मौर्योत्तर काल

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

मौर्य साम्राज्य की लड़खड़ाती हुई दीवार ई. पू. 187 में ढह गई और मौर्य साम्राज्य के अंत के साथ ही भारतीय इतिहास की राजनीतिक एकता कुछ समय के लिए खंडित हो गई। अब हिन्दुकुश से लेकर कर्नाटक एवं बंगाल तक एक ही राजवंश का आधिपत्य नहीं रहा। देश के उत्तर पश्चिमी मार्गों से कई विदेशी आक्रांताओं ने आकर अनेक भागों में अपने अपने राज्य स्थापित कर लिए। दक्षिण में स्थानीय शासक वंश स्वतंत्र हो उठे। कुछ समय के लिए मध्य प्रदेश का सिंधु घाटी एवं गोदावरी क्षेत्र से सम्बन्ध टूट गया और मगध के वैभव का स्थान साकल, विदिशा, प्रतिष्ठान, आदि कई नगरों ने ले लिया।

ऐतिहासिक स्रोत

भारतीय धार्मिक एवं धर्मेतर साहित्य, विदेशी साहित्यक ग्रंथों, अभिलेखों, सिक्कों एवं अन्य पुरातात्विक खोजों के आधार पर इस काल के इतिहास की पुनर्रचना में सहायता मिलती है। पुराण एवं स्मृति ग्रंथ इस काल के विषय में जानकारी के स्रोत हैं। इसके अतिरिक्त बौद्ध धार्मिक ग्रंथों से भी तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक स्थिति का पता चलता है। बौद्ध जातक ग्रंथों का रचनाकाल ईसा पूर्व प्रथम शती से लेकर ईस्वी सन दूसरी या तीसरी शती तक माना जाता है। दिव्यावदान, ललितविस्तर, मंजूश्रीमूलकल्प नामक बौद्ध ग्रंथ भी इस काल के इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। 'मिलिन्दपञ्ह' नामक पुस्तक से हमें मिनांडर नामक यूनानी शासक के विषय में जानकारी मिलती है। धर्मेतर साहित्य में पतंजलि के महाभाष्य से हमें पुष्यमित्र शुंग के राज्यकाल की कुछ घटनाओं का पता चलता है। गार्गी संहिता में यवनों के आक्रमण का उल्लेख है। कालिदास कृत "मालविकाग्निमित्र" से भी पुष्यमित्र कालीन यवन आक्रमण के कुछ विवरण मिलते हैं।

सन 80 के लगभग किसी यूनानी नाविक ने "पेरिप्लस आफ़ दि एरिथियन सी" नामक पुस्तक में भारतीय समुद्रों का हाल लिखा था। इस पुस्तक से ईस्वी सन की पहली शती में भारत की व्यापारिक गतिविधि का पता चलता है। स्ट्राबो के 'भूगोल' एवं प्लिनी कृत 'नेचुरल हिस्ट्री' में उन देशों के विविध पक्षों का वर्णन मिलता है जिनके साथ उस समय भूमध्यसागरीय देशों का व्यापारिक सम्बन्ध था। ये दोनों कृतियाँ ईस्वी सन की आरम्भिक दो शताब्दियों की हैं। चीन के राजवंशों के प्रारम्भिक इतिहास ग्रंथ भी इस काल के सम्बन्ध में उपयोगी सामग्री प्रदान करने में सहायक हुए हैं।

राजाओं के अभिलेखों में प्रशस्तियाँ और राजाज्ञाएँ प्रमुख हैं। प्रशस्तियों में सबसे अधिक प्रसिद्ध है गौतमी वलश्री का नासिक अभिलेख, जिसमें गौतमीपुत्र शातकर्णी का वर्णन है। रूद्रदामा का गिरनार शिलालेख भी उस समय का प्रसिद्ध अभिलेख है। इस समय का इतिहास लिखने में सिक्के बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। भारतीय सिक्कों पर पहले केवल देवताओं के चित्र ही अंकित रहते थे, उनका नाम या तिथि उत्कीर्ण नहीं की जाती थी। जब से उत्तर पश्चिमी भारत पर बैक्ट्रिया के यूनानी राजाओं का शासन प्रारम्भ हुआ, सिक्कों पर राजाओं के नाम व तिथियाँ उत्कीर्ण की जाने लगीं। शक, पल्लव और कुषाण राजाओं ने भी यूनानी राजाओं के अनुरूप ही सिक्के चलाए। भारतीय शक राजाओं और मालव यौधेय आदि गण राज्यों के इतिहास पर उनके सिक्के पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। वास्तव में सिक्कों के इतिहास की दृष्टि से यह काल अभूतपूर्व है। सिक्कों की मात्रा से ही नहीं अपितु विविध धातुओं तथा विविध इकाइयों में मिलने वाले सिक्कों से यह संकेत मिलता है कि मुद्रा - प्रणाली किस प्रकार जनजीवन का एक अभिन्न अंग बन गई थी।

विदेशी आक्रमण बैक्ट्रिया के ग्रीक

उत्तर पश्चिमी से विदेशियों के आक्रमण मौर्योत्तर काल की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना थी। इनमें सबसे पहले आक्रांता थे बैक्ट्रिया के ग्रीक, जिन्हें पूर्ववर्ती भारतीय साहित्य में यवन के नाम से सम्बोधित किया गया है। सिकन्दर ने अपने पीछे एक विशाल साम्राज्य छोड़ा था, जिसमें मैसीडोनिया, सीरिया, बैक्ट्रिया, पार्थिया, अफ़ग़ानिस्तान एवं उत्तर पश्चिमी भारत के कुछ भाग सम्मिलित थे। इस साम्राज्य का काफ़ी बड़ा भाग सिकन्दर के बाद [सेल्युकस] के अधीन रहा। यद्यपि अफ़ग़ानिस्तान एवं भारत के उत्तर पश्चिम के भाग उसे चंद्रगुप्त मौर्य को समर्पित कर देने पड़े थे। सेल्यूकस एवं उसके तुरन्त बाद के अधिकारी कुशल शासक थे किन्तु उनके परवर्ती शासकों के अधीन साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया। लगभग ई. पू. 250 में बैक्ट्रिया के गवर्नर डियोडोटस एवं पार्थिया के गवर्नर औरेक्सस ने अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया। बैक्ट्रिया के दूसरे राजा डियोडोटस द्वितीय ने अपने देश सेल्युकस के साम्राज्य से पूर्णतः अलग कर लिया।

डियाडोटस एवं उसका उत्तराधिकारी मध्य एशिया में अपना साम्राज्य सुगठित करने में व्यस्त रहे किन्तु उनके बाद के एक शासक डेमेट्रियस प्रथम (ई. पू. 220--175) ने भारत पर आक्रमण किया। ई. पू. 183 के लगभग उसने पंजाब का एक बड़ा भाग जीत लिया और साकल को अपनी राजधानी बनाया। डेमेट्रियस ने भारतीयों के राजा की उपाधि धारण की और यूनानी तथा खरोष्ठी दोनों लिपियों वाले सिक्के चलाए। किन्तु जब डेमेट्रियस भारत में व्यस्त था, स्वयं बैक्ट्रिया में एक यूक्रेटाइड्स की अध्यक्ष्ता में विद्रोह हो गया और डेमेट्रियस को बैक्ट्रिया से हाथ धोना पड़ा। यूक्रेटाइड्स भी भारत की ओर बढ़ा और कुछ भागों को जीतकर उसने तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया। यूक्रेटाइड्स के सिक्के बैक्ट्रिया, सीस्तान, काबुल की घाटी, कपिश और गंधार में मिले हैं। सम्भवतः झेलम तक पश्चिमी पंजाब को उसने अपने राज्य में मिला लिया। यद्यपि वह और आगे न बढ़ सका। डेमेट्रियस का अधिकार पूर्वी पंजाब और सिंध पर ही रह गया। भारत में यवन साम्राज्य इस प्रकार दो कुलों में बंट गया—डेमेट्रियस एवं यूक्रेटाइड्स के वंश। सबसे प्रसिद्ध यवन शासक मीनान्डर था (ई. पू. 160--120), जो बौद्ध साहित्य में मिलिन्द के नाम से प्रसिद्ध है। यह सम्भवतः डेमेट्रियस के कुल का था। पेरिप्लस में लिखा है कि मीनान्डर के सिक्के भड़ोच के बाज़ारों में खूब चलते थे। स्वात की घाटी में एक मंजूषा मिली है जिस पर मीनान्डर का नाम खुदा है। इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि मीनान्डर के राज्य में अफ़ग़ानिस्तान का कुछ भाग और उत्तर—पश्चिमी सीमांत प्रदेश सम्मिलित थे। स्ट्राबो ने लिखा है कि यूनानियों ने गंगा नदी और पाटलिपुत्र तक आक्रमण किए। पंतजलि के महाभाष्य में उल्लेख आया है कि यूनानियों ने अवध में साकेत और राजस्थान में चित्तौड़ के निकट माध्यमिका का घेरा डाला। गार्गी संहिता के 'युगपुराण' अध्याय से ज्ञात होता है कि दुष्ट, वीर यवनों ने साकेत, पंचाल (गंगा—यमुना दोआब) और मथुरा को जीतकर पाटलिपुत्र तक धावा मारा, किन्तु घरेलू युद्धों के कारण वे तुरन्त लौट अए। कुछ इतिहासकारों का मत है कि ये वर्णन मीनान्डर के भारतीय आक्रमणों से सम्बद्ध है। हाल ही में कौशांबी (इलाहाबाद) के पास रेह से प्राप्त एक संक्षिप्त अभिलेख में इस बात की पुष्टि होती है। इस अभिलेख में मीनान्डर का स्पष्ट उल्लेख है। पुरातात्विक साक्ष्यों से भी इस बात के संकेत मिले हैं कि गंगा घाटी में ई. पू. दूसरी शती के मध्य में काफ़ी विध्वंस हुआ। पुष्यमित्र शुंग के राज्यकाल का प्रारम्भ लगभग ई. पू. 187 में हुआ था और मीनान्डर का समय इससे बहुत बाद में है। मीनान्डर के सिक्के काबुल से मथुरा और बुंदेलखंड तक मिले हैं। बौद्ध ग्रंथ मिलिन्दपञ्ह में मीनान्डर के बौद्ध भिक्षु नागसेन के साथ वाद—विवाद के उपरान्त बौद्ध धर्म का अनुयायी बनने की कथा है। इसकी राजधानी साकल शिक्षा का प्रसिद्ध केन्द्र थी और वैभव एवं ऐश्वर्य में यह पाटलिपुत्र की समता करती थी। यह व्यापार का एक बड़ा केन्द्र भी थी। भारत में यवन राज्य दीर्घकालीन न हो सका, क्योंकि राजनीतिक एवं भौगोलिक कारणों से मध्य एशिया में क़बीलों का आना प्रारम्भ हो गया। चीनी सम्राट शी—हुआंग—ती द्वारा वहाँ विशाल दीवार बना देने एवं उस क्षेत्र में चरागाह सूख जाने के कारण कई क़बीले वहाँ से पश्चिम की ओर चल पड़े। उनके दबाव के कारण 'सीथियन—जिन्हें भारतीय स्रोतों में 'शकों' का नाम दिया गया है—अपना स्थान छोड़कर आगे बढ़ते हुए बैक्ट्रिया में आए और उस पर अपना अधिकार स्थापित किया। किन्तु यू—ची क़बीला अब भी उनके पीछे था, अतः और आगे बढ़ते हुए उन्होंने पहले पार्थिया और भारत के इंडो—ग्रीक राज्यों पर आक्रमण किया और वहाँ अपना अधिकार स्थापित किया।

