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[[चित्र:Lekhan-Samagri-14.jpg|thumb|[[यूरोप]] में काग़ज़-निर्माण (1662 ई. में प्रकाशित एक वुडकट से)]]
 
[[चित्र:Lekhan-Samagri-14.jpg|thumb|[[यूरोप]] में काग़ज़-निर्माण (1662 ई. में प्रकाशित एक वुडकट से)]]
[[प्राचीन भारत लेखन सामग्री|प्राचीन भारत की लेखन सामग्री]] में काग़ज़ एक लेखन सामग्री है। '''काग़ज़ की उपलब्धि ने''' ज्ञान-[[विज्ञान]] और संस्कृति के विकास में बहुत योगदान दिया है। प्राचीन जगत की किसी भी अन्य उपलब्धि को काग़ज़ के आविष्कार और उससे जनित मुद्रण-कला के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। इन दोनों ही आविष्कारों ने आधुनिक मानव के बौद्धिक जीवन पर दीर्घकालीन प्रभाव डाला है। कल्पना कीजिए कि काग़ज़ का उत्पादन रुक जाता है और मुद्रण कार्य बन्द पड़ जाता है, तब हमारे आधुनिक समाज का क्या हाल होगा? हालाँकि संचार के अन्य साधन उपलब्ध हैं, मगर वे काग़ज़ और मुद्रण का स्थान नहीं ले सकते हैं।
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'''काग़ज़''' '[[प्राचीन भारत लेखन सामग्री|प्राचीन भारत की लेखन सामग्रियों]]' में से एक है, जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। काग़ज़ की उपलब्धि ने ज्ञान-[[विज्ञान]] और [[संस्कृति]] के विकास में बहुत योगदान दिया है। प्राचीन जगत् की किसी भी अन्य उपलब्धि को काग़ज़ के आविष्कार और उससे जनित मुद्रण-कला के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। इन दोनों ही आविष्कारों ने आधुनिक मानव के बौद्धिक जीवन पर दीर्घकालीन प्रभाव डाला है। कल्पना कीजिए कि अचानक ही काग़ज़ का उत्पादन रुक जाता है और मुद्रण कार्य बन्द पड़ जाता है, तब हमारे आधुनिक समाज का क्या हाल होगा? हालाँकि संचार के अन्य साधन उपलब्ध हैं, मगर वे काग़ज़ और मुद्रण का स्थान नहीं ले सकते हैं।
 
 
 
==काग़ज़ का आविष्कार==  
 
==काग़ज़ का आविष्कार==  
[[चीन]] में काग़ज़ ईसा की आरम्भिक सदियों में उपलब्ध हुआ। काग़ज़  के आविष्कार का श्रेय वहाँ के '''त्साइ-लुन''' नामक व्यक्ति को दिया जाता है। वह प्राचीन चीन के पूर्वी हान वंश (20-220 ई.) के राजदरबार में वस्तुओं के उत्पादन का अधिकारी था। पता चलता है कि त्साइ-लुन ने पेड़ों की छाल, सन के चिथड़ों और मछली पकड़ने के जालों से काग़ज़  बनाने के तरीक़े की 105 ई. में राजदरबार को जानकारी दी थी। परन्तु नये प्राप्त प्रमाणों से पता चलता है कि त्साइ-लुन से कम से कम दो सौ साल पहले काग़ज़ की जानकारी मिलती है। मगर रेशम, बाँस और काष्ठ-फलकों जैसी परम्परागत लेखन-सामग्री के स्थान पर वहाँ काग़ज़ का व्यापक इस्तेमाल ईसा की चौथी सदी से ही सम्भव हो सका।
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[[चीन]] में काग़ज़ ईसा की आरम्भिक सदियों में उपलब्ध हुआ। काग़ज़  के आविष्कार का श्रेय वहाँ के '''त्साइ-लुन''' नामक व्यक्ति को दिया जाता है। वह प्राचीन चीन के पूर्वी हान वंश (20-220 ई.) के राजदरबार में वस्तुओं के उत्पादन का अधिकारी था। पता चलता है कि त्साइ-लुन ने पेड़ों की छाल, सन के चिथड़ों और [[मछली]] पकड़ने के जालों से काग़ज़  बनाने के तरीक़े की 105 ई. में राजदरबार को जानकारी दी थी। परन्तु नये प्राप्त प्रमाणों से पता चलता है कि त्साइ-लुन से कम से कम दो सौ साल पहले काग़ज़ की जानकारी मिलती है। मगर रेशम, [[बाँस]] और काष्ठ-फलकों जैसी परम्परागत लेखन-सामग्री के स्थान पर वहाँ काग़ज़ का व्यापक इस्तेमाल ईसा की चौथी [[सदी]] से ही सम्भव हो सका।
====<u>काग़ज़ का प्रचार-प्रसार</u>====  
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====काग़ज़ का प्रचार-प्रसार====  
'''काग़ज़ न केवल चीन में''' लोकप्रिय हुआ, बल्कि दुनिया में चहुँ ओर इसका प्रचार-प्रसार हुआ। ईसा की दूसरी सदी में काग़ज़ कोरिया में पहुँचा और ईसा की तीसरी सदी में [[जापान]] में। ईसा की तीसरी सदी के अन्तिम वर्षों में हिन्द-चीन के लोगों ने चीन वालों से काग़ज़  निर्माण की तकनीक हासिल की। 751 ई. में दो चीनी काग़ज़  निर्माताओं को बन्दी बनाकर [[समरकंद]] ले जाया गया, तो वहाँ पर काग़ज़  बनना शुरू हो गया। [[इस्लाम|इस्लामी]] जगत को काग़ज़  निर्माण कला की जानकारी मिली। [[बगदाद]] में काग़ज़  बनाने का कारख़ाना 793 ई. में स्थापित हुआ। वहाँ से काग़ज़  निर्माण की कला [[दमिश्क]] और [[मिस्र]] में पहुँची। ईसा की बारहवीं सदी में काग़ज़  कला के [[यूरोप]] में पहुँचने तक [[अरब|अरबों]] का काग़ज़  निर्माण पर एकाधिकार बना रहा।
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'''काग़ज़ न केवल चीन में''' लोकप्रिय हुआ, बल्कि दुनिया में चहुँ ओर इसका प्रचार-प्रसार हुआ। ईसा की दूसरी सदी में काग़ज़ कोरिया में पहुँचा और ईसा की तीसरी सदी में [[जापान]] में। ईसा की तीसरी सदी के अन्तिम वर्षों में हिन्द-चीन के लोगों ने चीन वालों से काग़ज़  निर्माण की तकनीक हासिल की। 751 ई. में दो चीनी काग़ज़  निर्माताओं को बन्दी बनाकर [[समरकंद]] ले जाया गया, तो वहाँ पर काग़ज़  बनना शुरू हो गया। [[इस्लाम|इस्लामी]] जगत् को काग़ज़  निर्माण कला की जानकारी मिली। [[बग़दाद]] में काग़ज़  बनाने का कारख़ाना 793 ई. में स्थापित हुआ। वहाँ से काग़ज़  निर्माण की कला दमिश्क और [[मिस्र]] में पहुँची। ईसा की बारहवीं सदी में काग़ज़  कला के [[यूरोप]] में पहुँचने तक [[अरब|अरबों]] का काग़ज़  निर्माण पर एकाधिकार बना रहा।
[[चित्र:Paper-Cupboard.jpg|thumb|left|200px|अलमारी में रखें रंगीन काग़ज़]]
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[[चित्र:Paper-Cupboard.jpg|thumb|left|200px|अलमारी में रखे रंगीन काग़ज़]]
 
