कथासरित्सागर

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कथासरित्सागर
कथासरित्सागर
विवरण 'कथासरित्सागर' संस्कृत कथा साहित्य का शिरोमणि ग्रंथ है। इसे गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' भी कहा जाता है। मिथक और इतिहास, यथार्थ व फंतासी, सच्चाई और इंद्रजाल का अनूठा संगम इसमें हुआ है।
लेखक सोमदेव भट्ट
रचना काल 1063 ई. और 1082 ई. के मध्य
भाषा संस्कृत
पद्य 21,388 पद्य हैं और इसे 124 तरंगों में बाँटा गया है।
चरित्र कथासरित्सागर की कहानियों में अनेक अद्भुत नारी चरित्र और इतिहास प्रसिद्ध नायकों की कथाएं हैं।
विशेष कथासरित्सागर का एक दूसरा संस्करण भी प्राप्त है, जिसमें 18 लंबक हैं। लंबक का मूल संस्कृत रूप 'लंभक' था।
अन्य जानकारी सोमदेव भट्ट ने सरल और अकृत्रिम रहते हुए आकर्षक एवं सुंदर रूप में 'कथासरित्सागर' के माध्यम से अनेक कथाएँ प्रस्तुत की हैं, जो निश्चित ही भारतीय मनीषा का एक अन्यतम उदाहरण है।

कथासरित्सागर विश्वकथा साहित्य को भारत की अनूठी देन है। यह संस्कृत कथा साहित्य का शिरोमणि ग्रंथ है, जिसकी रचना कश्मीरी पंडित सोमदेव भट्ट ने की थी। 'कथासरित्सागर' को गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' भी कहा जाता है। यह सबसे पहले प्राकृत भाषा में लिखा गया था। 'वृहत्कथा' संस्कृत साहित्य की परंपरा को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला ग्रन्थ है। गुणाढ्य को वाल्मीकि और व्यास के समान ही आदरणीय भी माना है।

भारतीय कथा परंपरा का महाकोश

'बृहत्कथा' भारतीय कथा परंपरा का महाकोश है। मिथक और इतिहास, यथार्थ और फंतासी, सच्चाई और इंद्रजाल का अनूठा संगम इसमें हुआ है। कथासरित्सागर की कहानियों में अनेक अद्भुत नारी चरित्र भी हैं और इतिहास प्रसिद्ध नायकों की कथाएं भी हैं। भारतीय समाज जितनी विविधता और बहुरंगी छटा में यहाँ प्रस्तुत है, उतना अन्य किसी प्राचीन कथा ग्रंथ में नहीं मिलता। कथासरित्सागर कथाओं की ऐसी मंजूषा प्रस्तुत करता है, जिसमें एक बड़ी मंजूषा के भीतर दूसरी, दूसरी को खोलने पर तीसरी निकल आती है। मूल कथा में अनेक कथाओं को समेट लेने की यह पद्धति रोचक भी है और जटिल भी।[1]

रचना काल

'कथासरित्सागर' कथा साहित्य का शिरोमणि ग्रंथ है। इसकी रचना कश्मीर में पंडित सोमदेव भट्ट ने त्रिगर्त अथवा कुल्लू कांगड़ा के राजा की पुत्री, कश्मीर के राजा अनंत की रानी सूर्यमती के मनोविनोदार्थ हेतु 1063 ई. और 1082 ई. के मध्य संस्कृत में की थी। कथासरित्सागर में 21,388 पद्य हैं और इसे 124 तरंगों में बाँटा गया है। इसका एक दूसरा संस्करण भी प्राप्त है, जिसमें 18 लंबक हैं। लंबक का मूल संस्कृत रूप लंभक था। विवाह द्वारा स्त्री की प्राप्ति 'लंभ' कहलाती थी और उसी की कथा के लिए लंभक शब्द प्रयुक्त होता था। इसीलिए 'रत्नप्रभा', 'लंबक', 'मदनमंचुका लंबक', 'सूर्यप्रभा लंबक' आदि अलग-अलग कथाओं के आधार पर विभिन्न शीर्षक दिए गए होंगे।[2]