यूनानी सम्पर्क का भारत पर प्रभाव इस काल में यूनानी सम्पर्क का भारत पर जो प्रभाव पड़ा उसके विषय में विभिन्न मतों की चर्चा करना तर्कसंगत होगा। प्रायः यह कहा जाता है कि भारत पर यूनानी सभ्यता का प्रभाव जमाने का जो कार्य सिकन्दर नहीं कर सका था वह भारत में इंडो—ग्रीक साम्राज्य स्थापित होने से पूर्ण हो गया। इस पक्ष पर और साथ ही तथाकथित गंधार शैली पर ग्रीक प्रभाव के विषय में विद्वानों के भिन्न—भिन्न मत हैं, जिनकी चर्चा करना उचित होगा, भले ही उससे कोई निश्चित निष्कर्ष न निकल सके। बी. ए. स्मिथ एवं डब्लयू. टार्न जैसे इतिहासकारों ने भारत पर यूनानी प्रभाव का नगण्य माना है। उनके अनुसार देश के अंदरूनी भागों पर डेमेट्रियस, यूक्रेटाइड्स, मीनान्डर, आदि के आक्रमण अल्पकालिक थे और उन्होंने भारत की मूल संस्कृति पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ा। उनके अनुसार भारतीय, सिकन्दर, मीनान्डर आदि से, विजेताओं के रूप में प्रभावित थे। वे इन्हें संस्कृति का दूत नहीं समझते थे। यद्यपि ये विजेता उनके लिए भय के पात्र अवश्य थे, किन्तु उनके लिए वे अनुकरणीय कदापि नहीं थे। इनके अनुसार यवन शासकों के सिक्कों पर जहाँ एक ओर ग्रीक कथाएँ अंकित हैं वही दूसरी ओर बढ़ती हुई संख्या में भारतीय कथाओं की संख्या यह प्रदर्शित करती है कि यूनानी भाषा भारत के लोगों की समझ में नहीं आती थी। किन्तु वुडकाक जैसे इतिहासकारों का कथन है कि ग्रीक विजेताओं में कई क्षेत्रों में भारत पर अपनी छाप छोड़ी थी। उनके अनुसार मुस्लिम आक्रमणों से पूर्व के अन्य सभी आक्रांताओं की भाँति यद्यपि कालक्रम से यवन भी भारतीय जनसंख्या में समाविष्ट हो गए, किन्तु ईसवी सन् के प्रारम्भिक काल में भारत पर उनका पर्याप्त प्रभुत्व था। उन्हें 'सर्वज्ञ यवन' (महाभारत) कहकर सम्मानित किया जाता था। यूनानी चिकित्सकों को अत्यन्त ज्ञानी कहकर उनका आदर किया जाता था। व्यूह रचना के विशेषज्ञ एवं युद्ध मशीनों के डिज़ाइन बनाने वालों के रूप में यवन इंजीनियरों का पूरे भारत में सम्मान था। इसके अतिरिक्त विज्ञान के क्षेत्र में भारतीयों ने मुक्त रूप से यवनों से शिक्षा ग्रहण कि थी। भारतीयों का ध्यान ज्योतिष शास्त्र ने विशेष रूप से आकर्षित किया था। उन्होंने यूनानियों से ही कलैंन्डर प्राप्त किया—सप्ताह का सात दिनों में विभाजन एवं विभिन्न ग्रहों के नाम भी उनसे ही लिए। फलित ज्योतिष का कुछ ज्ञान भारतीयों को पहले से ही था किन्तु नक्षत्रों को देखकर भविष्य बताने की कला भारतीयों ने यूनानियों से ही सीखी। गार्गी संहिता में स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है कि ज्योतिष के क्षेत्र में भारत यूनान का ऋणी है। उसमें लिखा है कि यद्यपि यवन बर्बर हैं किन्तु ज्योतिष के मूल निर्माता होने के कारण वे वंदनीय है। बराहमिहिर ने भी लिखा है कि यद्यपि यूनानी म्लेच्छ हैं किन्तु वे ज्योतिष के विद्वान हैं और इसलिय प्राचीन ऋषियों की भाँति पूज्य हैं। सिक्के बनाने की कला में भारतीयों ने यूनानियों से बहुत—कुछ सीखा। यूनानियों से सम्पर्क होने से पहले भारतीय आहत मुद्राएँ काम में लाते थे। उन पर कोई मुद्रालेख नहीं होता था। यवनों ने यहाँ पर ऐसे सिक्कों का प्रचलन किया जिन पर एक ओर राजा की आकृति और दूसरी ओर किसी देवता की मूर्ति या कुछ अन्य चिह्न बनाए गए। भारतीय शासकों ने इसी प्रणाली को अपनाया। कनिष्क ने भी बैक्ट्रिया के यूनानी राजाओं और रोम के सिक्कों के अनुरूप अपने सिक्के बनवाए। गंधार और मथुरा की बुद्ध व बोधिसत्वों की मूर्तियों पर यूनानी और रोमन गला का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। जिसका विस्तृत विवेचन हम आगे करेंगे। दूसरी ओर धर्म और दर्शन के क्षेत्र में यूनान भारत का ऋणी हुआ। कई यूनानी राजाओं ने भारतीय धर्म को अपनाया। तक्षशिला के एक यवन राजा एण्टियालकिडास ने हेलियोडोरस नामक अपना राजदूत काशीपुत्र भागभाद्र के पास भेजा था। हेलियोडोरस अपने को भागवत कहता था और उसने देवों के देव वसुदेव के उपलक्ष्य में बेसनगर में गरुड़ध्वज की स्थापना की। मीनान्डर स्वयं बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। सम्भवतः तपस्या और योग कि क्रियाएँ यूनानियों ने भारतीयों से सीखी। यवन प्रभाव के सन्दर्भ में एक मनोरंजक मत जर्मनी के प्राच्याविदों का है कि पारम्परिक संस्कृत सुखांत नाटकों पर एथेंस के नाटकों का प्रभाव था, जो कि इंडो ग्रीक राजाओं के दरबारों एवं नगरों में अभिनीत होते थे। इसके प्रमाण के रूप में किसी अन्य साक्ष्य के अभाव में यह एक बहुत स्पष्ट साक्ष्य माना जाता है कि संस्कृत नाटकों में पटाक्षेप के लिए 'यवनिका' शब्द का प्रयोग होता है। किन्तु यह एक इतना हल्का साक्ष्य है कि इसके आधार पर संस्कृत नाटकों पर यूनानी प्रभाव सिद्ध नहीं किया जा सकता। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि पारस्परिक सम्पर्क से भारतीय एवं यवनों ने परस्पर बहुत—कुछ ग्रहण किया। हिन्द—पार्थियन ई. पू. पहली शती के अन्त में पार्थियन नामों वाले कुछ शासक उत्तर—पश्चिम भारत पर शासन कर रहे थे, जिन्हें भारतीय स्रोतों में 'पहलव' कहा गया है। पार्थिया ने भी बैक्ट्रिया के साथ ही स्वयं को यूनानी शासन से स्वतंत्र किया था और सेल्यूकस वंशीय शासक एण्टियोकस तृतीय को इसकी स्वतंत्रता को भी मान्यता देनी पड़ी थी। पहलव शक्ति का वास्तविक संस्थापक मिथ्रेडेट्स प्रथम था जो यूक्रेटाइड्स का समकालीन था। सीस्तान, कंधार, काबुल में प्राप्त कई सिक्कों से, चीनी एवं रोमन साहित्य में इस सूचना कि पुष्टि होती है कि इस पर बैक्ट्रिया के बाद पहलवों ने राज्य किया और लगभग ईसवीं की पहली शती के मध्य तक इनकी शक्ति का इस प्रदेश में काफ़ी बोलबाला था। सिक्कों में ऐसे कई शासकों के नाम हैं जो पार्थियन हैं—ये सम्भवतः पहले पार्थियन शासकों के गवर्नर थे। भारत में पहला पार्थियन शासक माउस है (ई. पू. 90 से ई. पू. 70)। स्वात की घाटी तथा गंधार प्रदेशों में प्राप्त सिक्कों में इसका नाम खरोष्ठी लिपि में मोय और यूनानी लिपि में माउस लिखा है। सबसे शक्तिशाली पहलव शासक गोंडोफ़र्निस (गुन्दफ़र्न) था (20—41 ई.)। खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण तख्तेबही अभिलेख में इसे गुदुव्हर कहा गया है। फ़ारसी में इसका नाम विन्दफ़र्ण है जिसका अर्थ है यश विजयी। उसने पार्थिया के साम्राज्य के पूर्वी ईरान आदि प्रदेशों को और यूनानी राजा हर्मियस से उत्तरी काबुल की घाटी को जीता। तख्तेबही अभिलेख से, पेशावर ज़िले पर उसका अधिकार होना स्पष्ट है। पहलव साम्राज्य का अन्त कुषाणों के द्वारा हुआ—यह बात दो अभिलेखों से स्पष्ट होती है। हज़ारा ज़िले के पंजतर अभिलेख (65 ई.) में महाराज कुषाण का राज्य लिखा है। 79 ई. के तक्षशिला अभिलेख में राजा के लिए 'महाराज राजाधिराज देवपुत्र कुषाण' लिखा है।   शक -- लगभग ई. पू. 165 में यह क़बीला यू—ची नामक एक अन्य क़बीले के द्वारा मध्य एशिया से खदेड़ दिया गया था। इसने आगे बढ़ते हुए बैक्ट्रिया, पार्थिया आदि पर आक्रमण किया, फिर और आगे बढ़कर हिन्द—पार्थियन राजाओं से युद्ध किया। भारत में शक राजा अपने आप को क्षत्रप कहते थे। शक शासकों की भारत में दो शाखाएँ हो गई थीं। एक उत्तरी क्षत्रप कहलाते थे जो तक्षशिला एवं मथुरा में थे और दूसरे पश्चिमी क्षत्रप कहलाते थे जो नासिक एवं उज्जैन के थे। पश्चिमी क्षत्रप अधिक प्रसिद्ध थे। यू—ची आक्रमणों के भय से कई क्षत्रप ई. पू. पहली शती से ईसवी की पहली शती के बीच उत्तर—पश्चिम से दक्षिण की ओर बढ़ आए थे और नासिक के क्षत्रपों तथा उज्जैन के क्षत्रपों की दो शाखाओं में बँट गए थे। नासिक के क्षत्रपों में दो प्रसिद्ध शासक भूमक और नहपान थे। वे अपने को क्षयरात क्षत्रप कहते थे। ताँबे के सिक्कों में भूमक ने अपने आपकों क्षत्रप लिखा है। नहपान के अभिलेख में 41 से 46 तक तिथियाँ हैं, जो सम्भ्वतः 78 ई. में प्रारम्भ होने वाले संवत् में है। इसलिए नहपान का राज्यकाल 119 से 124 ई. तक स्थिर होता है। नहपान ने अपने सिक्कों में अपने आप को 'राजा' लिखा है। प्रारम्भिक अभिलेखों में अपने को क्षत्रप लिखता है किन्तु वर्ष 46 के अभिलेख में महाक्षत्रप। अभिलेखों के आधार पर प्रतीत होता है कि नहपान का राज्य उत्तर में राजपूताना तक था। उसके राज्य में काठियावाड़, दक्षिणी गुजरात, पश्चिमी मालवा, उत्तरी कोंकण, पूना आदि शामिल थे। उसने महाराष्ट्र के एक बड़े भू—भाग को सातवाहन राजाओं से छीना था। नहपान के समय भड़ौच एक बंदरगाह था। उज्जैन, प्रतिष्ठान आदि से बहुत—सा व्यापारिक सामान लाकर वहाँ पर एकत्र किया जाता था। वहाँ से यह सामान पश्चिमी देशों को भेजा जाता था। उज्जयिनी का पहला स्वतंत्र शक शासक चष्टण था। इसने अपने अभिलेखों में शक संवत् का प्रयोग किया है। इसके अनुसार इस वंश का राज्य 130 ई. से 388 ई. तक चला, जब सम्भवतः चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने इस कुल को समाप्त किया। ये शक कार्द्धमक क्षत्रप कहलाते थे। उज्जैन के क्षत्रपों में सबसे प्रसिद्ध रुद्रदामा (130 ई. से 150 ई.) था। इसके जूनागढ़ अभिलेख से प्रतीत होता है कि पूर्वी पश्चिमी मालवा, द्वारका के आसपास के प्रदेश, सौराष्ट्र, कच्छ, सिंधु नदी का मुहाना, उत्तरी कोंकण, मारवाड़, आदि प्रदेश उनके राज्य में सम्मिलित थे। ऐसा प्रतीत होता है कि रुद्रादामा या पूर्वजों ने मालवा, सौराष्ट्र, कोंकण आदि प्रदेशों को सातवाहनों से जीता। रुद्रदामा ने दुबारा अपने समकालीन शातवर्णी राजा को हराया। परन्तु निकट सम्बन्धी होने के कारण उसे नष्ट किया। यह शातकर्णी सम्भवतः वशिष्ठीपुत्र पुलुमावि था। सम्भवतः सिंधु नदी की घाटी रुद्रदामा ने कुषाण राजा से जीती थी। वह सुदर्शन झील, जिसे चंद्रगुप्त मौर्य ने बनवाया था और जिसकी मरम्मत अशोक ने करवाई थी, रुद्रदामा के समय फिर टूट गई। तब उसने निजी आय से इसकी मरम्मत कराई और प्रजा से इसके लिए कोई कर नहीं लिया। रुद्रदामा व्याकरण, राजनीति, संगीत एवं तर्कशास्त्र का पंडित था। जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में है और इससे उस समय के संस्कृत के साहित्य के विकास का अनुमान होता है। यद्यपि शक साम्राज्य चौथी शताब्दी ईसवी तक चलता रहा किन्तु रुद्रदामा के पश्चात शक साम्राज्य की शक्ति का ह्रास प्रारम्भ हो गया था। इस वंश का अन्तिम राजा रुद्रसिंह तृतीय था। