"ये सूरज रोज़ ढलते हैं -आदित्य चौधरी" के अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
छो ("ये सूरज रोज़ ढलते हैं -आदित्य चौधरी" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (अनिश्चित्त अवधि) [move=sysop] (अनिश्चित्त अव�)
 
(2 सदस्यों द्वारा किये गये बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
 
|-
 
|-
 
|  
 
|  
<br />
+
<noinclude>[[चित्र:Copyright.png|50px|right|link=|]]</noinclude>
<noinclude>[[चित्र:Copyright.png|50px|right|link=|]]</noinclude>  
+
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;"><font color=#003333 size=5>ये सूरज रोज़ ढलते हैं<small> -आदित्य चौधरी</small></font></div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;"><font color=#003333 size=5>ये सूरज रोज़ ढलते हैं<br />
+
----
<small>-आदित्य चौधरी</small></font></div>
+
{| width="100%" style="background:transparent"
 +
|-valign="top"
 +
| style="width:35%"|
 +
| style="width:35%"|
 
<poem style="color=#003333">
 
<poem style="color=#003333">
 
जिन्हें मौक़ा नहीं मिलता यहाँ तक़्दीर से यारो।
 
जिन्हें मौक़ा नहीं मिलता यहाँ तक़्दीर से यारो।
 
वही तद्‌बीर से आलम का इक दिन रुख़ बदलते हैं।।
 
वही तद्‌बीर से आलम का इक दिन रुख़ बदलते हैं।।
 +
 
लगी हों ठोकरें कितनी, हमें परवाह क्या करना।
 
लगी हों ठोकरें कितनी, हमें परवाह क्या करना।
न जाने कौन सी ताक़त से गिरकर फिर संभलते हैं॥
+
न जाने कौन सी ताक़त से गिरकर फिर संभलते हैं।।
 +
 
 
गरम लोहे को करने की किसे फ़ुर्सत यहाँ बाक़ी।
 
गरम लोहे को करने की किसे फ़ुर्सत यहाँ बाक़ी।
 
करारी चोट से लोहा तो क्या पत्थर पिघलते हैं।।
 
करारी चोट से लोहा तो क्या पत्थर पिघलते हैं।।
 +
 +
किसी के बाप की जागीर, ये दुनिया नहीं यारो।
 +
यहाँ तो ताज भी पैरों तले हरदम कुचलते हैं।।
 +
 
ज़ुबाँ पर मज़हबी ताले हैं, गूँगे लोग क्या बोलें।
 
ज़ुबाँ पर मज़हबी ताले हैं, गूँगे लोग क्या बोलें।
 
तरक़्क़ी देखकर दुनिया की बेकस हाथ मलते हैं।।
 
तरक़्क़ी देखकर दुनिया की बेकस हाथ मलते हैं।।
 +
 
सुना है बंदिशें करतीं हैं हर इक मोड़ पर साज़िश।
 
सुना है बंदिशें करतीं हैं हर इक मोड़ पर साज़िश।
 
अगर है ठान ली दिल में तो रस्ते भी निकलते हैं।।
 
अगर है ठान ली दिल में तो रस्ते भी निकलते हैं।।
 +
 
किसी उगते हुए सूरज की परछांई में रहना क्या।
 
किसी उगते हुए सूरज की परछांई में रहना क्या।
 
यहाँ है रोज़ का क़िस्सा, ये सूरज रोज़ ढलते हैं।।
 
यहाँ है रोज़ का क़िस्सा, ये सूरज रोज़ ढलते हैं।।
किसी के बाप की जागीर, ये दुनिया नहीं यारो।
+
 
यहाँ तो ताज भी पैरों तले हरदम कुचलते हैं।।
+
तुम्हें गर जान प्यारी है तो दुनिया के सितम झेलो। 
तुम्हें ग़र जान प्यारी है तो दुनिया के सितम झेलो। 
+
यहाँ तो ख़ून से इतिहास अपना लिखते चलते हैं।।
यहाँ तो ख़ून से इतिहास अपना लिखते चलते हैं॥
+
 
 
उसी से पूछ लो जाकर कि जिसने दिल बनाया था।
 
उसी से पूछ लो जाकर कि जिसने दिल बनाया था।
तमन्नाओं के ये अरमान हरदम क्यों मचलते हैं॥ 
+
तमन्नाओं के ये अरमान हरदम क्यों मचलते हैं।।
 +
 
 
अपन की मुफ़लिसी में भी ज़माने भर की मस्ती है।
 
अपन की मुफ़लिसी में भी ज़माने भर की मस्ती है।
 
ये 'उनकी' है अजब फ़ितरत, फ़क़ीरी से भी जलते हैं।।
 
ये 'उनकी' है अजब फ़ितरत, फ़क़ीरी से भी जलते हैं।।
 
</poem>
 
</poem>
 +
| style="width:30%"|
 
|}
 
|}
 +
|}
 +
 +
<br />
  
 
<noinclude>
 
<noinclude>

07:26, 24 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण

Copyright.png
ये सूरज रोज़ ढलते हैं -आदित्य चौधरी

जिन्हें मौक़ा नहीं मिलता यहाँ तक़्दीर से यारो।
वही तद्‌बीर से आलम का इक दिन रुख़ बदलते हैं।।

लगी हों ठोकरें कितनी, हमें परवाह क्या करना।
न जाने कौन सी ताक़त से गिरकर फिर संभलते हैं।।

गरम लोहे को करने की किसे फ़ुर्सत यहाँ बाक़ी।
करारी चोट से लोहा तो क्या पत्थर पिघलते हैं।।

किसी के बाप की जागीर, ये दुनिया नहीं यारो।
यहाँ तो ताज भी पैरों तले हरदम कुचलते हैं।।

ज़ुबाँ पर मज़हबी ताले हैं, गूँगे लोग क्या बोलें।
तरक़्क़ी देखकर दुनिया की बेकस हाथ मलते हैं।।

सुना है बंदिशें करतीं हैं हर इक मोड़ पर साज़िश।
अगर है ठान ली दिल में तो रस्ते भी निकलते हैं।।

किसी उगते हुए सूरज की परछांई में रहना क्या।
यहाँ है रोज़ का क़िस्सा, ये सूरज रोज़ ढलते हैं।।

तुम्हें गर जान प्यारी है तो दुनिया के सितम झेलो। 
यहाँ तो ख़ून से इतिहास अपना लिखते चलते हैं।।

उसी से पूछ लो जाकर कि जिसने दिल बनाया था।
तमन्नाओं के ये अरमान हरदम क्यों मचलते हैं।।

अपन की मुफ़लिसी में भी ज़माने भर की मस्ती है।
ये 'उनकी' है अजब फ़ितरत, फ़क़ीरी से भी जलते हैं।।