सांख्य दर्शन और चिकित्सा

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चरक संहिता में सांख्य दर्शन
अतिप्राचीन काल में ही सांख्य दर्शन का व्यापक प्रचार-प्रसार होने से ज्ञान के सभी पक्षों से संबंधित शास्त्रों में सांख्योक्त तत्त्वों की स्वीकृति तथा प्रकृति-पुरुष संबंधी मतों का उल्लेख है। चरक संहिता में शारीरस्थानम् में पुरुष के संबंध में अनेक प्रश्न उठाकर उनका उत्तर दिया गया है। जिसमें सांख्य दर्शन का ही पूर्ण प्रभाव परिलक्षित होता है। शारीरस्थानम् के प्रथम अध्याय में प्रश्न किया गया[1]-

कतिधा पुरुषों धीमन्! धातुभेदेन भिद्यते।
पुरुष: कारणं कस्मात् प्रभव: पुरुषस्य क:॥
किमज्ञो ज्ञ: स नित्य: किमनित्यो निदर्शित:।
प्रकृति: का विकारा: के, किं लिंगं पुरुषस्य य॥ इनके अतिरिक्त पुरुष की स्वतंत्रता, व्यापकता, निष्क्रियता, कतृर्त्व, साक्षित्व आदि पर प्रश्न उठाए गए। उनका उत्तर इस प्रकार दिया गया[2]
खादयश्चेतना षष्ठा धातव: पुरुष: स्मृत:।
चेतनाधातुरप्येक: स्मृत: पुरुषसंज्ञक:॥
पुनश्च धातुभेदेन चतुर्विशतिक: स्मृत।
मनोदशेन्द्रियाण्यर्था: प्रकृतिश्चाष्टधातुकी॥

  • यहाँ पुरुष के तीन भेद बताए गए हैं-
  1. षड्धातुज,
  2. चेतना धातुज तथा
  3. चतुर्विशतितत्त्वात्मक।
  • षड्धातुज पुरुष वास्तव में चेतनायुक्त पञ्चतत्त्वात्मक है। पांच महाभूत रूपी पुरि में रहने वाला आत्मतत्त्व, चेतना चिकित्सकीय दृष्टि से प्रयोत्य है।
  • दूसरा पुरुष एक धातु अर्थात चेतना तत्त्व मात्र है।
  • तीसरा पुरुष चौबीस तत्त्वयुक्त है। चौबीस तत्त्वयुक्त इस पुरुष को ही 'राशिपुरुष' भी कहा गया है। इस राशि पुरुष में कर्म, कर्मफल, ज्ञान सुख-दु:ख, जन्म-मरण आदि घटित होते हैं[3]। इन तत्त्वों के संयुक्त न रहने पर अर्थात मात्र चेतन तत्त्व की अवस्था में तो सुख-दु:खादि भोग ही नहीं होते[4] और नहीं चेतन तत्त्व का अनुमान ही संभव हैं। इस प्रकार से कथित पुरुष के मुख्य रूप से दो ही भेद माने जा सकते हैं।
  • षड्धातुज का तो चतुर्विंशतिक में या राशिपुरुष रूप में अन्तर्भाव हो जाता है। एक धातु रूप चेतन तत्त्व दूसरा पुरुष है इन दोनों की उत्पत्ति के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया-

प्रभवो न ह्यनादित्वाद्विद्यते परमात्मन:।
पुरुषो राशिसंज्ञस्तु मोहेच्छाद्वेषकर्मज:॥[5]
अनादि:पुरुषो नित्यो विपरीतस्तु हेतुज:
सदकारणवन्नित्यं दृष्टं हेतुजमन्यथा॥1/59
अव्यषक्तमात्मा क्षेत्रज्ञ: शाश्वतो विभुश्व्यय:।
तस्म्माद्यदन्यत्तद्व्यक्तं वक्ष्यते चापरं द्वयम्॥61

  • अनादिपुरुष (परमात्मा) तथा राशिपुरुष का यह वैधर्म्य विचारणीय है। ईश्वरकृष्ण की कारिका में पुरुष को व्यक्त के समान तथा विपरीत भी कहा गया है। व्यक्त को हेतुमत आदि कहकर तदनुरूप पुरुष है तद्विपरीत भी पुरुष है। न तो कारिका में और न ही शारीरस्थानम् के उपर्युक्त वर्णन में इन्हें एक ही पुरुष के लक्षण मानने का आग्रह संकेत है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. चरकसंहिता, शारीरस्थानम् 1/3, 4
  2. चरकसंहिता 16, 17
  3. चरकसंहिता 37, 38
  4. चरकसंहिता, क्रियोपभोगे भूतानां नित्यं पूरुषसंज्ञक:
  5. चरकसंहिता, शारीस्थानम 1/53

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