पाटलिपुत्र

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पाटलीपुत्र अथवा पाटलिपुत्र प्राचीन समय से ही भारत के प्रमुख नगरों में गिना जाता था। पाटलीपुत्र वर्तमान पटना का ही नाम था। आज पटना भारत के बिहार प्रान्त की राजधानी है। आधुनिक पटना दुनिया के गिने-चुने उन विशेष प्रचीन नगरों में से एक है, जो अति प्राचीन काल से आज तक आबाद हैं। इस शहर का बहुत ही ऐतिहासिक महत्त्व है। ईसा पूर्व मेगास्थनीज (350 ई.पू.-290 ई.पू.) ने अपने भारत भ्रमण के पश्चात् लिखी अपनी पुस्तक 'इंडिका' में इस नगर का उल्लेख किया है। 'पलिबोथ्रा'[1], जो गंगा और 'अरेन्नोवास'[2] के संगम पर बसा था। उस पुस्तक के आकलनों से प्राचीन 'पटना'[3] 9 मील[4] लम्बा तथा 1.75 मील[5] चौड़ा था। आधुनिक पटना गंगा नदी के दक्षिणी किनारे पर स्थित है, जहाँ पर गंगा, घाघरा, सोन और गंडक जैसी सहायक नदियों से मिलती है। यहाँ पर गंगा नदी का स्वरूप नदी जैसा न होकर सागर जैसा विराट दिखता है- अनन्त और अथाह।

प्राचीनता

मगध राज्य की प्रसिद्ध राजधानी, जो सोन नदी और गंगा नदी के संगम पर वर्तमान पटना नगर के निकट थी। यहाँ के दुर्ग का निर्माण अजातशत्रु (494-467 ई. पूर्व के लगभग) ने कराया था। इसका राजधानी के रूप में विकास चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में हुआ। नगर की रक्षा के लिए चारों ओर एक खाई बनाई गई थी, जिसमें सोन नदी का पानी भरा रहता था। मैगस्थनीज़ ने इस नगर की बड़ी प्रशंसा की है। अशोक ने नगर के अंदर पत्थर का महल बनवाया था। पाँचवी शताब्दी में फ़ाह्यान उस महल को देखकर चकित रह गया था। गुप्त सम्राटों ने 320 ई. से 500 ई. तक यहाँ से राज्य किया। भारतीय इतिहास के इस स्वर्णिम काल में पाटलिपुत्र संस्कृत का मुख्य केंद्र था। सातवीं शताब्दी में इसका स्थान कन्नौज ने ले लिया और इसके बाद पाटलिपुत्र का महत्त्व घटता गया।

इतिहास

गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, बिहार में गंगा के उत्तर की ओर लिच्छवियों का 'वृज्जि गणराज्य' तथा दक्षिण की ओर 'मगध' का राज्य था। बुद्ध जब अंतिम बार मगध गए थे, तो गंगा और शोण नदियों के संगम के पास 'पाटलि' नामक ग्राम बसा हुआ था, जो 'पाटल' या 'ढाक' के वृक्षों से आच्छादित था। मगधराज अजातशत्रु ने लिच्छवी गणराज्य का अंत करने के पश्चात् एक मिट्टी का दुर्ग पाटलिग्राम के पास बनवाया, जिससे मगध की लिच्छवियों के आक्रमणों से रक्षा हो सके। बुद्धचरित से ज्ञात होता है कि यह क़िला मगधराज के मन्त्री वर्षकार ने बनवाया था।[6] अजातशत्रु के पुत्र 'उदायिन' या 'उदायिभद्र' ने इसी स्थान पर पाटलिपुत्र नगर की नींव डाली। पाली ग्रंथों के अनुसार भी नगर का निर्माण 'सुनिधि' और 'वस्सकार'[7] नामक मन्त्रियों ने करवाया था। पाली अनुश्रुति के अनुसार गौतम बुद्ध ने पाटलि के पास कई बार राजगृह और सैशाली के बीच आते-जाते गंगा को पार किया था और इस ग्राम की बढ़ती हुई सीमाओं को देखकर भविष्यवाणी की थी, कि यह भविष्य में एक महान् नगर बन जाएगा। अजातशत्रु तथा उसके वंशजों के लिए पाटलिपुत्र की स्थिति महत्त्वपूर्ण थी। अब तक मगध की राजधानी राजगृह थी, किंतु अजातशत्रु द्वारा वैशाली[8] तथा काशी की विजय के पश्चात् मगध के राज्य का विस्तार भी काफ़ी बढ़ गया था और इसी कारण अब राजगृह से अधिक केंद्रीय स्थान पर राजधानी बनाना आवश्यक हो गया था।

