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सांख्य साहित्य

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सांख्य साहित्य

सांख्यप्रवचनभाष्य

  • सांख्यप्रवचनसूत्र पर आचार्य विज्ञानभिक्षु का भाष्य है। आचार्य विज्ञानभिक्षु ने सांख्यमत पुन: प्रतिष्ठित किया। विज्ञानभिक्षु का समय आचार्य उदयवीर शास्त्री के अनुसार सन् 1350 ई. के पूर्व का होना चाहिए। अधिकांश विद्वान इन्हें 15वीं-16वीं शताब्दी का मानते हैं। विज्ञानभिक्षु की कृतियों में सांख्यप्रवचनभाष्य के अतिरिक्त योगवार्तिक, योगसार संग्रह, विज्ञानामृतभाष्य, सांख्यसार आदि प्रमुख रचनायें हैं। सांख्य दर्शन की परंपरा में विज्ञानभिक्षु ने ही सर्वप्रथम सांख्यमत को श्रुति और स्मृतिसम्मत रूप में प्रस्तुत किया। सांख्य दर्शन पर लगे अवैदिकता के आक्षेप का भी इन्होंने सफलता पूर्वक निराकरण किया। अपनी रचनाओं के माध्यम से आचार्य ने सांख्य दर्शन का जो अत्यन्त प्राचीन काल में सुप्रतिष्ठित वैदिक दर्शन माना जाता था, का विरोध परिहार करते हुए परिमार्जन किया।
  • सांख्यकारिका-व्याख्या के आधार पर प्रचलित सांख्यदर्शन में कई स्पष्टीकरण व संशोधन विज्ञानभिक्षु ने किया। प्राय: सांख्यदर्शन में तीन अंत:करणों की चर्चा मिलती है। सांख्यकारिका में भी अन्त:करण त्रिविध[1] कहकर इस मत को स्वीकार किया। लेकिन विज्ञानभिक्षु अन्त:करण को एक ही मानते हैं। उनके अनुसार 'यद्यप्येकमेवान्त:करणं वृत्तिभेदेन त्रिविधं लाघवात्' सा.प्र.भा. 1/64)। आचार्य विज्ञानभिक्षु से पूर्व कारिकाव्याख्याओं के आधार पर प्रचलित दर्शन में दो ही शरीर सूक्ष्म तथा स्थूल मानने की परम्परा रही है। लेकिन आचार्य विज्ञानभिक्षु तीन शरीरों की मान्यता को युक्तिसंगत मानते हैं। सूक्ष्म शरीर बिना किसी अधिष्ठान के नहीं रहा सकता, यदि सूक्ष्म शरीर का आधार स्थूल शरीर ही हो तो स्थूल शरीर से उत्क्रान्ति के पश्चात् लोकान्तर गमन सूक्ष्म शरीर किस प्रकार कर सकता है? विज्ञानभिक्षु के अनुसार सूक्ष्म शरीर बिना अधिष्ठान शरीर के नहीं रह सकता अत: स्थूल शरीर को छोड़कर शरीर ही है[2]। । 'अङगुष्ठमात्र:पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जना हृदये सन्निविष्ट:[3]', अङ्गुष्ठमात्रं पुरुषं स[4]- आदि श्रुति-स्मृति के प्रमाण से अधिष्ठान शरीर की सिद्धि करते हैं।
  • अन्य सांख्याचार्यों से लिंग शरीर के विषय में विज्ञानभिक्षु भिन्न मत रखते हैं। वाचस्पति मिश्र, माठर, शंकराचार्य आदि की तरह अनिरुद्ध तथा महादेव वेदान्ती ने भी लिंग शरीर को अट्ठारह तत्त्वों का स्वीकार किया। इनके विपरीत विज्ञानभिक्षु ने सूत्र 'सप्तदशैकम् लिंगम्[5]' की व्याख्या करते हुए 'सत्रह' तत्त्वों वाला 'एक' ऐसा स्वीकार करते हैं। विज्ञानभिक्षु अनिरुद्ध की इस मान्यता की कि सांख्यदर्शन अनियतपदार्थवादी है- कटु शब्दों में आलोचना करते हैं[6] अनिरुद्ध ने कई स्थलों पर सांख्य दर्शन को अनियत पदार्थवादी कहा है। 