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उसे मारकर पश्चिमी क्षत्रपों के राज्य को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया।   कुषाण मौर्योत्तरकालीन विदेशी आक्रमणों की श्रृंखला में यू—ची अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। लगभग ई. पू. 165 में इसके पड़ौसी क़बीले हिंग—नू ने यूचियों के नेता को मारकर उन्हें पश्चिमी चीन का क्षेत्र छोड़ने पर विवश कर दिया था। इसी क्षेत्र में यह क़बीला दो शाखाओं में विभक्त हो गया--(1) कनिष्क यू—ची, जो तिब्बत की ओर चले गए और (2) ज्येष्ठ यू—ची जो पश्चिम की ओर बढ़े और उन्होंने बैक्ट्रिया, पार्थिया, आदि के शासकों को पराजित किया। चीनी इतिहासकार स्यू—मा—चियन के अनुसार एक नेता कुजुल कडफ़ियस ने पाँच विभिन्न क़बायली समुदायों को अपने कुई शांग अथवा कुषाण समुदाय की अध्यक्षता में संगठित किया और वह भारत की ओर बढ़ा जहाँ उसने काबुल और कश्मीर में अपनी सत्ता स्थापित कर दी। उसके प्रारम्भिक सिक्कों पर मुख भाग पर अन्तिम यूनानी राजा हर्मियस की आकृति है और पृष्ठ भाग पर उसकी अपनी। इसका अर्थ यह हुआ कि वह पहले यूनानी राजा हर्मियस के अधीन था। बाद के सिक्कों में वह अपने को 'महाराजाधिराज' कहता है। उसकी मृत्यु लगभग 64 ई. में हुई। उसके सिक्के रोम के सम्राटों के सिक्कों से बहुत मिलते—जुलते हैं। उसके बाद उसका पुत्र विमा कडफ़ियस गद्दी पर बैठा। उसने सिंधु नदी पार करके तक्षशिला और पंजाब पर अधिकार कर लिया। उसने अपने सोने और ताँबे के सिक्कों में महाराज, राजाधिराज, महीश्वर, सर्वलोकेश्वर आदि विरुद धारण किए। उसके सिक्कों पर भी एक ओर यूनानी लिपि है और दूसरी ओर खरोष्ठी। उसके सिक्कों पर शिव की आकृति, नंदी और त्रिशुल आदि लक्षणों से ज्ञात होता है कि वह शैव धर्म से प्रभावित था। रोम के साथ उसके अच्छे सम्बन्ध थे। कनिष्क इस वंश का तीसरा शासक कनिष्क था। विमा और कनिष्क का पारस्परिक सम्बन्ध क्या था, यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है, किन्तु इसमें संदेह नहीं कि कनिष्क कुषाण वंश का महानतम शासक था। उसके ही कारण कुषाण वंश का भारत के सांस्कृतिक एवं राजनीतिक इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। उसका राज्यारोहण काल संदिगध है। 78 ई. से 105 ई. तक इसे कहीं पर भी रखा जा सकता है, किन्तु सम्भावना यही अधिक है कि तथाकथित शक संवत्, जो 78 ई. में आरम्भ हुआ माना जाता है, कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि है। कनिष्क के राज्यारोहण के समय कुषाण साम्राज्य में अफ़ग़ानिस्तान, सिंध का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया के प्रदेश सम्मिलित थे। कनिष्क ने भारत में अपना राज्य मगध तक विस्तृत कर दिया। वहाँ से वह प्रसिद्ध विद्वान अश्वघोष को अपनी राजधानी पुरुषपुर ले गया। तिब्बत और चीन के कुछ लेखकों ने लिखा है कि उसका साकेत और पाटलिपुत्र के राजाओं से युद्ध हुआ था। कश्मीर को अपने राज्य में मिलाकर उसने वहाँ एक नगर बसाया जिसे कनिष्कपुर कहते हैं। शायद कनिष्क ने उज्जैन के क्षत्रप को हराया था और मालवा का प्रान्त प्राप्त किया था। कनिष्क का सबसे प्रसिद्ध युद्ध चीन के शासक के साथ हुआ था, जहाँ एक बार पराजित होकर वह दुबारा विजयी हुआ। कनिष्क ने मध्य एशिया में काशगर, यारकंद, खोतान, आदि प्रदेशों पर भी अपना आधिपत्य स्थापित किया। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य के पश्चात पहली बार एक विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई, जिसमें गंगा, सिंधु और आक्सस की घाटियाँ सम्मिलित थीं। प्राचीन भारत के सभी साम्राज्यों में कुषाण साम्राज्य की बड़ी ही महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय स्थिति थी। इस समय के अनेक साम्राज्यों के बीच स्थित था। पूर्व में चीन का 'स्वर्गिक साम्राज्य' था। इसके पश्चिम में पार्थियन साम्राज्य था। रोमन साम्राज्य का उदय हो रहा था। रोमन तथा पार्थियन साम्राज्यों में परस्पर शत्रुता थी, और रोमन एक ऐसा मार्ग चाहते थे जहाँ से रोम और चीन के बीच व्यापार शत्रु देश पार्थिया से गुज़रे बिना हो सके। इसलिए वे कुषाण साम्राज्य से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रखने के इच्छुक थे। महान् 'सिल्कमार्ग' की तीनों मुख्य शाखाओं पर कुषाण साम्राज्य का नियंत्रण था -- (1) कैस्पियन सागर से होकर जाने वाले मार्ग पर, (2) मर्व से फ़रात (यूक्रेट्स) नदी होते हुए रूमसागर पर बने बंदरगाह तक जाने वाले मार्ग पर, और (3) भारत से लाल सागर तक जाने वाले मार्ग पर। परिणामस्वरूप कुषाणों के समय में उत्तर—पश्चिम भारत उस समय का सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र बन गया था। आर्थिक दृष्टि से कुषाणकालीन भारत अत्यन्त समृद्ध प्रतीत होता है। केवल सम्पूर्ण गंगा घाटी ही नहीं अपितु मध्य एशिया तक विभिन्न उत्खननों से पता चलता है कि ईसा की प्रथम तीन शताब्दियों में शहरीकरण काफ़ी विकसित हो चुका था। उत्तरी भारत के सांस्कृतिक इतिहास में भी कुषाण काल का महत्वपूर्ण स्थान है। कनिष्क का नाम महायान बौद्ध धर्म के प्रश्रय एवं प्रचार—प्रसार के साथ—साथ गंधार कला शैली के विकास से सम्बद्ध है। कनिष्क निश्चय ही एक महान् योद्धा था जिसने पार्थिया से मगध तक अपना राज्य फैलाया, किन्तु उसका यश उसके बौद्ध धर्म के संरक्षक होने के कारण कहीं अधिक है। उसका निजी बौद्ध धर्म था। उसके प्रचार और संगठन के लिए उसने बहुत से कार्य किए। उसने पार्श्व के कहने से कश्मीर अथवा जलंधर में बौद्ध की चौथी महासंगीति (महासभा) का आयोजन किया जिसमें बहुत से विद्वानों ने भाग लिया। इसका उद्देश्य उन सिद्धांतों पर विचार करना था जिनके विषय में बौद्ध विद्वानों में मतभेद था। इस सभा में विद्वानों ने समस्त बौद्ध साहित्य पर टीकाएँ लिखवाईं। इस सभा का प्रधान वसुमित्र था और अश्वघोष ने इसमें भाग लिया था। कनिष्क के समय महायान बौद्ध धर्म के उदय की चर्चा हम आगे करेंगे। कनिष्क यद्यपि स्वयं बौद्ध धर्मावलंबी था किन्तु वह अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु था। यह बात उसके सिक्कों से स्पष्ट है। उन पर कई पार्थियन, यूनानी तथा भारतीय देवी—देवताओं की आकृतियाँ हैं। कुछ सिक्कों पर यूनानी ढंग से खड़े और कुछ पर भारतीय ढंग से बैठे बुद्ध की आकृतियाँ हैं। सम्भवतः ये सिक्के इस बात को प्रकट करते हैं कि उसके राज्य में इन सब धर्मों के रहने वाले थे और सम्राट इन सब धर्मों के प्रति सहिष्णु था। मथुरा में एक मूर्ति मिली है जिसमें कनिष्क को सैनिक पोशाक पहने खड़ा दिखाया गया है। कनिष्क के सिक्के दो प्रकार के हैं -- (1) एक प्रकार के सिक्कों में यूनानी भाषा में उसका नाम आदि अंकित है, दूसरे में ईरानी भाषा में। उसके ताँबे के सिक्कों में उसे एक वेदी पर बलिदान करते दिखाया गया है। उसके सोने के सिक्के रोम के सम्राटों के सिक्कों से मिलते—जुलते हैं। जिनमें एक ओर उसकी अपनी आकृति है और दूसरी ओर किसी देवी या देवता की। पेशावर के निकट कनिष्क ने एक बड़ा स्तूप और मठ बनवाया, जिसमें बुद्ध के अवशेष रखे गए। एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस स्तूप का निर्माण एक यूनानी इंजीनियर ने कराया था। कनिष्क की राजसभा में बड़े—बड़े विद्वान विद्यमान थे। पार्श्व, वसुमित्र और अश्वघोष बौद्ध दार्शनिक थे। नागार्जुन जैसे प्रकांड पंडित और चरक जैसे चिकित्सक उसकी राजधानी के रत्न थे। उसके समय में 'महायान' धर्म का प्रचार होने से बौद्ध और बोधिसत्वों की मूर्तियाँ बनने लगीं। इस गांधार कला—शैली का विवेचन हम आगे करेंगे। इस प्रकार कुषाणों की यद्यपि अपनी कोई विकसित संस्कृति नहीं थी किन्तु भारत में बसने पर उन्होंने भारतीय और यूनानी संस्कृति को अपना