भारतीय कला

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कला लोगों की संस्कृति में एक मूल्यवान विरासत है। जब कोई कला की बात करता है तो आमतौर पर उसका अभिप्राय दृष्टिमूलक कला से होता है। जैसे वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला। अतीत में ये तीनों पहलू आपस में मिले हुए थे। वास्तुकला में ही मूर्तिकला एवं चित्रकला का समावेश था।

विद्वानों का मानना है कि भारतीय कला धर्म से प्रेरित हुई। वैसे इस बारे में कुछ नकारने जैसा भी नहीं है। हो सकता है, कलाकारों और हस्तशिल्पियों ने धर्माचार्यों के निर्देशानुसार काम किया हो, पर स्वयं क अभिव्यक्त करते समय उन्होंने संसार को जैसा देखा, वैसा ही दिखाया। यह सही है कि भारतीय कला के माध्यम से जो पावन दृष्टि को ही अभिव्यक्त किया गया, जो भौतिक संसार के पीछे छिपे दैव तत्वों से, जीवन और प्रकृति की सनातन विषमता और सबसे ऊपर मानवीय तत्व से हमेशा अवगत रहती है।

भारतीय कला

भारतीय कला अपनी प्राचीनता तथा विवधता के लिए विख्यात रही है। आज जिस रूप में 'कला' शब्द अत्यन्त व्यापक और बहुअर्थी हो गया है, प्राचीन काल में उसका एक छोटा हिस्सा भी न था। यदि ऐतिहासिक काल को छोड़ और पीछे प्रागैतिहासिक काल पर दृष्टि डाली जाए तो विभिन्न नदियों की घाटियों में पुरातत्त्वविदों को खुदाई में मिले असंख्य पाषाण उपकरण भारत के आदि मनुष्यों की कलात्मक प्रवृत्तियों के साक्षात प्रमाण हैं। पत्थर के टुकड़े को विभिन्न तकनीकों से विभिन्न प्रयोजनों के अनुरूप स्वरूप प्रदान किया जाता था। हस्तकुल्हाड़े, खुरचनी, छिद्रक, तक्षिणियाँ तथा बेधक आदि पाषाण-उपकरण सिर्फ़ उपयोगिता की दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण नहीं थे, बल्कि उनका कलात्मक पक्ष भी ज्ञातव्य है। जैसे-जैसे मनुष्य सभ्य होता गया उसकी जीवन शैली के साथ-साथ उसका कला पक्ष भी मज़बूत होता गया। जहाँ पर एक ओर मृदभांण्ड, भवन तथा अन्य उपयोगी सामानों के निर्माण में वृद्धि हुई वहीं पर दूसरी ओर आभूषण, मूर्ति कला, मुहर निर्माण, गुफ़ा चित्रकारी आदि का भी विकास होता गया। भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में विकसित सैंधव सभ्यता (हड़प्पा सभ्यता) भारत के इतिहास के प्रारम्भिक काल में ही कला की परिपक्वता का साक्षात् प्रमाण है। खुदाई में लगभग 1,000 केन्द्रों से प्राप्त इस सभ्यता के अवशेषों में अनेक ऐसे तथ्य सामने आये हैं, जिनको देखकर बरबर ही मन यह मानने का बाध्य हो जाता है कि हमारे पूर्वज सचमुच उच्च कोटि के कलाकार थे।