'किं चानियतपदार्थवादास्माकम्[7]', 'अनियतपदार्थवादित्वात्सांख्यानाम्[8]' इसकी आलोचना में विज्ञानभिक्षु इसे मूढ़ प्रलाप घोषित करते हैं। उनका कथन है कि -'एतेन सांख्यानामनियतपदार्थाभ्युपगम इति मूढ़प्रलाप उपेक्षणीय:[9]' । विज्ञानभिक्षुकृत यह टिप्पणी उचित ही है। सांख्यदर्शन में वर्ग की दृष्टि से जड़ चेतन, अजतत्त्वों की दृष्टि से भोक्ता, भोग्य और प्रेरक तथा समग्ररूप से तत्त्वों की संख्या 24, 25 वा 26 आदि माने गए हैं। अत: सांख्य को अनियतपदार्थवादी कहना ग़लत है। हां, एक अर्थ में यह अनियत पदार्थवादी कहा जा सकता है यदि पदार्थ का अर्थ इन्द्रिय जगत् में गोचन नानाविधि वस्तु ग्रहण किया जाय। सत्त्व रजस् तमस् की परस्पर अभिनव, जनन, मिथुन, प्रतिक्रियाओं से असंख्य पदार्थ उत्पन्न होते हैं जिनके बारे में नियतरूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।
  • अनिरुद्ध प्रत्यक्ष के दो भेद-निर्विकल्प तथा सविकल्प, की चर्चा करते हुए सविकल्प प्रत्यक्ष को स्मृतिजन्य अत: मनोजन्य, मानते हैं। विज्ञानभिक्षु इसका खण्डन करते हैं। विज्ञानभिक्षु अनिरुद्धवृत्ति को लक्ष्य कर कहते हैं- 'कश्चित्तु सविकल्पकं तु मनोमात्रजन्यमिति' लेकिन 'निर्विकल्पकं सविकल्पकरूपं द्विविधमप्यैन्द्रिकम्' हैं। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने भोग विषयक अनिरुद्ध मत का भी विज्ञान भिक्षु की मान्यता से भेद का उल्लेख किया है[10]। तदनुसार अनिरुद्ध ज्ञान भोग आदि का संपाइन बुद्धि में मानते हैं। विज्ञानभिक्षु उक्त मत उपेक्षणीय कहते हुए कहते हैं। 'एवं हि बुद्धिरेव ज्ञातृत्वे चिदवसानो भोग: इत्यागामी सूत्रद्वयविरोध: पुरुषों प्रभाणाभावश्च। पुरुषलिंगस्य भोगस्य बुद्धावेव स्वीकारात्[11]'। यदि ज्ञातृत्व भोक्तृत्वादि को बृद्धि में ही मान लिया गया तब चिदवसानो भोग:[12] व्यर्थ हो जायेगा। साथ ही भोक्तृभावात् कहकर पुरुष की अस्तित्वसिद्धि में दिया गया प्रमाण भी पुरुष की अपेक्षा बुद्धि की ही सिद्धि करेगा। तब पुरुष को प्रमाणित किस तरह किया जा सकेगा।
  • सांख्य दर्शन को स्वतंत्र प्रधान कारणवादी घोषित कर सांख्यविरोधी प्रकृति पुरुष संयोग की असंभावना का आक्षेप लगाते हैं। विज्ञानभिक्षु प्रथम सांख्याचार्य है, जिन्होंने संयोग के लिए ईश्वरेच्छा को माना। विज्ञानभिक्षु ईश्वरवादी दार्शनिक थे। लेकिन सांख्य दर्शन में ईश्वर प्रतिषेध को वे इस दर्शन की दुर्बलता मानते हैं[13]। विज्ञानभिक्षु के अनुसार सांख्य दर्शन में ईश्वर का खण्डन प्रमाणापेक्षया ही है। ईश्वर की सिद्धि प्रमाणों (प्रत्यक्षानुमान) से नहीं की जा सकती इसलिए सूत्रकार ईश्वरासिद्धे:[14] कहते हैं। यदि ईश्वर की सत्ता की अस्वीकृत वांछित होती तो 'ईश्वराभावात्'- ऐसा सूत्रकार कह देते। इस प्रकार विज्ञानभिक्षु सांख्य दर्शन में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करके योग, वेदान्त तथा श्रुति-स्मृति