लिया और इस समन्वित संस्कृति को ऐसा प्रोत्साहन दिया कि वह खूब विकसित हुई। उत्तरी भारत की जनता को यूनानी, शक, पहलव, आदि आक्रमणों से अब मुक्ति मिली और भारत में शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित हुई। राजनीतिक शान्ति के इस काल में धर्म, साहित्य, कला, विज्ञान, व्यापार आदि सभी दिशाओं में खूब प्रगति हुई। वास्तव में गुप्त राजाओं से पूर्व कुषाण युग भारत के सांस्कृतिक विकास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कनिष्क के बाद कुषाण साम्राज्य का ह्रास प्रारम्भ हुआ। उसका उत्तराधिकारी हविष्क था। वह सम्भवतः रुद्रदामा द्वारा पराजित हुआ और मालवा शकों के हाथ से चला गया। अगला शासक वसुदेव था। वह विष्णु एवं शिव का उपासक था। उसके समय में उत्तर—पश्चिम का बहुत बड़ा भाग कुषाणों के हाथ से निकल गया। उसके उत्तराधिकारी कमज़ोर थे और ईरान में सासानियत वंश के तथा पूर्व में नाग भारशिव वंश के उदय ने कुषाणों के पतन में बहुत योग दिया। शुंगवंश मौर्य साम्राज्य के पतन के उपरान्त इसके मध्य भाग में सत्ता शुंग वंश के हाथ में आ गई। इस वंश की उत्पत्ति के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं है। शुंग उज्जैन प्रदेश के थे, जहाँ इनके पूर्वज मौर्यों की सेवा में थे। शुंगवंशीय पुष्यमित्र अन्तिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ का सेनापति था। उसने अपने स्वामी की हत्या करके सत्ता प्राप्त की थी। इस नवोदित राज्य में मध्य गंगा की घाटी एवं चम्बल नदी तक का प्रदेश सम्मिलित था। पाटलिपुत्र, अयोध्या, विदिशा आदि इसके महत्वपूर्ण नगर थे। दिव्यावदान एवं तारनाथ के अनुसार जलंधर और साकल नगर भी इसमें सम्मिलित थे। पुष्यमित्र शुंग को यवन आक्रमणों का भी सामना करना पड़ा। समकालीन पंतजलि के महाभाष्य से हमें दो बातों का पता चलता है—पंतजलि ने स्वयं पुष्यमित्र के लिए अश्वमेघ यज्ञ कराए और उस समय एक आक्रमण में यवनों ने चित्तौड़ के निकट माध्यमिका नगरी और अवध में साकेत का घेरा डाला, किन्तु पुष्यमित्र ने उन्हें पराजित किया। गार्गी संहिता के युग पुराण में भी लिखा है कि दुष्ट पराक्रमी यवनों ने साकेत, पंचाल और मथुरा को जीत लिया। कालिदास के 'मालविकाग्निमित्र' नाटक में उल्लेख आया है कि यवन आक्रमण के दौरान एक युद्ध सिंधु नदी के तट पर हुआ और पुष्यमित्र के पोते और अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने इस युद्ध में विजय प्राप्त की। इतिहासकार सिंधु नदी की पहचान के सवाल पर एकमत नहीं हैं—इसे राजपूताना की काली सिंधु (जो चम्बल की सहायक नदी है), दोआब की सिंधु (जो यमुना की सहायक नदी है) या पंजाब की सिंधु आदि कहा गया है, किन्तु इस नदी को पंजाब की ही सिंधु माना जाना चाहिए, क्योंकि मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदिशा में यह नदी बहुत दूर थी। शायद इस युद्ध का कारण यवनों द्वारा अश्वमेध के घोड़े को पकड़ लिया जाना था। इसमें यवनों को पराजित करके पुष्यमित्र ने यवनों को मगध में प्रविष्ट नहीं होने दिया। अशोक के समय से निषिद्ध यज्ञादि क्रियाएँ, जिनमें पशुबलि दी जाती थी, अब पुष्यमित्र के समय में पुनर्जीवित हो उठी। बौद्ध रचनाएँ पुष्यमित्र के प्रति उदार नहीं हैं। वे उसे बौद्ध धर्म का उत्पीड़क बताती हैं और उनमें ऐसा वर्णन है कि पुष्यमित्र ने बौद्ध विहारों का विनाश करवाया और बौद्ध भिक्षुओं की हत्या करवाई। सम्भव है कुछ बौद्धों ने पुष्यमित्र का विरोध किया हो और राजनीतिक कारणों से पुष्यमित्र ने उनके साथ सख्ती का वर्णन किया हो। यद्यपि शुंगवंशीय राजा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे, फिर भी उनके राज्य में भरहुत स्तूप का निर्माण और साँची स्तूप की वेदिकाएँ (रेलिंग) बनवाई गईं। पुष्यमित्र शुंग ने लगभग 36 वर्ष तक राज्य किया। उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों ने ईसा पूरृव 75 तक राज्य किया। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि शुंगों का राज्य संकुचित होकर मगध की सीमाओं तक ही रह गया। उनके उत्तराधिकारियों (काण्व) भी ब्राह्मण वंश के थे।   काण्व वंश (ई. पू. 75 से ई. पू. 30)—शुंगवंश के अन्तिम सम्राट देवभूति की हत्या करके उसके सचिव वसुदेव ने ई. पू. 75 में मगध में काण्व वंश की नींव डाली। इसमें केवल चार ही शासक हुए—वसुदेव, भूमिमित्र, नारायण और सुशर्मन। इन्होंने ई. पू. 30 तक राज्य किया। पुराणों के अनुसार इस वंश को आंध्र भृत्यों ने उखाड़ फैंका। किन्तु आंध्र भृत्यों के मगध तक राज्य करने का कोई अन्य प्रमाण नहीं है। पाटलिपुत्र में कुछ काल के लिए मित्र वंश के राजाओं ने राज्य किया।   दक्कन में मौर्योत्तर राज्य उत्तरी भारत के समान दक्कन में भी मौर्य साम्राज्य के अन्त के बाद नए राज्यों का उदय हुआ। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के मध्य में कलिंग राज्य अपने राजा खारबेल के नेतृत्व में शक्तिशाली हो गया, इसी समय उत्तर—पश्चिम—दक्षिण के सातवाहन राज्य का उदय हुआ।   आंध्र सातवाहन वंश इसका केन्द्र बिन्दु महाराष्ट्र में प्रतिष्ठान नामक स्थान था। इस राज्य को आंध्र—सातवाहन राज्य भी कहा जाता है। जिसकी वजह से यह माना जाता है कि कदाचित् इनका उदगम आंध्र प्रदेश से हुआ था। जहाँ से वे गोदावरी नदी के तट के साथ—साथ पश्चिम की ओर बढ़े और मौर्य साम्राज्य के ह्रास का लाभ उठाते हुए स्वयं को वहाँ का शक्तिशाली बना लिया। किन्तु एक अन्य मत के अनुसार वे प्रारम्भ में पश्चिम—दक्षिण के वासी थे तथा धीरे—धीरे उन्होंने अपना प्रदेश पूर्वी तट तक विस्तृत कर लिया। अतः कालान्तर में उन्हें आंध्र कहा जाने लगा। सातवाहनों का प्राचीनतम अभिलेख पश्चिमी—दक्षिण से प्राप्त हुआ, अतः यह मत भी उचित हो सकता है। सातवाहन वंश के शासकों को दक्षिणाधिपति कहा जाता है। 'दक्षिणापथ' शब्द का अभिप्राय सर्वदा एक ही भौगोलिक क्षेत्र से नहीं होता। कभी—कभी इसका अर्थ विंध्य के दक्षिण का समग्र प्रदेश होता है, किन्तु अधिकतर इसका अभिप्राय वर्तमान महाराष्ट्र एवं इसके निकटवर्ती प्रदेशों से है। सातवाहन वंश के प्रारम्भिक शासकों के समय में दक्षिणापथ से सम्भवतः यही अर्थ ग्रहण किया जाता था। इस राजवंश के प्रारम्भिक शासकों के अभिलेख उत्तरी महाराष्ट्र में नासिक और नानाघाट में प्राप्त हुए हैं। अभिलेखों में जिन शासकों का उल्लेख है, सातवाहन के नाम से है। पुराणों में उन्हें आंध्रभृत्य कहकर भी सम्बोधित किया गया है। अतः कुछ विद्वानों ने इससे अर्थ निकाला कि वे आंध्र जो कभी किसी अन्य शक्ति के भृत्य अथवा सेवक थे। अन्य विद्वान इसी की व्याख्या 'आंध्रों के भृत्य' करते हैं अर्थात् सातवाहन शासक पहले आंध्रवंशीय राजाओं के भृत्य थे। पुराणों के प्रमाण के अनुसार आंध्रों के उदय की तिथि लगभग ई. पू. 30 कही जा सकती है। प्रथम सातवाहन शासक सिमुक था। उसे शुंग एवं काण्व शक्ति का नायक कहा गया है और उसका शासनकाल ई. पू. प्रथम शताब्दी का तृतीय चरण कहा जाता है। उत्तरवर्त्ती शासकों का तिथिक्रम उनके पश्चिमी भारत के शक क्षत्रपों के साथ सम्बन्ध के आधार पर काफ़ी सन्तोषजनक ढंग से निश्चित किया गया है। पुराणों के अनुसार सिमुक का उत्तराधिकारी उसका भाई कृष्ण था, जिसने 18 वर्ष तक राज्य किया। अगला उत्तराधिकारी शातकर्णी था और इसका राज्यकाल भी 18 वर्ष का था। क्षयरात वंश के शक क्षत्रपों ने सातवाहनों को पश्चिमी दक्कन से निष्कासित कर दिया। शक क्षत्रप नहपान के जो सिक्के एवं अभिलेख नासिक प्रदेश के आसपास पाए गए हैं, वे प्रथम शताब्दी के अन्त अथवा दूसरी शताब्दी के प्रारम्भ में इस क्षेत्र पर शक आधिपत्य प्रकट करते हैं, किन्तु सातवाहनों ने अपने महानतम शासक गौतमीपुत्र श्री शातकर्णी के नेतृत्व में पुनः अपनी प्रतिष्ठा स्थापित कर ली। गौतमीपुत्र ने शकों, यवनों, पहलवों तथा क्षहरातों का नाश कर सातवाहन कुल के गौरव की पुनःस्थापना की। उसने नहपान को हराकर उसके चाँदी के सिक्कों पर अपना नाम अंकित कराया। नासिक ज़िले में जोगलथेम्बी में सिक्कों का ढेर मिला है। इस एक ढेर में चाँदी के ऐसे बहुत से सिक्के हैं जो नहपान ने चलाए थे और जो दुबारा गौतमीपुत्र की मुद्रा से अंकित हैं। शकों से उत्तरी महाराष्ट्र और कोंकण, नर्मदा की घाटी और सुराष्ट्र, मालवा और पश्चिमी राजपूताना छीन लिए। उसका राज्य सम्भवतः—उत्तर में मालवा और दक्षिण में कनारा प्रदेश तक फैला हुआ था। गौतमी वलश्री के नासिक अभिलेख में लिखा है कि उसके पुत्र के घोड़े तीन समुद्रों का पानी पीते थे। गौतमीपुत्र शातकर्णी से कुछ सिक्के भी आंध्र प्रदेश में मिले हैं। वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि अभिलेख ही सातवाहन राजाओं के अभिलेखों में सबसे प्राचीन है, किन्तु उनमें यह नहीं लिखा है कि इस प्रदेश को पुलुमावि ने जीतकर स्वयं सातवाहन साम्राज्य में मिलाया था। उक्त आधार पर कई विद्वानों का यह मत है कि गौतमीपुत्र शातकर्णी ने ही आंध्र प्रदेश