==यूरोप में काग़ज़ का प्रवेश==
 
==यूरोप में काग़ज़ का प्रवेश==
'''अरबों (मूरों) ने काग़ज़  निर्माण''' की कला को 1150 ई. के आसपास [[स्पेन]] में पहुँचाया। तेरहवीं सदी के उत्तरार्ध में भूमध्य सागर और [[इटली]] के मार्ग से भी यह तकनीक [[यूरोप]] में पहुँची। चौदहवीं सदी में यह [[फ़्राँस]] और [[जर्मनी]] में पहुँची। काग़ज़  निर्माण का ज्ञान [[नीदरलैण्ड]], [[स्विट्जरलैण्ड]] और [[इंग्लैण्ड]] में पन्द्रहवीं सदी में पहुँचा। अमरीकी उपनिवेशों में काग़ज़  की तकनीक सत्रहवीं सदी में पहुँची।  
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'''अरबों (मूरों) ने काग़ज़  निर्माण''' की कला को 1150 ई. के आसपास स्पेन में पहुँचाया। तेरहवीं सदी के उत्तरार्ध में [[भूमध्य सागर]] और [[इटली]] के मार्ग से भी यह तकनीक [[यूरोप]] में पहुँची। चौदहवीं सदी में यह [[फ़्राँस]] और [[जर्मनी]] में पहुँची। काग़ज़  निर्माण का ज्ञान नीदरलैण्ड, स्विट्जरलैण्ड और [[इंग्लैण्ड]] में पन्द्रहवीं सदी में पहुँचा। अमरीकी उपनिवेशों में काग़ज़  की तकनीक सत्रहवीं सदी में पहुँची।  
 
==एशिया में काग़ज़ का प्रवेश==
 
==एशिया में काग़ज़ का प्रवेश==
[[भारत]] में काग़ज़ का प्रवेश सम्भवतः ईसा की सातवीं सदी में हुआ। चीनी बौद्ध भिक्षु '''ई-चिङ''', जिसने 671-694 ई. में भारत की यात्रा की, अपने '''चीनी संस्कृत कोश''' में बताता है कि, काग़ज़ के लिए प्रयुक्त होने वाले चीनी शब्द '''त्वे''' के लिए [[संस्कृत]] में '''काकलि''' शब्द चलता है। कुछ विद्वानों ने इस काकलि शब्द को '''काग़द''' या '''काग़ज़ ''' शब्द से जोड़ा है। मगर काग़ज़  अरबी का शब्द है। इसी से [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] में ‘काग़द’ शब्द बना। काग़ज़  के लिए संस्कृत में कोई शब्द नहीं है।  
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[[भारत]] में काग़ज़ का प्रवेश सम्भवतः ईसा की सातवीं सदी में हुआ। चीनी बौद्ध भिक्षु '''ई-चिङ''', जिसने 671-694 ई. में भारत की यात्रा की, अपने '''चीनी संस्कृत कोश''' में बताता है कि, काग़ज़ के लिए प्रयुक्त होने वाले चीनी शब्द '''त्वे''' के लिए [[संस्कृत]] में '''काकलि''' शब्द चलता है। कुछ विद्वानों ने इस काकलि शब्द को '''काग़द''' या '''काग़ज़ ''' शब्द से जोड़ा है। मगर काग़ज़  [[अरबी भाषा|अरबी]] का शब्द है। इसी से [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] में ‘काग़द’ शब्द बना। काग़ज़  के लिए [[संस्कृत]] में कोई शब्द नहीं है।  
 
[[चित्र:Lekhan-Samagri-12.jpg|thumb|250px|[[चीन]] के हान राजवंश (206 ई. पू.-220 ई.) में काग़ज़ बनाने की प्रक्रिया <br />1. पेड़ की छाल या सन को पानी में भिगोना <br />2. लुगदी को उबालना<br />3. उबली लुगदी से काग़ज़ बनाना<br />4. काग़ज़ को गर्म करके सुखाना]]
 
[[चित्र:Lekhan-Samagri-12.jpg|thumb|250px|[[चीन]] के हान राजवंश (206 ई. पू.-220 ई.) में काग़ज़ बनाने की प्रक्रिया <br />1. पेड़ की छाल या सन को पानी में भिगोना <br />2. लुगदी को उबालना<br />3. उबली लुगदी से काग़ज़ बनाना<br />4. काग़ज़ को गर्म करके सुखाना]]
भारतीय लिपियों (गुप्तकालीन ब्राह्मी) में काग़ज़  पर लिखी हुई हस्तलिखित पुस्तकें मध्य [[एशिया]] और अधिक नज़दीक के [[गिलगित]] ([[कश्मीर]]) स्थान के बौद्ध स्तूपों में मिली हैं। पुरालिपि विज्ञान के प्रमाणों के आधार पर इन हस्तलिपियों का समय ईसा की पाँचवीं से आठवीं सदी तक निर्धारित किया गया है। तुन-हुआङ् (पूर्वी मध्य एशिया, [[चीन]]) से प्राप्त ईसा की दूसरी सदी की काग़ज़  की हस्तलिपियों की तुलना में भारतीय लिपियों में लिखी गई गिलगित हस्तलिपियों का काग़ज़  घटिया क़िस्म का है। सम्भव है कि यह काग़ज़  [[भारत]] में बना हो।
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भारतीय लिपियों, [[ब्राह्मी लिपि|गुप्तकालीन ब्राह्मी]] में काग़ज़  पर लिखी हुई हस्तलिखित पुस्तकें मध्य [[एशिया]] और अधिक नज़दीक के गिलगित, [[कश्मीर]] स्थान के बौद्ध स्तूपों में मिली हैं। पुरालिपि विज्ञान के प्रमाणों के आधार पर इन हस्तलिपियों का समय ईसा की पाँचवीं से आठवीं सदी तक निर्धारित किया गया है। तुन-हुआङ् (पूर्वी [[मध्य एशिया]], [[चीन]]) से प्राप्त ईसा की दूसरी सदी की काग़ज़  की हस्तलिपियों की तुलना में भारतीय लिपियों में लिखी गई गिलगित हस्तलिपियों का काग़ज़  घटिया क़िस्म का है। सम्भव है कि यह काग़ज़  [[भारत]] में बना हो।
  
====<u>प्राचीनतम उल्लेख</u>====  
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====प्राचीनतम उल्लेख====  
'''भारत में ईसा की ग्यारहवीं सदी''' तक काग़ज़  का व्यापक उपयोग नहीं हुआ था। काग़ज़ का प्राचीनतम उल्लेख [[धार]] नगरी के राजा [[भोज]] (1018-1060 ई.) का है। भारत में उपलब्ध काग़ज़  पर लिखी गई सबसे प्राचीन [[संस्कृत]] पुस्तक '''पंचरक्ष''' है। [[नेपाल]] से प्राप्त 1105 ई. की यह हस्तलिपि अब [[कोलकाता]] के [[आशुतोष संग्रहालय]] में सुरक्षित है। सम्भव है कि नेपाल ने काग़ज़  निर्माण की तकनीक [[चीन]] से सीधे हासिल की और फिर वहाँ से ईसा की ग्यारहवीं सदी में भारत का इसका प्रवेश हुआ हो।
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'''भारत में ईसा की ग्यारहवीं सदी''' तक काग़ज़  का व्यापक उपयोग नहीं हुआ था। काग़ज़ का प्राचीनतम उल्लेख [[धार]] नगरी के राजा [[भोज]] (1018-1060 ई.) का है। भारत में उपलब्ध काग़ज़  पर लिखी गई सबसे प्राचीन [[संस्कृत]] पुस्तक '''पंचरक्ष''' है। [[नेपाल]] से प्राप्त 1105 ई. की यह हस्तलिपि अब [[कोलकाता]] के 'आशुतोष संग्रहालय' में सुरक्षित है। सम्भव है कि नेपाल ने काग़ज़  निर्माण की तकनीक [[चीन]] से सीधे हासिल की और फिर वहाँ से ईसा की ग्यारहवीं सदी में भारत का इसका प्रवेश हुआ हो।
====<u>अरबी शब्द</u>====
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====अरबी शब्द====
'''भारत में, विशेषतः पश्चिम''' भारत में, काग़ज़  निर्माण की जानकारी [[अरब|अरबों]] के जरिए पहुँची। ईसा की आठवीं सदी में [[सिंध]] पर अरबों की विजय और तदनंतर उत्तरी भारत पर हुए तुर्कों के हमलों के बाद [[इस्लाम|इस्लामी]] देशों से भारत में काग़ज़  का आयात होने लगा। ईसा की आठवीं सदी से [[ईरान]] का '''खुरासानी''' काग़ज़  भारत में पहुँचा और कई सदियों तक आयात किया जाता रहा। सम्भवतः उसी समय अरबी का काग़ज़  शब्द और फ़ारसी का ‘काग़द’ शब्द भारत में प्रचलित हुए।  
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'''भारत में, विशेषतः पश्चिम''' भारत में, काग़ज़  निर्माण की जानकारी [[अरब|अरबों]] के जरिए पहुँची। ईसा की आठवीं सदी में [[सिंध]] पर अरबों की विजय और तदनंतर [[उत्तरी भारत |उत्तरी भारत]] पर हुए तुर्कों के हमलों के बाद [[इस्लाम|इस्लामी]] देशों से भारत में काग़ज़  का आयात होने लगा। ईसा की आठवीं सदी से [[ईरान]] का '''खुरासानी''' काग़ज़  भारत में पहुँचा और कई सदियों तक आयात किया जाता रहा। सम्भवतः उसी समय अरबी का काग़ज़  शब्द और फ़ारसी का ‘काग़द’ शब्द भारत में प्रचलित हुए।  
  
