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*इब्न बतूता एक विद्वान अफ़्रीकी यात्री था, जिसका जन्म 24 फ़रवरी 1304 ई. को उत्तर अफ्रीका के मोरक्को प्रदेश के प्रसिद्ध नगर तांजियर में हुआ था।  
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[[चित्र:Ibn-Battuta.jpg|thumb|इब्न बतूता]]
*इब्न बतूता का पूरा नाम था मुहम्मद बिन अब्दुल्ला इब्न बतूता था।
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'''इब्न बतूता''' एक विद्वान अफ़्रीकी यात्री था, जिसका जन्म [[24 फ़रवरी]] 1304 ई. को उत्तर अफ्रीका के मोरक्को प्रदेश के प्रसिद्ध नगर तांजियर में हुआ था। इसके पूर्वजों का व्यवसाय काजियों का था। इब्न बत्तूता आरंभ से ही बड़ा धर्मानुरागी था।
*इब्न बतूता 1333 ई. में सुल्तान [[मुहम्मद तुग़लक़]] के राज्यकाल में [[भारत]] आया।  
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==परिचय==
*सुल्तान ने इसका स्वागत किया और उसे [[दिल्ली]] का प्रधान काज़ी नियुक्त कर दिया।
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इब्नबतूता अरब यात्री, विद्वान तथा लेखक था। उत्तरी [[अफ्रीका महाद्वीप|अफ्रीका]] के मोरक्को प्रदेश के प्रसिद्ध नगर तांजियर में 14 रजब, 703 हि. ([[24 फरवरी]], 1304 ई.) को इसका जन्म हुआ था। इसक पूरा नाम मुहम्मद बिन अब्दुल्ला इब्नबतूता था। इब्नबतूता आरंभ से ही बड़ा धर्मानुरागी था। उसे [[मक्का (अरब)|मक्के]] की यात्रा ([[हज]]) तथा प्रसिद्ध मुसलमानों का दर्शन करने की बड़ी अभिलाषा थी। इस आकांक्षा को पूरा करने के उद्देश्य से वह केवल 21 बरस की आयु में यात्रा करने निकल पड़ा। चलते समय उसने यह कभी न सोचा था कि उसे इतनी लंबी देश देशांतरों की यात्रा करने का अवसर मिलेगा। मक्के आदि तीर्थस्थानों की यात्रा करना प्रत्येक [[मुसलमान]] का एक आवश्यक कर्त्तव्य है। इसी से सैकड़ों मुसलमान विभिन्न देशों से [[मक्का (अरब)|मक्का]] आते रहते थे। इन यात्रियों की लंबी यात्राओं को सुलभ बनाने में कई संस्थाएँ उस समय मुस्लिम जगत में उत्पन्न हो गई थीं जिनके द्वारा इन सबको हर प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त होती थीं और उनका पर्यटन बड़ा रोचक तथा आनंददायक बन जाता था। इन्हीं संस्थाओं के कारण दरिद्र से दरिद्र '''हाजी''' भी दूर-दूर देशों से आकर हज करने में समर्थ होते थे।
*1342 ई. में सुल्तान के राजदूत के रूप में [[चीन]] जाने तक वह इस पद पर बना रहा। उसने अपनी भारत यात्रा का बहुमूल्य वर्णन लिखा है, जिससे सुल्तान मुहम्मद तुग़लक के जीवन और काल के बारे में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्राप्त होती हैं।
