ग़बन उपन्यास भाग-21

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अगर इस समय किसी को संसार में सबसे दुखी, जीवन से निराश, चिंताग्नि में जलते हुए प्राणी की मूर्ति देखनी हो, तो उस युवक को देखे, जो साइकिल पर बैठा हुआ, अल्प्रेड पार्क के सामने चला जा रहा है। इस वक्त अगर कोई काला सांप नज़र आए तो वह दोनों हाथ फैलाकर उसका स्वागत करेगा और उसके विष को सुधा की तरह पिएगा। उसकी रक्षा सुधा से नहीं, अब विष ही से हो सकती है। मौत ही अब उसकी चिंताओं का अंत कर सकती है, लेकिन क्या मौत उसे बदनामी से भी बचा सकती है? सबेरा होते ही, यह बात घर- घर फैल जायगी,सरकारी रुपया खा गया और जब पकडागया, तब आत्महत्या कर ली! द्दल में कलंक लगाकर, मरने के बाद भी अपनी हंसी कराके चिंताओं से मुक्त हुआ तो क्या, लेकिन दूसरा उपाय ही क्या है। अगर वह इस समय जाकर जालपा से सारी स्थिति कह सुनाए, तो वह उसके साथ अवश्य सहानुभूति दिखाएगी। जालपा को चाहे कितना ही दु:ख हो, पर अपने गहने निकालकर देने में एक क्षण का भी विलम्ब न करेगी। गहनों को गिरवी रखकर वह सरकारी रुपये अदा कर सकता है। उसे अपना परदा खोलना पड़ेगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।

मन में यह निश्चय करके रमा घर की ओर चला, पर उसकी चाल में वह तेज़ी न थी जो मानसिक स्फूर्ति का लक्षण है। लेकिन घर पहुंचकर उसने सोचा,जब यही करना है, तो जल्दी क्या है, जब चाहूंगा मांग लूंगा। कुछ देर गप-शप करता रहा, फिर खाना खाकर लेटा।

सहसा उसके जी में आया, क्यों न चुपके से कोई चीज़ उठा ले जाऊं?’ कुलमर्यादा की रक्षा करने के लिए एक बार उसने ऐसा ही किया था। उसी उपाय से क्या वह प्राणों की रक्षा नहीं कर सकता- अपनी जबान से तो शायद वह कभी अपनी विपत्ति का हाल न कह सकेगा। इसी प्रकार आगा-पीछा में पड़े हुए सबेरा हो जायगा। और तब उसे कुछ कहने का अवसर ही न मिलेगा।

मगर उसे फिर शंका हुई, कहीं जालपा की आंख खुल जाय- फिर तो उसके लिए त्रिवेणी के सिवा और स्थान ही न रह जायगा। जो कुछ भी हो एक बार तो यह उद्योग करना ही पड़ेगा। उसने धीरे से जालपा का हाथ अपनी छाती पर से हटाया, और नीचे खडाहो गया। उसे ऐसा ख्याल हुआ कि जालपा हाथ हटाते ही चौंकी और फिर मालूम हुआ कि यह भ्रम-मात्र था। उसे अब जालपा के सलूके की जेब से चाभियों का गुच्छा निकालना था। देर करने का अवसर न था। नींद में भी निम्नचेतना अपना काम करती रहती है। बालक कितना ही ग़ाफिल सोया हो, माता के चारपाई से उठते ही जाग पड़ता है, लेकिन जब चाभी निकालने के लिए झुका, तो उसे जान पडा जालपा मुस्करा रही है। उसने झट हाथ खींच लिया और लैंप के क्षीण प्रकाश में जालपा के मुख की ओर देखा, जो कोई सुखद स्वप्न देख रही थी। उसकी स्वप्न-सुख विलसित छवि देखकर

उसका मन कातर हो उठा। हा! इस सरला के साथ मैं ऐसा विश्वासघात करूं? जिसके लिए मैं अपने प्राणों को भेंट कर सकता हूं, उसी के साथ यह कपट?

जालपा का निष्कपट स्नेह-पूर्ण हृदय मानो उसके मुखमंडल पर अंकित हो रहा था। आह जिस समय इसे ज्ञात होगा इसके गहने फिर चोरी हो गए, इसकी क्या दशा होगी? पछाड़ खायगी, सिर के बाल नोचेगी। वह किन आंखों से उसका यह क्लेश देखेगा? उसने सोचा,मैंने इसे आराम ही कौन?सा पहुंचाया है। किसी दूसरे से विवाह होता, तो अब तक वह रत्नों से लद जाती। दुर्भाग्यवश इस घर में आई, जहां कोई सुख नहीं,उल्टे और रोना पड़ा।


रमा फिर चारपाई पर लेट रहा। उसी वक्त ज़ालपा की आँखें खुल गई। उसके मुख की ओर देखकर बोली, ‘तुम कहां गए थे? मैं अच्छा सपना देख रही थी। बडा बाग़ है, और हम-तुम दोनों उसमें टहल रहे हैं। इतने में तुम न जाने कहां चले जाते हो, एक और साधु आकर मेरे सामने खडा हो जाता है। बिलकुल देवताओं का-सा उसका स्वरूप है। वह मुझसे कहता है, ‘बेटी, मैं तुझे

वर देने आया हूं। मांग, क्या मांगती है। मैं तुम्हें इधर-उधर खोज रही हूं कि तुमसे पूछूं क्या मांग़ूब और तुम कहीं दिखाई नहीं देते। मैं सारा बाग़ छान आई। पेडों पर झांककर देखा, तुम न-जाने कहां चले गए हो बस इतने में नींद खुल गई, वरदान न मांगने पाई।

रमा ने मुस्कराते हुए कहा, ‘क्या वरदान मांगतीं?’