'''जान पड़ता है कि एक लघु उद्योग''' के रूप में काग़ज़  का निर्माण [[दिल्ली]] और [[लाहौर]] में [[मुहम्मद बिन तुग़लक़]] के शासनकाल (1325-1352 ई.) में आरम्भ हो गया था। उसने काग़ज़  की मुद्रा भी चलाई थी। उस समय भारत में अच्छी क़िस्म का काग़ज़  बनता था और [[खुरासान]] को निर्यात किया जाता था। मगर काग़ज़  की तकनीक की दृढ़ता से स्थापना [[कश्मीर]] के सुल्तान जैन-अल्-आबिदीन (1417-1467 ई.) के समय में हुई। [[समरकंद]] से हासिल की गई तकनीक के आधार पर सुल्तान ने अपनी राजधानी नौशहर में काग़ज़  का कारख़ाना स्थापित किया था।  
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'''जान पड़ता है कि एक लघु उद्योग''' के रूप में काग़ज़  का निर्माण [[दिल्ली]] और [[लाहौर]] में [[मुहम्मद बिन तुग़लक़]] के शासनकाल (1325-1352 ई.) में आरम्भ हो गया था। उसने काग़ज़  की 'मुद्रा' भी चलाई थी। उस समय भारत में अच्छी क़िस्म का काग़ज़  बनता था और [[ख़ुरासान]] को निर्यात किया जाता था। मगर काग़ज़  की तकनीक की दृढ़ता से स्थापना [[कश्मीर]] के सुल्तान 'जैन-अल्-आबिदीन' (1417-1467 ई.) के समय में हुई। [[समरकंद]] से हासिल की गई तकनीक के आधार पर सुल्तान ने अपनी राजधानी नौशहर में काग़ज़  का कारख़ाना स्थापित किया था।  
 
==कश्मीरी काग़ज़==
 
==कश्मीरी काग़ज़==
[[पठान|पठानों]] और [[मुग़ल|मुग़लों]] के शासनकाल में चिथड़ों से तैयार किए गए कश्मीरी काग़ज़  की बड़ी माँग थी। उस काग़ज़  को धोकर और सुखाकर पुनः इस्तेमाल में लाया जा सकता था। "जिस लुगदी से काग़ज़  तैयार किया जाता था, उसे चिथड़ों और सन के रेशों के मिश्रण को कूटकर प्राप्त किया जाता था। तदनंतर लुगदी को पत्थर के हौज में रखकर उसमें पानी मिलाया जाता। फिर नरकुल की बनी एक हलकी जाली से लुगदी के उस मिश्रण की एक परत उठाई जाती। वह परत ही काग़ज़  होती थी, जिसे दबाकर और [[प्रकाश|धूप]] में सुखाकर काग़ज़  प्राप्त किया जाता था। फिर झावां-पत्थर से उस काग़ज़  को चिकना किया जाता था और मांड़ लगाकर चमकीला बनाया जाता। अन्त में काग़ज़  को सुलेमानी (ओनीक्स) पत्थर से पॉलिश किया जाता और तब वह बिक्री के लिए तैयार हो जाता था। मज़बूती और टिकाऊपन काग़ज़  की मुख्य विशेषताएँ होती थीं।" (गोरी और रहमान)।
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[[पठान|पठानों]] और [[मुग़ल|मुग़लों]] के शासनकाल में चिथड़ों से तैयार किए गए कश्मीरी काग़ज़  की बड़ी माँग थी। उस काग़ज़  को धोकर और सुखाकर पुनः इस्तेमाल में लाया जा सकता था। "जिस लुगदी से काग़ज़  तैयार किया जाता था, उसे चिथड़ों और सन के रेशों के मिश्रण को कूटकर प्राप्त किया जाता था। तदनंतर लुगदी को पत्थर के हौज़ में रखकर उसमें पानी मिलाया जाता। फिर नरकुल की बनी एक हलकी जाली से लुगदी के उस मिश्रण की एक परत उठाई जाती। वह परत ही काग़ज़  होती थी, जिसे दबाकर और [[प्रकाश|धूप]] में सुखाकर काग़ज़  प्राप्त किया जाता था। फिर झावां-पत्थर से उस काग़ज़  को चिकना किया जाता था और मांड़ लगाकर चमकीला बनाया जाता। अन्त में काग़ज़  को सुलेमानी (ओनीक्स) पत्थर से पॉलिश किया जाता और तब वह बिक्री के लिए तैयार हो जाता था। मज़बूती और टिकाऊपन काग़ज़  की मुख्य विशेषताएँ होती थीं।"<ref> गोरी और रहमान</ref>
  
 
==भारत में काग़ज़  निर्माण के केन्द्र==  
 
==भारत में काग़ज़  निर्माण के केन्द्र==  
'''लेखन की सामग्री के रूप में''' काग़ज़  की माँग दिनों-दिन बढ़ती गई, तो इसके निर्माण का उद्योग जल्दी ही देश के अन्य प्रदेशों में भी फैल गया। यह प्रमुखतः एक शहरी उद्योग था, इसीलिए सत्रहवीं सदी तक देश के बहुत से शहरों में हम '''काग़ज़  महल्ले''' स्थापित हुए देखते हैं। मध्ययुगीन [[भारत]] में काग़ज़  निर्माण के प्रमुख केन्द्र थे-[[पंजाब]] में [[सियालकोट]], [[उत्तर प्रदेश]] के [[जौनपुर]] ज़िले में [[जाफ़राबाद]], [[आगरा]], [[दिल्ली]], [[काल्पी]], [[लाहौर]]। मगर [[अहमदाबाद]] और [[दौलताबाद]] ने बढ़िया काग़ज़  के निर्माण के लिए सबसे अधिक ख्याति अर्जित कर ली थी-इतनी अधिक की इन शहरों में बना काग़ज़  विदेशों को भी निर्यात किया जाता था।
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'''लेखन की सामग्री के रूप में''' काग़ज़  की माँग दिनों-दिन बढ़ती गई, तो इसके निर्माण का उद्योग जल्दी ही देश के अन्य प्रदेशों में भी फैल गया। यह प्रमुखतः एक शहरी उद्योग था, इसीलिए सत्रहवीं सदी तक देश के बहुत से शहरों में हम '''काग़ज़  महल्ले''' स्थापित हुए देखते हैं। मध्ययुगीन [[भारत]] में काग़ज़  निर्माण के प्रमुख केन्द्र थे-[[पंजाब]] में [[सियालकोट]], [[उत्तर प्रदेश]] के [[जौनपुर]] ज़िले में जाफ़राबाद, [[आगरा]], [[दिल्ली]], [[कालपी|काल्पी]], [[लाहौर]]। मगर [[अहमदाबाद]] और [[दौलताबाद]] ने बढ़िया काग़ज़  के निर्माण के लिए सबसे अधिक ख्याति अर्जित कर ली थी। इतनी अधिक की इन शहरों में बना काग़ज़  विदेशों को भी निर्यात किया जाता था।
 
[[चित्र:Papers-2.jpg|thumb|left|काग़ज़]]
 
[[चित्र:Papers-2.jpg|thumb|left|काग़ज़]]
====<u>काग़ज़ के प्रकार</u>====
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====काग़ज़ के प्रकार====
 
'''यह जानना भी उपयोगी होगा कि''' देश में तरह-तरह का काग़ज़  बनता था और उसे नाम दिया जाता थाः  
 
