रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय

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रानी लक्ष्मीबाई का जीवन परिचय
रानी लक्ष्मीबाई
पूरा नाम झांसी की रानी लक्ष्मीबाई
अन्य नाम मनु, मणिकर्णिका
जन्म 19 नवंबर, 1835
जन्म भूमि वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 17 जून, 1858[1]
मृत्यु स्थान ग्वालियर, मध्य प्रदेश
अभिभावक मोरोपंत तांबे और भागीरथी बाई
पति/पत्नी गंगाधर राव निवालकर
संतान दामोदर राव[2]
प्रसिद्धि रानी लक्ष्मीबाई मराठा शासित झांसी की रानी और भारत की स्वतंत्रता संग्राम की प्रथम वनिता थीं।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी रानी लक्ष्मीबाई का बचपन में 'मणिकर्णिका' नाम रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। विवाह के बाद इनका नाम 'लक्ष्मीबाई' हुआ।

रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर, 1835 को काशी के पुण्य व पवित्र क्षेत्र असीघाट, वाराणसी में हुआ था। इनके पिता का नाम 'मोरोपंत तांबे' और माता का नाम 'भागीरथी बाई' था। इनका बचपन का नाम 'मणिकर्णिका' रखा गया परन्तु प्यार से मणिकर्णिका को 'मनु' पुकारा जाता था। मनु की अवस्था अभी चार-पाँच वर्ष ही थी कि उसकी माँ का देहान्त हो गया। पिता मोरोपंत तांबे एक साधारण ब्राह्मण और अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय के सेवक थे। माता भागीरथी बाई सुशील, चतुर और रूपवती महिला थीं। अपनी माँ की मृत्यु हो जाने पर वह पिता के साथ बिठूर आ गई थीं। यहीं पर उन्होंने मल्लविद्या, घुड़सवारी और शस्त्रविद्याएँ सीखीं। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए उनके पिता मोरोपंत मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले जाते थे जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया था। बाजीराव मनु को प्यार से 'छबीली' बुलाने थे।

रानी लक्ष्मीबाई (1859)

शिक्षा

पेशवा बाजीराव के बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक आते थे। मनु भी उन्हीं बच्चों के साथ पढ़ने लगी। सात साल की उम्र में ही लक्ष्मीबाई ने घुड़सवारी सीखी। साथ ही तलवार चलाने में, धनुर्विद्या में निष्णात हुई। बालकों से भी अधिक सामर्थ्य दिखाया। बचपन में लक्ष्मीबाई ने अपने पिता से कुछ पौराणिक वीरगाथाएँ सुनीं। वीरों के लक्षणों व उदात्त गुणों को उसने अपने हृदय में संजोया। इस प्रकार मनु अल्पवय में ही अस्त्र-शस्त्र चलाने में पारंगत हो गई। अस्त्र-शस्त्र चलाना एवं घुड़सवारी करना मनु के प्रिय खेल थे।

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की प्रतिमा, इस्कॉन मन्दिर, बंगलोर

विवाह

समय बीता, मनु विवाह योग्य हो गयी। इनका विवाह सन् 1842 में झाँसी के राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ बड़े ही धूम-धाम से सम्पन्न हुआ। विवाह के बाद इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया। इस प्रकार काशी की कन्या मनु झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई बन गई। 1851 में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। किन्तु 1853 तक उनके पुत्र एवं पति दोनों का देहावसान हो गया। रानी ने अब एक दत्तक पुत्र लेकर राजकाज देखने का निश्चय किया, किन्तु कम्पनी शासन उनका राज्य छीन लेना चाहता था। रानी ने जितने दिन भी शासन किया। वे अत्यधिक सूझबूझ के साथ प्रजा के लिए कल्याण कार्य करती रही। इसलिए वे अपनी प्रजा की स्नेहभाजन बन गईं थीं। रानी बनकर लक्ष्मीबाई को पर्दे में रहना पड़ता था। स्वच्छन्द विचारों वाली रानी को यह रास नहीं आया। उन्होंने क़िले के अन्दर ही एक व्यायामशाला बनवाई और शस्त्रादि चलाने तथा घुड़सवारी हेतु आवश्यक प्रबन्ध किए। उन्होंने स्त्रियों की एक सेना भी तैयार की। राजा गंगाधर राव अपनी पत्नी की योग्यता से बहुत प्रसन्न थे।

विपत्तियाँ

सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया। सम्पूर्ण झाँसी आनन्दित हो उठा एवं उत्सव मनाया गया किन्तु यह आनन्द अल्पकालिक ही था। कुछ ही महीने बाद बालक गम्भीर रूप से बीमार हुआ और चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। झाँसी शोक के सागर में डूब गई। सन् 1853 में राजा गंगाधर राव का स्वास्थ्य बहुत बिगड़ने पर दरबारियों ने उन्हें पुत्र गोद लेने की सलाह दी। अपने ही परिवार के पांच वर्ष के एक बालक को उन्होंने गोद लिया और उसे अपना दत्तक पुत्र बनाया। इस बालक का नाम दामोदर राव रखा गया। पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की दूसरे ही दिन 21 नवंबर 1853 में मृत्यु हो गयी।

दयालु स्वभाव

रानी अत्यन्त दयालु भी थीं। एक दिन जब कुलदेवी महालक्ष्मी की पूजा करके लौट रही थीं, कुछ निर्धन लोगों ने उन्हें घेर लिया। उन्हें देखकर महारानी का हृदय द्रवित हो उठा। उन्होंने नगर में घोषणा करवा दी कि एक निश्चित दिन ग़रीबों में वस्त्रादि का वितरण कराया जाए।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 28 अप्रैल, 2013।
  2. 'दामोदर राव' दत्तक पुत्र था।

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