‘मांगती जो जी में आता, तुम्हें क्या बता दूं?’

‘नहीं, बताओ, शायद तुम बहुत-सा धन मांगतीं।’

‘धन को तुम बहुत बडी चीज़ समझते होगे? मैं तो कुछ नहीं समझती।’

‘हां, मैं तो समझता हूं। निर्धान रहकर जीना मरने से भी बदतर है। मैं अगर किसी देवता को पकड़ पाऊं तो बिना काफ़ी रुपये लिये न मानूंब मैं सोने की दीवार नहीं खड़ी करना चाहता, न राकट्ठलर और कारनेगी बनने की मेरी इच्छा है। मैं केवल इतना धन चाहता हूं कि ज़रूरत की मामूली चीज़ों के लिए तरसना न पड़े। बस कोई देवता मुझे पांच लाख दे दे, तो मैं फिर उससे कुछ न मांगूंगा। हमारे ही ग़रीब मुल्क़ में ऐसे कितने ही रईस, सेठ, ताल्लुकेदार हैं, जो पांच

लाख एक साल में ख़र्च करते हैं, बल्कि कितनों ही का तो माहवार खर्च पांच लाख होगा। मैं तो इसमें सात जीवन काटने को तैयार हूं, मगर मुझे कोई इतना भी नहीं देता। तुम क्या मांगतीं- अच्छे-अच्छे गहने!’

जालपा ने त्योरियां चढ़ाकर कहा, ‘क्यों चिढ़ाते हो मुझे! क्या मैं गहनों पर और स्त्रियों से ज़्यादा जान देती हूं- मैंने तो तुमसे कभी आग्रह नहीं किया?तुम्हें ज़रूरत हो, आज इन्हें उठा ले जाओ, मैं ख़ुशी से दे दूंगी।’

रमा ने मुस्कराकर कहा, ‘तो फिर बतलातीं क्यों नहीं?’

जालपा—‘मैं यही मांगती कि मेरा स्वामी सदा मुझसे प्रेम करता रहे। उनका मन कभी मुझसे न गिरे।’

रमा ने हंसकर कहा, ‘क्या तुम्हें इसकी भी शंका है?’

‘तुम देवता भी होते तो शंका होती, तुम तो आदमी हो मुझे तो ऐसी कोई स्त्री न मिली, जिसने अपने पति की निष्ठुरता का दुखडान रोया हो सालदो साल तो वह खूब प्रेम करते हैं, फिर न जाने क्यों उन्हें स्त्री से अरुचि-सी हो जाती है। मन चंचल होने लगता है। औरत के लिए इससे बडी विपत्ति नहीं। उस विपत्ति से बचने के सिवा मैं और क्या वरदान मांगती?’ यह कहते हुए जालपा ने पति के गले में बांहें डाल दीं और प्रणय-संचित नजरों से देखती हुई बोली, ‘सच बताना, तुम अब भी मुझे वैसे ही चाहते हो, जैसे पहले चाहते थे?देखो, सच कहना, बोलो!’

रमा ने जालपा के गले से चिमटकर कहा, ‘उससे कहीं अधिक, लाख गुना!’

जालपा ने हंसकर कहा, ‘झूठ! बिलकुल झूठ! सोलहों आना झूठ!’

रमानाथ—‘यह तुम्हारी ज़बरदस्ती है। आख़िर ऐसा तुम्हें कैसे जान पडा?’

जालपा—‘आंखों से देखती हूं और कैसे जान पड़ा। तुमने मेरे पास बैठने की कसम खा ली है। जब देखो तुम गुमसुम रहते हो मुझसे प्रेम होता, तो मुझ पर विश्वास भी होता। बिना विश्वास के प्रेम हो ही कैसे सकता है? जिससे तुम अपनी बुरी-से-बुरी बात न कह सको, उससे तुम प्रेम नहीं कर सकते। हां, उसके साथ विहार कर सकते हो, विलास कर सकते हो उसी तरह जैसे कोई वेश्या के पास जाता है। वेश्या के पास लोग आनंद उठाने ही जाते हैं, कोई उससे मन की बात कहने नहीं जाता। तुम्हारी भी वही दशा है। बोलो है या नहीं? आँखें क्यों छिपाते हो? क्या मैं देखती नहीं, तुम बाहर से कुछ घबडाए हुए आते हो? बातें करते समय देखती हूं, तुम्हारा मन किसी और तरफ रहता है। भोजन में भी देखती हूं, तुम्हें कोई आनंद नहीं आता। दाल गाढ़ी है या पतली, शाक कम है या ज़्यादा, चावल में कनी है या पक गए हैं, इस तरफ तुम्हारी निगाह नहीं जाती। बेगार की तरह भोजन करते हो और जल्दी से भागते हो मैं यह सब क्या नहीं देखती- मुझे देखना न चाहिए! मैं विलासिनी हूं, इसी रूप में तो तुम मुझे देखते हो मेरा काम है,विहार करना, विलास करना, आनंद करना। मुझे तुम्हारी चिंताओं से मतलब! मगर ईश्वर ने वैसा हृदय नहीं दिया। क्या करूं? मैं समझती हूं, जब मुझे जीवन ही व्यतीत करना है, जब मैं केवल तुम्हारे मनोरंजन की ही वस्तु हूं, तो क्यों अपनी जान विपत्ति में डालूं?’