'''यह जानना भी उपयोगी होगा कि''' देश में तरह-तरह का काग़ज़  बनता था और उसे नाम दिया जाता थाः  
#उस चीज को जिससे वह बनता था (जैसे बाँस से ‘बस’, सन से ‘सन्नी’, मछुआरों के जाल से ‘महाजाल’)
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#उस चीज़ को जिससे वह बनता था। जैसे- [[बाँस]] से ‘बस’, सन से ‘सन्नी’, मछुआरों के जाल से ‘महाजाल’।
#उस स्थान को जहाँ वह बनता था (जैसे, पाटन से ‘पाटनी’, कश्मीर से ‘काश्मीरी’), और
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#उस स्थान को जहाँ वह बनता था। जैसे- पाटन से ‘पाटनी’, कश्मीर से ‘काश्मीरी’।
#उस संरक्षक का जिसकी छत्रछाया में वह बनता था (जैसे, निज़ामशाह से ‘निज़ामशाही’, मानसिंह से ‘मानसिंही’)।
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#उस संरक्षक का जिसकी छत्रछाया में वह बनता था। जैसे- निज़ामशाह से ‘निज़ामशाही’, मानसिंह से ‘मानसिंही’।
  
'''सियालकोट में काग़ज़  निर्माण के''' कई स्थल थे, जहाँ पर मज़बूत और सफ़ेद रंग का कई क़िस्म का काग़ज़  बनाया जाता था। जाफ़राबाद, जहाँ पर आरम्भिक शिर्की शासकों की राजधानी थी, '''काग़दी शहर''' के नाम से जाना जाता था। बांस से निर्मित यहाँ का काग़ज़  उत्तम, चिकना और मज़बूत होता था। [[बिहार]] में काग़ज़  निर्माण के दो मुख्य केन्द्र थे-[[गया]] ज़िले में [[अरवल]] और [[अजिमाबाद]] ([[पटना]]) ज़िले में बिहार (शरीफ़)। [[बंगाल]] में काग़ज़  निर्माण के प्रमुख थे-[[मुर्शिदाबाद]], [[हुगली]] और [[दिनाजपुर]]।
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'''सियालकोट में काग़ज़  निर्माण के''' कई स्थल थे, जहाँ पर मज़बूत और सफ़ेद रंग का कई क़िस्म का काग़ज़  बनाया जाता था। जाफ़राबाद, जहाँ पर आरम्भिक शिर्की शासकों की राजधानी थी, '''काग़दी शहर''' के नाम से जाना जाता था। बांस से निर्मित यहाँ का काग़ज़  उत्तम, चिकना और मज़बूत होता था। [[बिहार]] में काग़ज़  निर्माण के दो मुख्य केन्द्र थे- [[गया ज़िला|गया ज़िले]] में अरवल और अजिमाबाद [[पटना ज़िला|पटना ज़िले]] में [[बिहार शरीफ़]]। [[बंगाल]] में काग़ज़  निर्माण के प्रमुख थे- [[मुर्शिदाबाद]], हुगली और दिनाजपुर।
 
   
 
   
[[गुजरात]] में [[अहमदाबाद]], [[खंभात]] और [[पाटन]] में काग़ज़  तैयार होता था। गुजरात की राजधानी अहमदाबाद काग़ज़  निर्माण का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ पर इतना अधिक काग़ज़  तैयार होता था कि उसका पश्चिम [[एशिया]] के देशों और तुर्की को भी निर्यात किया जाता था। वहाँ का काग़ज़  बहुत ही सफ़ेद और चिकना होता था। सभी आकार का, पतला व मोटा, और रंगों का काग़ज़  वहाँ बनता था। व्यापारियों के उपयोग के लिए भूरे हरे रंग का काग़ज़  भी बनाया जाता था।  
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[[गुजरात]] में [[अहमदाबाद]], [[खंभात]] और [[पाटन]] में काग़ज़  तैयार होता था। गुजरात की राजधानी अहमदाबाद काग़ज़  निर्माण का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ पर इतना अधिक काग़ज़  तैयार होता था कि उसका पश्चिम [[एशिया]] के देशों और तुर्की को भी निर्यात किया जाता था। वहाँ का काग़ज़  बहुत ही सफ़ेद और चिकना होता था। सभी आकार का, पतला व मोटा, और रंगों का काग़ज़  वहाँ बनता था। व्यापारियों के उपयोग के लिए भूरे हरे रंग का काग़ज़  भी बनाया जाता था।
 
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====यात्री विवरण====
====<u>यात्री विवरण</u>====
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'''पाटन में बना काग़ज़''' '''पाटनी''' कहलाता था। इतालवी यात्री निकोलो कोंती, जिसने पन्द्रहवीं सदी के आरम्भिक वर्षों में गुजरात की यात्रा की थी, लिखता है- "केवल कैंबे (खम्बात) के निवासी ही काग़ज़  का इस्तेमाल करते थे। बाकी सभी भारतवासी पेड़ों के पत्तों से बनाए गए ख़ूबसूरत काग़ज़  (ताड़पत्र) पर लिखते हैं।" उस समय खम्बात एक बंदरगाह था और वहाँ पर कम से कम तेरहवीं सदी से अरबों की एक बस्ती थी। अहमदाबाद (स्थापना-1411 ई.) के नज़दीक के कोचरब (वस्तुतः '''कूचा-ए-अरब''', यानी अरबों की गली या बस्ती) गाँव में भी अरबों की वसावट थी। कोचरब गाँव, जो अब अहमदाबाद का एक हिस्सा बन गया है, काग़ज़  निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया था। अहमदाबाद में काग़ज़  अब बिल्कुल नहीं बनता, लेकिन कोचरब क्षेत्र में काग़दी परिवार अब भी बसते हैं।
'''पाटन में बना काग़ज़''' '''पाटनी''' कहलाता था। इतालवी यात्री निकोलो कोंती, जिसने पन्द्रहवीं सदी के आरम्भिक वर्षों में गुजरात की यात्रा की थी, लिखता है-"केवल कैंबे (खम्बात) के निवासी ही काग़ज़  का इस्तेमाल करते थे। बाकी सभी भारतवासी पेड़ों के पत्तों से बनाए गए ख़ूबसूरत काग़ज़  (ताड़पत्र) पर लिखते हैं।" उस समय खम्बात एक बंदरगाह था और वहाँ पर कम से कम तेरहवीं सदी से अरबों की एक बस्ती थी। अहमदाबाद (स्थापना-1411 ई.) के नज़दीक के कोचरब (वस्तुतः '''कूचा-ए-अरब''', यानी अरबों की गली या बस्ती) गाँव में भी अरबों की वसाहत थी। कोचरब गाँव, जो अब अहमदाबाद का एक हिस्सा बन गया है, काग़ज़  निर्माण का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया था। अहमदाबाद में काग़ज़  अब बिल्कुल नहीं बनता, लेकिन कोचरब क्षेत्र में काग़दी परिवार अब भी बसते हैं।
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====काग़ज़ निर्माण के प्रसिद्ध नगर====  
====<u>काग़ज़ निर्माण के प्रसिद्ध नगर</u>====  
 
 
[[चित्र:Lekhan-Samagri-15.jpg|thumb|250px|[[सांगानेर जयपुर|सांगानेर]] ([[जयपुर]] के नज़दीक) में हाथ-काग़ज़ का निर्माण]]
 
[[चित्र:Lekhan-Samagri-15.jpg|thumb|250px|[[सांगानेर जयपुर|सांगानेर]] ([[जयपुर]] के नज़दीक) में हाथ-काग़ज़ का निर्माण]]
[[मुग़ल]] काल में [[औरंगाबाद]] के नज़दीक का [[दौलताबाद]] शहर दक्षिण भारत में काग़ज़  निर्माण का एक प्रमुख केन्द्र बन गया था। वहाँ का काग़ज़  अपने चिकनेपन और टिकाऊपन के लिए काफ़ी प्रसिद्ध था। दौलताबाद में काग़ज़  बनाने के कई केन्द्र थे, जहाँ विभिन्न क़िस्म का काग़ज़  तैयार किया जाता था। दौलताबाद से कुछ दूरी पर, वहाँ से वेरूल (एलोरा) जाने वाली सड़क के किनारे, '''काग़ज़ीपुरा''' नामक एक गाँव आज भी मौजूद है।
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[[मुग़ल]] काल में [[औरंगाबाद]] के नज़दीक का [[दौलताबाद]] शहर [[दक्षिण भारत]] में काग़ज़  निर्माण का एक प्रमुख केन्द्र बन गया था। वहाँ का काग़ज़  अपने चिकनेपन और टिकाऊपन के लिए काफ़ी प्रसिद्ध था। दौलताबाद में काग़ज़  बनाने के कई केन्द्र थे, जहाँ विभिन्न क़िस्म का काग़ज़  तैयार किया जाता था। दौलताबाद से कुछ दूरी पर, वहाँ से वेरूल, एलोरा जाने वाली सड़क के किनारे, '''काग़ज़ीपुरा''' नामक एक गाँव आज भी मौजूद है।
 