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इब्नबतूता ने इन संस्थाओं की बार-बार प्रशंसा की है। वह उनके प्रति अत्यंत कृतज्ञ है। इनमें सर्वोतम वह संगठन था जिसके द्वारा बड़े से बड़े यात्री दलों की हर प्रकार की सुविधा के लिए हर स्थान पर आगे से ही पूरी-पूरी व्यवस्था कर दी जाती थी एवं मार्ग में उनकी सुरक्षा का भी प्रबंध किया जाता था। प्रत्येक गाँव तथा नगर में ख़ानकाहें (मठ) तथा सराएँ उनके ठहरने, खाने पीने आदि के लिए होती थीं। धार्मिक नेताओं की तो विशेष आवभगत होती थी। हर जगह शेख, काजी आदि उनका विशेष सत्कार करते थे। इस्लाम के भ्रातृत्व से सिद्धांत का यह संस्था एक ज्वलंत उदाहरण थी। इसी के कारण देश-देशांतरों के [[मुसलमान]] बेखटके तथा बड़े आराम से लंबी-लंबी यात्राएँ कर सकते थे। दूसरी सुविधा [[मध्यकाल]] के मुसलमानों का यह प्राप्त थी कि [[अफ्रीका महाद्वीप|अफ्रीका]] और भारतीय समुद्रमार्गों का समूचा व्यापार अरब सौदागरों के हाथों में था। ये सौदागर भी [[मुसलमान]] यात्रियों का उतना ही आदर करते थे।
*उसका वर्णन अतिशयोक्तियों से भरा होने पर भी सामान्य रीति से विश्वसनीय है।  
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==भ्रमणवृत्तांतृ==
*इब्न बतूता ने सुल्तान द्वारा जिन कारणों से राजधानी को दिल्ली से हटाकर [[दौलताबाद]] ले जाने का आदेश दिया गया और जिस रीति से दिल्ली को पूरी तरह से ख़ाली कराया गया, उसका जो वर्णन लिखा है, उसे उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है।
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इब्नबतूता दमिश्क और फिलिस्तीन होता एक कारवाँ के साथ मक्का पहुँचा। यात्रा के दिनों में दो साधुओं से उसकी भेंट हुई थी जिन्होंने उससे पूर्वी देशों की यात्रा के सुख सौंदर्य का वर्णन किया था। इसी समय उसने उन देशों की यात्रा का संकल्प कर लिया। [[मक्का (अरब)|मक्के]] से इब्नबतूता ईराक, [[ईरान]], मोसुल आदि स्थानों में घूमकर 1329 (729 हि.) में दुबारा [[मक्का (अरब)|मक्का]] लौटा और वहाँ तीन बरस ठहरकर अध्ययन तथा भगवदभक्ति में लगा रहा। बाद में उसने फिर यात्रा आरंभ की और [[अरब|दक्षिण अरब]], [[अफ्रीका महाद्वीप|पूर्वी अफ्रीका]] तथा फारस के बंदरगाह हुर्मुज से तीसरी बार फिर [[मक्का (अरब)|मक्का]] गया। वहाँ से वह क्रीमियां, खीवा, बुखारा होता हुआ [[अफगानिस्तान]] के मार्ग से [[भारत]] आया। भारत पहुँचने पर इब्नबतूता बड़ा वैभवशाली एवं संपन्न हो गया था।
*इब्न बतूता का बाकी जीवन अपने देश में हो बीता।
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==भारत प्रवेश==
*1377 (779 हिजरी) में इब्न बतूता की मृत्यु हुई।  
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इब्नबतूता 1333 ई. में सुल्तान [[मुहम्मद तुग़लक़]] के राज्यकाल में [[भारत]] आया। भारत के उत्तर पश्चिम द्वार से प्रवेश करके इब्नबतूता सीधा दिल्ली पहुँचा, जहाँ तुगलक सुल्तान मुहम्मद ने उसका बड़ा आदर सत्कार किया और उसे राजधानी का काजी नियुक्त किया। इस पद पर पूरे सात बरस रहकर, जिसमें उसे सुल्तान को अत्यंत निकट से देखने का अवसर मिला, इब्न बतूता ने हर घटना को बड़े ध्यान से देखा और सुना। 1342 में [[मुहम्मद तुग़लक|मुहम्मद तुगलक]] ने उसे [[चीन]] के बादशाह के पास अपना राजदूत बनाकर भेजा, परंतु [[दिल्ली]] से प्रस्थान करने के थोड़े दिन बाद ही वह बड़ी विपत्ति में पड़ गया और बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचाकर अनेक आपत्तियाँ सहता वह कालीकट पहुँचा। ऐसी परिस्थिति में [[सागर]] की राह [[चीन]] जाना व्यर्थ समझकर वह भूभाग से यात्रा करने निकल पड़ा और [[लंका |लंका]], [[बंगाल]] आदि प्रदेशों में घूमता चीन जा पहुँचा। किंतु शायद वह मंगोल खान के दरबार तक नहीं गया। इसके बाद उसने [[एशिया महाद्वीप|पश्चिम एशिया]], [[अफ्रीका महाद्वीप|उत्तर अफ्रीका]] तथा [[स्पेन]] के मुस्लिम स्थानों क भ्रमण किया और अंत में टिंबकट आदि होता वह 1354 के आरंभ में मोरक्को की राजधानी 'फेज' लौट गया।