जालपा ने रमा से कभी दिल खोलकर बात न की थी। वह इतनी विचारशील है, उसने अनुमान ही न किया था। वह उसे वास्तव में रमणी ही समझता था। अन्य पुरुषों की भांति वह भी पत्नी को इसी रूप में देखता था। वह उसके यौवन पर मुग्ध था। उसकी आत्मा का स्वरूप देखने की कभी चेष्टा ही न की। शायद वह समझता था, इसमें आत्मा है ही नहीं। अगर वह रूप-लावण्य की राशि न होती, तो कदाचित वह उससे बोलना भी पसंद न करता। उसका सारा आकर्षण,

उसकी सारी आसक्ति केवल उसके रूप पर थी। वह समझता था, जालपा इसी में प्रसन्न है। अपनी चिंताओं के बोझ से वह उसे दबाना नहीं चाहता था, पर आज उसे ज्ञात हुआ, जालपा उतनी ही चिंतनशील है, जितना वह ख़ुद था। इस वक्त उसे अपनी मनोव्यथा कह डालने का बहुत अच्छा अवसर मिला था, पर हाय संकोच! इसने फिर उसकी ज़बान बंद कर दी। जो बातें वह इतने दिनों तक छिपाए रहा, वह अब कैसे कहे? क्या ऐसा करना जालपा के आरोपित आक्षेपों

को स्वीकार करना न होगा? हां, उसकी आंखों से आज भ्रम का परदा उठ गया। उसे ज्ञात हुआ कि विलास पर प्रेम का निर्माण करने की चेष्टा करना उसका अज्ञान था।


रमा इन्हीं विचारों में पडा-पडा सो गया, उस समय आधी रात से ऊपर गुज़र गई थी। सोया तो इसी सबब से था कि बहुत सबेरे उठ जाऊंगा, पर नींद खुली, तो कमरे में धूप की किरणें आ-आकर उसे जगा रही थीं। वह चटपट उठा और बिना मुंह-हाथ धोए, कपड़े पहनकर जाने को तैयार हो गया। वह रमेश बाबू के पास जाना चाहता था। अब उनसे यह कथा कहनी पड़ेगी। स्थिति का पूरा ज्ञान हो जाने पर वह कुछ-न?कुछ सहायता करने पर तैयार हो जाएंगे।

जालपा उस समय भोजन बनाने की तैयारी कर रही थी। रमा को इस भांति जाते देखकर प्रश्न-सूचक नजरों से देखा। रमा के चेहरे पर चिंता, भय, चंचलता और हिंसा मानो बैठी घूर रही थीं। एक क्षण के लिए वह बेसुध-सी हो गई। एक हाथ में छुरी और दूसरे में एक करेला लिये हुए वह द्वार की ओर ताकती रही। यह बात क्या है, उसे कुछ बताते क्यों नहीं- वह और कुछ न कर सके, हमदर्दी तो कर ही सकती है। उसके जी में आया,पुकार कर पूछूं, क्या बात है? उठकर द्वार तक आई भीऋ पर रमा सड़क पर दूर निकल गया था। उसने देखा, वह बडी तेज़ी से चला जा रहा है, जैसे सनक गया हो न दाहिनी ओर ताकता है, न बाई ओर, केवल सिर झुकाए, पथिकों से टकराता, पैरगाडियों की परवा न करता हुआ, भागा चला जा रहा था। आख़िर वह लौटकर फिर तरकारी काटने लगी, पर उसका मन उसी ओर लगा हुआ था। क्या बात है, क्यों मुझसे

इतना छिपाते हैं?

रमा रमेश के घर पहुंचा तो आठ बज गए थे। बाबू साहब चौकी पर बैठे संध्या कर रहे थे। इन्हें देखकर इशारे से बैठने को कहा, कोई आधा घंटे में संध्या समाप्त हुई, बोले, ‘क्या अभी मुंह-हाथ भी नहीं धोया, यही लीचड़पन मुझे नापसंद है। तुम और कुछ करो या न करो, बदन की सगाई तो करते रहो क्या हुआ, रुपये का कुछ प्रबंध हुआ?’

रमानाथ—‘इसी फ़िक्र में तो आपके पास आया हूं।’

रमेश—‘तुम भी अजीब आदमी हो, अपने बाप से कहते हुए तुम्हें क्यों शर्म आती है? यही न होगा, तुम्हें ताने देंगे, लेकिन इस संकट से तो छूट जाओगे। उनसे सारी बातें साफ-साफ कह दो। ऐसी दुर्घटनाएं अक्सर हो जाया करती हैं। इसमें डरने की क्या बात है! नहीं कहो, मैं चलकर कह दूं।’

रमानाथ—‘उनसे कहना होता, तो अब तक कभी कह चुका होता! क्या आप कुछ बंदो।स्त नहीं कर सकते?’