शिव-पार्वती प्रसंग

एक समय पार्वती ने देखा कि आज शिव प्रसन्न हैं। बहुत हंस-हंस कर बोल रहे हैं, तो उन्होंने फिर वही अनुरोध दोहरा दिया, जो वे कई वर्षों से दोहरा रही थीं कि "हमें कोई सुंदर सी कथा सुनाइये न भगवन! ऐसी कथा जो किसी ने ना सुनी हो, किसी को न आती हो। कितने दिनों से कह रही हूँ आप से। आप बस टाल देते हैं।" शिव मुस्कुराये! फिर ध्यानमग्न हो गए।  बात तो सच थी। उमा कितने ही वर्षों से कहती आ रही हैं। कथा ऐसी हो कि मन लगा रहे। बड़ी भी हो, इतनी बड़ी कि सुनते-कहते गणनातीत समय निकल जाए। फिर कथा ऐसी भी हो कि किसी ने किसी से आज तक न कही हो, न किसी ने किसी से सुनी हो।[1]

शिव समाधि में डूबे और विद्याधरों की कथाएं एक-एक कर उनके चित्त में प्रकाशित होने लगीं। "यह क्या? अब तो आप सुन भी नहीं रहे हैं।" उन्हें मौन देखकर पार्वती ने तुनक कर कहा। शिव की समाधि भंग हुई। वे हँसे, फिर बोले- "चलो आज कथा सुना ही देते हैं।" "आप जब तब कथा जैसी कथा सुना देते हैं, वैसी नहीं। हमें आपसे बड़ी कथा सुननी है।" "हाँ, हाँ, बृहत्कथा सुनायेंगे... अब तो प्रसन्न हो। और जो किसी को न आती हो", शिव ने फिर हंस कर दोहराया। "किसी को नहीं सुनने दूंगी। अकेली मैं ही सुनूंगी।" पार्वती ने हठ किया। पार्वती के हठ के आगे भला भगवान शिव की चल सकती थी? पार्वती को साथ लेकर वे कैलाश पर्वत की अपनी गुफ़ा में बैठे तो बैठे ही रह गए। वे कथा सुनाते गए, सुनाते गए... पार्वती सुनती रहीं। दोनों को ध्यान ही नहीं रहा कि कितना समय बीत गया। दिन पर दिन, महीने पर महीने, वर्ष पर वर्ष। कथा ऐसी कि समाप्त होने को ना आये। गुफ़ा के द्वार पर नंदी पहरा देते रहे। किसी को भीतर आने की अनुमति नहीं दी गई। इस तरह पार्वती ने शिव से बृहत्कथा सुनी। सुन कर वे तृप्त हुईं, मुदित हुईं।

एक बार पार्वती, जया, विजया आदि के बीच बैठी थीं। उनके जी में आया कि शंकर के मुख से सुनी कथा इन लोगों को भी सुना दें। वे बोलीं- "चलो, मैं तुम लोगों को ऐसी कथा सुनाती हूँ, जो आज तक मेरे अतिरिक्त किसी ने नहीं सुनी है।" वे बृहत्कथा सुनाने लगीं। जया ने बीच में टोक कर कहा, "देवी, यह कथा तो मेरी सुनी हुई है और वह पार्वती को आगे की कथा बताने लगी। पार्वती पहले तो स्तब्ध रह गयीं, फिर विस्फारित नेत्रों से जया को ताकने लगीं। "तुझे यह कथा आती है?" डूबते स्वर में उन्होंने जया से पूछा। हाँ! यह कथा मैंने अपने पति पुष्पदंत से सुनी है। पार्वती की आँखें क्रोध से लाल हो उठीं, ओंठ कांपने लगे। ऐसा क्यों किया भगवान शिव ने? उन्होंने यही कथा पुष्पदंत को क्यों सुना दी? वे उठीं और आंधी की तरह भगवान शिव के सामने जा पहुंची। क्रोध और अपमान से रुंआसे स्वर में उन्होंने भगवान से कहा, "यह आपने क्या किया? आपने वह कथा अपने गणों को भी सुनाई है। ऐसा आपने क्यों किया?" मैंने तो वह कथा तुम्हारे अतिरिक्त कभी किसी को नहीं सुनाई। वह कथा तो सबको विदित है। पुष्पदंत ने जया को वही कथा सुनाई। ईर्ष्या से उमा की भौहें टेढ़ी हो गयी थीं। शिव मुग्ध हो कर उस ओर ताकते रह गए। फिर हंस कर बोले, "हमने अपने किसी गण को कभी भी बृहत्कथा नहीं सुनाई।" नंदी से कहो सारे गणों को हमारे समक्ष उपस्थित करें।