को जीतकर अपने राज्य में मिलाया। गौतमीपुत्र के बाद उसका पुत्र वाशिष्ठीपुत्र श्री पुलुमावि राजा बना। उसके अभिलेख नासिक, कार्ले और अमरावती में मिले हैं। गौतमीपुत्र श्री शातकर्णी के बाद सातवाहन राजाओं का शकों के दूसरे वंश काटर्टमक से संघर्ष हुआ, जिसने वाशिष्ठीपुत्र पुलुमावि को पराजित करके सातवाहन साम्राज्य के अनेक प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। कन्हेरी अभिलेख के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि शिवश्री शातकर्णी (पुलुमावि का उत्तराधिकारी) ने महाक्षत्रप रुद्रदामा की पुत्री से विवाह किया। रुद्रदामा के गिरनार अभिलेख में भी लिखा है कि उक्त शक शासक ने दक्षिणापथपति शातकर्णी को दो बार पराजित किया था, किन्तु निकट सम्बन्धी होने के कारण उसका विनाश नहीं किया। रुद्रदामा की मृत्यु के बाद सातवाहन शासकों ने शक प्रदेशों पर सफलतापूर्वक आक्रमण किया एवं अपने कुछ खोए हुए प्रदेशों को पुनः जीत लिया। द्वितीय शताब्दी के अन्त में सातवाहन पश्चिम में काठियावाड़, कृष्णा डेल्टा और दक्षिण—पूर्व में तमिलनाडु पर राज्य कर रहे थे। सातवाहन संस्कृत के मुख्य केन्द्र प्रतिष्ठान, गोवर्धन (आधुनिक नासिक) एवं वैजयन्ती (उत्तरी कनाड़ा) थे। किन्तु तीसरी शताब्दी में उनकी शक्ति क्रमशः क्षीण होने लगी और स्थानीय शासक स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने लगे। आभीरों ने उनसे महाराष्ट्र छीन लिया। उत्तरी कनाड़ा ज़िला और मैसूर के भाग में कुन्तल और चुटु एवं उसके बाद कंदब शक्तिशाली हो गए। आंध्र प्रदेश में इक्ष्वाकुओं ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली। दक्षिण—पूर्वी क्षेत्रों में पल्लवों ने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया तथा छठी शताब्दी के मध्य तक एक महान् शक्ति बन गए। विदर्भ में वाकाटकों ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली।   वाकाटक वास्तव में सातवाहनों के पतन एवं छठी शताब्दी के मध्य तक चालुक्य वंश के उदय होने तक दक्कन में वाकाटक ही सबसे महत्वपूर्ण शक्ति थे, जिन्होंने दक्षिण एवं कभी—कभी मध्य भारत के कुछ क्षेत्रों में अपनी सत्ता स्थापित की। वाकाटक शक्ति के संस्थापक विंध्यशक्ति के पूर्वजों एवं उसके उदगम स्थान के विषय में कोई जानकारी नहीं है। उसके नाम के कारण उसका सम्बन्ध विंध्य क्षेत्र के किसी स्थान के साथ जुड़ा प्रतीत होता है। वंश का नाम सम्भवतः व्यक्ति या अधिक सम्भवतः किसी वाटक नामक क्षेत्र से जुड़ा है। पौराणिक प्रमाणों से प्रतीत होता है कि विंध्यशक्ति ने पूर्वी मालवा में अपनी शक्ति तीसरी शताब्दी में दृढ़ की, जबकि शक महाक्षत्रपों की शक्ति का पतन और विदिशा के नागवंश जैसी देशी शक्तियों का उदय हो रहा था। यह भी सम्भव है कि विंध्यशक्ति ने विंध्य पार अपनी शक्ति का विस्तार सातवाहनों की क़ीमत पर किया हो। वाकाटक शासकों के अधिकतर लेख—प्रमाणों एवं पुराणों के आधार पर यह कहा जाता है कि वाकाटक शासन तीसरी शताब्दी के अन्त में प्रारम्भ हुआ और पाँचवीं शताब्दी के अन्त तक चलता रहा। विंध्यशक्ति विष्णुवृद्धि गोत्र का ब्राह्मण था। यह निश्चय नहीं है कि उसने भी 'सेनानी' पुष्यमित्र की ही भाँति राजकीय उपाधियों के बग़ैर शासन किया अथवा उपाधियाँ धारण कीं। उसके उत्तराधिकारी (उसके पुत्र) हारितिपुत्र प्रवरसेन प्रथम ने 'महाराज' की उपाधि धारण की। उसके पारिवारिक लेख--प्रमाणों से ज्ञात होता है कि एकमात्र वही ऐसा वाकाटक राजा था, जिसे सम्राट की उपाधि से सम्बोधित किया जाता था। वह ब्राह्मण धर्म का पोषक था। उसने कई वैदिक यज्ञ किए। उसने अपनी पुत्री का विवाह भारशिव नाग वंश के भवनाग शक्तिशाली राजा से किया, जिसका मध्य भारत के एक बड़े भाग पर अधिकार था। सम्भवतः उसने नागवंशी राजाओं के दशाश्वमेध यज्ञ का ही अनुसरण करके स्वयं भी अश्वमेध यज्ञ किया। उसके समय में वाकाटक राज्य का बुंदेलखण्ड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक विस्तार हुआ। पौराणिक लेखों के अनुसार प्रबरसेन के चार पुत्र राजा हुए। सम्भवतः इस शक्ति—विभाजन के कारण राज्य के दुर्बल होने के परिणामस्वरूप ही अन्य किसी राजा के साथ महाराज उपाधि का प्रयोग नहीं हुआ। अभिलेखों में प्रबरसेन प्रथम के साम्राज्य के दो भागों में विभक्त हो जाने का उल्लेख मिलता है। एक उसके पुत्र गौतमीपुत्र की अध्यक्षता में जिसका केन्द्र नंदिवर्धन (नागपुर) में था और दूसरा उसके पुत्र सर्वसेन एवं उसके उत्तराधिकारियों के अधीन, जिसका केन्द्र बरार में वत्सगुल्म में था। गौतमी पुत्र एवं उसके उत्तराधिकारी शैव थे। नागपुर केन्द्र के एक शासक रुद्रसेन द्वितीय ने गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री पुभावती गुप्त से विवाह किया था। इसके परिणामस्वरूप रुद्रसेन द्वितीय वैष्णव हो गया। लगभग चौथी शती के अन्त में रुद्रसेन द्वितीय की मृत्यु हो गई और 13 वर्ष तक प्रभावती ने अल्पवयस्क पुत्रों की संरक्षिका के रूप में शासन किया। वाकाटकों की शक्ति का ह्रास किस प्रकार हुआ, इस विषय में कुछ निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है। किन्तु इतना निश्चित है कि छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में चालुक्यों को मध्य प्रदेश में नल, कोंकण में मौर्य तथा उत्तरी महाराष्ट्र में कलचूरी वंश से संघर्ष करना पड़ा था। सम्भवतः वाकाटक साम्राज्य का अधिकांश भाग नल वंश के हाथ में चला गया। वाकाटक शासक साहित्य प्रेमी एवं कला के पोषक थे। एक वाकाटक शासक प्रबरसेन द्वितीय 'सेतुबंध' नामक कृति का रचयिता माना जाता है। संस्कृत की रचना की वैदर्भी शैली अपने वाकाटक दरबार में प्रचलित होने के कारण ही अपना एक अलग अस्तित्व रखती है। अजन्ता की कुछ भव्य गुफ़ाएँ और उनके सुन्दर भित्तिचित्र वाकाटक राजाओं के संरक्षण में बने। राज्य व्यवस्था एवं प्रशासन ईसा पूर्व शताब्दी से लेकर ईसी की तृतीय शताब्दी तक का भारत का राजनीतिक इतिहास परस्पर संघर्षरत शासकों एवं विदेशी आक्रांताओं का एक अव्यवस्थापूर्ण चित्र उपस्थित करता है। मौर्योत्तर काल में अधिकतर राज्य छोटे—छोटे थे। यद्यपि उत्तर में कुषाणों एवं दक्षिण में सातवाहनों ने काफ़ी विस्तृत प्रदेशों पर राज्य किया, किन्तु फिर भी न तो सातवाहन के और न कुषाणों के राजनीतिक संगठन में ही वह केन्द्रीकरण था जो मौर्य प्रशासन की विशेषता थी। इन दोनों ही राजवंशों के शासकों ने कई छोटे—छोटे राजाओं से सामन्ती सम्बन्ध स्थापित किए थे। सातवाहन शासकों के कई अधीनस्थ शासक थे, जैसे इक्ष्वाकु आदि, जिन्होंने सातवाहन शासकों का पतन होने पर अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए। कुषाण शासकों के द्वारा धारण की जाने वाली प्रभावशाली उपाधियाँ इस तथ्य को प्रकट करती हैं कि उनके अधीन कई छोटे राज्य थे जो उन्हें सैनिक सेवाएँ प्रदान करते थे। मौर्योत्तर काल में विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने के लिए राजतंत्र में दैवी तत्वों को समाविष्ट करने की प्रवृत्ति अपनाई गई। पहले राजाओं से देवताओं की तुलना की जाती थी। अब बात विपरीत दिशा में चल पड़ी और राजाओं की ही तुलना देवताओं से की जाने लगी। एक सातवाहन अभिलेख में पराक्रम आदि की दृष्टि से सातवाहन राजा गौतमीपुत्र शातकर्णी की तुलना कई देवताओं से की गई है। एक विशेष उल्लेखनीय तत्त्व कुषाण राजाओं में देखने को मिलता है। इन्हें देवपुत्र कहा गया है। अशोक को 'देवानाप्रिय' कहा गया है लेकिन कुषाण राजाओं ने ऐसी उपाधि धारण की जिसका प्रचलन केवल चीनियों और रोमन सम्राटों के बीच ही था। चीनी शासकों के अनुरूप कुषाण राजाओं ने देवपुत्र जैसी उपाधियाँ धारण कर लीं। सम्भवतः रोम का उदाहरण लेकर कुषाण शासकों ने मृत राजाओं की मूर्तियाँ स्थापित करने के लिए मन्दिर बनवाने की प्रथा (देवकुल) भी प्रारम्भ की, किन्तु भारत में यह प्रथा सफल नहीं हुई। तत्कालीन रचनाओं में प्रायः ही राजतंत्र की दैविक उत्पत्ति की ओर संकेत मिलता है, किन्तु राजाओं के इस दैवीकरण ने उनकी सत्ता एवं देश पर उनके नियंत्रण में कोई वृद्धि नहीं की। दूसरी ओर, सातवाहन शासकों ने ब्राह्मणों एवं बौद्ध श्रमणों को राजस्व एवं प्रशासनिक करों से मुक्त भूमि प्रदान करने की प्रथा प्रारम्भ की। जिससे अन्ततः केन्द्रीय सत्ता क्षीण हुई। इसके पूर्ववर्ती साहित्य में भी पुजारियों को भूमि दान दिए जाने का उल्लेख है, किन्तु अभिलेखों में भूमि—दान का पहला प्रमाण ई. पू. प्रथम शताब्दी का है। जब सातवाहन शासकों ने वैदिक यज्ञों के अधिष्ठाता पुजारियों को भूमि प्रदान की। प्रारम्भ में तो ये दान केवल कर मुक्त ही होते थे किन्तु धीरे—धीरे दान की गई भूमि पर राजाओं ने प्रशासनिक नियंत्रण हटाकर इसे दानग्रहीता को ही समर्पित करना प्रारम्भ कर दिया। इस आशय का अभिलेख गौतमीपुत्र शातकर्णी के अभिलेखों में मिलता है। उदाहरणस्वरूप दिए गए ऐसे ग्राम एक प्रकार से राज्य के भीतर ही अर्ध—स्वतंत्र क्षेत्र बन गए। फलतः ग्रामीण क्षेत्रों से राजा का नियंत्रण धीरे—धीरे कम होता गया। भारतीय यूनानियों तथा उनके विदेशी उत्तराधिकारियों द्वारा शासित क्षेत्रों में मौर्य शासन—व्यवस्था के चिह्न दिखाई नहीं देते। शकों तथा पार्थियन शासकों ने संयुक्त शासन का चलन प्रारम्भ किया, जिसमें युवराज सत्ता के उपभोग में राजा का बराबरी का सहयोगी होता था। शक और कुषाण लोग पार्थियनों के माध्यम से अखामनी राजवंश की क्षत्रपीय प्रणाली भी इस देश में ले आए। कुषाणों ने प्रान्तों में द्वैध शासकत्व की विचित्र प्रणाली का भी प्रचलन किया।   