विश्व विरासत सूची (यूनेस्को) में शामिल भारतीय धरोहर
क्रम धरोहर घोषणा वर्ष चित्र
1 आगरा का लाल क़िला 1983
2 अजन्ता की गुफाएं 1983
3 एलोरा गुफाएं 1983
4 ताजमहल 1983
5 महाबलीपुरम के स्मारक 1984
6 कोणार्क का सूर्य मंदिर 1984
7 काजीरंगा नेशनल पार्क 1985
8 केवलादेव नेशनल पार्क 1985
9 मानस सेंक्चुरी 1985
10 गोवा के चर्च 1986
11 फ़तेहपुर सीकरी 1986
12 हम्पी अवशेष 1986
13 खजुराहो मंदिर 1986
14 एलिफेंटा की गुफाएँ 1987
15 चोल मंदिर 1987-2004
16 पट्टाडकल के स्मारक 1987
17 सुन्दरवन नेशनल पार्क 1987
18 नंदा देवी और फूलों की घाटी 1988-2005
19 सांची का स्तूप 1989
20 हुमायूं का मक़बरा 1993
21 क़ुतुब मीनार 1993
22 माउन्टेन रेलवे 1999-2005
23 बोधगया का महाबोधी मंदिर 2002
24 भीमबेटका की गुफाएं 2003
25 चम्पानेर-पावरगढ़ पार्क 2004
26 छत्रपति शिवाजी टर्मिनस 2004
27 लाल क़िला, दिल्ली 2007
28 ऋग्वेद की पाण्डुलिपियां 2007

ऐतिहासिक काल में भारतीय कला में और भी परिपक्वता आई। मौर्य काल, कुषाण काल और फिर गुप्त काल में भारतीय कला निरन्तर प्रगति करती गई। अशोक के विभिन्न शिलालेख, स्तम्भलेख और स्तम्भ कलात्मक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। सारनाथ स्थित अशोक स्‍तम्‍भ और उसके चार सिंह व धर्म चक्र युक्त शीर्ष भारतीय कला का उत्कृष्ट नमूना है। कुषाण काल में विकसित गांधार और मथुरा कलाओं की श्रेष्ठता जगज़ाहिर है। गुप्त काल सिर्फ़ राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से ही सम्पन्न नहीं था, कलात्मक दृष्टि से भी वह अत्यन्त सम्पन्न था। तभी तो इतिहासकारों ने उसे प्राचीन भारतीय इतिहास का 'स्वर्ण युग' कहा है। पूर्व मध्ययुग में निर्मित विशालकाय मन्दिर, क़िले तथा मूर्तियाँ तथा उत्तर मध्ययुग के इस्लामिक तथा भारतीय कला के संगम से युक्त अनेक भवन, चित्र तथा अन्य कलात्मक वस्तुएँ भारतीय कला की अमूल्य धरोहर हैं। आधुनिक युग में भारतीय कला पर पाश्चात्य कला का प्रभाव पड़ा। उसकी विषय वस्तु, प्रस्तुतीकरण के तरीक़े तथा भावाभिव्यक्ति में विविधता एवं जटिलता आई। आधुनिक कला अपने कलात्मक पक्ष के साथ-साथ उपयोगिता पक्ष को भी साथ लेकर चल रही है। यद्यपि भारत के दीर्घकालिक इतिहास में कई ऐसे काल भी आये, जबकि कला का ह्रास होने लगा, अथवा वह अपने मार्ग से भटकती प्रतीत हुई, परन्तु सामान्य तौर पर यह देखा गया कि भारतीय जनमानस कला को अपने जीवन का एक अंश मानकर चला है। वह कला का विकास और निर्माण नहीं करता, बल्कि कला को जीता है। उसकी जीवन शैली और जीवन का हर कार्य कला से परिपूर्ण है। यदि एक सामान्य भारतीय की जीवनचर्या का अध्ययन किया जाय तो, स्पष्ट होता है कि उसके जीवन का हर एक पहलू कला से परिपूर्ण है। जीवन के दैनिक क्रिया-कलापों के बीच उसके पूजा-पाठ, उत्सव, पर्व-त्योहार, शादी-विवाह या अन्य घटनाओं से विविध कलाओं का घनिष्ट सम्बन्ध है। इसीलिए भारत की चर्चा तब तक अपूर्ण मानी जाएगी, जब तक की उसके कला पक्ष को शामिल न किया जाय। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में 64 कलाओं का उल्लेख मिलता है, जिनका ज्ञान प्रत्येक सुसंस्कृत नागरिक के लिए अनिवार्य समझा जाता था। इसीलिए भर्तृहरि ने तो यहाँ तक कह डाला 'साहित्य, संगीत, कला विहीनः साक्षात् पशुः पुच्छविषाणहीनः।' अर्थात् साहित्य, संगीत और कला से विहीन व्यक्ति पशु के समान है।

