"काका तरंग -काका हाथरसी": अवतरणों में अंतर
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14:11, 30 जुलाई 2013 के समय का अवतरण
काका तरंग -काका हाथरसी
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कवि | काका हाथरसी |
मूल शीर्षक | काका तरंग |
प्रकाशक | डायमंड पॉकेट बुक्स |
ISBN | 81-7182-513-3 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 120 |
भाषा | हिन्दी |
शैली | हास्य |
काका तरंग हिन्दी के प्रसिद्ध हास्य कवि काका हाथरसी की कुछ कविताओं का संग्रह है। ख्याति प्राप्त हास्य कवि काका हाथरसी की कविताओं की यह विशेषता है कि वे पाठकों को बाँधने की अद्भुत क्षमता रखती हैं। इस महाकवि के कृतित्व के विशाल सागर से बटोरी गई कुछ तरंगें 'काका तरंग' पुस्तक में संजोई गई हैं।
लेखक के विषय में
विशिष्ट व्यक्तितत्व के स्वामी काका हाथरसी अपने अनूठे अंदाज़ के लिए प्रसिद्ध रहे थे। उन्होंने अपने ख़ास अंदाज़ में श्रोताओं के हज़ारों प्रश्नों के उत्तर दिए। अपनी अलगा-अलग काव्य शैली में आम आदमी की समझ में आ सकने वाली बात कहना उनकी बहुत बड़ी विशेषता थी। बनावटीपन और शब्दजाल से कोसों दूर काकाजी की आसान, मधुर और सहज भाषा ने उन्हें जन-जन का प्रिय बना दिया था। उनकी कविता में जनता को बाँध लेने की असाधारण क्षमता थी।
पुस्तक अंश
वर्ष 1989 में मेरी 42वीं पुस्तक ‘काका की महफ़िल’ पाठकों द्वारा इतनी पसंद की गई कि उसका लाइब्रेरी संस्करण भी छपकर देश-विदेश के पुस्तकालयों में पहुँच गया था। जब इस नई पुस्तक का नामकरण संस्कार करने पर विचार चल रहा था तो पुत्र डॉ. लक्ष्मीनारायण गर्ग ने सुझाव दिया कि आपका प्रोग्राम दूरदर्शन के हास्य सीरियल ‘रंग-तरंग’ में जब से प्रसारित हुआ है, प्रशंसा-पत्रों का तांता लग गया है। इस पुस्तक का नाम ‘काका तरंग’ ही रख दीजिए। बुढ़ापे में बच्चों की सीख मान लेनी चाहिए, क्योंकि उनकी अक्ल-शक्ल तरोताजा होती है, पिता या बाबा-दादा की बुद्धि बासी हो जाती है। इसलिए हमने अपने पुत्र की बात ली।[1]
शासन द्वारा 58 वर्ष के बाद कर्मचारी को रिटायर कर दिया जाता है, भले ही उसमें अभी कार्य कुशलता या दम-खम में कमी न आई हो, लेकिन नियम तो नियम हैं साब! हम भी अब रिटायर जीवन बिता रहे हैं। रिटायमेंट का लेबिल मन-मस्तिष्क के ऊपर चिपक जाने के बाद व्यक्ति की शक्ति खुद-ब-खुद कम होने लगती है, वह समझने लगता है कि अब हम बूढ़े हो गए, युवकों की निगाह में कूड़े हो गए। ऐसी मनोवृत्ति बन जाने के कारण दिनों-दिन ढीला-ढाला होकर निष्क्रियता के चंगुल में फँसता जाता है। निराशावादी व्यक्तियों को मैं यही सलाह देता रहता हूँ, कितनी भी उम्र हो जाए, 70-80 को पार कर जाओ, किंतु मन को बूढ़ा मत होने दो। यार, इसी इच्छा-शक्ति के बल पर अपन क्रियाशील अब तक बने हुए हैं, उन राजनेताओं की भाँति जो बुढ़ापे में भी शासन के आसन पर चिपके हुए हैं और हम-तुम उनको झेल रहे हैं, इसे मजबूरी कहिए या सहनशीलता। इस विचारधारा पर यह छोटी-सी रचना दृष्टव्य है-
साहब हो गए 58 पर रिटायर
क्योंकि, क़ानून की दृष्टि में
उनकी बुद्धि हो गई थी ऐक्सपायर
लेकिन हमारे सिर पर सवार हैं-
साठोत्तर प्रधानमंत्री और 81 वर्षीय राष्ट्रपति
वे क्यों नहीं होते रिटायर ?
चुप रहो, तुम नहीं जानते इसका कारण,
यह है हमारी सहनशीलता का प्रत्यक्ष उदाहरण
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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