व्यापार एवं नगर आर्थिक रूप से इस काल का एक उज्जवल पक्ष है वाणिज्य व्यापार का विकास एवं उन्नति। व्यापार की प्रगति के लिए प्रारम्भिक आधार तो मौर्यों ने ही प्रदान किया था, जिन्होंने आन्तरिक यातायात के साधनों एवं मार्गों को काफ़ी विकसित किया था। पाठलिपुत्र को तक्षशिला से जोड़ने वाला मार्ग मौर्यों की ही देन था। स्थल मार्ग से पाटलिपुत्र ताम्रलिप्ति से जुड़ा था, जो बर्मा एवं श्रीलंका के जहाज़ों के लिए प्रमुख बंदरगाह था। दक्षिण भारत के स्थल मार्गों का विकास मौर्यों के पश्चात हुआ। ये मार्ग नदी घाटियों के साथ—साथ या तटीय प्रदेश में या पर्वतीय दर्रों में विकसित किए गए। इसके अतिरिक्त देश के विभिन्न भाग अब उन व्यापारिक मार्गों से जुड़ गए थे जिनमें से कुछ मध्य एशिया एवं पश्चिम एशिया को जाते थे। एक स्थल मार्ग द्वारा तक्षशिला क़ाबुल से जुड़ गया था। जहाँ से विभिन्न दिशाओं को मार्ग जाते थे। उत्तरवर्ती मार्ग बैक्ट्रिया से होकर कैस्पियन सागर होता हुआ कृष्ण सागर को जाता था। एक मार्ग कंधार से हेरात होकर ईरान जाता था। यहाँ से व्यापारी स्थल मार्ग से पूर्वी भूमध्य सागर तक जाते थे। ईसा की पहली शती में हिप्पालस नामक ग्रीक नाविक ने अरब सागर में चलने वाली मानसून हवाओं की जानकारी दी, जिससे अरब सागर से यात्रा की जा सकती थी और इस प्रकार भारत और पश्चिमी एशिया के बंदरगाहों के बीच कम समय लगता था। उत्तर—पश्चिम भारत की इंडोग्रीक, कुषाण एवं शक विजयों के द्वारा पश्चिमी एवं मध्य एशिया में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुए। मध्य एशिया से यह व्यापारिक मार्ग गुज़रता था जो चीन को रोमन साम्राज्य के पश्चिमी प्रान्तों से जोड़ता था। जिसे 'सिल्क मार्ग' कहा जाता था, क्योंकि चीन से होने वाला रेशम का समस्त व्यापार अधिकतर इसी मार्ग से होता था। इस चीनी रेशम व्यापार में भारतीय व्यापारियों ने मध्यस्थ के रूप में भाग लेना प्रारम्भ किया। इन प्रदेशों से होकर जाने वाले व्यापार में अधिकतर उत्तर—पश्चिम के व्यापारी भाग लेते थे। पश्चिमी एवं दक्षिणी भारत के व्यापारी दक्षिण अरब, लाल सागर तथा ऐलेक्ज़ेन्ड्रिया के क्षेत्रों से जुड़े हुए थे। रोमन साम्राज्य से होने वाले व्यापार का काफ़ी बड़ा भाग इन क्षेत्रों से होकर गुज़रता था। रोमन साम्राज्य के एक सर्वशक्तिमान साम्राज्य के रूप में उदय होने से ई. पू. प्रथम शती से भारतीय व्यापार को काफ़ी प्रोत्साहन मिला, क्योंकि इस साम्राज्य का पूर्वी भाग भारत में निर्मित विलासिता के सामान का बड़ा ग्राहक बन गया। ईसवी सन् की पहली शती में एक अनाम ग्रीक नाविक ने अपनी पोरिप्लस आफ़ एरिथियन सी नामक रचना में भारत द्वारा रोमन साम्राज्य को निर्यात किए जाने वाले सामान का विवरण दिया है, जिसमें प्रमुख हैं—मोती, हाथीदाँत, इत्यादि। भारतीय व्यापारी चीन से रेशम ख़रीदकर रोमन व्यापारियों तक पहुँचाते थे और यह बहुत ही महत्वपूर्ण वस्तु थी। रोमन साम्राज्य की मसालों की आवश्यकता केवल भारतीय सामग्री देने से ही पूर्ण नहीं होती थी, इसलिए भारतीय व्यापारी दक्षिण—पूर्व एशिया से सम्पर्क बढ़ाने लगे। अपने निर्यात के प्रतिदान में रोम से भारत में अन्य सामान के अतिरिक्त बहुत बड़ी संख्या में सोने—चाँदी के सिक्के आते थे। प्लिनी ने प्रतिवर्ष रोम से भारत में चली जाने वाली सोने की भारी मात्रा के लिए दुःख प्रकट किया है। देश के भिन्न—भिन्न प्रदेश भिन्न—भिन्न वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध थे। कश्मीर, कोसल, विदर्भ और कलिंग हीरों के लिए विख्यात थे। मगध वृक्षों के रेशों से बने वस्त्रों के लिए बंगाल मलमल के लिए प्रसिद्ध था। कश्मीर और उज्जयिनी से लाई गई अनेक वस्तुएँ भड़ोंच के बंदरगाह से पश्चिमी देशों को भेजी जाती थीं। सोपारा और कल्याण भी पश्चिमी तट पर प्रसिद्ध नगर थे। प्रतिष्ठान नगर भी व्यापार का केन्द्र था। तक्षशिला में पश्चिमी देशों से बहुत—सी वस्तुएँ लाई जाती थीं।     आर्थिक व्यवस्था और सिक्के ई. पू. और ईसा की शती के प्रारम्भ में व्यापार के विकास के साथ ही मुद्रा व्यवस्था का विकास जुड़ा था। रोम से आने वाला सोना अधिकतर सर्राफ़ के काम आता था और सम्भवतः बड़े स्तर के व्यापारिक लेन—देन में भी इसका प्रयोग होता था। किन्तु भारत में भी मुद्रा—विकास के संकेतों में कमी नहीं है। उत्तर में इंडोग्रीक शासकों ने सोने के सिक्के चलाए। कुषाण शासकों ने भी बहुत बड़ी मात्रा में सोने के सिक्कों का प्रयोग किया। सम्भवतः सोने और चाँदी के ये सिक्के दैनिक जीवन में प्रयुक्त नहीं होते थे। इसलिए दैनिक जीवन में व्यापारिक उपयोग के लिए कुषाण शासकों ने ताँबे के सिक्के भी प्रचलित किए। यह इस बात का प्रमाण है कि दैनिक जीवन में भी मुद्रा का चलन हो गया था। इसके अतिरिक्त भारतीय मुद्रा की कलात्मकता पर विदेशों विजेताओं का बहुत ही प्रभाव पड़ा। बैक्ट्रियाई शासकों के द्वारा ज़ारी किए गए सिक्कों में शासक की आकृति और नाम खुदा होता था। इन आकृतियों एवं चिह्नों, जैसे देवताओं के चित्रों में कलात्मकता का वह स्तर है जो भारतीय सिक्कों ने अब तक प्राप्त नहीं किया था। मौर्यकाल के अन्त तक सिक्कों पर केवल कोई चिह्न अंकित होता था। उन पर चिह्न कोई भी हो किन्तु शासकों के नाम आदि नहीं होते थे। प्रारम्भिक सिक्कों में प्रदर्शित पौराणिक कथाएँ ग्रीक हैं एवं सिक्कों पर खुदी आकृतियाँ ग्रीक स्रोतों से ली जाने लगीं और खरोष्ठी तथा ग्रीक दोनों लिपियों में लिखी जाने लगी। मुद्राओं की यह कलात्मकता एवं विनिमय में नियमित रूप से मुद्रा का प्रयोग वास्तव में इस युग की एक बड़ी देन है। मुद्रा व्यवस्था एवं व्यापार की ही प्रगति के परिणामस्वरूप देश में कई नगरों का विकास हुआ और साथ—ही—साथ कारीगरी एवं शिल्प का भी विकास हुआ। विवेच्य काल में अर्थात् ईसा की प्रथम तीन शताब्दियों के दौरान सम्पूर्ण भारत, विशेषकर गंगा घाटी, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि क्षेत्रों में जो उत्खनन हुए हैं, उनसे यह पता चलता है कि यह नगरों के प्रतिष्ठान का काल है। इस प्रकार के अवशेष मध्य एशिया में भी मिलते हैं। शहरीकरण के साक्ष्यों की दृष्टि से यह एक अभूतपूर्व काल था।         कारीगरी एवं शिल्प का विकास ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के महावस्तु नामक एक बौद्ध ग्रंथ के अनुसार राजगृह नगरी में लगभग 36 विभिन्न प्रकार के शिल्पी रहते थे। मिलिन्दपञ्य में जिन 75 विभिन्न व्यवसायों का उल्लेख है, उनमें से 60 विभिन्न प्रकार के शिल्पों से सम्बन्धित हैं। उद्योगों के विकास ने उनमें विशिष्टीकरण को भी प्रोत्साहन दिया, जिससे तकनीकी कौशल का भी विकास हुआ। मिनिन्दपञ्य में उल्लिखित व्यवसायों में से 8 सोना, चाँदी, ताँबा, टिन, सीसा, पीतल, लोहा आदि धातुओं से सम्बन्धित हैं। चीनी रेशम के आयात से देश में रेशम उद्योगों को प्रोत्साहन मिला। इस प्रकार मौर्योत्तर काल में उत्पादन के विभिन्न क्षेत्रों में तकनीकी विकास भी हुआ। व्यापारिक प्रगति ने उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था को भी भली—भाँति संगठित करने की आवश्यकता उत्पन्न कर दी। विभिन्न शिल्पकारों ने एकत्र होकर शिल्पी श्रेणयों का संगठन किया। व्यापारियों ने भी अपनी श्रेणियाँ संगठित कीं। श्रेणियों का उल्लेख मथुरा क्षेत्र एवं पश्चिमी दक्कन के क्षेत्र के अभिलेखों से प्राप्त होता है। पश्चिमी दक्कन में गोवर्धन नामक नगर शिल्पी श्रेणियों का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था। ये श्रेणियाँ कभी—कभी धरोहर रखने एवं महाजन का भी कार्य करती थीं। दूसरी शताब्दी में सातवाहन वंश के एक खेल में इस बात का उल्लेख है कि बौद्ध धर्म के सामान्य उपासकों ने कुम्हारों, जुलाहों आदि के पास धन जमा कराया था ताकि वे भिक्षुओं के लिए अन्न, वस्त्र आदि आवश्यकता की चीज़े जुटा दें। इसी समय के मथुरा क्षेत्र के एक लेख में इस बात का उल्लेख आया है कि एक प्रमुख ने आटा पीसने वाले कारीगरों के पास धन जमा कराया था ताकि वे उसके मासिक ब्याज से लगभग 700 ब्राह्मणों के निर्वाह की व्यवस्था कर दें। स्पष्टतः श्रेणियाँ इस जमा किए धन का उपयोग उत्पादन बढ़ाने के लिए करती होंगी और बिक्री से प्राप्त धन से वे पूँजी पर ब्याज देती होंगी। अपने उत्पादन में वृद्धि के लिए श्रेणियों ने अपने कारीगरों