*इब्न बतूता के भ्रमणवृत्तांत को 'तुहफ़तअल नज्ज़ार फ़ी गरायब अल अमसार व अजायब अल अफ़सार' का नाम दिया गया।
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==महान यात्री==
*इब्न बतूता की एक प्रति पेरिस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित हैं।
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इब्नबतूता [[मुसलमान]] यात्रियों में सबसे महान्‌ था। अनुमानत: उसने लगभग 75,000 मील की यात्रा की थी। इतना लंबा भ्रमण उस युग के शायद ही किसी अन्य यात्री ने किया हो। 'फेज' लौटकर उसने अपना भ्रमणवृत्तांत सुल्तान को सुनाया। उसका वर्णन अतिशयोक्तियों से भरा होने पर भी सामान्य रीति से विश्वसनीय है। सुल्तान के आदेशानुसार उसके सचिव '''मुहम्मद इब्न जुज़ैय''' ने उसे लेखबद्ध किया। इब्न बतूता का बाकी जीवन अपने देश में ही बीता। इब्न बत्तूता के भ्रमणवृत्तांत को 'तुहफ़तअल नज्ज़ार फ़ी गरायब अल अमसार व अजायब अल अफ़सार' का नाम दिया गया। इसकी एक प्रति [[पेरिस]] के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। उसके यात्रावृत्तांत में तत्कालीन [[भारतीय इतिहास]] की अत्यंत उपयोगी सामग्री मिलती है।<ref>सं.ग्रं.-पेरिस की हस्तलिपि को दे फ्रेमरी तथा सांगिनेती ने संपादित किया। यह हस्तलिपि तांजियर में 1836 के लगभग प्राप्त हुई थी। इन्हीं संपादकों ने इसका पूरा अनुवाद फ्रेंच भाषा में किया था। यह ग्रंथ चार खंडों में 1853 से 1859 तक पेरिस से प्रकाशित हुआ। इसके बाद दो और संस्करण पेरिस तथा कैरो से प्रकाशित हुए। 'ईलियट और डाउसन' के इतिहास के तीसरे खंड में इसके कुछ संदर्भों का अंग्रेजी अनुवाद हुआ। 'ब्राडवे ट्रैवेलर्स' में एच.ए.आर. गिब्ब द्वारा संक्षिप्त अनुवाद, एक प्रस्तावना सहित, लंदन से 1929 में प्रकाशित हुआ। इसके दूसरे तथा तीसरे संस्करण 1939 तथा 1953 में छपे।</ref> इब्न बतूता ने सुल्तान द्वारा जिन कारणों से राजधानी को दिल्ली से हटाकर [[दौलताबाद]] ले जाने का आदेश दिया गया और जिस रीति से [[दिल्ली]] को पूरी तरह से ख़ाली कराया गया, उसका जो वर्णन लिखा है, उसे उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है।
*इब्न बतूता के यात्रावृत्तांत में तत्कालीन भारतीय इतिहास की अत्यंत उपयोगी सामग्री मिलती है।
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==मृत्यु==
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इब्नबतूता की मृत्यु 1377 (779 हि.) में हुई।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=530-31 |url=}}</ref>
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04:57, 7 जनवरी 2020 के समय का अवतरण