जैनग्रंथ का विवरण

जैनग्रंथ विविध तीर्थकल्प में पाटलिपुत्र के नामकरण के संबंध में एक मनोरंजक सा उल्लेख है। इसके अनुसार अजातशत्रु की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र उदायिन ने अपने पिता की मृत्यु के शोक के कारण अपनी राजधानी को चंपा से अन्यत्र ले जाने का विचार किया और शकुन बताने वालों को नई राजधानी बनाने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज में भेजा। ये लोग खोजते-खोजते गंगातट पर एक स्थान पर पहुंचे। वहाँ उन्होंने पुष्पों से लदा हुआ एक पाटल वृक्ष[9] देखा, जिस पर एक नीलकंठ बैठा हुआ कीड़े खा रहा था। इस दृश्य को उन्होंने शुभ शकुन माना और यहाँ पर मगध की नई राजधानी बनाने के लिए राजा को मन्त्रणा दी। फलस्वरूप जो नया नगर उदायिन ने बसाया, उसका नाम 'पाटलिपुत्र' या 'कुसुमपुर' रखा गया। विविधतीर्थ कल्प में चन्द्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार, अशोक और कुणाल को क्रमश: पाटलिपुत्र में राज करते बताया गया है।

जैन साधु स्थूलभद्र ने पाटलिपुत्र में ही तपस्या की थी। इस ग्रंथ में नंद और उसके वंश को नष्ट करने वाले चाणक्य का भी उल्लेख है। इनके अतिरिक्त सर्वकलाविद मूलदेव और अचल सार्थवाह श्रेष्ठी का नाम भी पाटलिपुत्र के संबंध में आया है। वायुपुराण के अनुसार 'कुसुमपुर' या 'पाटलिपुत्र' को उदायिन ने अपने राज्याभिषेक के चतुर्थ वर्ष में बसाया था। यह तथ्य 'गार्गी संहिता' की साक्षी से भी पुष्ट होता है। परिशिष्टपर्वन[10] के अनुसार भी इस नगर की नींव उदायिन ने डाली थी। पाटलिपुत्र का महत्त्व शोण-गंगा के संगम कोण में बसा होने के कारण, सुरक्षा और व्यापार, दोनों ही दृष्टियों से शीघ्रता से बढ़ता गया और नगर का क्षेत्रफल भी लगभग 20 वर्ग मील तक विस्तृत हो गया। श्री चिं.वि. वैद्य के अनुसार महाभारत के परवर्ती संस्करण के समय से पूर्व ही पाटलिपुत्र की स्थापना हो गई थी, किंतु इस नगर का नामोल्लेख इस महाकाव्य में नहीं है, जबकि निकटवर्ती राजगृह या गिरिव्रज और गया आदि का वर्णन कई स्थानों पर है।

मैगस्थनीज का उल्लेख

पाटलिपुत्र की विशेष ख्याति भारत के ऐतिहासिक काल के विशालतम साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य की राजधानी के रूप में हुई। चंद्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र की समृद्धि तथा शासन-सुव्यवस्था का वर्णन यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ ने भली-भांति किया है। उसमें पाटलिपुत्र के स्थानीय शासन के लिए बनी एक समिति की भी चर्चा की गई है। उस समय यह नगर 9 मील लंबा तथा डेढ़ मील चौड़ा एवं चर्तुभुजाकार था। चंद्रगुप्त के भव्य राजप्रासाद का उल्लेख भी मेगेस्थनीज ने किया है, जिसकी स्थिति डॉ. स्पूनर के अनुसार वर्तमान 'कुम्हरार' के निकट रही होगी। यह चौरासी स्तंभो पर आधृत था। इस समय नगर के चतुर्दिंक लकड़ी का परकोटा तथा जल से भरी हुई गहरी खाई भी थी। अशोक ने पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए दो प्रस्तर-स्तंभ प्रस्थापित किए थे। इनमें से एक स्तंभ उत्खनन में मिला भी है। अशोक के शासनकाल के 18वें वर्ष में 'कुक्कुटाराम' नामक उद्यान में 'मोगलीपुत्र तिस्सा'तिष्य के सभापतित्व में तृतीय बौद्ध संगीति[11] हुई थी।