के अतिरिक्त बाहर से भी कारीगर बुलाने की ओर ध्यान दिया होगा। इस पद्धति से कारीगरों को मौर्यकाल की अपेक्षा, जबकि वे राज्य के नियंत्रण में कार्य करते थे, अधिक स्वतंत्रता प्राप्त हुई होगी। सम्भवतः अपने धन के कारण मौर्योत्तर प्रशासनिक व्यवस्था में व्यापारी एवं शिल्पकारों की श्रेणियों का बहुत महत्वपूर्ण योगदान था। कई नगरों में उन्होंने अपने सिक्के तक प्रचलित किए थे, जो सामान्यतः शासकों का कार्य था। मौर्योत्तर राज्य व्यवस्था की एक उल्लेखनीय बात यह है कि ई. पू. दूसरी तथा पहली शताब्दी में उत्तर भारत में कम—से—कम एक दर्जन ऐसे नगर थे जो लगभग स्वशासी संगठनों की तरह काम करते थे। इन नगरों के व्यापारियों के संघ सिक्के जारी करते थे। भारतीय यूनानी युग से पहले के पाँच सिक्कों में निगम शब्द का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। जो तक्षशिला में उत्खनन से प्राप्त हुए हैं। गंधिकों—जिसका शब्दार्थ गंधविक्रता है किन्तु वास्तविक अर्थ व्यापारी है—के संघ के सिक्के कौशांम्बी के आसपास के क्षेत्र में भी पाए गए हैं। त्रिपुरा, महिष्मति, विदिशा, एरण, माध्यमिका, वाराणसी, आदि नगरों के नामों का उल्लेख भी उनकी ताम्र मुद्राओं में हुआ है। ईसवी सन् की दो शताब्दियों के दौरान जब सातवाहनों तथा कुषाणों ने अपने राज्य स्थापित किए तब इन नगरों का स्वायत्त स्वरूप समाप्त हो गया। किन्तु शासकों को व्यापारियों के निगमों का—जिन्हें निगम सभा कहा जाता था—ध्यान रखना पड़ता था। श्रेणियों की सदस्यता कारीगरों आदि को समाज में प्रतिष्ठा का स्थान एवं सुरक्षा प्रदान करती थी। प्रत्येक श्रेणी का अपना तमगा, पताका एवं मुहर होती थी। अपने विज्ञापन का सर्वोत्तम ढंग था धार्मिक आधार पर उदारतापूर्वक धन—दान। अत्तार, जुलाहे, स्वर्णकार आदि सभी की श्रेणियों के द्वारा बौद्ध भिक्षुओं को गुफ़ाओं स्तंभों आदि के दान का उल्लेख प्राप्त होता है।         समाज और धर्म इस समय में भी कारीगर आदि अधिकतर शूद्र वर्ण से ही आते थे किन्तु उनके धन एवं प्रतिष्ठा में अब वृद्धि हो गई थी। मौर्य काल में समस्त आर्थिक कार्यवाहियों पर राज्य का नियंत्रण था, किन्तु इस साम्राज्य के पतन के साथ ही वह नियंत्रण भी समाप्त हो गया और शिल्पियों आदि को कुछ वैयक्तिक स्वतंत्रता प्राप्त हो गई। वैश्यों एवं शूद्रों के बीच का अन्तर इस प्रकार कुछ कम हो गया किन्तु फिर भी मनु ने शूद्रों के लिए बड़े कठोर नियम रखे। मनु के अनुसार शूद्रों का कार्य तीन उच्चतर वर्णों की सेवा करना था। अतः उन पर आक्रमण करने के अपराध की सज़ाएँ शूद्रों के लिए बहुत ही कठोर थीं। शूद्र वर्ग में इस कठोरता के कारण बहुत ही असंतोष था। इसमें आश्चर्य नहीं की वर्ण व्यवस्था को मान्यता न देने वाले विदेशी शासकों के अधीन जो शूद्र थे वे ब्राह्मणों के विरुद्ध हो गए थे। मनुस्मृति में शूद्रों की वैरभावपूर्ण कार्यवाहियों के विरुद्ध कई सुरक्षा उपायों का उल्लेख है। मनु की प्रतिक्रिया वास्तव में उस काल की परिस्थितियों में घोर ब्राह्मण कट्टरता की प्रतिक्रिया है। उस काल में वर्ण पर आधारित परम्परागत समाज—व्यवस्था को विदेशियों के आक्रमण से भी ख़तरा उत्पन्न हो गया था। भारत में यवन, शक, कुषाण आदि विदेशी शासकों की उपस्थिति, जिनके पास राजनीतिक एवं आर्थिक शक्ति थी, वर्णव्यवस्था के लिए संकट उत्पन्न कर रही थीं। ब्राह्मण उन्हें म्लच्छ कहकर उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते थे। उनके साथ समझौता करना ही था। इस कारण स्मृतिकारों ने उन्हें कौशल से निम्न कोटि के क्षत्रिय की उपाधि प्रदान कर दी। इस प्रकार प्रत्यक्षतः धर्म ने विदेशियों एवं अनार्यों के आर्यीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यद्यपि मनु कट्टर ब्राह्मणवादी थे किन्तु उनकी स्मृति में जिन लगभग 60 वर्णसंकरों का उल्लेख है, उससे स्पष्ट होता है कि वह पर्याप्त यथार्थवादी भी थे। विदेशी लोगों के आगमन से जो एक सामाजिक तनाव उत्पन्न हुआ उसका एक प्रायोगिक समाधान वर्णसंकर की परिकल्पना में ही दृष्टिगोचर होता है। सामाजिक तनाव का एक पक्ष वह भी था जो पुराणों में कलियुग के चित्रण में झलकता है। हाल के अध्ययनों में इन वर्णनों को ईसा की आरम्भिक तीन—चार शताब्दियों में रखा गया है। इस तनावपूर्ण स्थिति का मुख्य अंग मुख्य उत्पादक वर्गों, यथा वैश्यों एवं शूद्रों, द्वारा विरोध की भावना को प्रकट करना था। मनु ने तो यहाँ तक कहा है कि जब तक इन लोगों को डंडे के बल से दबाया नहीं जाएगा, काल चलेगा ही नहीं। ऐसा प्रतीत होता है कि विद्रोह का एक महत्वपूर्ण रूप राजकरों का न देना था। स्पष्टतः इससे समाज में एक तनाव की स्थिति हो गई होगी। हो सकता है कि इस स्थिति से निबटने के लिए ही राजाओं ने भूमिदान की प्रथा को प्रोत्साहन दिया क्योंकि कालान्तर में इसके माध्यम से कर एकत्र का उत्तरदायित्व स्थानीय बिचौलियों का हो गया, जिन्हें पुलिस अधिकार भी प्राप्त थे। जहाँ तक विदेशियों के एकीकरण का सवाल है, वर्णसंकर की परिकल्पना के अतिरिक्त धर्म का भी आश्रय लिया गया। विभिन्न धर्मों में एक प्रकार की होड़ हो गई, कि वे किस प्रकार इन विदेशी शासकों का समर्थन प्राप्त करते हैं। पारम्परिक ब्राह्मण धर्म का रूपान्तरण हो रहा था। भक्ति भावना के पुट का उदय इस काल में विशेष रूप से हुआ। वैष्णव, शैव एवं सभी धर्मों ने अपने द्वार विदेशियों के लिए भी खोल दिए। मनुस्मृति में कहा गया है कि पवित्र धार्मिक संस्कारों तथा ब्राह्मणों की अवहेलना करने के कारण ही यवन, शक, पहलव आदि जातियाँ शनैः—शनैः शूद्रों की श्रेणी में गिर गईं और भागवत पुराण में कहा गया है कि ये जातियाँ विष्णु पूजन से पवित्र हो जाती हैं। इस प्रकार वैष्णव धर्म ने इन जनजातियों को ब्राह्मणधर्मी सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत समाविष्ट एवं समायोजित करने के लिए एक प्रबल साधन प्रदान किया। ई. पू. तथा ईसवी सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों में विदेशी जातियों ने वैष्णव एवं शैव देवताओं को समर्थन दिया। बेसनगर का अभिलेख यवन राजदूत, हेलियोडोरस का वर्णन भागवत के रूप में करता है। जिसने भगवान वसुदेव को गरूड़ध्वज प्रदान किया था। महाक्षत्रप शोंडास के समय एक अन्य अभिलेख में भगवत वसुदेव के मन्दिर के प्रवेश द्वार तथा वेदिकाओं के निर्माण का उल्लेख है। कुषाण राजा भी वैष्णव शैव प्रभाव से अछूते नहीं थे। उनमें से एक ने भगवान का नाम धारण किया था। हुविष्क की एक सुवर्ण मुद्रा पर एक देवता अपने हाथ में चक्र और दूसरे में ऊर्ध्वलिंग लिए चित्रित किया गया है, जिससे अनुमान किया गया है कि यह समन्वित देवता हरिहर की प्रतिमा का पूर्णरूप है। विदेशी शासकों के द्वारा बौद्ध धर्म अपनाए जाने से भी उनका भारतीय व्यवस्था में समावेश आसान हो गया क्योंकि इससे जाति, वर्ण आदि से सम्बद्ध कोई समस्या उठने की सम्भावना नहीं है। बहुत से विदेशी शासकों ने बौद्ध धर्म को प्रश्रय दिया। इंडोग्रीक शासकों ने अपने सिक्कों पर बौद्ध चिह्न अंकित किए और कुषाणों ने भी बौद्ध प्रतिष्ठान को बहुत दान दिया—विशेषकर कनिष्ठ का बौद्ध धर्म के प्रति योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उसके समय में कई बौद्ध धर्म प्रचारक विदेशों में भेजे गए और बौद्ध धर्म विभिन्न देशों के सम्पर्क में आ गया। देश के भीतर बौद्ध धर्म को सम्पन्न व्यापारी वर्गों के द्वारा समर्थन प्राप्त हुआ। इस समय के अनेक विहार आदि व्यापारियों के अनुदान के ही परिणाम हैं। व्यापार के माध्यम से बौद्ध धर्म पश्चिमी एवं मध्य एशिया भी पहुँचा। देश के अधिकतर विहार व्यापारिक मार्गों या पश्चिमी तट के पर्वतीय दर्रों पर स्थित थे। बड़े—बड़े अनुदानों के परिणामस्वरूप बौद्ध विहार धन के भंडार हो गए थे। भिक्षु—भिक्षुणियों ने भी बौद्ध विहारों को दान दिया था। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वे अब इस प्रारम्भिक बौद्ध नीति को नहीं मानते थे कि भिक्षु एवं भिक्षुणी को अपनी समस्त इहलौकिक वस्तुओं का परित्याग कर देना चाहिए। अतः बौद्ध धर्म के स्वरूप में परिवर्तन अनिवार्य हो गया था।   