"हिंगलाज शक्तिपीठ": अवतरणों में अंतर
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==अंतिम पड़ाव== | ==अंतिम पड़ाव== | ||
माँ की गुफ़ा के अंतिम पड़ाव पर पहुँच कर यात्री विश्राम करते हैं। अगले दिन सूर्योदय से पूर्व अघोर नदी में [[स्नान]] करके पूजन सामग्री लेकर दर्शन हेतु जाते हैं। नदी के पार पहाड़ी पर माँ की गुफ़ा है। गुफ़ा के पास ही अतिमानवीय शिल्प-कौशल का नमूना माता हिंगलाज का महल है, जो यज्ञों द्वारा निर्मित माना जाता है। एक नितांत रहस्यमय नगर जो प्रतीत होता है, मानों पहाड़ को पिघलाकर बनाया गया हो। हवा नहीं, [[प्रकाश]] नही, परंतु रंगीन पत्थर लटकते हैं। वहाँ के फर्श भी [[रंग]]-बिरंगे हैं। दो पहाड़ियों के बीच रेतीली पगडण्डी। कहीं खजूर के वृक्ष, तो कही झाड़ियों के बीच पानी का सोता। उसके पार ही है माँ की गुफ़ा। सचमुच माँ की अपरम्पार कृपा से [[भक्त]] वहाँ पहुँचते हैं। कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर, गुफ़ा का द्वार आता है तथा विशालकाय गुफ़ा के अंतिम छोर पर वेदी पर दिया जलता रहता है। वहाँ पिण्डी देखकर सहज ही [[वैष्णो देवी]] की स्मृति आ जाती है। गुफ़ा के दो ओर दीवार बनाकर उसे एक संरक्षित रूप दे दिया गया है। माँ की गुफ़ा के बाहर विशाल शिलाखण्ड पर, [[सूर्य]]-[[चन्द्रमा]] की आकृतियाँ अंकित हैं। कहते हैं कि ये आकृतियाँ [[राम]] ने यहाँ [[यज्ञ]] के | माँ की गुफ़ा के अंतिम पड़ाव पर पहुँच कर यात्री विश्राम करते हैं। अगले दिन सूर्योदय से पूर्व अघोर नदी में [[स्नान]] करके पूजन सामग्री लेकर दर्शन हेतु जाते हैं। नदी के पार पहाड़ी पर माँ की गुफ़ा है। गुफ़ा के पास ही अतिमानवीय शिल्प-कौशल का नमूना माता हिंगलाज का महल है, जो यज्ञों द्वारा निर्मित माना जाता है। एक नितांत रहस्यमय नगर जो प्रतीत होता है, मानों पहाड़ को पिघलाकर बनाया गया हो। हवा नहीं, [[प्रकाश]] नही, परंतु रंगीन पत्थर लटकते हैं। वहाँ के फर्श भी [[रंग]]-बिरंगे हैं। दो पहाड़ियों के बीच रेतीली पगडण्डी। कहीं खजूर के वृक्ष, तो कही झाड़ियों के बीच पानी का सोता। उसके पार ही है माँ की गुफ़ा। सचमुच माँ की अपरम्पार कृपा से [[भक्त]] वहाँ पहुँचते हैं। कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर, गुफ़ा का द्वार आता है तथा विशालकाय गुफ़ा के अंतिम छोर पर वेदी पर दिया जलता रहता है। वहाँ पिण्डी देखकर सहज ही [[वैष्णो देवी]] की स्मृति आ जाती है। गुफ़ा के दो ओर दीवार बनाकर उसे एक संरक्षित रूप दे दिया गया है। माँ की गुफ़ा के बाहर विशाल शिलाखण्ड पर, [[सूर्य]]-[[चन्द्रमा]] की आकृतियाँ अंकित हैं। कहते हैं कि ये आकृतियाँ [[राम]] ने यहाँ [[यज्ञ]] के पश्चात् स्वयं अंकित किया था। | ||
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==धार्मिक महोत्सव== | ==धार्मिक महोत्सव== | ||
वहाँ प्रतिवर्ष [[अप्रॅल]] में धार्मिक महोत्सव का आयोजन होता है, जिसमें दूरदराज के इलाके से लोग आते हैं। हिंगुला देवी की यात्रा के लिए पारपत्र तथा वीज़ा | वहाँ प्रतिवर्ष [[अप्रॅल]] में धार्मिक महोत्सव का आयोजन होता है, जिसमें दूरदराज के इलाके से लोग आते हैं। हिंगुला देवी की यात्रा के लिए पारपत्र तथा वीज़ा ज़रूरी है। | ||
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10:46, 2 जनवरी 2018 के समय का अवतरण