रमेश—‘कर क्यों नहीं सकता, पर करना नहीं चाहता। ऐसे आदमी के साथ मुझे कोई हमदर्दी नहीं हो सकती। तुम जो बात मुझसे कह सकते हो, क्या उनसे नहीं कह सकते?मेरी सलाह मानो। उनसे जाकर कह दो। अगर वह रुपये न दें तब मेरे पास आना।’

रमा को अब और कुछ कहने का साहस न हुआ। लोग इतनी घनिष्ठता होने पर भी इतने कठोर हो सकते हैं। वह यहां से उठा, पर उसे कुछ सुझाई न देता था। चौवैया में आकाश से फिरते हुए जल-बिंदुओं की जो दशा होती है, वही इस समय रमा की हुई। दस क़दम तेज़ी से आगे चलता, तो फिर कुछ सोचकर रूक जाता और दस-पांच क़दम पीछे लौट जाता। कभी इस गली में

घुस जाता, कभी उस गली में… सहसा उसे एक बात सूझी, क्यों न जालपा को एक पत्र लिखकर अपनी सारी कठिनाइयां कह सुनाऊं। मुंह से तो वह कुछ न कह सकता था, पर कलम से लिखने में उसे कोई मुश्किल मालूम नहीं होती थी। पत्र लिखकर जालपा को दे दूंगा और बाहर के कमरे में आ बैठूंगा। इससे सरल और क्या हो सकता है? वह भागा हुआ घर आया, और तुरंत पत्र लिखा, ‘प्रिये, क्या कहूं, किस विपत्ति में फंसा हुआ हूं। अगर एक घंटे के अंदर तीन सौ रुपये का प्रबंध न हो गया, तो हाथों में हथकडियां पड़ जाएंगी। मैंने बहुत कोशिश की, किसी से उधार ले लूं, किंतु कहीं न मिल सके। अगर तुम अपने दो-एक जेवर दे दो, तो मैं गिरों रखकर काम चला लूं। ज्योंही रुपये हाथ आ जाएंगे, छुडादूंगा। अगर मजबूरी न आ पड़ती तो, तुम्हें कष्ट न देता। ईश्वर के लिए रुष्ट न होना। मैं बहुत जल्द छुडा दूंगा---’

अभी यह पत्र समाप्त न हुआ था कि रमेश बाबू मुस्कराते हुए आकर बैठ गए और बोले, ‘कहा उनसे तुमने?

रमा ने सिर झुकाकर कहा, ‘अभी तो मौक़ा नहीं मिला।

रमेश—‘तो क्या दो-चार दिन में मौक़ा मिलेगा- मैं डरता हूं कि कहीं आज भी तुम यों ही ख़ाली हाथ न चले जाओ, नहीं तो ग़जब ही हो जाय! ’

रमानाथ—‘जब उनसे मांगने का निश्चय कर लिया, तो अब क्या चिंता! ’

रमेश—‘आज मौक़ा मिले, तो ज़रा रतन के पास चले जाना। उस दिन मैंने कितना ज़ोर देकर कहा था, लेकिन मालूम होता है तुम भूल गए।’

रमानाथ—‘भूल तो नहीं गया, लेकिन उनसे कहते शर्म आती है।’

रमेश—‘अपने बाप से कहते भी शर्म आती है? अगर अपने लोगों में यह संकोच न होता, तो आज हमारी यह दशा क्यों होती?’

रमेश बाबू चले गए, तो रमा ने पत्र उठाकर जेब में डाला और उसे जालपा को देने का निश्चय करके घर में गया। जालपा आज किसी महिला के घर जाने को तैयार थी। थोड़ी देर हुई, बुलावा आ गया। उसने अपनी सबसे सुंदर साड़ी पहनी थी। हाथों में जडाऊ कंगन शोभा दे रहे थे, गले में चन्द्रहार, आईना सामने रखे हुए कानों में झूमके पहन रही थी।

रमा को देखकर बोली, ‘आज सबेरे कहां चले गए थे? हाथ-मुंह तक न धोया। दिन?भर तो बाहर रहते ही हो, शामसबेरे तो घर पर रहा करो। तुम नहीं रहते, तो घर सूना-सूना लगता है। मैं अभी

सोच रही थी, मुझे मैके जाना पड़े, तो मैं जाऊं या न जाऊं? मेरा जी तो वहां बिलकुल न लगे।

रमानाथ—‘तुम तो कहीं जाने को तैयार बैठी हो ।’

जालपा—‘सेठानीजी ने बुला भेजा है, दोपहर तक चली आऊंगी।’

रमा की दशा इस समय उस शिकारी की-सी थी, जो हिरनी को अपने शावकों के साथ किलोल करते देखकर तनी हुई बंदूक कंधो पर रख लेता है, और वह वात्सल्य और प्रेम की क्रीडादेखने में तल्लीन हो जाता है। उसे अपनी ओर टकटकी लगाए देखकर जालपा ने मुस्कराकर कहा, ‘देखो,

मुझे नज़र न लगा देना। मैं तुम्हारी आंखों से बहुत डरती हूं।’