भय से थर थर कांपते पुष्पदंत ने सारे गणों की उपस्थिति में भगवान के आगे अपना अपराध स्वीकार कर लिया। जब भगवान देवी को कथा सुनाने का उपक्रम कर रहे थे, तभी वह उनके दर्शन के लिए पहुंचा था। नंदी ने गुफ़ा में जाने का निषेध किया था। तब वह अद्भुत कथा सुनने के लोभ से योगशक्ति से अदृश्य हो कर गुफ़ा में जा छिपा और उसने पूरी कथा सुन ली और फिर जया को उसने वही कथा सुनाई। नीच तेरा यह साहस! पार्वती के नेत्रों से चिंगारियां छूटने लगीं। पुष्पदंत की घिग्घी बंध गयी। उसके मित्र माल्यवान ने साहस किया और आगे बढ़ कर उमा भगवती के चरणों पर माथा रख दिया फिर कहा, इस मूर्ख ने कौतुहलवश यह धृष्टता कर डाली है माँ! इसका पहला अपराध क्षमा करें।" "अच्छा, तो तू इसका पक्ष ले रहा है। मैं तुम दोनों को शाप देती हूँ, तुम दोनों मनुष्य योनी में जा गिरो, जाओ।" शिव चुपचाप बैठे मुस्कुराते रहे। पार्वती और अपने गणों के बीच वे कुछ नहीं बोले।

पति को शाप मिलने की बात सुन जया दौड़ी हुई आई और रो-रो कर पार्वती से दया की भीख मांगने लगी। दोनों शापग्रस्त गणों ने भी माता के चरणों पर माथा टेक दिया। आखिर पार्वती द्रवित हुईं। शापमुक्ति का उपाय बताते हुए उन्होंने कहा, "सुप्रतीक नामक एक यक्ष शापग्रस्त होकर कानभूति के नाम से विन्ध्य के वन में पिशाच बन कर रहता है। सुनो पुष्पदंत, जब मनुष्य योनी में तुम उसे यही कथा सुना दोगे, तो तुम्हारी शापमुक्ति हो जाएगी। यह माल्यवान उस काणभूति से यह कथा सुनकर मनुष्योनी में इसका प्रचार करेगा, तब इसकी भी मुक्ति होगी।[1]

पुष्पदंत और माल्यवान उसी क्षण मनुष्य योनी में जा गिरे। बहुत समय बीत गया। पार्वती के मन में कचोट होती रहती थी कि नाहक तनिक-सी बात पर उन्होंने अपने पति के प्रिय सेवकों को मृत्यु लोक में निर्वासित कर दिया। एक दिन उन्होंने भगवान शिव से पूछ ही लिया, "उन दोनों गणों का क्या हुआ भगवन। वे लौट कर कैलाश कब आयेंगे?" शिव फिर मुस्कुराये और कहा, "पहले तो शाप दे दिया, अब करुणा से द्रवित हो रही हो। पर हमें अच्छा लगा। धरती पर जा कर हमारा पुष्पदंत तो बहुत बड़ा व्यक्ति बन गया।" अच्छा! चकित होकर पार्वती ने विस्फारित नयनों से उन्हें निहारते हुए कहा, "क्या बन गया वह?" वह देखो, शिव ने धरती की ओर बहुत नीचे दिखाते हुए कहा, "वहाँ विन्ध्य के वन में उस व्यक्ति को देख रही हो? पार्वती ने पूछा- "कौन है वह?" शिव बोले- "वह पुष्पदंत है। वह पाटलिपुत्र के राजा नन्द का मंत्री वररुचि बन गया है और वह उस शापग्रस्त यक्ष के पास तुम्हारी प्रिय कथाएं सुनाने जा रहा है। यह वररुचि कात्यायन के नाम से भी जाना जाता है। यह व्याकरण का पंडित बन गया है।"