   
 
   
[[विदर्भ]] के अकोला ज़िले का बालापुर शहर भी काग़ज़  उत्पादन का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था। वहाँ ‘काग़दपुरा’ महल्ला आज भी मौजूद है। [[टीपू सुल्तान]] के शासनकाल में [[मैसूर]] में काग़ज़  का कारख़ाना स्थापित हो गया था। उसी तरह, [[पेशवा]] काल में [[पूना|पुणे]] में भी काग़ज़  बनने लगा था।
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[[विदर्भ]] के [[अकोला ज़िला|अकोला ज़िले]] का [[बालापुर]] शहर भी काग़ज़  उत्पादन का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। वहाँ ‘काग़दपुरा’ मौहल्ला आज भी मौजूद है। [[टीपू सुल्तान]] के शासनकाल में [[मैसूर]] में काग़ज़  का कारख़ाना स्थापित हो गया था। उसी तरह, [[पेशवा]] काल में [[पूना|पुणे]] में भी काग़ज़  बनने लगा था।
 
   
 
   
'''एक और जगह''', जहाँ पर काग़ज़  बनता था और आज भी बनता है, [[जयपुर]] के नज़दीक का [[सांगानेर]] गाँव है। [[सवाई जयसिंह]] के बेटे [[सवाई ईश्वरसिंह]] के समय में यहाँ के काग़ज़ उद्योग को राज्याश्रय मिला। यहाँ पर बना काग़ज़  '''ईश्वरसिंही''' कहलाता था। काग़ज़  की गुणवत्ता और उसके चिकनेपन को प्रमाणित करने के लिए उस पर राज्य की मुहर लगाई जाती थी।  
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'''एक और जगह''', जहाँ पर काग़ज़  बनता था और आज भी बनता है, [[जयपुर]] के नज़दीक का सांगानेर गाँव है। [[सवाई जयसिंह]] के बेटे सवाई [[ईश्वरीसिंह]] के समय में यहाँ के काग़ज़ उद्योग को राज्याश्रय मिला। यहाँ पर बना काग़ज़  '''ईश्वरसिंही''' कहलाता था। काग़ज़  की गुणवत्ता और उसके चिकनेपन को प्रमाणित करने के लिए उस पर राज्य की मुहर लगाई जाती थी।
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==काग़ज़ बनाने की तकनीक==  
 
==काग़ज़ बनाने की तकनीक==  
'''सारे देश में काग़ज़  बनाने की तकनीक''' लगभग एक-सी थी, केवल उन चीजों में ही अन्तर था, जिनसे लुगदी तैयार की जाती थी। लुगदी बनाने के लिए आमतौर पर पुराने रस्सों, मछुआरों के जालों, चिथड़ों, सन और उसके बोरों का इस्तेमाल किया जाता था। उन्हें साफ करके, काटकर, उबालकर और ढेंकली से कूटकर लुगदी तैयार की जाती थी। फिर उस लुगदी को नदी में या हौज के पानी में धोया जाता था। इसके लिए दो आदमी लुगदी को धोती-जैसे कपड़ों में रखकर उसके सिरों को अपनी कमर में बाँध लेते थे। [[चित्र:Lekhan-Samagri-16.jpg|thumb|left|उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल का एक कश्मीरी चित्र, जिसमें काग़ज़-निर्माण के सभी स्तर दिखाए गए हैं]] एकदम सफ़ेद काग़ज़  प्राप्त करने के लिए लुगदी को साफ पानी से धोना आवश्यक होता था। उसके बाद लुगदी को चूना और क्षार (सज्जी) से संसाधित किया जाता। तब उस लुगदी को पुनः कूटा जाता था। फिर उसे चबूतरे पर [[प्रकाश|धूप]] में सूखने के लिए रख दिया जाता था। उसके बाद उस लुगदी के पिंड बनाए जाते। तब कई शीट काग़ज़ बनाने के लिए लुगदी की एक निश्चित मात्रा लेकर उसे ज़मीन में गाड़े गए एक कुंड में डालकर पानी मिलाया जाता था। तब लकड़ी की बनी एक चौखट पर रखे गए नरकुलों या सीकों से बनाए गए एक जाल (चिक) से लुगदी की एक निश्चित मात्रा को उस कुंड से उठाया जाता था। फिर लुगदी की उस परत को एक कपड़े पर डाला जाता था। इस तरह, कपड़ों और काग़ज़ ों की एक ढेरी तैयार हो जाती थी, तो उस पर भारी वज़न रखकर या अन्य किसी तरीक़े से उसमें से पानी को बाहर निकाला जाता था। उसके बाद काग़ज़ की उन नम शीटों को कपड़ों से अलग करके चूने से पोती गई दीवार पर लगाया जाता था। उसके बाद काग़ज़ की उन शीटों पर मांड लगाई जाती थी या उन्हें किसी गोंद में डुबोया जाता था। अन्त में लकड़ी के तख्ते पर रखकर और पत्थर से रगड़कर काग़ज़ की उन शीटों को चिकना बनाया जाता था। चाकू से किनारों को ठीक से काट देने पर काग़ज़ बिक्री के लिए तैयार हो जाता था।  
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'''सारे देश में काग़ज़  बनाने की तकनीक''' लगभग एक-सी थी, केवल उन चीज़ों में ही अन्तर था, जिनसे लुगदी तैयार की जाती थी। लुगदी बनाने के लिए आमतौर पर पुराने रस्सों, मछुआरों के जालों, चिथड़ों, सन और उसके बोरों का इस्तेमाल किया जाता था। उन्हें साफ़ करके, काटकर, उबालकर और ढेंकली से कूटकर लुगदी तैयार की जाती थी। फिर उस लुगदी को नदी में या हौज़ के पानी में धोया जाता था। इसके लिए दो आदमी लुगदी को धोती-जैसे कपड़ों में रखकर उसके सिरों को अपनी कमर में बाँध लेते थे। [[चित्र:Lekhan-Samagri-16.jpg|thumb|left|उन्नीसवीं सदी के [[मध्यकाल]] का एक कश्मीरी चित्र, जिसमें काग़ज़-निर्माण के सभी स्तर दिखाए गए हैं]] एकदम सफ़ेद काग़ज़  प्राप्त करने के लिए लुगदी को साफ़ पानी से धोना आवश्यक होता था। उसके बाद लुगदी को चूना और क्षार (सज्जी) से संसाधित किया जाता। तब उस लुगदी को पुनः कूटा जाता था। फिर उसे चबूतरे पर [[प्रकाश|धूप]] में सूखने के लिए रख दिया जाता था। उसके बाद उस लुगदी के पिंड बनाए जाते। तब कई शीट काग़ज़ बनाने के लिए लुगदी की एक निश्चित मात्रा लेकर उसे ज़मीन में गाड़े गए एक कुंड में डालकर पानी मिलाया जाता था। तब लकड़ी की बनी एक चौखट पर रखे गए नरकुलों या सीकों से बनाए गए एक जाल (चिक) से लुगदी की एक निश्चित मात्रा को उस कुंड से उठाया जाता था। फिर लुगदी की उस परत को एक कपड़े पर डाला जाता था। इस तरह, कपड़ों और काग़ज़ों की एक ढेरी तैयार हो जाती थी, तो उस पर भारी वज़न रखकर या अन्य किसी तरीक़े से उसमें से पानी को बाहर निकाला जाता था। उसके बाद काग़ज़ की उन नम शीटों को कपड़ों से अलग करके चूने से पोती गई दीवार पर लगाया जाता था। उसके बाद काग़ज़ की उन शीटों पर मांड लगाई जाती थी या उन्हें किसी गोंद में डुबोया जाता था। अन्त में लकड़ी के तख्ते पर रखकर और पत्थर से रगड़कर काग़ज़ की उन शीटों को चिकना बनाया जाता था। चाकू से किनारों को ठीक से काट देने पर काग़ज़ बिक्री के लिए तैयार हो जाता था।  
====<u>काग़ज़ का आयात</u>====
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====काग़ज़ का आयात====
'''उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में''' [[भारत]] से पटसन और कपड़ों का बड़े पैमाने पर निर्यात हुआ और साथ ही आयातित काग़ज़  को अधिक पसन्द किया जाने लगा। इससे भारत में हाथ काग़ज़ का उत्पादन घटता गया। सन [[1884]]-[[1885]] में देश से 3,70,533 रुपये मूल्य के चिथड़ों और काग़ज़  निर्माण की अन्य चीजों का निर्यात हुआ। जबकि 48,92,121 रुपये के काग़ज़  का और दफ्ती का आयात हुआ।
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'''उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में''' [[भारत]] से पटसन और कपड़ों का बड़े पैमाने पर निर्यात हुआ और साथ ही आयातित काग़ज़  को अधिक पसन्द किया जाने लगा। इससे भारत में हाथ काग़ज़ का उत्पादन घटता गया। सन [[1884]]-[[1885]] में देश से 3,70,533 रुपये मूल्य के चिथड़ों और काग़ज़  निर्माण की अन्य चीज़ों का निर्यात हुआ। जबकि 48,92,121 रुपये के काग़ज़  का और दफ्ती का आयात हुआ।
====<u>काग़ज़ मिल की स्थापना</u>====  
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====काग़ज़ मिल की स्थापना====  
[[पुर्तग़ाली|पुर्तग़ालियों]] ने पहली बार 1556 ई. में [[गोवा]] में छापाख़ाना स्थापित किया। [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने आरम्भ में भारत में बने हाथ काग़ज़ का इस्तेमाल किया, मगर बाद में उन्होंने यहाँ अपने काग़ज़ मिल स्थापित किए और वे [[इंग्लैण्ड]] से भी काग़ज़  मंगाने लगे। [[श्रीरामपुर]] (सेरामपुर) में 1820 ई. में पहली बार काग़ज़ निर्माण में एक भाप-इंजन का इस्तेमाल होने लगा। उसके बाद देश में कई पेपर मिल स्थापित हुए-गिरगाँव पेपर मिल, [[मुम्बई]] (1862), रॉयल पेपर मिल, [[कोलकाता]] (1867), सिन्धिया पेपर मिल, [[ग्वालियर]] (1882-1892), टिटाघर पेपर मिल, कोलकाता (1882-94)।  
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[[पुर्तग़ाली|पुर्तग़ालियों]] ने पहली बार 1556 ई. में [[गोवा]] में छापाख़ाना स्थापित किया। [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] ने आरम्भ में भारत में बने हाथ काग़ज़ का इस्तेमाल किया, मगर बाद में उन्होंने यहाँ अपने काग़ज़ मिल स्थापित किए और वे [[इंग्लैण्ड]] से भी काग़ज़  मंगाने लगे। [[श्रीरामपुर (पश्चिम बंगाल)|श्रीरामपुर]] (सेरामपुर) में 1820 ई. में पहली बार काग़ज़ निर्माण में एक भाप-इंजन का इस्तेमाल होने लगा। उसके बाद देश में कई पेपर मिल स्थापित हुए- गिरगाँव पेपर मिल, [[मुम्बई]] (1862), रॉयल पेपर मिल, [[कोलकाता]] (1867), सिन्धिया पेपर मिल, [[ग्वालियर]] (1882-1892), टिटाघर पेपर मिल, कोलकाता (1882-94)।  
  