रमा एक ही उडान में वास्तविक संसार से कल्पना और कवित्व के संसार में जा पहुंचा। ऐसे अवसर पर जब जालपा का रोम-रोम आनंद से नाच रहा है, क्या वह अपना पत्र देकर उसकी सुखद कल्पनाओं को दलित कर देगा? वह कौन हृदयहीन व्याधा है, जो चहकती हुई चिडिया की गर्दन पर छुरी चला देगा? वह कौन अरसिक आदमी है, जो किसी प्रभात-द्दसुम को तोड़कर पैरों से कुचल डालेगा- रमा इतना हृदयहीन, इतना अरसिक नहीं है। वह जालपा पर इतना बडा

आघात नहीं कर सकता उसके सिर कैसी ही विपत्ति क्यों न पड़ जाए, उसकी कितनी ही बदनामी क्यों न हो, उसका जीवन ही क्यों न कुचल दिया जाए, पर वह इतना निष्ठुर नहीं हो सकता उसने अनुरक्त होकर कहा,नज़र तो न लगाऊंगा, हां, हृदय से लगा लूंगा। इसी एक वाक्य में उसकी सारी चिंताएं, सारी बाधाएं विसर्जित हो गई। स्नेह-संकोच की वेदी पर उसने अपने को भेंट कर दिया। इस अपमान के सामने जीवन के और सारे क्लेश तुच्छ थे। इस समय

उसकी दशा उस बालक की-सी थी, जो गोड़े पर नश्तर की क्षणिक पीडा न सहकर उसके फटने, नासूर पड़ने, वर्षो खाट पर पड़े रहने और कदाचित प्राणांत हो जाने के भय को भी भूल जाता है।

जालपा नीचे जाने लगी, तो रमा ने कातर होकर उसे गले से लगा लिया और इस तरह भींच-भींचकर उसे आलिंगन करने लगा, मानो यह सौभाग्य उसे फिर न मिलेगा। कौन जानता है, यही उसका अंतिम आलिंगन हो उसके करपाश मानो रेशम के सहस्रों तारों से संगठित होकर जालपा से चिमट गए थे। मानो कोई मरणासन्न कृपण अपने कोष की कुजी मुट्ठी में बंद किए हो, और प्रतिक्षण मुट्ठी कठोर पड़ती जाती हो क्या मुट्ठी को बलपूर्वक खोल देने से ही उसके प्राण न निकल जाएंगे?

सहसा जालपा बोली, ‘मुझे कुछ रुपये तो दे दो, शायद वहां कुछ ज़रूरत पड़े। ’

रमा ने चौंककर कहा, ‘रुपये! रुपये तो इस वक्त नहीं हैं।’

जालपा—‘हैं हैं, मुझसे बहाना कर रहे हो बस मुझे दो रुपये दे दो, और ज़्यादा नहीं चाहती।’

यह कहकर उसने रमा की जेब में हाथ डाल दिया, और कुछ पैसे के साथ वह पत्र भी निकाल लिया।

रमा ने हाथ बढ़ाकर पत्र को जालपा से छीनने की चेष्टा करते हुए कहा, ‘काग़ज़ मुझे दे दो, सरकारी काग़ज़ है।’

जालपा—‘किसका ख़त है ।ता दो?’

जालपा ने तह किए हुए पुरजे क़ो खोलकर कहा,यह सरकारी काग़ज़ है! झूठे कहीं के! तुम्हारा ही लिखा---

रमानाथ—‘दे दो, क्यों परेशान करती हो!’

रमा ने फिर काग़ज़ छीन लेना चाहा, पर जालपा ने हाथ पीछे उधरकर कहा,मैं बिना पढ़े न दूंगी। कह दिया ज़्यादा ज़िद करोगे, तो फाड़ डालूंगी। रमानाथ—‘अच्छा फाड़ डालो।’

जालपा—‘तब तो मैं ज़रूर पढ़ूंगी।’

उसने दो क़दम पीछे हटकर फिर ख़त को खोला और पढ़ने लगी। रमा ने फिर उसके हाथ से काग़ज़ छीनने की कोशिश नहीं की। उसे जान पडा, आसमान फट पडाहै, मानो कोई भंयकर जंतु उसे निफलने के लिए बढ़ा चला आता है। वह धड़-धड़ करता हुआ ऊपर से उतरा और घर के बाहर निकल गया। कहां अपना मुंह छिपा ले- कहां छिप जाए कि कोई उसे देख न सके।

उसकी दशा वही थी, जो किसी नंगे आदमी की होती है। वह सिर से पांव तक कपड़े पहने हुए भी नंगा था। आह! सारा परदा खुल गया! उसकी सारी कपटलीला खुल गई! जिन बातों को छिपाने की उसने इतने दिनों चेष्टा की, जिनको गुप्त रखने के लिए उसने कौन?कौन?सी कठिनाइयां नहीं झेलीं, उन सबों ने आज मानो उसके मुंह पर कालिख पोत दी। वह अपनी दुर्गति अपनी आंखों से नहीं देख सकता जालपा की सिसकियां, पिता की झिड़कियां, पड़ोसियों की

कनफुसकियां सुनने की अपेक्षा मर जाना कहीं आसान होगा। जब कोई संसार में न रहेगा, तो उसे इसकी क्या परवा होगी, कोई उसे क्या कह रहा है। हाय! केवल तीन सौ रुपयों के लिए उसका सर्वनाश हुआ जा रहा है, लेकिन ईश्वर की इच्छा है, तो वह क्या कर सकता है। प्रियजनों की नज़रों से फिरकर जिए तो क्या जिए! जालपा उसे कितना नीच, कितना कपटी, कितना धूर्त, कितना गपोडिया समझ रही होगी। क्या वह अपना मुंह दिखा सकता है?