वररुचि की कथा

वररुचि के मुँह से बृहत्कथा सुनकर पिशाच योनि में विन्ध्य के बीहड़ में रहने वाला यक्ष काणभूति शाप से मुक्त हुआ और उसने वररुचि की प्रशंसा करते हुए कहा, "आप तो शिव के अवतार प्रतीत होते हैं। शिव के अतिरिक्त ऐसी कथाएँ और कौन सुना सकता है! यदि गोपनीय न हो, तो आप अपनी कथा भी मुझे सुनाइए।" वररुचि ने कहा, "सुनो काणभूति, मैं तुम्हें अपनी रामकहानी भी सुना देता हूँ।"[3]

कौशाम्बी में सोमदत्त नामक ब्राह्मण रहते थे। वसुदत्ता उनकी पत्नी थी। यह ही मेरे पिता और माता थे। मेरे शैशव में ही पिता का स्वर्गवास हो गया। माता ने बड़े कष्ट उठाकर मुझे पाला। एक बार की बात है। दो बटोही हमारे घर आये। दोनों ब्राह्मण थे और बड़ी दूर से चलकर आ रहे थे। थके होने से हमने अपने घर उन्हें ठहरा लिया। रात का समय था। दूर से मृदंग की थाप सुनाई दी। सुनते ही मेरी माँ की आँखें आँसुओं से डबडबा आयीं और उसने मुझसे कहा, "बेटा, ये तुम्हारे पिता के मित्र नन्द हैं। ये बड़े अच्छे नर्तक हैं। गाँव में इनका नर्तन हो रहा है। मैं तो बच्चा ही था। उल्लसित होकर बोला, "माँ मैं नन्द चाचा का नर्तन देखने जाता हूँ। फिर तुमको उनके अभिनय के सारे संवाद अक्षरशः सुनाऊँगा और उनका नर्तन भी वैसा का वैसा ही करके दिखाऊँगा।" हम दोनों माँ-बेटे की बातचीत दोनों अभ्यागत सुन रहे थे। उनमें से एक ने बड़े कौतुक से पूछा, "माता, यह बालक क्या कह रहा है?" मेरी माता ने कहा, "मेरा बेटा वररुचि विलक्षण बुद्धि वाला है। एक बार जो भी देख और सुन लेता है, वैसा का वैसा ही यह तुरत याद कर लेता है।" मेरी परीक्षा लेने के लिए उस ब्राह्मण ने प्रातिशाख्य[4] का एक पाठ मेरे आगे बोला। मैंने सुना और जस का तस दोहरा दिया। तब तो वह ब्राह्मण मेरी माँ के चरणों पर गिर पड़ा और बोला, "माता, मैं व्याडि हूँ। यह मेरा मित्र इन्द्रदत्त है। हम दोनों ऐसे ही विलक्षण बुद्धि वाले व्यक्ति को खोज रहे हैं। आपके घर आकर हमारा जन्म सफल हो गया।" मेरी माँ के पूछने पर व्याडि ने अपना वृत्तांत इस प्रकार बताया-

"वेतस नामक नगर में देवस्वामी और करम्भक नामक दो ब्राह्मण भाई रहते थे, उनमें से एक का पुत्र मैं व्याडि हूँ और दूसरे का यह इन्द्रदत्त है। मेरे पिता तो मेरे जन्म के बाद ही चल बसे और उनके दु:ख में कुछ समय बाद इस इन्द्रदत्त के पिता ने भी देह त्याग दिया। पतियों के न रहने पर हम दोनों की माताएँ भी शोक में घुल-घुलकर चल बसीं। हम दोनों अनाथ हो गये। इधर-उधर भटकने लगे। धन हमारे पास बहुत था, विद्या नहीं थी। तो हम दोनों ने कुमार कार्तिकेय की आराधना की। एक दिन कार्तिकेय ने हमें स्वप्न में दर्शन दिये और बताया कि पाटलिपुत्र नामक नगर में, जहाँ राजा नन्द राज्य करता है, वहाँ 'वर्ष' नामक एक ब्राह्मण रहता है, उससे हम दोनों को विद्या मिल सकती है। हम दोनों पाटलिपुत्र पहुँचे। बहुत पूछताछ करने पर लोगों ने बताया कि वर्ष नाम का कोई मूर्ख रहता तो इसी नगर में है। जिस ढंग से पाटलिपुत्र के लोगों ने वर्ष का नाम लिया, उससे तो हमारा मन ही डूब गया। अस्तु किसी तरह वर्ष के घर का पता लगाकर हम वहाँ पहुँचे। वर्ष का घर चूहों के बिलों से भरा हुआ था। उसकी दीवारें जर्जर थीं और छप्पर तो लगभग उड़ ही गया था। उसी घर में वर्ष ध्यान लगाये हुए बैठे थे। उनकी पत्नी ने हमारा आतिथ्य किया। वह मूर्तिमती दुर्गति के समान लगती थी- धूसर देह, कृश काया और फटे-पुराने कपड़े। हमने उसे अपने आने का प्रयोजन बताया तो उसने कहा, "तुम लोग मेरे बेटों जैसे हो।[3] मैं तुम्हें अपनी कथा सुनाती हूँ। वर्ष की पत्नी ने अपनी कहानी इस प्रकार बतायी-