'कला' शब्द की उत्पत्ति कल् धातु में अच् तथा टापू प्रत्यय लगाने से हुई है (कल्+अच्+टापू), जिसके कई अर्थ हैं—शोभा, अलंकरण, किसी वस्तु का छोटा अंश या चन्द्रमा का सोलहवां अंश आदि। वर्तमान में कला को अंग्रेज़ी के आर्ट शब्द का उपयोग समझा जाता है, जिसे पाँच विधाओं—संगीतकला, मूर्तिकला, चित्रकला, वास्तुकला और काव्यकला में वर्गीकृत किया जाता है। इन पाँचों को सम्मिलित रूप से ललित कलाएँ कहा जाता है। वास्वत में कला मानवा मस्तिष्क एवं आत्मा की उच्चतम एवं प्रखरतम कल्पना व भावों की अभिव्यक्ति ही है, इसीलिए कलायुक्त कोई भी वस्तु बरबस ही संसार का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। साथ ही वह उन्हें प्रसन्नचित्त एवं आहलादित भी कर देती है। वास्तव में यह कलाएँ व्यक्ति की आत्मा को झंझोड़ने की क्षमता रखती हैं। यह उक्ति कि भारतीय संगीत में वह जादू था कि दीपक राग के गायन से दीपक प्रज्जवलित हो जाता था तथा पशु-पक्षी अपनी सुध-बुध खो बैठते थे, कितना सत्य है, यह कहना तो कठिन है, लेकिन इतना तो सत्य है कि भारतीय संगीत या कला का हर पक्ष इतना सशक्त है कि संवेदनविहीन व्यक्ति में भी वह संवेदना के तीव्र उद्वेग को उत्पन्न कर सकता है। इन्हें भी देखें: पत्रलता

सांस्कृतिक प्रभावशीलता

हमेशा से ही भारत की कलाएँ और हस्तशिल्प इसकी सांस्कृतिक और परंपरागत प्रभावशीलता को अभिव्यक्त करने का माध्यम बने रहे हैं। देशभर में फैले इसके राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों की अपनी विशेष सांस्कृतिक और पारंपरिक पहचान है, जो वहाँ प्रचलित कला के भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देती है। भारत के हर प्रदेश में कला की अपनी एक विशेष शैली और पद्धति है, जिसे "लोक कला" के नाम से जाना जाता है। लोक कला के अलावा भी परंपरागत कला का एक अन्य रूप है, जो अलग-अलग जनजातियों और देहात के लोगों में प्रचलित है। इसे "जनजातीय कला" के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भारत की लोक और जनजातीय कलाएँ बहुत ही पारंपरिक और साधारण होने पर भी इतनी सजीव और प्रभावशाली हैं कि उनसे देश की समृद्ध विरासत का अनुमान स्वत: हो जाता है।

अपने परंपरागत सौंदर्य भाव और प्रामाणिकता के कारण भारतीय लोक कला की अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में संभावना बहुत प्रबल है। भारत की ग्रामीण लोक चित्रकारी के डिज़ायन बहुत ही सुंदर हैं, जिसमें धार्मिक और आध्यात्मिक चित्रों को उभारा गया है। भारत की सर्वाधिक प्रसिद्ध लोक चित्र कलाएँ हैं- बिहार की 'मधुबनी चित्रकारी', ओडिशा राज्य की 'पाताचित्र', आंध्र प्रदेश की 'निर्मल चित्रकारी' और इसी तरह लोक कला के अन्य रूप हैं। लोक कला केवल चित्रकारी तक ही सीमित नहीं है। इसके अन्य रूप भी हैं, जैसे कि मिट्टी के बर्तन, गृह सज्जा, जेवर, कपड़ा डिज़ायन आदि। वास्तव में भारत के कुछ प्रदेशों में बने मिट्टी के बर्तन तो अपने विशिष्ट और परंपरागत सौंदर्य के कारण विदेशी पर्यटकों के बीच बहुत ही लोकप्रिय हैं। इसके अलावा भारत के आंचलिक नृत्य, जैसे कि पंजाब का भांगड़ा, गुजरात का डांडिया, असम का बिहू नृत्य आदि भी, जो कि उन प्रदेशों की सांस्कृतिक विरासत को अभिव्यक्त करते हैं, भारतीय लोक कला के क्षेत्र के प्रमुख दावेदार हैं। इन लोक नृत्यों के माध्यम से लोग हर मौके, जैसे कि नई ऋतु का स्वागत, बच्चे का जन्म, शादी, त्योहार आदि पर अपना उल्लास व्यक्त करते हैं। भारत सरकार और संस्थाओं ने कला के उन रूपों को बढ़ावा देने का हर संभाव प्रयास किया है, जो भारत की सांस्कृतिक पहचान का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।