महायान बौद्ध धर्म का उदय वास्तव में बुद्ध की मृत्यु के तुरन्त बाद ही उनकी शिक्षाओं के तात्पर्य के सम्बन्ध में वाद—विवाद प्रारम्भ हो गया था और कई परिषदों द्वारा उस विवाद को सुलझाने की असफल चेष्टा की गई। कनिष्क के समय तक आते—आते बौद्ध धर्म की 18 विभिन्न शाखाएँ विद्यामान थीं। परम्परा के अनुसार कनिष्क के समय में चौथी बौद्ध संगीति में बौद्ध धर्म औपचारिक रूप से हीनयान एवं महायान नामक दो शाखाओं में बँट गया। इस काल की यह विशेषता थी कि ज्ञानमार्ग अथवा कर्ममार्ग की अपेक्षा भक्तिमार्ग अधिक लोकप्रिय हो रहा था। बौद्ध धर्म में महायान सम्प्रदाय का उदय इस प्रवृत्ति का द्योतक है। हीनयान सम्प्रदाय में बृद्ध मानव के पथप्रदर्शक मात्र थे, अब वे देवता माने जाने लगे। महायान शाखा की प्रमुख विशेषता थी बोधिसत्व की धारणा, जिसने अन्य प्राणियों के कल्याण के लिए कई बार जन्म लिया है और जो भविष्य में भी प्राणियों के त्राण के लिए आएगा। बुद्ध का यह रूप मैत्रेय बुद्ध के नाम से विख्यात हुआ। समय के साथ—साथ बोधिसत्वों की एक श्रृंखला विकसित हो गई। हीनयान में प्रत्येक के सामने व्यक्तिगत निर्वाण प्राप्ति के लिए अर्हत पद प्राप्त करने का आदर्श था। महायान सम्प्रदाय ने प्रत्येक व्यक्ति के सामने बोधिसत्व का आदर्श रखा। बुद्ध को एक धार्मिक उपदेशक के रूप में न देखकर एक परित्राता भगवान के रूप में देखा जाने लगा और उनकी मूर्तियों की उपासना प्रारम्भ हो गई। बुद्ध के जीवन चिह्नों की उपासना पूर्ववत् चलती रही किन्तु अब उसका स्थान मूर्तिपूजा लेने लगी। बुद्ध को एक भगवान के रूप में देखा जाने लगा, जिनसे उनके उपासक दया की आशा कर सकते थे। इस प्रकार महायान बौद्ध धर्म में भक्ति की धारणा का विकास हुआ। बुद्ध के दिव्य गुणों पर ज़ोर देने के लिए इस काल में उनकी जीवन कथा फिर से लिखी गई। इस उद्देश्य से लिखी प्रारम्भिक पुस्तकों में महावस्तु, ललितविस्तर और अश्वघोष कृत बुद्ध चरित्र का उल्लेख करना अनुचित न होगा।   जैन धर्म बौद्ध धर्म की भाँति ही जैन धर्म में भी परिवर्तन आया। ईसा की प्रथम शताब्दी के आसपास जैन धर्म में भी विभाजन हो गया। रूढ़िवादी जैन दिगम्बर एवं उदारवादी श्वेताम्बर कहलाए। बौद्ध धर्म की भाँति ही जैन धर्म में भी मूर्तिपूजा का विकास हुआ। ये प्रचलित धर्म—बौद्ध एवं जैन—वैदिक धर्म के विरुद्ध थे जिसमें पशु बलि आदि सम्मिलित थी और याज्ञिक अनुष्ठान थे। लोग भक्ति पर आधारित मूर्तिपूजक सम्प्रदाय की ओर आकृष्ट होने लगे। बौद्ध धर्म तथा अन्य शास्त्र विरोधी धार्मिक सम्प्रदायों के भीषण प्रहारों ने वैदिक प्रथाओं तथा ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा एवं प्रभुत्व को काफ़ी आघात पहुँचाया। ब्राह्मण लोग, जिनकी स्थिति यज्ञों के लिए माँग में कमी हो जाने के कारण ब्राह्मणो स्थिति गिर रही थी, अतः वे जीविका के कुछ अन्य साधनों का सहारा लेने के लिए बाध्य हो गए। दूसरी ओर, नए आर्थिक एवं राजनीतिक तत्वों से उत्पन्न स्थिति से निबटने के लिए तथा ब्राह्मणधर्मी सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए ब्राह्मणों ने अनेक लोकप्रिय उपासना विधियों को अपना लिया। वैदिक देवताओं के स्थान पर नवीन देववर्ग का उदय हुआ, जिनमें ब्रह्मा—विष्णु—महेश की त्रिमूर्ति बहुत ही विख्यात है। ब्रह्मा का स्रष्टा, विष्णु का भर्त्ता एवं शिव का संहारकर्त्ता का है। धीरे—धीरे शिव एवं विष्णु अधिक प्रचलित देवता हो गए एवं उनके अनुयायी शैव एवं वैष्णव कहे जाने लगे। इस नवोदित ब्राह्मण धर्म में भी वैदिक धर्म के कर्मकाण्डों के स्थान पर "भक्ति" का प्राधान्य दिया गया। कला इस काल में कला का आधार मुख्यतः बौद्ध धर्म ही रहा। धनी व्यापारियों की विभिन्न श्रेणियों एवं शासकों द्वारा इसे बहुत प्रोत्साहन दिया गया। इस समय के कला—स्मारक, स्तूप, गुहा मन्दिर (जिन्हें चैत्य कहा जाता है) एवं संघाराम अथवा विहार है। पर्वतों में खोदी गई गुफ़ाएँ मन्दिरों एवं भिक्षुओं के निवास स्थान के रूप में प्रयुक्त होती थीं। पश्चिम दक्कन में सातवाहन एवं उनके उत्तरवर्ती राजाओं ने बहुत—सी बड़ी—बड़ी गुफ़ाएँ खुदवाईं। इनमें से प्राचीनतम हैं कार्ले की गुफ़ाएँ जिनका सौंदर्य बहुत विकसित है। इन गुफ़ाओं के आकार में धीरे—धीरे वृद्धि होती गई जैसा कि अजन्ता एवं एलोरा की गुफ़ाओं से प्रतीत होता है, जिनमें से कुछ गुफ़ाएँ इस काल की भी हैं। मूर्तिकला का प्रयोग बड़े—बड़े बौद्ध स्तूपों के तोरणों एवं बाड़ों के बनाने में भी हुआ है जैसा कि भरहुत एवं साँची में देखने को मिलता है। दक्कन में अमरावती में भी ईसा की दूसरी शती के लगभग मूर्तिकला का विकास हुआ। नागार्जुनकोण्ड में भी इसी काल के अवशेष मिले हैं। स्तूप के निकट कुछ शिलाखंण्ड मिले हैं, जिन पर बुद्ध के जीवन के कुछ दृश्य दिखाए गए हैं। जैन धर्म के अनुयायियों ने मथुरा में मूर्तिकला की एक शैली को प्रश्रय दिया, जहाँ शिल्पियों ने महावीर की एक मूर्ति बनाई। यह कला—शैली, जो 'मथुरा शैली' के नाम से प्रसिद्ध है, ई. पू. पहली शताब्दी के अन्त में प्रारम्भ हुई। कालान्तर में कुषाण शासकों का प्रश्रय पाकर यह फली—फूली। प्रायः ऐसा कहा जाता है कि कुषाणों के संरक्षण के फलस्वरूप बौद्ध धर्म का विकास हुआ। यद्यपि यह असत्य नहीं है किन्तु एसपक्षीय अवश्य है। केवल मथुरा से ही ऐसे सैकड़ों अवशेष—मूर्तियाँ, आयागपट्ट, आदि मिले हैं, जो कुषाण संरक्षण में बने और जैन धर्म के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं। ई. पू. प्रथम शताब्दी के मध्य से उत्तर—पश्चिम में गंधार में कला की एक और शैला का विकास हुआ, जिसे गांधार शैली कहते हैं। इस शैली को ग्रीक—बौद्ध शैली भी कहा जाता है। इसका सर्वाधिक विकास कुषाण काल में हुआ। इस काल की विषयवस्तु बौद्ध परम्परा से ली गई थी, किन्तु निर्माण का ढंग यूनानी था। गांधार शैली की प्रारम्भिक बौद्ध मूर्तियों में बुद्ध का मुख ग्रीक देवता अपोलो से मिलता—जुलता है। मूर्तियों का परिवेश रोमन 'टोगा' जैसा है। ईसवी सन् की तीसरी शती में गांधार कला के उदाहरण हद्दा और जौलियन में मिले हैं। ये कला की दृष्टि से बहुत उत्कृष्ट हैं। यही कला हद्दा से बामियान और वहाँ से चीनी तुर्किस्तान और चीन पहुँची। गांधार कला के अंतर्गत मूर्तियों में शरीर की आकृति को सर्वथा यथार्थ दिखाने का प्रयत्न किया गया है। मथुरा शैली में शरीर को यथार्थ दिखलाने का प्रयत्न नहीं किया गया है, अपितु मुखाकृति में आध्यात्मिक सुख और शान्ति व्यक्त की गई है। दूसरे शब्दों में गांधार कला यथार्थवादी थी और मथुरा की आदर्शवादी। जहाँ तक ब्राह्मण धर्म का सवाल है, उसके भी अवशेष कुछ कम नहीं। मथुरा, लखनऊ, बनारस (भारत कला भवन) आदि अनेकों संग्रहालयों में इस काल के विष्णु, शिव, स्कन्द—कार्तिकेय के निरूपणों के उदाहरण प्राप्य हैं। कृष्ण लीला के कुछ अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं सुन्दर निरूपण इसी काल में मथुरा शैली में मिलते हैं। चित्रकला चित्रकला के सबसे अधिक प्राचीन उदाहरण अजन्ता की गुफ़ा संख्या 9 वे 10 में मिलते हैं। गुफ़ा संख्या 9 में सोलह उपासकों को स्तूप की ओर बढ़ते हुए दिखाया गया है। गुफ़ा संख्या 10 में जातक कथाएँ अंकित हैं। इसमें उपासकों को बोधिवृक्ष और स्तूप की पूजा करते हुए दिखाया गया है। इस काल की अधिकतर कलाकृतियाँ बौद्ध धर्म से सम्बन्धित हैं और इनमें से अधिकतर धनी व्यापारियों की बनवाई हुई हैं। मौर्योत्तर कालीन साहित्य मौर्योत्तर काल में साहित्य के भी विभिन्न रूपों का विकास हुआ। एक सातवाहन शासक द्वारा 'हाल' छदमनाम से लिखी गई "गाथा सप्तशती" प्राकृत भाषा की बहुत सुन्दर काव्य रचना है, यद्यपि इस काल में साहित्य रचना में संस्कृत भाषा का प्रचलन अधिक था। ई. पू. दूसरी शती के मध्य में पंतजलि ने अपना "महाभाष्य" लिखा जो उनके पूर्ववर्ती वैयाकरण पाणिनी की प्रसिद्ध रचना "अष्टाध्यायी" की टीका है। चिकित्सा शास्त्र पर भी मौलिक ग्रंथ लिख गए, जिनमें सबसे प्रसिद्ध चरक—कृत संहिता है। चरक कुषाण शासक कनिष्क का समकालीन था। इस क्षेत्र में एक अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति सुश्रुत है। चिकित्सा शास्त्र एवं ज्योतिष शास्त्र में भारत ने पश्चिमी जगत् से सम्पर्क द्वारा बहुत लाभ उठाया। कुछ विद्वानों के अनुसार भरत का "नाट्य शास्त्र" और वात्स्यायन का "कामसूत्र" भी इसी काल की रचनाएँ हैं। भारत की सर्वप्रसिद्ध स्मृति "मनुस्मृति" ई. पू. दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती के मध्य लिखी गई। इसी समय में ब्राह्मणों ने महाकाव्यों में भी संशोधन किए। संस्कृत काव्य की प्रारम्भिक शैली की महत्वपूर्ण कृति अश्वघोष का "बृद्ध चरित" है। अश्वघोष कनिष्क का समकालीन था। इसी का एक अन्य छंदबद्ध काव्य "सौन्दरानन्द" है, जो बुद्ध के सोतेले भाई आनन्द के बौद्ध में धर्म दीक्षित होने के प्रसंग पर आधारित है। अश्वघोष के नाटकों के कुछ भाग मध्य एशिया के एक विहार में प्राप्त हुए थे। सम्भवतः सबसे पहले सम्पूर्ण नाटक रचने का श्रेय भास को है। इनमें से सर्वप्रसिद्ध हैं "स्वप्नवासवदत्तम", जो राजा उदयन एवं वासवदत्ता की कथा पर आधारित है। ये काव्य राजदरबार के लिए लिखे गए थे। किन्तु अब सामान्यतः संस्कृत भाषा की क्लिष्टता में वृद्धि हो रही थी। यह केवल ब्राह्मणों की भाषा न रहकर शासकवर्ग की भाषा बन रही थी। राजकीय अभिलेखों की भाषा भी अब आडंबरपूर्ण होती जा रही थी। मौर्यों एवं सातवाहनों द्वारा प्रयुक्त सामान्य प्राकृत भाषा का स्थान अब संस्कृत ले रही थी। रुद्रदामा का गिरनार अभिलेख संस्कृत काव्य का अनूठा उदाहरण है। कुषाण साम्राज्य के सुई विहार के अभिलेख में भी संस्कृत का प्रयोग हुआ है।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