इसी पाटलिपुत्र नगर में शंकरस्वामी नामक ब्राह्मण रहता था। उसके दो पुत्र हुए, एक था मेरा पति 'वर्ष' और दूसरे 'उपवर्ष'। मेरे पति मूर्ख और दरिद्र निकल गये, जबकि छोटे भाई उपवर्ष बड़े विद्वान् और धनी थे। एक बार वर्षा का समय था। स्त्रियाँ इस ऋतु में गुड़ और आटे की पीठी से गुप्तांगों की मूर्तियाँ बनाकर हँसी-हँसी में मूर्ख ब्राह्मणों को दान देती हैं। यह कुत्सित रीति यहाँ चली आ रही है। मेरी देवरानी को और कोई ब्राह्मण नहीं मिला, तो उसने अपना जुगुप्सित दान अपने जेठ अर्थात् मेरे ही इन पतिदेव को दे दिया और ये मूर्खराज प्रसन्न होकर उसे घर भी ले आये।

'देवरानी के इस अपमानजनक व्यवहार से तो मेरे तन में आग लग गयी और मैंने अपने पति को खूब फटकारा। इन्हें भी अपनी मूर्खता और अज्ञान पर बड़ा पछतावा हुआ और ये कुमार कार्तिकेय की आराधना करने लगे। कुमार कार्तिकेय ने इन्हें वरदान दिया कि तुम्हें सारी विद्याएँ प्रकाशित हो जाएँगी, पर तुम्हें अपना सारा ज्ञान किसी श्रुतधर[5] को ही सबसे पहले बताना होगा।'

इतनी कथा सुनाकर वर्ष की पत्नी ने हम दोनों[6] से कहा, "तो पुत्रो, यदि तुम्हें मेरे पतिदेव से सारा ज्ञान अर्जित करना है, तो किसी श्रुतधर को खोजो। ये अपनी विद्या केवल उसी को बता सकते हैं, अन्य किसी को नहीं। वर्ष की पत्नी की बात सुनकर हमने सबसे पहले तो उसे सौ स्वर्णमुद्राएँ दीं, जिससे उसकी दरिद्रता कुछ समय के लिए दूर हो सके। तब से हम किसी श्रुतधर बालक को खोज रहे हैं। वररुचि ने काणभूति से कहा, व्याडि तथा इन्द्रदत्त की इतनी कथा सुनकर मेरी माँ ने कहा- "पुत्रो, मेरे इस बेटे वररुचि के जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी कि यह वर्ष नामक उपाध्याय से सारी विद्याएँ प्राप्त करेगा। इतने वर्षों से मैं तो स्वयं इस चिन्ता में घुली जा रही हूँ कि वर्ष नाम के गुरु मेरे बेटे को कब और कहाँ मिलेंगे। तुम लोगों ने मेरी चिन्ता दूर कर दी। तुम इसे ले जाओ।" तब व्याडि और इन्द्रदत्त ने मेरी माँ को भी प्रचुर धन दिया और मुझे लेकर पाटलिपुत्र में वर्ष गुरुदेव के पास पहुँचे।