इब्न बतूता

इब्न बतूता एक विद्वान अफ़्रीकी यात्री था, जिसका जन्म 24 फ़रवरी 1304 ई. को उत्तर अफ्रीका के मोरक्को प्रदेश के प्रसिद्ध नगर तांजियर में हुआ था। इसके पूर्वजों का व्यवसाय काजियों का था। इब्न बत्तूता आरंभ से ही बड़ा धर्मानुरागी था।

परिचय

इब्नबतूता अरब यात्री, विद्वान तथा लेखक था। उत्तरी अफ्रीका के मोरक्को प्रदेश के प्रसिद्ध नगर तांजियर में 14 रजब, 703 हि. (24 फरवरी, 1304 ई.) को इसका जन्म हुआ था। इसक पूरा नाम मुहम्मद बिन अब्दुल्ला इब्नबतूता था। इब्नबतूता आरंभ से ही बड़ा धर्मानुरागी था। उसे मक्के की यात्रा (हज) तथा प्रसिद्ध मुसलमानों का दर्शन करने की बड़ी अभिलाषा थी। इस आकांक्षा को पूरा करने के उद्देश्य से वह केवल 21 बरस की आयु में यात्रा करने निकल पड़ा। चलते समय उसने यह कभी न सोचा था कि उसे इतनी लंबी देश देशांतरों की यात्रा करने का अवसर मिलेगा। मक्के आदि तीर्थस्थानों की यात्रा करना प्रत्येक मुसलमान का एक आवश्यक कर्त्तव्य है। इसी से सैकड़ों मुसलमान विभिन्न देशों से मक्का आते रहते थे। इन यात्रियों की लंबी यात्राओं को सुलभ बनाने में कई संस्थाएँ उस समय मुस्लिम जगत में उत्पन्न हो गई थीं जिनके द्वारा इन सबको हर प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त होती थीं और उनका पर्यटन बड़ा रोचक तथा आनंददायक बन जाता था। इन्हीं संस्थाओं के कारण दरिद्र से दरिद्र हाजी भी दूर-दूर देशों से आकर हज करने में समर्थ होते थे। इब्नबतूता ने इन संस्थाओं की बार-बार प्रशंसा की है। वह उनके प्रति अत्यंत कृतज्ञ है। इनमें सर्वोतम वह संगठन था जिसके द्वारा बड़े से बड़े यात्री दलों की हर प्रकार की सुविधा के लिए हर स्थान पर आगे से ही पूरी-पूरी व्यवस्था कर दी जाती थी एवं मार्ग में उनकी सुरक्षा का भी प्रबंध किया जाता था। प्रत्येक गाँव तथा नगर में ख़ानकाहें (मठ) तथा सराएँ उनके ठहरने, खाने पीने आदि के लिए होती थीं। धार्मिक नेताओं की तो विशेष आवभगत होती थी। हर जगह शेख, काजी आदि उनका विशेष सत्कार करते थे। इस्लाम के भ्रातृत्व से सिद्धांत का यह संस्था एक ज्वलंत उदाहरण थी। इसी के कारण देश-देशांतरों के मुसलमान बेखटके तथा बड़े आराम से लंबी-लंबी यात्राएँ कर सकते थे। दूसरी सुविधा मध्यकाल के मुसलमानों का यह प्राप्त थी कि अफ्रीका और भारतीय समुद्रमार्गों का समूचा व्यापार अरब सौदागरों के हाथों में था। ये सौदागर भी मुसलमान यात्रियों का उतना ही आदर करते थे।

भ्रमणवृत्तांतृ

इब्नबतूता दमिश्क और फिलिस्तीन होता एक कारवाँ के साथ मक्का पहुँचा। यात्रा के दिनों में दो साधुओं से उसकी भेंट हुई थी जिन्होंने उससे पूर्वी देशों की यात्रा के सुख सौंदर्य का वर्णन किया था। इसी समय उसने उन देशों की यात्रा का संकल्प कर लिया। मक्के से इब्नबतूता ईराक, ईरान, मोसुल आदि स्थानों में घूमकर 1329 (729 हि.) में दुबारा मक्का लौटा और वहाँ तीन बरस ठहरकर अध्ययन तथा भगवदभक्ति में लगा रहा। बाद में उसने फिर यात्रा आरंभ की और दक्षिण अरब, पूर्वी अफ्रीका तथा फारस के बंदरगाह हुर्मुज से तीसरी बार फिर मक्का गया। वहाँ से वह क्रीमियां, खीवा, बुखारा होता हुआ अफगानिस्तान के मार्ग से भारत आया। भारत पहुँचने पर इब्नबतूता बड़ा वैभवशाली एवं संपन्न हो गया था।