हिंगलाज शक्तिपीठ
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वर्णन | पाकिस्तान स्थित 'हिंगलाज शक्तिपीठ' अज्ञात 108 एवं ज्ञात 51 पीठों में से एक है। इसका हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। |
स्थान | हिंगलाज, बलूचिस्तान, पाकिस्तान |
देवी-देवता | सती 'हिंगुला' तथा शिव 'भीमलोचन'। |
संबंधित लेख | शक्तिपीठ, सती |
पौराणिक मान्यता | मान्यतानुसार यह माना जाता है कि इस स्थान पर देवी सती का 'ब्रह्मरंध्र' गिरा था। |
अन्य जानकारी | हिंगलाज की यात्रा कराची से प्रारंभ होती है। कराची से लगभग 10 किलोमीटर दूर हॉव नदी है। वस्तुतः मुख्य यात्रा वहीं से होती है। हिंगलाज जाने के पहले लासबेला में माता की मूर्ति का दर्शन करना होता है। |
हिंगलाज शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहाँ-जहाँ सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ अस्तित्व में आये। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। 'देवीपुराण' में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है।
स्थिति
यह शक्तिपीठ 25.3° अक्षांश, 65.31° देशांतर के पूर्वमध्य, सिंधु नदी के मुहाने पर (हिंगोल नदी के तट पर) पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के 'हिंगलाज' नामक स्थान पर, कराची से 144 किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। कराची से फ़ारस की खाड़ी की ओर जाते हुए मकरान तक जलमार्ग तथा आगे पैदल जाने पर 7वें मुकाम पर चंद्रकूप तीर्थ है। अधिकांश यात्रा मरुस्थल से होकर तय करनी पड़ती है, जो अत्यंत दुष्कर है। आगे 13वें मुकाम पर हिंगलाज है। यहीं एक गुफ़ा के अंदर जाने पर देवी का स्थान है।
पौराणिक उल्लेख
पुराणों में हिंगलाज पीठ की अतिशय महिमा है। 'श्रीमद्भागवत' के अनुसार यह हिंगुला देवी का प्रिय महास्थान है- 'हिंगुलाया महास्थानम्'। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि हिंगुला देवी के दर्शन से पुनर्जन्म कष्ट नहीं भोगना पड़ता है। बृहन्नील तंत्रानुसार यहाँ सती का "ब्रह्मरंध्र" गिरा था। यहाँ पर शक्ति 'हिंगुला' तथा शिव 'भीमलोचन' हैं-
'ब्रह्मरंध्रं हिंगुलायां भैरवो भीमलोचनः।
कोट्टरी सा महामाया त्रिगुणा या दिगम्बरी॥[1]
ज्योति के दर्शन
इस शक्तिपीठ में शक्तिरूप ज्योति के दर्शन होते हैं। गुफ़ा में हाथ व पैरों के बल जाना होता है। मुसलमान हिंगुला देवी[2]को 'नानी' तथा वहाँ की यात्रा को 'नानी का हज' कहते हैं। पूरे बलूचिस्तान के मुसलमान भी इनकी उपासना व पूजा करते हैं।
यात्रा का प्रारम्भ
हिंगलाज की यात्रा कराची से प्रारंभ होती है। कराची से लगभग 10 किलोमीटर दूर हॉव नदी है। वस्तुतः मुख्य यात्रा वहीं से होती है। हिंगलाज जाने के पहले लासबेला में माता की मूर्ति का दर्शन करना होता है। यह दर्शन 'छड़ीदार' (पुरोहित) कराते हैं। वहाँ से शिवकुण्ड (चंद्रकूप) जाते हैं, जहाँ अपने पाप की घोषणा कर नारियल चढ़ाते हैं। जिनकी पाप मुक्ति हो गई और दरबार की आज्ञा मिल गई, उनका नारियल तथा भेंट स्वीकार हो जाती है वरना नारियल वापस लौट आता है।
चंद्रकूप