मैं, व्याडि तथा इन्द्रदत्त, तीनों उपाध्याय वर्ष के सामने पवित्र भूमि पर बैठे। वर्ष सारे शास्त्र बोलते चले गये और मैं एक बार सुनकर सब याद करता गया। व्याडि में किसी भी शास्त्र को दो बार सुनकर याद कर लेने की योग्यता थी और इन्द्रदत्त तीन बार सुनकर याद रख सकता था। मैं एक बार सुनकर स्मरण किये हुए शास्त्र को बाद में उन दोनों के सामने सुनाता, तो वे शास्त्र पहले व्याडि को याद हो जाते, फिर व्याडि उन्हें इन्द्रदत्त को सुनाता, तो तीसरी बार सुन लेने से इन्द्रदत्त को भी वे याद होते जाते। फिर क्या था, सारे पाटलिपुत्र में वर्ष के अद्भुत शास्त्रज्ञान और उसके साथ हमारी योग्यता की भी धूम मच गयी। समूह के समूह ब्राह्मण महाज्ञानी वर्ष के दर्शन के लिए आने लगे और जब यह सारी बात राजा नन्द को विदित हुई, तो उन्होंने वर्ष के घर को धन-धान्य से भर दिया।[3]

गुणाढ्य की 'बृहत्कथा'

'कथासरित्सागर' गुणाढ्‌य कृत 'बड़ कथा' (बृहत्कथा) पर आधृत है, जो पैशाची भाषा में थी। सोमदेव ने स्वयं कथासरित्सागर के आरंभ में कहा है- "मैं बृहत्कथा के सार का संग्रह कर रहा हूँ।" बड़ कथा की रचना गुणाढ्य ने सातवाहन राजाओं के शासनकाल में की थी, जिनका समय ईसा की प्रथम द्वितीय शती के लगभग माना जाता है। आंध्र-सातवाहन युग में भारतीय व्यापार उन्नति के चरम शिखर पर था। स्थल तथा जल मार्गों पर अनेक सार्थवाह नौकाएँ और पोत समूह दिन रात चलते थे। अत: व्यापारियों और उनके सहकर्मियों के मनोरंजनार्थ, देश-देशांतर-भ्रमण में प्राप्त अनुभवों के आधार पर अनेक कथाओं की रचना स्वाभाविक थी। गुणाढ्य ने सार्थों, नाविकों और सांयात्रिक व्यापारियों में प्रचलित विविध कथाओं को अपनी विलक्षण प्रतिभा से गुंफित कर, बड़ कथा के रूप में प्रस्तुत कर दिया था।

मूल 'बड़ कथा' अब प्राप्य नहीं है, परंतु इसके जो दो रूपांतर बने, उनमें चार अब तक प्राप्त हैं। इनमें सबसे पुराना बुधस्वामी कृत 'बृहत्कथा श्लोक संग्रह' है। यह संस्कृत में है और इसका प्रणयन, एक मत से, लगभग ईसा की पाँचवीं शती में तथा दूसरे मत से, आठवीं अथवा नवीं शती में हुआ। मूलत: इसमें 28 सर्ग तथा 4,539 श्लोक थे, किंतु अब यह खंडश: प्राप्त है। इसके कर्ता बुधस्वामी ने 'बृहत्कथा' को गुप्तकालीन स्वर्णयुग की संस्कृति के अनुरूप ढालने का यत्न किया है। 'बृहत्कथा श्लोक संग्रह' को विद्धान्‌ बृहत्कथा की नेपाली वाचना मानते हैं, किंतु इसका केवल हस्तलेख ही नेपाल में मिला है, अन्य कोई नेपाली प्रभाव इसमें दिखाई नहीं पड़ता।

'बृहत्कथा' के मूल रूप का अनुमान लगाने के लिए संघदासगणि कृत 'वसुदेव हिंडी' का प्राप्त होना महत्वपूर्ण घटना है। इसकी रचना भी 'बृहत्कथा श्लोक संग्रह' के प्राय: साथ ही या संभवत: 100 वर्ष के भीतर हुई। 'वसुदेव हिंड्डी' का आधार भी यद्यपि बृहत्कथा ही है, तो भी ग्रंथ के ठाट और उद्देश्य में काफ़ी फेरबदल कर दिया गया है। बृहत्कथा मात्र लौकिक कामकथा थी, जिसमें वत्सराज उदयन के पुत्र नरवाहनदत्त के विभिन्न विवाहों के आख्यान थे, लेकिन वसुदेव हिंडी में जैन धर्म संबंधी अनेक प्रसंग सम्मिलित करके, उसे धर्मकथा का रूप दे दिया गया है। इतना ही नहीं, इसका नायक नरवाहनदत्त न होकर, अंधक वृष्णि वंश के प्रसिद्ध पुरुष वसुदेव हैं। 'हिंडी' शब्द का अर्थ पर्यटन अथवा परिभ्रमण है। वसुदेव हिंडी में 29 लंबक हैं और महाराष्ट्री प्राकृत भाषा में गद्य शैली के माध्यम से लगभग 11,000 श्लोक प्रमाण की सामग्री में वसुदेव के 100 वर्ष के परिभ्रमण का वृत्तांत है, जिसमें वे 29 विवाह करते हैं। सब कुछ मिलाकर लगता है कि वसुदेव हिंडी बृहत्कथा का पर्याप्त प्राचीन रूपांतर है।[2]