कला के उत्थान के लिए किये गए भारत सरकार और अन्य संगठनों के सतत प्रयासों की वजह से ही लोक कला की भांति जनजातीय कला में पर्याप्त रूप से प्रगति हुई है। जनजातीय कला सामान्यत: ग्रामीण इलाकों में देखी गई उस सृजनात्मक ऊर्जा को प्रतिबिम्बित करती है, जो जनजातीय लोगों को शिल्पकारिता के लिए प्रेरित करती है। जनजातीय कला कई रूपों में मौजूद है, जैसे कि भित्ति चित्र, कबीला नृत्य, कबीला संगीत आदि। इन्हीं में से एक है "तंजौर कला", जिसकी ख़ूबसूरती का जितना बखान किया जाये कम है।

भारतीय संगीत

संगीत मानवीय लय एवं तालबद्ध अभिव्यक्ति है। भारतीय संगीत अपनी मधुरता, लयबद्धता तथा विविधता के लिए जाना जाता है। वर्तमान भारतीय संगीत का जो रूप दृष्टिगत होता है, वह आधुनिक युग की प्रस्तुति नहीं है, बल्कि यह भारतीय इतिहास के प्रासम्भ के साथ ही जुड़ा हुआ है। बैदिक काल में ही भारतीय संगीत के बीज पड़ चुके थे। सामवेद उन वैदिक ॠचाओं का संग्रह मात्र है, जो गेय हैं। प्राचीन काल से ही ईश्वर आराधना हेतु भजनों के प्रयोग की परम्परा रही है। यहाँ तक की यज्ञादि के अवसर पर भी समूहगान होते थे।

भारतीय संगीत की उत्पत्ति

भारतीय संगीत की उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है। वादों का मूल मंत्र है - '' (ओऽम्) । (ओऽम्) शब्द में तीन अक्षर अ, उ तथा म् सम्मिलित हैं, जो क्रमशः ब्रह्मा अर्थात् सृष्टिकर्ता, विष्णु अर्थात् जगत् पालक और महेश अर्थात् संहारक की शक्तियों के द्योतक हैं। इन तीनों अक्षरों को ॠग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद से लिया गया है। संगीत के सात स्वर षड़ज (सा), ॠषभ (र), गांधार (गा) आदि वास्तव में ऊँ (ओऽम्) या ओंकार के ही अन्तविर्भाग हैं। साथ ही स्वर तथा शब्द की उत्पत्ति भी ऊँ के गर्भ से ही हुई है। मुख से उच्चारित शब्द ही संगीत में नाद का रूप धारण कर लेता है। इस प्रकार 'ऊँ' को ही संगीत का जगत् माना जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि जो साधक 'ऊँ' की साधना करने में समर्थ होता है, वही संगीत को यथार्थ रूप में ग्रहण कर सकता है। यदि दार्शनिक दृष्टि से इसका गूढ़ार्थ निकाला जाय, तो इसका तात्पर्थ यही है कि ऊँ अर्थात् सम्पूर्ण सृष्टि का एक अंश हमारी आत्मा में निहित है और संगीत उसी आत्मा की आवाज़ है, अंतः संगीत की उत्पत्ति हृदयगत भावों में ही मानी जाती है।