क्या संसार में कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां वह नए जीवन का सूत्रपात कर सके, जहां वह संसार से अलग-थलग सबसे मुंह मोड़कर अपना जीवन काट सके। जहां वह इस तरह छिप जाय कि पुलिस उसका पता न पा सके। गंगा की गोद के सिवा ऐसी जगह और कहां थी। अगर जीवित रहा, तो महीनेदो महीने में अवश्य ही पकड़ लिया जाएगा। उस समय उसकी क्या दशा

होगी,वह हथकडियां और बेडियां पहने अदालत में खडाहोगा। सिपाहियों का एक दल उसके ऊपर सवार होगा। सारे शहर के लोग उसका तमाशा देखने जाएंगे। जालपा भी जाएगी। रतन भी जाएगी। उसके पिता, संबंधी, मित्र, अपने-पराए,सभी भिन्न-भिन्न भावों से उसकी दुर्दशा का तमाशा देखेंगे। नहीं, वह अपनी मिट्टी यों न ख़राब करेगा, न करेगा। इससे कहीं अच्छा है, कि वह डूब मरे! मगर फिर ख़याल आया कि जालपा किसकी होकर रहेगी! हाय, मैं अपने साथ उसे भी ले डूबा! बाबूजी और अम्मांजी तो रो-धोकर सब्र कर लेंगे, पर उसकी रक्षा कौन करेगा- क्या वह छिपकर नहीं रह सकता- क्या शहर से दूर किसी छोटे-से गांव में वह अज्ञातवास नहीं कर सकता- संभव है, कभी जालपा को उस पर दया आए, उसके अपराधों को क्षमा कर दे। संभव है, उसके पास धन भी हो जाए, पर यह असंभव है कि वह उसके सामने आँखें सीधी कर सके। न जाने इस समय उसकी क्या दशा होगी! शायद मेरे पत्र का आशय समझ गई हो शायद परिस्थिति का उसे कुछ ज्ञान हो गया हो शायद उसने अम्मां को मेरा पत्र दिखाया हो और दोनों घबराई हुई मुझे खोज रही हों। शायद पिताजी को बुलाने के लिए लड़कों को भेजा गया हो चारों तरफ मेरी तलाश हो रही होगी। कहीं कोई इधर भी न आता हो कदाचित मौत को देखकर भी वह इस समय इतना भयभीत न होता, जितना किसी परिचित को देखकर। आगे-पीछे

चौकन्नी आंखों से ताकता हुआ, वह उस जलती हुई धूप में चला जा रहा था,कुछ ख़बर न थी, किधरब सहसा रेल की सीटी सुनकर वह चौंक पड़ा। अरे, मैं इतनी दूर निकल आया? रेलगाड़ी सामने खड़ी थी। उसे उस पर बैठ जाने की प्रबल इच्छा हुई, मानो उसमें बैठते ही वह सारी बाधाओं से मुक्त हो जाएगा, मगर जेब में रुपये न थे। उंगली में अंगूठी पड़ी हुई थी। उसने कुलियों के जमादार को बुलाकर कहा, ‘कहीं यह अंगूठी बिकवा सकते हो? एक रुपया तुम्हें दूंगा।

मुझे गाड़ी में जाना है। रुपये लेकर घर से चला था, पर मालूम होता है, कहीं फिर गए। फिर लौटकर जाने में गाड़ी न मिलेगी और बडा भारी नुकसान हो जाएगा।’

जमादार ने उसे सिर से पांव तक देखा, अंगूठी ली और स्टेशन के अंदर चला गया। रमा टिकट-घर के सामने टहलने लगा। आँखें उसकी ओर लगी हुई थीं। दस मिनट गुज़र गए और जमादार का कहीं पता नहीं। अंगूठी लेकर कहीं गायब तो नहीं हो जाएगा! स्टेशन के अंदर जाकर उसे खोजने लगा। एक कुली से पूछा, उसने पूछा, ‘जमादार का नाम क्या है?’रमा ने ज़बान दांतों से काट ली।

नाम तो पूछा ही नहीं। बतलाए क्या? इतने में गाड़ी ने सीटी दी, रमा अधीर हो उठा। समझ गया, जमादार ने चरका दिया। बिना टिकट लिये ही गाड़ी में आ बैठा मन में निश्चय कर लिया, साफ़ कह दूंगा मेरे पास टिकट नहीं है। अगर उतरना भी पडा, तो यहां से दस पांच कोस तो चला ही जाऊंगा। गाड़ी चल दी, उस वक्त रमा को अपनी दशा पर रोना आ गया। हाय,

