध्यकाल तक की अवस्था
  4. १२वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से १९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक की अवस्था
  5. १९वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से अब तक की अवस्था
  6. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 2 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 289 |

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