भारतीय संगीत के रूप

प्राचीन काल में भारतीय संगीत के दो रूप प्रचलित हुए-1. मार्गी तथा 2. देशी। कालातर में मार्गी संगीत लुप्त होता गया। साथ ही देशी संगीत्य दो रूपों में विकसित हुआ- (i) शास्त्रीय संगीत तथा (ii) लोक संगीत। शास्त्रीय संगीत शास्त्रों पर आधारीत तथा विद्वानों व कलाकरों के अध्ययन व साधना का प्रतिफल था। यह अत्यंत नियमबद्ध तथा श्रेष्ठ संगीत था। दूसरी ओर लोक संगीत काल और स्थान के अनुरूप प्रकृति के स्वच्छन्द वातावरण में स्वाभाविक रूप से पलता हुआ विकसित होता रहा, अतः यह अधिक विविधतापूर्ण तथा हल्का-फुल्का व चित्ताकर्षक है।

भारतीय संगीत के विविध अंग

संगीत से सम्बंधित कुछ मूलभूत तथ्यों को जानकर ही संगीत की बारीकियों को समझा जा सकता है। ध्वनि, स्वर, लय, ताल आदि इसके अन्तर्गत आते हैं।

प्रमुख वाद्य यंत्र एवं कलाकार
वाद्य वादक
सितार पंडित रविशंकर, निखिल बैनर्जी, विलायत ख़ाँ, बंदे हसन, शाहिद परवेज, उमाशंकर मिश्र, बुद्धादित्य मुखर्जी आदि।
तबला अल्ला रक्खा ख़ाँ, गुदई महाराज, (पं. सामता प्रसाद) ज़ाकिर हुसैन, लतीफ़ ख़ाँ, किशन महाराज, फ़य्यार ख़ाँ, सुखविंदर सिंह आदि।
बांसुरी पन्नालाल घोष, हरि प्रसाद चौरसिया, वी. कुंजमणि, एन. नीला, राजेन्द्र प्रसन्ना, राजेन्द्र कुलकर्णी आदि।
सरोद अमजद अली ख़ाँ, अली अकबर ख़ाँ, अलाउद्दीन ख़ाँ, विश्वजीत राय चौधरी, ज़रीन दारूवाला, बुद्धदेव दास गुप्ता, मुकेश शर्मा आदि।
वायलिन डॉ. एन. राजन, विष्णु गोविंद जोग, एल. सुब्रह्मण्यम्, संगीता राजन, कुनक्कड़ी वैद्यनाथन, टी. एन. कृष्णन् आदि।
वीणा एस. बालचंद्रन, कल्याण कृष्ण भागवतार, बदरूद्दीन डागर, वी. दोरेस्वामी अयंगर आदि।
शहनाई बिस्मिल्ला ख़ाँ, दयाशंकर जगन्नाथ, अली अहमद हुसैन ख़ाँ आदि।
संतूर शिवकुमार शर्मा, भजन सोपारी आदि।
पखावज गोपाल दास, उस्ताद रहमान ख़ाँ, छत्रपति सिंह, ठाकुर लक्ष्मण सिंह आदि।
रुद्रवीणा असद अली ख़ाँ, उस्ताद सादिक अली ख़ाँ आदि।
मृदंग पालधार रघु, ठाकुर भीकम सिंह, डॉ. जगदीश सिंह आदि।

नृत्य कला

भारत में नृत्य की अनेक शैलियाँ हैं। भरतनाट्यम, ओडिसी, कुचिपुड़ी, कथकली, मणिपुरी, कथक आदि परंपरागत नृत्य शैलियाँ हैं तो भंगड़ा, गिद्दा, नगा, बिहू आदि लोकप्रचलित नृत्य है। ये नृत्य शैलियाँ पूरे देश में विख्यात है। गुजरात का गरबा हरियाणा में भी मंचो की शोभा को बढ़ाता है और पंजाब का भंगड़ा दक्षिण भारत में भी बड़े शौक़ से देखा जाता है !