मौर्य शासन

जैन धर्म की अनुश्रुति में भी कहा गया है कि पाटलिपुत्र में ही जैन धर्म की प्रथम परिषद का सत्र संपन्न हुआ था। इसमें जैन धर्म के आगमों को संग्रहीत करने का कार्य किया गया था। इस परिषद के सभापति 'स्थूरभद्र' थे। इनका समय चौथी शती ई.पू. में माना जाता है। मौर्य काल में पाटलिपुत्र से ही संपूर्ण भारत[12] का शासन संचालित होता था। इसका प्रमाण अशोक के भारत भर में पाए जाने वाले शिलालेख हैं। गिरनार के रुद्रदामन अभिलेख से भी ज्ञात होता है कि मौर्य काल में मगध से सैकड़ों मील दूर सौराष्ट्र प्रदेश में भी पाटलिपुत्र का शासन चलता था।

मौर्यों के पश्चात् शुंगों की राजधानी भी पाटलिपुत्र में ही रही। इस समय यूनानी मेनेंडर ने साकेत और पाटलिपुत्र तक पहुँचकर देश को आक्रांत कर डाला, किंतु शीघ्र ही पुष्यमित्र शुंग ने इसे परास्त करके इन दोनों नगरों में भली प्रकार शासन स्थापित किया। गुप्त काल के प्रथम चरण में भी गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में ही स्थित थी। कई अभिलेखों से यह भी जान पड़ता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने, जो भागवत धर्म का महान् पोषक था, अपने साम्राज्य की राजधानी अयोध्या में बनाई थी। चीनी यात्री फ़ाह्यान ने, जो इस समय पाटलिपुत्र आया था, इस नगर के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि, "यहाँ के भवन तथा राजप्रासाद इतने भव्य एवं विशाल थे कि शिल्प की दृष्टि से उन्हें अतिमानवीय हाथों का बनाया हुआ समझा जाता था।"

  • गुप्त कालीन पाटलिपुत्र की शोभा का वर्णन संस्कृत के कवि 'वररुचि' ने इस प्रकार किया है-

'सर्ववीतभयै: प्रकृष्टवदनैर्नित्योत्सवव्यापृतै: श्रीमद्रत्नविभूषणांणगरचनै: स्त्रग्गंधवस्त्रोज्ज्वलै:,
कीडासौख्यपरायणैर्विरचित प्रख्यातनामा गुणैर्भूमि: पाटलिपुत्रचारूतिलका स्वर्गायते सांप्रतम्।

गुप्त काल में पाटलिपुत्र का महत्त्व गुप्त साम्राज्य की अवनति के साथ-साथ कम हो चला। तत्कालीन मुद्राओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि गुप्त साम्राज्य के ताम्र-सिक्कों की टकसाल समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में ही अयोध्या में स्थापित हो गई थी।

युवानच्वांग का विवरण

छठी शती ई. में हूणों के आक्रमण के कारण पाटलिपुत्र की समृद्धि को बहुत धक्का पहुँचा और उसका रहा-सहा गौरव भी जाता रहा। 630-645 ई. में भारत की यात्रा करने वाले चीनी पर्यटक युवानच्वांग ने 638 ई. में पाटलिपुत्र में सैंकड़ों खंडहर देखे थे और गंगा के पास दीवार से घिरे हुए इस नगर में उसने केवल एक सहस्त्र मनुष्यों की आबादी ही पाई। युवानच्वांग ने लिखा है कि पुरानी बस्ती को छोड़कर एक नई बस्ती बसाई गई थी। महाराज हर्ष ने पाटलिपुत्र में अपनी राजधानी न बनाकर 'कान्यकुब्ज' को यह गौरव प्रदान किया। 811 ई. के लगभग बंगाल के पाल नरेश धर्मपाल द्वितीय ने कुछ समय के लिए पाटलिपुत्र में अपनी राजधानी बनाई। इसके पश्चात् सैकड़ों वर्ष तक यह प्राचीन प्रसिद्ध नगर विस्मृति के गर्त में पड़ा रहा। 1541 ई. में शेरशाह ने पाटलिपुत्र को पुन: एक बार बसाया, क्योंकि बिहार का निवासी होने के कारण वह इस नगर की स्थिति के महत्त्व को भलीभंति समझता था। अब यह नगर 'पटना' कहलाने लगा और धीरे-धीरे बिहार का सबसे बड़ा नगर बन गया। शेरशाह से पहले बिहार प्रांत की राजधानी बिहार नामक स्थान में थी, जो पाल नरेशों के समय में 'उद्दंडपुर' नाम से प्रसिद्ध था। शेरशाह के पश्चात् मुग़ल काल में पटना ही स्थायी रूप से बिहार प्रांत की राजधानी रही। ब्रिटिश काल में 1892 में पटना को बिहार-उड़ीसा के संयुक्त सूबे की राजधानी बनाया गया।