की धारा में सांख्य दर्शन को ला देते हैं, जैसा कि महाभारत पुराणादि में वह उपलब्ध था। इस तरह विज्ञानभिक्षु सांख्य दर्शन को उसकी प्राचीन परम्परा के अनुसार ही व्याख्यायित करते हैं। ऐसा करके वे सांख्य, योग तथा वेदान्त के प्रतीयमान विरोधों का परिहार कर समन्वय करते हैं। प्रतिपाद्य विषय में प्रमुखता का भेद होते हुए भी सिद्धान्तत: ये तीनों ही दर्शन श्रुति-स्मृति के अनुरूप विकसित दर्शन हैं। अद्वैताचार्य शंकर ने विभिन्न आस्तिक दर्शनों का खण्डन करते हुए जिस तरह अद्वैतावाद को ही श्रुतिमूलक दर्शन बताया उससे यह मान्यता प्रचलित हो चली थी कि इनका वेदान्त से विरोध है। विज्ञानभिक्षु ही ऐसे प्रथम सांख्याचार्य हैं जिन्होंने किसी दर्शन को 'मल्ल' घोषित न कर एक ही धरातल पर समन्वित रूप में प्रस्तुत किया।
  1. सांख्यसूत्रवृत्तिसार-अनिरुद्धवृत्ति का सारांश ही है जिसके रचयिता महादेव वेदान्ती हैं।
  2. भाष्यसार विज्ञानभिक्षुकृत सांख्यप्रवचनभाष्य का सार है जिसके रचयिता नागेश भट्ट हैं।
  3. सर्वोपकारिणी टीका यह अज्ञात व्यक्ति की तत्त्वसमास सूत्र पर टीका है।
  4. सांख्यसूत्रविवरण तत्त्व समास सूत्र पर अज्ञात व्यक्ति की टीका है।
  5. क्रमदीपिका भी तत्त्वसमास सूत्र की टीका है कर्ता का नाम ज्ञात नहीं है।
  6. तत्त्वायाथार्थ्यदीपन- तत्वसमास को यह टीका विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावागणेश की रचना है यह भिक्षु विचारानुरूप टीका है।
  7. सांख्यतत्त्व विवेचना- यह भी तत्वसमास सूत्र की टीका है जिसके रचयिता षिमानन्द या क्षेमेन्द्र हैं।
  8. सांख्यतत्त्वालोक- सांख्ययोग सिद्धान्तों पर हरिहरानन्द आरण्य की कृति है।
  9. पुराणेतिहासयो: सांख्ययोग दर्शनविमर्श: - नामक पुस्तक पुराणों में उपलब्ध सांख्यदर्शन की तुलनात्मक प्रस्तुति है। इसके लेखक डॉ. श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी हैं। और इसका प्रकाशन, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से सन् 1979 ई. में हुआ।
  10. सांख्ययोगकोश:- लेखक आचार्य केदारनाथ त्रिपाठी वाराणसी से सन् 1974 ई. में प्रकाशित।
  11. श्रीरामशंकर भट्टाचार्य ने सांख्यसार की टीका तथा तत्त्वयाथार्थ्यदीपन सटिप्पण की रचना की। दोनों ही पुस्तकें प्रकाशित हैं[15]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कारिका 33
  2. वही- 1/12
  3. कठोपनिषद 1॥6। 17
  4. महाभारत वनपर्व 397/17
  5. 3/9
  6. सांख्यानामनियतपदार्थाम्युपगम इति मूढप्रलाप उपेक्षणीय:। सां.प्र.भा. 1/61
  7. सां. सू. 1/।45
  8. 5/85
  9. सा.प्र.भा. 1/61
  10. सां. द.इ. पृष्ठ 348-49
  11. सा.प्र.भा. 1/99
  12. सूत्र 1/104
  13. सां. प्र.भा. 1/92
  14. सूत्र 1/92
  15. आधुनिक काल में रचित अन्य कुछ रचनाओं के लिए द्रष्टव्य एन्सायक्लापीडिया आफ इण्डियन फिलासफी भाग-4

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