चंद्रभाग मेला
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उड़ीसा राज्य के कोणार्क नगर के समीप समुद्र तट पर प्रतिवर्ष माघ मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को प्रातः क्षितिज में उगते हुए सूर्य का आभामंडल एक धार्मिक स्वरूप धारण करता है, जिसकी ओर श्रद्धा और भक्ति भाव से निहारते लाखों श्रद्धालुओं के जुड़े हाथ और "हरि बोल" का उच्चारण व्यक्ति को भाव विभोर कर देते हैं। अपने सात अश्वों के रश्मि रथ पर आरूढ़ दैविक आभा से पूर्ण सूर्यदेव की लाखों लोग इस तट पर कड़कड़ाती ठंड में अलख सबेरे से खड़े रहकर प्रतीक्षा करते हैं। इसी क्षण के लिए ही तो श्रद्धालु मीलों चलकर यहाँ पर आते हैं तथा असहनीय सर्दी और अन्य कष्टों को सहन करते हैं। जैसे ही सूर्य की ओजस्वी व शुभ किरणें अंधकार व धुँध को समाप्त कर धैर्यवान श्रद्धालुओं के हृदय में प्रतिष्ठित होती हैं, श्रद्धालुओं की इस पवित्र स्थल पर आकर पूजा करने की मनोकामना पूरी हो जाती है।
कोणार्क से लगभग तीन किमी. दूर एक तट पर माघ सप्तमी[1] के दिन से धार्मिक अनुष्ठानों के आयोजन का कार्य प्रारम्भ होता है। आज वह नदी दिखाई नहीं देती। शेष जो कुछ बचा है, उसे या तो एक कुंड या छोटी झील ही कहा जा सकता है। फिर भी इसके जल की शुद्धिकरण शक्ति पर संदेह नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि सैकड़ों, हज़ारों लोग यहाँ पर स्नानादि कर चित्त शुद्धि करते हैं। जिन्हें यहाँ स्थान नहीं मिलता, वे सौ मीटर दूर नदी में स्नान करते हैं। स्नान शुद्धि का यह धार्मिक कार्य प्रातः तीन बजे से ही प्रारम्भ हो जाता है। तत्पश्चात् अन्य लोगों की बारी आती है। प्रातः शुद्धिकरण के पश्चात् विशाल जनसमूह शुभ की अपेक्षा से बंगाल की खाड़ी की ओर मुख करता है तथा उनकी दृष्टि क्षितिज़ के प्रकाशवान भाग पर केन्द्रित होती है।
विशेष अनुष्ठान-पिण्ड पूजा
सूर्य दर्शन के बाद लगभग अस्सी प्रतिशत लोग घर वापस जाना प्रारम्भ करते हैं। रास्ते में वे रुककर स्थानीय नदी तट के पूजा स्थलों में भेंट अर्पित कर ठाकुरबाड़ी[2] जाते हैं, जहाँ अनुष्ठान अभी जारी होते हैं। इस समय नदी तट का दृश्य धीरे–धीरे परिवर्तित होता है। छोटे–छोटे समूहों में अधिकतर परिवार के लोग पंडों के इर्द–गिर्द दिखाई देते हैं। यही पंडे इन लोगों से पूजा इत्यादि करवाते हैं। रेत पर जगन्नाथ मन्दिर का चित्र खींचने के बाद गीली बालू के ढेरों को इसके अन्दर रखा जाता है। ये ढेर परिवार के लोगों का ही रूप होते हैं। इनके साथ ही मिट्टी के दिए जलाए जाते हैं तथा पुष्प रखे जाते हैं। नदी तट की इस ठहरी हुई प्रातः वेला में अब मछुवारों तथा रेत के टीले ही दिखाई देते हैं।
परिवार के लोग पंडों के मुत्रों को दोहराते हैं तथा ऐश्वर्य की कामना करते हैं। यह गतिविधि पन्द्रह मिनट से आधे घंटे तक चलती है।
मेले में अनुशासित प्रबन्ध
इस मेले में अधिकतर श्रद्धालु उड़ीसा प्रान्त के ही होते हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश तथा मध्य प्रदेश से भी यात्रियों के जत्थे यहाँ पर आते हैं। इनके अलावा अन्य यात्री भी प्रसिद्ध कोणार्क मन्दिर को देखने के लिए आते हैं। बहुत से भिखारी भी यहाँ पर होते हैं, परन्तु बहुत व्यवस्थित रूप से बैठते हैं। वे सभी रास्ते के किनारे पंक्तिबद्ध बैठे रहते हैं तथा यात्रियों को ध्यान दिलाते हैं कि यात्रा में उदार हृदयता ही सर्वप्रमुख व महत्त्वपूर्ण होती है। इनमें से कई संगीत व भजन गाते हैं तथा यात्रियों की भीड़ के साथ–साथ चलते हैं।
छोटे–छोटे ठेले लिए असंख्य दुकानदार इस अवसर को विशेष रूप से उत्साहपूर्ण बना देते हैं। बच्चों को फुसलाते खिलौने, थके–भूखे के लिए भोजन, आस्थावनों के लिए तावीज़ तथा अन्य स्मारिकाएँ यहाँ पर उपलब्ध होती हैं। दुकानें अच्छा व्यापार करती हैं। यात्री अतिथियों के सूखे गले को राहत देने के लिए नारियल पानी तथा इसकी कोमल गिरी होती है। यात्रियों की भीड़ एक दिन पहले की प्रातः से ही जुटनी प्रारम्भ हो जाती है। ऐसा पावन दिन तक जारी रहता है। ये लोग भिन्न–भिन्न वाहनों से आते हैं। अधिकतर लोग कोणार्क से तीन किमी. की दूरी पैदल ही तय करते हैं और यदि समय हो तो वे कोणार्क के सूर्य मन्दिर के दर्शन कर फिर आगे बढ़ते हैं। विशेषकर चंद्रभाग मेले में आते हुए वे ऐसा अवश्य ही करते हैं। इस मार्ग पर लोग जलाने की लकड़ी व मिट्टी के काले बर्तन भी ख़रीदते हैं। इनका प्रयोग सागरतट पर रात के समय किया जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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