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10:41, 4 जनवरी 2013 के समय का अवतरण

गीता अध्याय-3 श्लोक-28 / Gita Chapter-3 Verse-28

प्रसंग-


इस प्रकार कर्मासक्त मनुष्यों की और सांख्ययोगी की स्थिति का भेद बतलाकर अब आत्म तत्त्व को पूर्णतया समझाने वाले महापुरुष के लिये यह प्रेरणा की जाती है कि वह कर्मासक्त अज्ञानी मनुष्यों को विचलित न करे –


तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: ।
गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते ।।28।।



परंतु हे महाबाहो[1] ! गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्त्व को जानने वाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता ।।28।।

He, however, who has true insight into the respective spheres of gunas (modes of prakrti) and their actions, holding that it is the gunas (in the shape of the senses, mind, etc.,) that move among the gunas (objects of perception), does not get attached to them, Arjuna. (28)


तु = परन्तु ; महाबाहो = हे महाबाहो ; तत्त्ववित् = तत्त्वको जाननेवाला (ज्ञानी पुरुष) ; गुणा: = संपूर्ण गुण ; गुणेषु = गुणोंमें ; गुणकर्मविभागयो: = गुणविभाग और कर्मविभागके ; वर्तते हैं ; इति = ऐसे ; मत्वा = मानकर ; न = नहीं ; सज्जते = आसक्त होता है ;



अध्याय तीन श्लोक संख्या
Verses- Chapter-3

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 | 7 | 8 | 9 | 10 | 11 | 12 | 13 | 14, 15 | 16 | 17 | 18 | 19 | 20 | 21 | 22 | 23 | 24 | 25 | 26 | 27 | 28 | 29 | 30 | 31 | 32 | 33 | 34 | 35 | 36 | 37 | 38 | 39 | 40 | 41 | 42 | 43

अध्याय / Chapter:
एक (1) | दो (2) | तीन (3) | चार (4) | पाँच (5) | छ: (6) | सात (7) | आठ (8) | नौ (9) | दस (10) | ग्यारह (11) | बारह (12) | तेरह (13) | चौदह (14) | पन्द्रह (15) | सोलह (16) | सत्रह (17) | अठारह (18)

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पार्थ, भारत, धनज्जय, पृथापुत्र, परन्तप, गुडाकेश, निष्पाप, महाबाहो सभी अर्जुन के सम्बोधन है ।

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