भारत प्रवेश

इब्नबतूता 1333 ई. में सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ के राज्यकाल में भारत आया। भारत के उत्तर पश्चिम द्वार से प्रवेश करके इब्नबतूता सीधा दिल्ली पहुँचा, जहाँ तुगलक सुल्तान मुहम्मद ने उसका बड़ा आदर सत्कार किया और उसे राजधानी का काजी नियुक्त किया। इस पद पर पूरे सात बरस रहकर, जिसमें उसे सुल्तान को अत्यंत निकट से देखने का अवसर मिला, इब्न बतूता ने हर घटना को बड़े ध्यान से देखा और सुना। 1342 में मुहम्मद तुगलक ने उसे चीन के बादशाह के पास अपना राजदूत बनाकर भेजा, परंतु दिल्ली से प्रस्थान करने के थोड़े दिन बाद ही वह बड़ी विपत्ति में पड़ गया और बड़ी कठिनाई से अपनी जान बचाकर अनेक आपत्तियाँ सहता वह कालीकट पहुँचा। ऐसी परिस्थिति में सागर की राह चीन जाना व्यर्थ समझकर वह भूभाग से यात्रा करने निकल पड़ा और लंका, बंगाल आदि प्रदेशों में घूमता चीन जा पहुँचा। किंतु शायद वह मंगोल खान के दरबार तक नहीं गया। इसके बाद उसने पश्चिम एशिया, उत्तर अफ्रीका तथा स्पेन के मुस्लिम स्थानों क भ्रमण किया और अंत में टिंबकट आदि होता वह 1354 के आरंभ में मोरक्को की राजधानी 'फेज' लौट गया।

महान यात्री

इब्नबतूता मुसलमान यात्रियों में सबसे महान्‌ था। अनुमानत: उसने लगभग 75,000 मील की यात्रा की थी। इतना लंबा भ्रमण उस युग के शायद ही किसी अन्य यात्री ने किया हो। 'फेज' लौटकर उसने अपना भ्रमणवृत्तांत सुल्तान को सुनाया। उसका वर्णन अतिशयोक्तियों से भरा होने पर भी सामान्य रीति से विश्वसनीय है। सुल्तान के आदेशानुसार उसके सचिव मुहम्मद इब्न जुज़ैय ने उसे लेखबद्ध किया। इब्न बतूता का बाकी जीवन अपने देश में ही बीता। इब्न बत्तूता के भ्रमणवृत्तांत को 'तुहफ़तअल नज्ज़ार फ़ी गरायब अल अमसार व अजायब अल अफ़सार' का नाम दिया गया। इसकी एक प्रति पेरिस के राष्ट्रीय पुस्तकालय में सुरक्षित हैं। उसके यात्रावृत्तांत में तत्कालीन भारतीय इतिहास की अत्यंत उपयोगी सामग्री मिलती है।[1] इब्न बतूता ने सुल्तान द्वारा जिन कारणों से राजधानी को दिल्ली से हटाकर दौलताबाद ले जाने का आदेश दिया गया और जिस रीति से दिल्ली को पूरी तरह से ख़ाली कराया गया, उसका जो वर्णन लिखा है, उसे उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है।

मृत्यु

इब्नबतूता की मृत्यु 1377 (779 हि.) में हुई।[2]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं.-पेरिस की हस्तलिपि को दे फ्रेमरी तथा सांगिनेती ने संपादित किया। यह हस्तलिपि तांजियर में 1836 के लगभग प्राप्त हुई थी। इन्हीं संपादकों ने इसका पूरा अनुवाद फ्रेंच भाषा में किया था। यह ग्रंथ चार खंडों में 1853 से 1859 तक पेरिस से प्रकाशित हुआ। इसके बाद दो और संस्करण पेरिस तथा कैरो से प्रकाशित हुए। 'ईलियट और डाउसन' के इतिहास के तीसरे खंड में इसके कुछ संदर्भों का अंग्रेजी अनुवाद हुआ। 'ब्राडवे ट्रैवेलर्स' में एच.ए.आर. गिब्ब द्वारा संक्षिप्त अनुवाद, एक प्रस्तावना सहित, लंदन से 1929 में प्रकाशित हुआ। इसके दूसरे तथा तीसरे संस्करण 1939 तथा 1953 में छपे।
  2. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 530-31 |

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