न जाने उसे कभी लौटना नसीब भी होगा या नहीं। फिर यह सुख के दिन कहां मिलेंगे। यह दिन तो गए, हमेशा के लिए गए। इसी तरह सारी दुनिया से मुंह छिपाए, वह एक दिन मर जायगा। कोई उसकी लाश पर आंसू बहाने वाला भी न होगा। घरवाले भी रो-धोकर चुप हो रहेंगे। केवल थोड़े-से संकोच के कारण उसकी यह दशा हुई। उसने शुरू ही से, जालपा से अपनी सच्ची हालत कह दी होती, तो आज उसे मुंह पर कालिख लगाकर क्यों भागना पड़ता। मगर कहता कैसे, वह अपने को अभागिनी न समझने लगती- कुछ न सही, कुछ दिन तो उसने जालपा को सुखी रक्खा। उसकी लालसाओं की हत्या तो न होने दी। रमा के संतोष के लिए अब इतना ही काफ़ी था। अभी गाड़ी चले दस मिनट भी न बीते होंगे। गाड़ी का दरवाज़ा खुला,और टिकट बाबू अंदर आए। रमा के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं। एक क्षण में वह उसके पास आ जाएगा। इतने आदमियों के सामने उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। उसका कलेजा धक-धक करने लगा। ज्यों-ज्यों टिकट बाबू उसके समीप आता था, उसकी नाड़ी की गति तीव्र होती जाती थी। आख़िर बला सिर पर आ ही गई। टिकट बाबू ने पूछा, ‘आपका टिकट?’

रमा ने ज़रा सावधान होकर कहा, ‘मेरा टिकट तो कुलियों के जमादार के पास ही रह गया। उसे टिकट लाने के लिए रुपये दिए थे। न जाने किधर निकल गया।’

टिकट बाबू को यकीन न आया, बोला, ‘मैं यह कुछ नहीं जानता। आपको अगले स्टेशन पर उतरना होगा। आप कहां जा रहे हैं?’ रमानाथ—‘सफर तो बडी दूर का है, कलकत्ता तक जाना है।‘

टिकट बाबू—‘आगे के स्टेशन पर टिकट ले लीजिएगा। ’

रमानाथ—‘यही तो मुश्किल है। मेरे पास पचास का नोट था। खिड़की पर बडी भीड़ थी। मैंने नोट उस जमादार को टिकट लाने के लिए दिया, पर वह ऐसा ग़ायब हुआ कि लौटा ही नहीं। शायद आप उसे पहचानते हों। लंबा-लंबा चेचकरू आदमी है।‘

टिकट बाबू—‘इस विषय में आप लिखा-पढ़ी कर सकते है? मगर बिना टिकट के जा नहीं सकते।

रमा ने विनीत भाव से कहा, ‘भाई साहब, आपसे क्या छिपाऊं। मेरे पास और रुपये नहीं हैं। आप जैसा मुनासिब समझें, करें।’

टिकट बाबू—‘मुझे अफ़सोस है, बाबू साहब, कायदे से मजबूर हूं।’

कमरे के सारे मुसाफिर आपस में कानाफूसी करने लगे। तीसरा दर्जा था,अधिकांश मज़दूर बैठे हुए थे, जो मजूरी की टोह में पूरब जा रहे थे। वे एक बाबू जाति के प्राणी को इस भांति अपमानित होते देखकर आनंद पा रहे थे। शायद टिकट बाबू ने रमा को धक्का देकर उतार दिया होता, तो और भी ख़ुश होते। रमा को जीवन में कभी इतनी झेंप न हुई थी। चुपचाप सिर झुकाए खडा

था। अभी तो जीवन की इस नई यात्रा का आरंभ हुआ है। न जाने आगे क्या? क्या विपत्तियां झेलनी पडेंगी। किस-किसके हाथों धोखा खाना पड़ेगा। उसके जी में आया,गाड़ी से यद पड़ूं, इस छीछालेदर से तो मर जाना ही अच्छा। उसकी आँखें भर आइ, उसने खिड़की से सिर बाहर निकाल लिया और रोने लगा। सहसा एक बूढ़े आदमी ने, जो उसके पास ही बैठा हुआ था, पूछा, ‘कलकत्ता में कहां जाओगे, बाबूजी?’

रमा ने समझा, वह गंवार मुझे बना रहा है, झुंझलाकर बोला,’तुमसे मतलब, मैं कहीं जाऊंगा!’

बूढ़े ने इस उपेक्षा पर कुछ भी ध्यान न दिया, बोला, ‘मैं भी वहीं चलूंगा। हमारा-तुम्हारा साथ हो जायगा। फिर धीरे से बोला,किराए के रुपये मुझसे ले लो, वहां दे देना।’

अब रमा ने उसकी ओर ध्यान से देखा। कोई साठ-सत्तर साल का बूढ़ा घुला हुआ आदमी था। मांस तो क्या हडिडयां तक फूल गई थीं। मूंछ और सिर के बाल मुड़े हुए थे। एक छोटी-सी बद्दची के सिवा उसके पास कोई असबाब भी न था। रमा को अपनी ओर ताकते देखकर वह फिर बोला, ‘आप हाबडे ही उतरेंगे या और कहीं जाएंगे?’

रमा ने एहसान के भार से दबकर कहा, ‘बाबा, आगे मैं उतर पड़ूंगा। रुपये का कोई बंदोबस्त करके फिर आऊंगा। ’ बूढ़ा—‘तुम्हें कितने रुपये चाहिए, मैं भी तो वहीं चल रहा हूं। जब चाहे दे देना। क्या मेरे दस-पांच रुपये लेकर भाग जाओगे। कहां घर है?’

रमानाथ—‘यहीं, प्रयाग ही में रहता हूं।’

बूढ़े ने भक्ति के भाव से कहा,मान्य है प्रयाग, धन्य है! मैं भी त्रिवेणी का स्नान करके आ रहा हूं, सचमुच देवताओं की पुरी है। तो कै रुपये निकालूं?’