भारत के संगीत को विकसित करने में अमीर ख़ुसरो, तानसेन, बैजू बावरा जैसे संगीतकारों का विशेष योगदान रहा है। आज भारत के संगीत-क्षितिज पर बिस्मिल्ला ख़ाँ‎, ज़ाकिर हुसैन, रवि शंकर समान रूप से सम्मानित हैं।

विविध नृत्य कला


नटराज बिरजू महाराज बिहू नृत्य, असम ओडिसी नृत्य, उड़ीसा कथकली नृत्य, केरल घुमर नृत्य, राजस्थान मणिपुरी नृत्य, मणिपुर भांगड़ा नृत्य, पंजाब गरबा नृत्य, गुजरात कुची पुडी नृत्य, आंध्र प्रदेश रासलीला चरकुला नृत्य

भारतीय मूर्तिकला

अन्य कलाओं के समान ही भारतीय मूर्तिकला भी अत्यन्त प्राचीन है। यद्यपि पाषाण काल में भी मानव अपने पाषाण उपकरणों को कुशलतापूर्वक काट-छाँटकर विशेष आकार देता था और पत्थर के टुकड़े से फलक निकालते हेतु 'दबाव' तकनीक या पटककर तोड़ने की तकनीक का इस्तेमाल करने लगा था, परन्तु भारत में मूर्तिकला अपने वास्तविक रूप में हड़प्पा सभ्यता के दौरान ही अस्तित्व में आई। इस सभ्यता की खुदाई में अनेक मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं जो लगभग 4000 वर्ष पूर्व ही भारत में मूर्ति निर्माण तकनीक के विकास का द्योतक हैं। भारतीय मूर्ति कला की प्रमुख शैलियाँ इस प्रकार हैं-

  1. सिंधु घाटी सभ्यता की मूर्ति कला
  2. मौर्य मूर्तिकला
  3. मौर्योत्तर मूर्तिकला
  4. गान्धार कला की मूर्तियाँ
  5. मथुरा कला की मूर्तियाँ
  6. गुप्तकाल की मूर्तिकला
  7. बाकाटक की मूर्तिकला
  8. मध्यकाल की भारतीय मूर्तिकला
  9. चोल मूर्तिकला
  10. आधुनिक मूर्तिकाल
बोधिसत्व मैत्रेय
बुद्ध, मथुरा

भारत के राज्यों की कला

असम
  • कला और हस्तशिल्प से सम्बंधित कुटीर उद्योगों के लिए असम सदैव विख्यात रहा है।
  • हथकरघा, रेशम, बेंत और बांस की वस्तुएं, गलीचों की बुनाई, काष्ठ शिल्प, पीतल आदि धातुओं के शिल्प प्रमुख कुटीर उद्योग हैं।
तंजौर

तंजौर की कला लोक कला और कहानी-किस्से सुनाने की विस्मृत कला से जुड़ी है। तंजौर की प्रसिद्ध चित्रकारी पारंपरिक कला का ही रूप है। इस कला ने भारत को विश्व मंच पर प्रसिद्धि दिलाने में महती भूमिका निभाई है। धार्मिकता से ओतप्रोत और पौराणिक वृत्तांत ही इसके मुख्य विषय रहे हैं। कला और शिल्प दोनों का ही एक अच्छा मिश्रित रूप तंजौर की चित्रकारी में भी दिखाई देता है। चित्रकारी में हिन्दू देवी-देवताओं को ही मुख्य विषय बनाया गया है। तस्वीरें एक विलक्षण रूप में संजीव प्रतीत होती हैं।

गुजरात

गुजरात की वास्तुकला शैली अपनी पूर्णता और अलंकारिकता के लिए विख्यात है, जो सोमनाथ, द्वारका, मोधेरा, थान, घुमली, गिरनार जैसे मंदिरों और स्मारकों में संरक्षित है। मुस्लिम शासन के दौरान एक अलग ही तरीक़े की भारतीय-इस्लामी शैली विकसित हुई। गुजरात अपनी कला व शिल्प की वस्तुओं के लिए भी प्रसिद्ध है। इनमें जामनगर की बांधनी (बंधाई और रंगाई की तकनीक), पाटन का उत्कृष्ट रेशमी वस्त्र पटोला, इदर के खिलौने, पालनपुर का इत्र कोनोदर का हस्तशिल्प का काम और अहमदाबादसूरत के लघु मंदिरों का काष्ठशिल्प तथा पौराणिक मूर्तियाँ शामिल हैं।

