अश्वगंधा

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अश्वगंधा एक झाड़ीदार रोमयुक्त पौधा है। कहने को तो अश्वगंधा एक पौधा है, लेकिन यह बहुवर्षीय पौधा पौष्टिक जड़ों से युक्त है। अश्वगंधा के बीज, फल एवं छाल का विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयोग किया जाता है। इसे 'असंगध' एवं 'बाराहरकर्णी' भी कहते हैं। अश्वगंधा की कच्ची जड़ से अश्व जैसी गंध आती है, इसीलिए भी इसे 'अश्वगंधा' या 'वाजिगंधा' कहा जाता है। इसका सेवन करते रहने से अश्व जैसा उत्साह उत्पन्न होता है, अतः इसका नाम सार्थक है। सूख जाने पर अश्वगंधा की गंध कम हो जाती है।

प्राप्ति स्थान

अश्वगंधा सारे भारत में पश्चिमोत्तर भाग, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब तथा हिमाचल प्रदेश में 5000 फीट की ऊँचाई तक पाई जाती है। मध्य प्रदेश के पश्चिमोत्तर ज़िले मंदसौर की मनासा तहसील में इसकी बड़े पैमाने पर खेती की जाती है तथा सारे भारत की व्यावसायिक पूर्ति इसी स्थान से होती है। पहले यह नागौर (राजस्थान) में बहुत होता था और वहीं से सर्वत्र भेजा जाता था। अतः इसे 'नागौरी असंगध' भी कहा जाता था। यह नाम अभी भी प्रसिद्ध है।

आकृति

इसका क्षुप झाड़ीदार होता है, जो एक से चार फुट ऊँचा तथा बहुशाखीय होता है। अश्वगंधा की शाखाएँ गोलाकार रूप में चारों ओर फैली रहती हैं। कहीं-कहीं बड़े-बड़े वृक्षों के नीचे जलाशयों के समीप यह बारहों माह हरी-भरी स्थिति में पाया जाता है। आकार में यह छोटी कंटेरा जैसा परन्तु कण्टक रहित होता है।

पत्तियाँ

अश्वगंधा के पत्र जोड़े में अखण्डित अण्डाकार पाँच से दस सेण्टीमीटर लंबे तथा तीन से पाँच सेण्टीमीटर चौड़े होते हैं। ये आकार में लंबे, बीज छोटे लटवाकार से लेकर कहीं-कहीं पलाश के पत्ते सदृश बड़े होते हैं। डण्ठल बहुत ही छोटा होता है।

फूल

अश्वगंधा के फूल छोटे-छोटे कुछ लंबे, कुछ पीलाहरापन लिए चिलम के आकार के होते हैं। ये फूल शाखाओं के अग्र भाग पर खिलते हैं। इन पर भी डण्ठल के समान सफ़ेद रंग के छोटे-छोटे रोम होते हैं। फल छोटे-छोटे, गोल मटर या मकोय के फल के समान पहले हरे, फिर कार्तिक मास में पकने पर लाल रंग के हो जाते हैं। ये रसभरी के फलों के समान दिखते हैं। अश्वगंधा के फल के अन्दर लोआव तथा कटेरी के बीजों के समान श्वेत असंख्यों बीज होते हैं। इन्हें यदि दूध में डाल दिया जाए तो वे उसे जमा भी देते हैं। शरद ऋतु में फूल आते हैं तथा कार्तिक मार्गशीर्ष में पकते हैं।

जड़

इस औषधीय पौधे की मूल चार से आठ इंच लंबी, ऊपर से मटमैली, अन्दर से सफ़ेद और शंकु के आकार की होती है। यह नीचे से मोटी ऊपर से पतली, गोल व चिकनी होती है। गीली ताजी जड़ से घोड़े के मूत्र के समान तीव्र गंध आती है, जिसका स्वाद बहुत तीखा होता है। बरसात में इसके बीज बोये जाते हैं तथा जाड़े में फ़सल निकाली जाती है।


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