उत्खनन कार्य

पटना में बांकीपुर तथा कुम्हरार के स्थान पर उत्खनन द्वारा अनेक प्राचीन अवशेष प्रकाश में आए हैं। चंद्रगुप्त मौर्य के समय के राजप्रासाद तथा नगर के काष्ठ निर्मित परकोटे के चिह्न भी डॉक्टर स्पूनर को 1912 में मिले थे। इनमें से कइर संरचनाएं काष्ठ के स्तंभों पर आधृत मालूम होती थी। वास्तव में मौर्यकालीन नगर कुम्हरार के स्थान पर ही बसा था। अशोककालीन स्तम्भ के खंडित अवशेष भी खुदाई में प्राप्त हुए थे। बौद्ध ग्रंथों में वर्णित 'कुक्कुटा राम'[13] के अतिरिक्त यहाँ कई अन्य बौद्धकालीन स्थान भी उत्खनन के परिणामस्वरूप प्रकाश में आए हैं। ऊगमसर के निकट पंचपहाड़ी पर कुछ प्राचीन खडंहर हैं, जिनमें अशोक के पुत्र महेंद्र के निवास-स्थान का सूचक एक टीला बताया जाता है, जिसे बौद्ध आज भी पवित्र मानते हैं। यहाँ प्राचीन सरोवरों में से रामसर[14] और श्यामसर[15] और मंगलसर आज भी स्थित हैं। गौतम-गोत्रीय जैनाचार्य स्थूलभद्र[16] के स्तूप के पास की भूमि कुछ उभरी हुई है, जिसे स्थानीय लोग 'कमलदह' कहते हैं। जनश्रुति है कि मैथिलकोकिल विद्यापति को इस तड़ाग[17] के कमल बहुत प्रिय थे। श्री का. प्र. जयसवाल-संस्था द्वारा 1953 की खुदाई में मौर्य प्रासाद के दक्षिण की ओर आरोग्यविहार मिला है, जिसका नाम यहाँ से प्राप्त मुद्राओं पर है। इन पर 'धन्वन्तरि' शब्द भी अंकित है। जान पड़ता है कि यहाँ रोगियों की परिचर्या होती थी।

अन्य तथ्य

'कुम्हरार के हाल' के उत्खनन से ज्ञात होता है कि प्राचीन पाटलिपुत्र दो बार नष्ट हुआ था। परिनिब्बान सुत्त में उल्लेख है कि बुद्ध की भविष्यवाणी के अनुसार यह नगर केवल बाढ़, अग्नि या पारस्परिक फूट से ही नष्ट हो सकता था। 1953 की खुदाई से यह प्रमाणित होता है कि मौर्य सम्राटों का प्रासाद अग्निकांड से नष्ट हुआ था। शेरशाह के शासनकाल की बनी हुई 'शहरपनाह' के ध्वंस पटना से प्राप्त हुए हैं। चौक थाना के पास मदरसा मस्जिद है, जो शायद 1626 ई. में बनी थी। इसी के निकट 'चहल सतून' नामक भवन था, जिसमें चालीस स्तंभ थे। इसी भवन में फ़र्रुख़सियर और शाहआलम को अस्तोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की गद्दी पर बिठाया गया था। बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के पिता हयातजंग की समाधि बेगमपुर में है। प्राचीन मस्जिदों में शेरशाह की मस्जिद और अंबर मस्जिद हैं। सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था। उनकी स्मृति में यहाँ एक गुरुद्वारा भी बना हुआ है। वायुपुराण में पाटलिपुत्र को 'कुसुमपुर' कहा गया है। कुसुम 'पाटल' या 'ढाक' का ही पर्याय है। कालिदास ने इस नगरी को 'पुष्पपुर' लिखा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पाटलिपुत्र
  2. सोनभद्र-हिरण्यवाह
  3. पलिबोथा
  4. 14.5 कि.मी.
  5. 2.8 कि.मी.
  6. बुद्धचरित 22,3
  7. वर्षकार
  8. उत्तर बिहार
  9. ढाक या किंशुक
  10. परिशिष्टपर्वन (जैकोबी द्वारा संपादित, पृ0 42
  11. महासम्मेलन
  12. गांधार सहित
  13. जहाँ अशोक के समय प्रथम बौद्ध संगीति हुई थी
  14. रामकटोरा
  15. सेवे
  16. कुछ विद्वानों के मत में ये बौद्ध थे
  17. सरोवर

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