'''आज भारत में काग़ज़  उत्पादन''' प्रतिवर्ष लगभग 13 लाख टन है। उसमें हाथ काग़ज़ का उत्पादन क़रीब 7000 टन है। भारत में क़रीब 250 केन्द्रों में हाथ काग़ज़ का उत्पादन होता है और उसमें लगभग 6000 लोग लगे हुए हैं।  
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'''आज भारत में काग़ज़  उत्पादन''' प्रतिवर्ष लगभग 13 लाख टन है। उसमें हाथ काग़ज़ का उत्पादन क़रीब 7000 टन है। भारत में क़रीब 250 केन्द्रों में हाथ काग़ज़ का उत्पादन होता है और उसमें लगभग 6000 लोग लगे हुए हैं।
  
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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10:04, 2 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

लेखन सामग्री विषय सूची
यूरोप में काग़ज़-निर्माण (1662 ई. में प्रकाशित एक वुडकट से)

काग़ज़ 'प्राचीन भारत की लेखन सामग्रियों' में से एक है, जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। काग़ज़ की उपलब्धि ने ज्ञान-विज्ञान और संस्कृति के विकास में बहुत योगदान दिया है। प्राचीन जगत् की किसी भी अन्य उपलब्धि को काग़ज़ के आविष्कार और उससे जनित मुद्रण-कला के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। इन दोनों ही आविष्कारों ने आधुनिक मानव के बौद्धिक जीवन पर दीर्घकालीन प्रभाव डाला है। कल्पना कीजिए कि अचानक ही काग़ज़ का उत्पादन रुक जाता है और मुद्रण कार्य बन्द पड़ जाता है, तब हमारे आधुनिक समाज का क्या हाल होगा? हालाँकि संचार के अन्य साधन उपलब्ध हैं, मगर वे काग़ज़ और मुद्रण का स्थान नहीं ले सकते हैं।

काग़ज़ का आविष्कार

चीन में काग़ज़ ईसा की आरम्भिक सदियों में उपलब्ध हुआ। काग़ज़ के आविष्कार का श्रेय वहाँ के त्साइ-लुन नामक व्यक्ति को दिया जाता है। वह प्राचीन चीन के पूर्वी हान वंश (20-220 ई.) के राजदरबार में वस्तुओं के उत्पादन का अधिकारी था। पता चलता है कि त्साइ-लुन ने पेड़ों की छाल, सन के चिथड़ों और मछली पकड़ने के जालों से काग़ज़ बनाने के तरीक़े की 105 ई. में राजदरबार को जानकारी दी थी। परन्तु नये प्राप्त प्रमाणों से पता चलता है कि त्साइ-लुन से कम से कम दो सौ साल पहले काग़ज़ की जानकारी मिलती है। मगर रेशम, बाँस और काष्ठ-फलकों जैसी परम्परागत लेखन-सामग्री के स्थान पर वहाँ काग़ज़ का व्यापक इस्तेमाल ईसा की चौथी सदी से ही सम्भव हो सका।

काग़ज़ का प्रचार-प्रसार

काग़ज़ न केवल चीन में लोकप्रिय हुआ, बल्कि दुनिया में चहुँ ओर इसका प्रचार-प्रसार हुआ। ईसा की दूसरी सदी में काग़ज़ कोरिया में पहुँचा और ईसा की तीसरी सदी में जापान में। ईसा की तीसरी सदी के अन्तिम वर्षों में हिन्द-चीन के लोगों ने चीन वालों से काग़ज़ निर्माण की तकनीक हासिल की। 751 ई. में दो चीनी काग़ज़ निर्माताओं को बन्दी बनाकर समरकंद ले जाया गया, तो वहाँ पर काग़ज़ बनना शुरू हो गया। इस्लामी जगत् को काग़ज़ निर्माण कला की जानकारी मिली। बग़दाद में काग़ज़ बनाने का कारख़ाना 793 ई. में स्थापित हुआ। वहाँ से काग़ज़ निर्माण की कला दमिश्क और मिस्र में पहुँची। ईसा की बारहवीं सदी में काग़ज़ कला के यूरोप में पहुँचने तक अरबों का काग़ज़ निर्माण पर एकाधिकार बना रहा।

अलमारी में रखे रंगीन काग़ज़

यूरोप में काग़ज़ का प्रवेश

अरबों (मूरों) ने काग़ज़ निर्माण की कला को 1150 ई. के आसपास स्पेन में पहुँचाया। तेरहवीं सदी के उत्तरार्ध में भूमध्य सागर और इटली के मार्ग से भी यह तकनीक यूरोप में पहुँची। चौदहवीं सदी में यह फ़्राँस और जर्मनी में पहुँची। काग़ज़ निर्माण का ज्ञान नीदरलैण्ड, स्विट्जरलैण्ड और इंग्लैण्ड में पन्द्रहवीं सदी में पहुँचा। अमरीकी उपनिवेशों में काग़ज़ की तकनीक सत्रहवीं सदी में पहुँची।