हिंगुलाज को 'आग्नेय शक्तिपीठ तीर्थ' भी कहते हैं, क्योंकि वहाँ जाने से पूर्व अग्नि उगलते चंद्रकूप पर यात्री को जोर-जोर से अपने गुप्त पापों का विवरण देना पड़ता है तथा भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न करने का वचन भी देना पड़ता है। जो अपने पाप छिपाते हैं, उन्हें आज्ञा नहीं मिलती और उन्हें वहीं छोड़कर अन्य यात्री आगे बढ़ जाते हैं। इसके बाद चंद्रकूप दरबार की आज्ञा मिलती है। चंद्रकूप तीर्थ पहाड़ियों के बीच में धूम्र उगलता एक ऊँचा पहाड़ है। वहाँ विशाल बुलबुले उठते रहते हैं। आग तो नहीं दिखती, किंतु अंदर से यह खौलता, भाप उगलता ज्वालामुखी है।
प्रमुख शक्तिपीठ
देवी के शक्तिपीठों में कामाख्या, काँची, त्रिपुर, हिंगुला प्रमुख शक्तिपीठ हैं। 'हिंगुला' का अर्थ सिन्दूर है। हिंगलाज खत्री समाज की कुल देवी हैं। कहते हैं, जब 21 बार क्षत्रियों का संहार कर परशुराम आए, तब बचे राजागण माता हिंगुला की शरण में गए और अपनी रक्षा की याचना की। तब माँ ने उन्हें 'ब्रह्मक्षत्रिय' कहकर अभयदान दिया।
जनश्रुति
माँ के मंदिर के नीचे अघोर नदी है। कहते हैं कि रावण के वध के पश्चात् ऋषियों ने राम से ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति हेतु हिंगलाज में यज्ञ करके कबूतरों को दाना चुगाने को कहा। श्रीराम ने वैसे ही किया। उन्होंने ग्वार के दाने हिंगोस नदी में डाले। वे दाने ठूमरा बनकर उभरे, तब उन्हें ब्रह्महत्यादोष से मुक्ति मिली। वे दाने आज भी यात्री वहाँ से जमा करके ले जाते हैं।
अंतिम पड़ाव
माँ की गुफ़ा के अंतिम पड़ाव पर पहुँच कर यात्री विश्राम करते हैं। अगले दिन सूर्योदय से पूर्व अघोर नदी में स्नान करके पूजन सामग्री लेकर दर्शन हेतु जाते हैं। नदी के पार पहाड़ी पर माँ की गुफ़ा है। गुफ़ा के पास ही अतिमानवीय शिल्प-कौशल का नमूना माता हिंगलाज का महल है, जो यज्ञों द्वारा निर्मित माना जाता है। एक नितांत रहस्यमय नगर जो प्रतीत होता है, मानों पहाड़ को पिघलाकर बनाया गया हो। हवा नहीं, प्रकाश नही, परंतु रंगीन पत्थर लटकते हैं। वहाँ के फर्श भी रंग-बिरंगे हैं। दो पहाड़ियों के बीच रेतीली पगडण्डी। कहीं खजूर के वृक्ष, तो कही झाड़ियों के बीच पानी का सोता। उसके पार ही है माँ की गुफ़ा। सचमुच माँ की अपरम्पार कृपा से भक्त वहाँ पहुँचते हैं। कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर, गुफ़ा का द्वार आता है तथा विशालकाय गुफ़ा के अंतिम छोर पर वेदी पर दिया जलता रहता है। वहाँ पिण्डी देखकर सहज ही वैष्णो देवी की स्मृति आ जाती है। गुफ़ा के दो ओर दीवार बनाकर उसे एक संरक्षित रूप दे दिया गया है। माँ की गुफ़ा के बाहर विशाल शिलाखण्ड पर, सूर्य-चन्द्रमा की आकृतियाँ अंकित हैं। कहते हैं कि ये आकृतियाँ राम ने यहाँ यज्ञ के पश्चात् स्वयं अंकित किया था।
द्वादश रूप
ऐसी मान्यता है कि वहाँ आसाम की कामाख्या, तमिलनाडु की कन्याकुमारी, काँची की कामाक्षी, गुजरात की अम्बाजी, प्रयाग की ललिता, विन्ध्याचल की विन्ध्यवासिनी, काँगड़ा की ज्वालामुखी, वाराणसी की विशालाक्षी, गया की मंगलादेवी, बंगाल की सुंदरी, नेपाल की गुह्येश्वरी और मालवा की कालिका इन द्वादश रूपों में आद्याशक्ति ही हिंगला देवी के रूप में सुशोभित हो रही हैं।
धार्मिक महोत्सव
वहाँ प्रतिवर्ष अप्रॅल में धार्मिक महोत्सव का आयोजन होता है, जिसमें दूरदराज के इलाके से लोग आते हैं। हिंगुला देवी की यात्रा के लिए पारपत्र तथा वीज़ा ज़रूरी है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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