वृहत्कथामंजरी

'वसुदेव हिंडी' के अनंतर क्षेमेंद्र कृत 'वृहत्कथामंजरी' का स्थान है। क्षेमेंद्र कश्मीर नरेश अनंत (1029-1064 ई.) की सभा के सभासद थे। उनका मूल नाम व्यासदास था। 'रामायणमंजरी', 'भारतमंजरी', 'अवदानकल्पलता', 'कलाविलास', 'देशोपदेश', 'नर्ममाला' और 'समयमातृका' नामक ग्रंथों में क्षेमेंद्र की प्रतिभा का उत्कृष्ट रूप मिलता है। क्षेमेंद्र कृत 'बृहत्कथामंजरी' में 18 लंबक हैं और उनके नाम भी सोमदेव के लंबकों से मिलते हैं। इसमें लगभग 7,540 श्लोक हैं और लेखक ने शब्दलाघव के माध्यम से संक्षेप में सुरुचिपूर्ण प्रेमकथाएँ प्रस्तुत की हैं, जिनका मूलाधार बृहत्कथा की कहानियाँ ही हैं।

लंबक

'कथासरित्सागर' में पहला लंबक कथापीठ है। गुणाढ्य संबंधी कथानक उसका विषय है, जिसमें पार्वती के शाप से शिव का गण पुष्पदंत वररुचि कात्यायन के रूप में जन्म लेता है और उसका भाई माल्यवान गुणाढ्य के नाम से उत्पन्न होता है। वररुचि विंध्य पर्वतमाला में काणभूति नामक पिशाच को शंकर द्वारा पार्वती को सुनाई गई सात कथाएँ सुनाता है। गुणाढ्य काण भूमि से उक्त कथाएँ सुनकर 'बृहत्कथा' की रचना करता है, जिसके छह भाग आग में नष्ट हो जाते हैं और केवल सातवाँ भाग ही शेष बचता है, जिसके आधार पर 'कथासरित्सागर' की रचना की जाती है।

दूसरा लंबक 'कथामुख' और तीसरा 'लावणक' है, जिसमें वत्सराज उदयन, उसकी रानी वासवदत्ता, मंत्री यौगंधरायण, पद्मावती आदि की कथाएँ हैं। चौथे लंबक में नरवाहनदत्त का जन्म है। शेष चतुर्दारिका, मदनमंचुका, रत्नप्रभा, सूर्यप्रभा, अलंकारवती, शक्तियशस्‌, वेला, शशांकवती, मदिरावती, पंच, महाभिषेक, सुरतमंजरी, पद्मावती तथा विषमशील इत्यादि लंबकों में नरवाहनदत्त के साहसिक कृत्यों, यात्राओं, विवाहों आदि की रोमांचक कथाएँ हैं, जिनमें अद्भुत कन्याओं और उनके साहसी प्रेमियों, राजाओं तथा नगरों, राजतंत्र एवं षड्यंत्र, जादू और टोने, छल एवं कपट, हत्या और युद्ध, रक्तपायी वेताल, पिशाच, यक्ष और प्रेत, पशुपक्षियों की सच्ची और गढ़ी हुई कहानियाँ एवं भिखमंगे, साधु, पियक्कड़, जुआरी, वेश्या, विट तथा कुट्टनी आदि की विविध कहानियाँ संकलित हैं। इतना ही नहीं, 'वेताल पंचविंशति' की 25 कहानियाँ तथा पंचतंत्र की भी अनेक कहानियाँ इसमें मिल जाती हैं। सी.एच.टानी और एन.एम.पेंजर ने 'कथासरित्सागर' का एक प्रामाणिक अंग्रेज़ी अनुवाद (1924-1928 ई.) 10 भागों में 'दि ओशन ऑव स्टोरी' नाम से प्रकाशित करवाया, जिसमें अनेक पाद-टिप्पणियों तथा निबंधों के माध्यम से भारतीय कथाओं एवं कथानक रूढ़ियों पर बहुमूल्य सामग्री जुटाई गई है।[2]