एशिया में काग़ज़ का प्रवेश

भारत में काग़ज़ का प्रवेश सम्भवतः ईसा की सातवीं सदी में हुआ। चीनी बौद्ध भिक्षु ई-चिङ, जिसने 671-694 ई. में भारत की यात्रा की, अपने चीनी संस्कृत कोश में बताता है कि, काग़ज़ के लिए प्रयुक्त होने वाले चीनी शब्द त्वे के लिए संस्कृत में काकलि शब्द चलता है। कुछ विद्वानों ने इस काकलि शब्द को काग़द या काग़ज़ शब्द से जोड़ा है। मगर काग़ज़ अरबी का शब्द है। इसी से फ़ारसी में ‘काग़द’ शब्द बना। काग़ज़ के लिए संस्कृत में कोई शब्द नहीं है।

चीन के हान राजवंश (206 ई. पू.-220 ई.) में काग़ज़ बनाने की प्रक्रिया
1. पेड़ की छाल या सन को पानी में भिगोना
2. लुगदी को उबालना
3. उबली लुगदी से काग़ज़ बनाना
4. काग़ज़ को गर्म करके सुखाना

भारतीय लिपियों, गुप्तकालीन ब्राह्मी में काग़ज़ पर लिखी हुई हस्तलिखित पुस्तकें मध्य एशिया और अधिक नज़दीक के गिलगित, कश्मीर स्थान के बौद्ध स्तूपों में मिली हैं। पुरालिपि विज्ञान के प्रमाणों के आधार पर इन हस्तलिपियों का समय ईसा की पाँचवीं से आठवीं सदी तक निर्धारित किया गया है। तुन-हुआङ् (पूर्वी मध्य एशिया, चीन) से प्राप्त ईसा की दूसरी सदी की काग़ज़ की हस्तलिपियों की तुलना में भारतीय लिपियों में लिखी गई गिलगित हस्तलिपियों का काग़ज़ घटिया क़िस्म का है। सम्भव है कि यह काग़ज़ भारत में बना हो।

प्राचीनतम उल्लेख

भारत में ईसा की ग्यारहवीं सदी तक काग़ज़ का व्यापक उपयोग नहीं हुआ था। काग़ज़ का प्राचीनतम उल्लेख धार नगरी के राजा भोज (1018-1060 ई.) का है। भारत में उपलब्ध काग़ज़ पर लिखी गई सबसे प्राचीन संस्कृत पुस्तक पंचरक्ष है। नेपाल से प्राप्त 1105 ई. की यह हस्तलिपि अब कोलकाता के 'आशुतोष संग्रहालय' में सुरक्षित है। सम्भव है कि नेपाल ने काग़ज़ निर्माण की तकनीक चीन से सीधे हासिल की और फिर वहाँ से ईसा की ग्यारहवीं सदी में भारत का इसका प्रवेश हुआ हो।

अरबी शब्द

भारत में, विशेषतः पश्चिम भारत में, काग़ज़ निर्माण की जानकारी अरबों के जरिए पहुँची। ईसा की आठवीं सदी में सिंध पर अरबों की विजय और तदनंतर उत्तरी भारत पर हुए तुर्कों के हमलों के बाद इस्लामी देशों से भारत में काग़ज़ का आयात होने लगा। ईसा की आठवीं सदी से ईरान का खुरासानी काग़ज़ भारत में पहुँचा और कई सदियों तक आयात किया जाता रहा। सम्भवतः उसी समय अरबी का काग़ज़ शब्द और फ़ारसी का ‘काग़द’ शब्द भारत में प्रचलित हुए।

जान पड़ता है कि एक लघु उद्योग के रूप में काग़ज़ का निर्माण दिल्ली और लाहौर में मुहम्मद बिन तुग़लक़ के शासनकाल (1325-1352 ई.) में आरम्भ हो गया था। उसने काग़ज़ की 'मुद्रा' भी चलाई थी। उस समय भारत में अच्छी क़िस्म का काग़ज़ बनता था और ख़ुरासान को निर्यात किया जाता था। मगर काग़ज़ की तकनीक की दृढ़ता से स्थापना कश्मीर के सुल्तान 'जैन-अल्-आबिदीन' (1417-1467 ई.) के समय में हुई। समरकंद से हासिल की गई तकनीक के आधार पर सुल्तान ने अपनी राजधानी नौशहर में काग़ज़ का कारख़ाना स्थापित किया था।

कश्मीरी काग़ज़

पठानों और मुग़लों के शासनकाल में चिथड़ों से तैयार किए गए कश्मीरी काग़ज़ की बड़ी माँग थी। उस काग़ज़ को धोकर और सुखाकर पुनः इस्तेमाल में लाया जा सकता था। "जिस लुगदी से काग़ज़ तैयार किया जाता था, उसे चिथड़ों और सन के रेशों के मिश्रण को कूटकर प्राप्त किया जाता था। तदनंतर लुगदी को पत्थर के हौज़ में रखकर उसमें पानी मिलाया जाता। फिर नरकुल की बनी एक हलकी जाली से लुगदी के उस मिश्रण की एक परत उठाई जाती। वह परत ही काग़ज़ होती थी, जिसे दबाकर और धूप में सुखाकर काग़ज़ प्राप्त किया जाता था। फिर झावां-पत्थर से उस काग़ज़ को चिकना किया जाता था और मांड़ लगाकर चमकीला बनाया जाता। अन्त में काग़ज़ को सुलेमानी (ओनीक्स) पत्थर से पॉलिश किया जाता और तब वह बिक्री के लिए तैयार हो जाता था। मज़बूती और टिकाऊपन काग़ज़ की मुख्य विशेषताएँ होती थीं।"[1]

भारत में काग़ज़ निर्माण के केन्द्र

लेखन की सामग्री के रूप में काग़ज़ की माँग दिनों-दिन बढ़ती गई, तो इसके निर्माण का उद्योग जल्दी ही देश के अन्य प्रदेशों में भी फैल गया। यह प्रमुखतः एक शहरी उद्योग था, इसीलिए सत्रहवीं सदी तक देश के बहुत से शहरों में हम काग़ज़ महल्ले स्थापित हुए देखते हैं। मध्ययुगीन भारत में काग़ज़ निर्माण के प्रमुख केन्द्र थे-पंजाब में सियालकोट, उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले में जाफ़राबाद, आगरा, दिल्ली, काल्पी, लाहौर। मगर अहमदाबाद और दौलताबाद ने बढ़िया काग़ज़ के निर्माण के लिए सबसे अधिक ख्याति अर्जित कर ली थी। इतनी अधिक की इन शहरों में बना काग़ज़ विदेशों को भी निर्यात किया जाता था।

काग़ज़

काग़ज़ के प्रकार

यह जानना भी उपयोगी होगा कि देश में तरह-तरह का काग़ज़ बनता था और उसे नाम दिया जाता थाः

  1. उस चीज़ को जिससे वह बनता था। जैसे- बाँस से ‘बस’, सन से ‘सन्नी’, मछुआरों के जाल से ‘महाजाल’।
  2. उस स्थान को जहाँ वह बनता था। जैसे- पाटन से ‘पाटनी’, कश्मीर से ‘काश्मीरी’।
  3. उस संरक्षक का जिसकी छत्रछाया में वह बनता था। जैसे- निज़ामशाह से ‘निज़ामशाही’, मानसिंह से ‘मानसिंही’।

सियालकोट में काग़ज़ निर्माण के कई स्थल थे, जहाँ पर मज़बूत और सफ़ेद रंग का कई क़िस्म का काग़ज़ बनाया जाता था। जाफ़राबाद, जहाँ पर आरम्भिक शिर्की शासकों की राजधानी थी, काग़दी शहर के नाम से जाना जाता था। बांस से निर्मित यहाँ का काग़ज़ उत्तम, चिकना और मज़बूत होता था। बिहार में काग़ज़ निर्माण के दो मुख्य केन्द्र थे- गया ज़िले में अरवल और अजिमाबाद पटना ज़िले में बिहार शरीफ़बंगाल में काग़ज़ निर्माण के प्रमुख थे- मुर्शिदाबाद, हुगली और दिनाजपुर।