गोवा
  • गोवा राज्‍य को कला एवं संस्‍कृति निदेशालय द्वारा आईएसओ 9001-2000 प्रमाणपत्र दिया गया है।
  • गोवा में टाइट अकादमी की स्‍थापना की गई है।
तमिलनाडु

भारत की एक प्रमुख शास्त्रीय नृत्य शैली भरतनाट्यम और कर्नाटक संगीत, दोनों का राज्य में व्यापक प्रचलन है। यद्यपि चित्रकला एवं मूर्तिकला कम विकसित है, फिर भी यहाँ पत्थर एवं कांसे की मूर्तियाँ बनाने की कला की शिक्षा के लिए विद्यालय हैं। तमिल साहित्य ने तेज़ी से लघु कथाओं व उपन्यासों के पश्चिमी साहित्यिक स्वरूप को अपनाया है। सुब्रहमण्यम सी. भारती (1882-1921) पारंपरिक तमिल कविता को आधुनिक बनाने वाले प्रारंभिक कवियों में एक थे। 1940 के दशक से चलचित्र जन मनोरंजन का सर्वाधिक लोकप्रिय माध्यम बना हुआ। यहाँ चलते-फिरते और स्थायी, दोनों प्रकार के सिनेमाघर हैं। भावनात्मक और भव्य फ़िल्मों, जिनमें प्रायः हल्का-फुल्का संगीत और नृत्य होता है, का निर्माण अधिकतर चेन्नई के आस-पास स्थित स्टूडियो में होता है।

दिल्ली

वास्तुकला
दिल्ली के वैविध्यपूर्ण इतिहास ने विरासत में इसे समृद्ध वास्तुकला दी है। शहर के सबसे प्राचीन भवन सल्तनत काल के हैं और अपनी संरचना व अलंकरण में भिन्नता लिए हुए हैं। प्राकृतिक रुपाकंनों, सर्पाकार बेलों और क़ुरान के अक्षरों के घुमाव में हिन्दू राजपूत कारीगरों का प्रभाव स्पष्ट नज़र आता है। मध्य एशिया से आए कुछ कारीगर कवि और वास्तुकला की सेल्जुक शैली की विशेषताएं मेहराब की निचली कोर पर कमल- कलियों की पंक्ति, उत्कीर्ण अलंकरण और बारी-बारी से आड़ी और खड़ी ईटों की चिनाई है। ख़िलज़ी शासन काल तक इस्लामी वास्तुकला में प्रयोग तथा सुधार का दौर समाप्त हो चुका था और इस्लामी वास्तुकला में एक विशेष पद्धति और उपशैली स्थापित हो चुकी थी जिसे पख़्तून शैली के नाम से जाना जाता है। इस शैली की अपनी लाक्षणिक विशेषताएं हैं। जैसे घोड़े के नाल की आकृति वाली मेहराबें, जालीदार खिड़कियां, अलंकृत किनारे बेल बूटों का काम (बारीक विस्तृत रूप रेखाओं में) और प्रेरणादायी, आध्यात्मिक शब्दांकन बाहर की ओर अधिकांशत: लाल पत्थरों का तथा भीतर सफ़ेद संगमरमर का उपयोग मिलता है।

पश्चिम बंगाल

संगीत
पारम्परिक संगीत भक्ति और सांस्कृतिक गीतों के रूप में है। रबीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखित एवं संयोजित ‘रबीन्द्र संगीत’, जिसे विशुद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ पारम्परिक लोकगीतों में पिरोया गया है, बंगालियों के सांस्कृतिक जीवन पर सशक्त प्रभाव छोड़ता है।


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