भाषा-शैली

सोमदेव की भाषा सरल एवं परिष्कृत है तथा उसमें क्षेमेन्द्र जैसी दुर्बोंधता नहीं मिलती। इसमें समासों की बहुलता का अभाव है। सोमदेव की शैली में अद्भुत आकर्षण है। दिन-प्रतिदिन के व्यवहार में आने वाली सुन्दर सूक्तियों का प्रयोग कवि ने किया है। स्थान-स्थान पर नीति विषयक उपदेशों की भरमार है। 'कथासरित्सागर' की कहानियों में अनेक अद्भुत नारी चारित्र भी हैं और इतिहास के प्रसिद्ध नायकों की कथाएँ भी। भारतीय समाज जितनी विविधता और बहुरंगी छटा में यहाँ प्रस्तुत है, उतना अन्य किसी प्राचीन कथा ग्रंथ में नहीं मिलता। 'कथासरित्सागर' कथाओं की ऐसी मंजूषा प्रस्तुत करता है, जिसमें एक बड़ी मंजूषा के भीतर दूसरी, दूसरी को खोलने पर तीसरी निकल आती है। मूल कथा में अनेक कथाओं को समेट लेने की यह पद्धति रोचक भी है और जटिल भी।

पुस्तक 'गुणाढ्य एवं बृहत्कथा'

फ़्रेंच विद्वान् लोकात ने 'गुणाढ्य एवं बृहत्कथा' नामक अपनी पुस्तक[7] में लिखा है-

"अपने दो काश्मीरी रूपांतरों, 'कथासरित्सागर' और 'बृहत्कथामंजरी' में गुणाढ्य की मूल 'बृहत्कथा' अत्यंत भ्रष्ट एवं अव्यवस्थित रूप में उपलब्ध है। इन ग्रंथों में अनेक स्थलों पर मूल ग्रंथ का संक्षिप्त सारोद्धार कर दिया गया है, और इनमें मूल ग्रंथ के कई अंश छोड़ भी दिए गए हैं एवं कितने ही नए अंश प्रक्षेप रूप में जोड़ दिए गए हैं। इस तरह मूल ग्रंथ की वस्तु और आयोजना में बेढंगे फेरफार हो गए। फलस्वरूप, इन काश्मीरी कृतियों में कई प्रकार की असंगतियाँ आ गईं और जोड़े हुए अंशों के कारण मूल ग्रंथ का स्वरूप पर्याप्त भ्रष्ट हो गया। इस स्थिति में बुधस्वामी के ग्रंथ में वस्तु की आयोजना द्वारा मूल प्राचीन बृहत्कथा का सच्चा चित्र प्राप्त होता है। किंतु खेद है कि यह चित्र पूरा नहीं है, क्योंकि बुधस्वामी के ग्रंथ का केवल चतुर्थांश ही उपलब्ध है। इसलिए केवल उसी अंश का काश्मीरी कृतियों के साथ तुलनात्मक मिलान शक्य है।"

अंत में कहा जा सकता है कि सोमदेव भट्ट ने सरल और अकृत्रिम रहते हुए आकर्षक एवं सुंदर रूप में 'कथासरित्सागर' के माध्यम से अनेक कथाएँ प्रस्तुत की हैं, जो निश्चित ही भारतीय मनीषा का एक अन्यतम उदाहरण है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 कथासरित्सागर, शिव-पार्वती प्रसंग (हिन्दी) राजभाषा हिन्दी। अभिगमन तिथि: 09 नवम्बर, 2014।
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 कथासरित्सागर (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 01 अगस्त, 2014।
  3. 3.0 3.1 3.2 कथा संस्कृति, खंड 5, कथासरित्सागर (भारत) (हिन्दी) हिन्दी समय। अभिगमन तिथि: 09 नवम्बर, 2014।
  4. वैदिक व्याकरण
  5. एक बार में सुनकर पूरा याद कर लेने वाले।
  6. व्याडि और इन्द्रदत्त
  7. 1908 ई. में प्रकाशित

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