गुजरात में अहमदाबाद, खंभात और पाटन में काग़ज़ तैयार होता था। गुजरात की राजधानी अहमदाबाद काग़ज़ निर्माण का सबसे बड़ा केन्द्र था। वहाँ पर इतना अधिक काग़ज़ तैयार होता था कि उसका पश्चिम एशिया के देशों और तुर्की को भी निर्यात किया जाता था। वहाँ का काग़ज़ बहुत ही सफ़ेद और चिकना होता था। सभी आकार का, पतला व मोटा, और रंगों का काग़ज़ वहाँ बनता था। व्यापारियों के उपयोग के लिए भूरे हरे रंग का काग़ज़ भी बनाया जाता था।

यात्री विवरण

पाटन में बना काग़ज़ पाटनी कहलाता था। इतालवी यात्री निकोलो कोंती, जिसने पन्द्रहवीं सदी के आरम्भिक वर्षों में गुजरात की यात्रा की थी, लिखता है- "केवल कैंबे (खम्बात) के निवासी ही काग़ज़ का इस्तेमाल करते थे। बाकी सभी भारतवासी पेड़ों के पत्तों से बनाए गए ख़ूबसूरत काग़ज़ (ताड़पत्र) पर लिखते हैं।" उस समय खम्बात एक बंदरगाह था और वहाँ पर कम से कम तेरहवीं सदी से अरबों की एक बस्ती थी। अहमदाबाद (स्थापना-1411 ई.) के नज़दीक के कोचरब (वस्तुतः कूचा-ए-अरब, यानी अरबों की गली या बस्ती) गाँव में भी अरबों की वसावट थी। कोचरब गाँव, जो अब अहमदाबाद का एक हिस्सा बन गया है, काग़ज़ निर्माण का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया था। अहमदाबाद में काग़ज़ अब बिल्कुल नहीं बनता, लेकिन कोचरब क्षेत्र में काग़दी परिवार अब भी बसते हैं।

काग़ज़ निर्माण के प्रसिद्ध नगर

सांगानेर (जयपुर के नज़दीक) में हाथ-काग़ज़ का निर्माण

मुग़ल काल में औरंगाबाद के नज़दीक का दौलताबाद शहर दक्षिण भारत में काग़ज़ निर्माण का एक प्रमुख केन्द्र बन गया था। वहाँ का काग़ज़ अपने चिकनेपन और टिकाऊपन के लिए काफ़ी प्रसिद्ध था। दौलताबाद में काग़ज़ बनाने के कई केन्द्र थे, जहाँ विभिन्न क़िस्म का काग़ज़ तैयार किया जाता था। दौलताबाद से कुछ दूरी पर, वहाँ से वेरूल, एलोरा जाने वाली सड़क के किनारे, काग़ज़ीपुरा नामक एक गाँव आज भी मौजूद है।

विदर्भ के अकोला ज़िले का बालापुर शहर भी काग़ज़ उत्पादन का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। वहाँ ‘काग़दपुरा’ मौहल्ला आज भी मौजूद है। टीपू सुल्तान के शासनकाल में मैसूर में काग़ज़ का कारख़ाना स्थापित हो गया था। उसी तरह, पेशवा काल में पुणे में भी काग़ज़ बनने लगा था।

एक और जगह, जहाँ पर काग़ज़ बनता था और आज भी बनता है, जयपुर के नज़दीक का सांगानेर गाँव है। सवाई जयसिंह के बेटे सवाई ईश्वरीसिंह के समय में यहाँ के काग़ज़ उद्योग को राज्याश्रय मिला। यहाँ पर बना काग़ज़ ईश्वरसिंही कहलाता था। काग़ज़ की गुणवत्ता और उसके चिकनेपन को प्रमाणित करने के लिए उस पर राज्य की मुहर लगाई जाती थी।

काग़ज़ बनाने की तकनीक

सारे देश में काग़ज़ बनाने की तकनीक लगभग एक-सी थी, केवल उन चीज़ों में ही अन्तर था, जिनसे लुगदी तैयार की जाती थी। लुगदी बनाने के लिए आमतौर पर पुराने रस्सों, मछुआरों के जालों, चिथड़ों, सन और उसके बोरों का इस्तेमाल किया जाता था। उन्हें साफ़ करके, काटकर, उबालकर और ढेंकली से कूटकर लुगदी तैयार की जाती थी। फिर उस लुगदी को नदी में या हौज़ के पानी में धोया जाता था। इसके लिए दो आदमी लुगदी को धोती-जैसे कपड़ों में रखकर उसके सिरों को अपनी कमर में बाँध लेते थे।

उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल का एक कश्मीरी चित्र, जिसमें काग़ज़-निर्माण के सभी स्तर दिखाए गए हैं

एकदम सफ़ेद काग़ज़ प्राप्त करने के लिए लुगदी को साफ़ पानी से धोना आवश्यक होता था। उसके बाद लुगदी को चूना और क्षार (सज्जी) से संसाधित किया जाता। तब उस लुगदी को पुनः कूटा जाता था। फिर उसे चबूतरे पर धूप में सूखने के लिए रख दिया जाता था। उसके बाद उस लुगदी के पिंड बनाए जाते। तब कई शीट काग़ज़ बनाने के लिए लुगदी की एक निश्चित मात्रा लेकर उसे ज़मीन में गाड़े गए एक कुंड में डालकर पानी मिलाया जाता था। तब लकड़ी की बनी एक चौखट पर रखे गए नरकुलों या सीकों से बनाए गए एक जाल (चिक) से लुगदी की एक निश्चित मात्रा को उस कुंड से उठाया जाता था। फिर लुगदी की उस परत को एक कपड़े पर डाला जाता था। इस तरह, कपड़ों और काग़ज़ों की एक ढेरी तैयार हो जाती थी, तो उस पर भारी वज़न रखकर या अन्य किसी तरीक़े से उसमें से पानी को बाहर निकाला जाता था। उसके बाद काग़ज़ की उन नम शीटों को कपड़ों से अलग करके चूने से पोती गई दीवार पर लगाया जाता था। उसके बाद काग़ज़ की उन शीटों पर मांड लगाई जाती थी या उन्हें किसी गोंद में डुबोया जाता था। अन्त में लकड़ी के तख्ते पर रखकर और पत्थर से रगड़कर काग़ज़ की उन शीटों को चिकना बनाया जाता था। चाकू से किनारों को ठीक से काट देने पर काग़ज़ बिक्री के लिए तैयार हो जाता था।

काग़ज़ का आयात

उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों में भारत से पटसन और कपड़ों का बड़े पैमाने पर निर्यात हुआ और साथ ही आयातित काग़ज़ को अधिक पसन्द किया जाने लगा। इससे भारत में हाथ काग़ज़ का उत्पादन घटता गया। सन 1884-1885 में देश से 3,70,533 रुपये मूल्य के चिथड़ों और काग़ज़ निर्माण की अन्य चीज़ों का निर्यात हुआ। जबकि 48,92,121 रुपये के काग़ज़ का और दफ्ती का आयात हुआ।

काग़ज़ मिल की स्थापना

पुर्तग़ालियों ने पहली बार 1556 ई. में गोवा में छापाख़ाना स्थापित किया। अंग्रेज़ों ने आरम्भ में भारत में बने हाथ काग़ज़ का इस्तेमाल किया, मगर बाद में उन्होंने यहाँ अपने काग़ज़ मिल स्थापित किए और वे इंग्लैण्ड से भी काग़ज़ मंगाने लगे। श्रीरामपुर (सेरामपुर) में 1820 ई. में पहली बार काग़ज़ निर्माण में एक भाप-इंजन का इस्तेमाल होने लगा। उसके बाद देश में कई पेपर मिल स्थापित हुए- गिरगाँव पेपर मिल, मुम्बई (1862), रॉयल पेपर मिल, कोलकाता (1867), सिन्धिया पेपर मिल, ग्वालियर (1882-1892), टिटाघर पेपर मिल, कोलकाता (1882-94)।

आज भारत में काग़ज़ उत्पादन प्रतिवर्ष लगभग 13 लाख टन है। उसमें हाथ काग़ज़ का उत्पादन क़रीब 7000 टन है। भारत में क़रीब 250 केन्द्रों में हाथ काग़ज़ का उत्पादन होता है और उसमें लगभग 6000 लोग लगे हुए हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गोरी और रहमान

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