रमा ने सकुचाते हुए कहा, ‘मैं चलते ही चलते रुपया न दे सकूंगा, यह समझ लो।’

बूढ़े ने सरल भाव से कहा, ‘अरे बाबूजी, मेरे दस-पांच रुपये लेकर तुम भाग थोड़े ही जाओगे। मैंने तो देखा, प्रयाग के पण्डे यात्रियों को बिना लिखाए - पढ़ाए रुपये दे देते हैं। दस रुपये में तुम्हारा काम चल जाएगा?’

रमा ने सिर झुकाकर कहा, ‘हां, इतने बहुत हैं।’

टिकट बाबू को किराया देकर रमा सोचने लगा,यह बूढ़ा कितना सरल, कितना परोपकारी, कितना निष्कपट जीव है। जो लोग सभ्य कहलाते हैं, उनमें कितने आदमी ऐसे निकलेंगे, जो बिना जान - पहचान किसी यात्री को उबार लें। गाड़ी के और मुसाफिर भी बूढ़े को श्र'द्धा की नजरों से देखने लगे। रमा को बूढ़े की बातों से मालूम हुआ कि वह जाति का खटिक है, कलकत्ता में उसकी शाक-भाजी की दुकान है। रहने वाला तो बिहार का है, पर चालीस साल से कलकत्ता ही में रोज़गार कर रहा है। देवीदीन नाम है, बहुत दिनों से तीर्थयात्रा की इच्छा थी, बदरीनाथ की यात्रा करके लौटा जा रहा है।

रमा ने आश्चर्य से पूछा, ‘तुम बदरीनाथ की यात्रा कर आए? वहां तो पहाड़ों की बडी-बडी चढ़ाइयां हैं।’

देवीदीन—‘भगवान की दया होती है तो सब कुछ हो जाता है, बाबूजी! उनकी दया चाहिए।’

रमानाथ—‘तुम्हारे बाल-बच्चे तो कलकत्ता ही में होंगे?’

देवीदीन ने रूखी हंसी हंसकर कहा, ‘बाल-बच्चे तो सब भगवान के घर गए। चार बेटे थे। दो का ब्याह हो गया था। सब चल दिए। मैं बैठा हुआ हूं। मुझी से तो सब पैदा हुए थे। अपने बोए हुए बीज को किसान ही तो काटता है!’यह कहकर वह फिर हंसा, ज़रा देर बाद बोला, ‘बुढिया अभी जीती हैं। देखें, हम दोनों में पहले कौन चलता है। वह कहती है, पहले मैं जाऊंगी, मैं

कहता हूं ,पहले मैं जाऊंगा। देखो किसकी टेक रहती है। बन पडा तो तुम्हें दिखाऊंगा। अब भी गहने पहनती है। सोने की बालियां और सोने की हसली पहने दुकान पर बैठी रहती है। जब कहा कि चल तीर्थ कर आवें तो बोली, ‘तुम्हारे तीर्थ के लिए क्या दुकान मिट्टी में मिला दूं? यह है ज़िंदगी का हाल, आज मरे कि कल मरे, मगर दुकान न छोड़ेगी। न कोई आगे, न कोई पीछे, न कोई रोने वाला, न कोई हंसने वाला, मगर माया बनी हुई है।अब भी एक-न?एक गहना बनवाती ही रहती है। न जाने कब उसका पेट भरेगा। सब घरों का यही हाल है। जहां देखो,हाय गहने! हाय गहने! गहने के पीछे जान दे दें, घर के आदमियों को भूखा मारें, घर की चीज़ें बेचेंब और कहां तक कहूं, अपनी आबरू तक बेच दें। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको यही रोग लगा हुआ है। कलकत्ता में कहां काम करते हो, भैया?’

रमानाथ—‘अभी तो जा रहा हूं। देखूं कोई नौकरी-चाकरी मिलती है या नहीं?’

देवीदीन—‘तो फिर मेरे ही घर ठहरना। दो कोठरियां हैं, सामने दालान है, एक कोठरी ऊपर है। आज बेचूं तो दस हज़ार मिलें। एक कोठरी तुम्हें दे दूंगा। जब कहीं काम मिल जाय, तो अपना घर ले लेना। पचास साल हुए घर से भागकर हाबडे गया था, तब से सुख भी देखे, दु:ख भी देखे। अब मना रहा हूं, भगवान् ले चलो। हां, बुढिया को अमर कर दो। नहीं, तो उसकी दुकान कौन लेगा, घर कौन लेगा और गहने कौन लेगा!




यह कहकर देवीदीन फिर हंसा, वह इतना हंसोड़, इतना प्रसन्नचित्त था कि रमा को आश्चर्य हो रहा था। बेबात की बात पर हंसता था। जिस बात पर और लोग रोते हैं, उस पर उसे हंसी आती थी। किसी जवान को भी रमा ने यों हंसते न देखा था। इतनी ही देर में उसने अपनी सारी जीवन?कथा कह सुनाई, कितने ही लतीफे याद थे। मालूम होता था, रमा से वर्षो की मुलाकात है। रमा को भी अपने विषय में एक मनगढ़ंत कथा कहनी पड़ी। देवीदीन—‘तो तुम भी घर से भाग आए हो? समझ गया। घर में झगडा हुआ होगा। बहू कहती होगी,मेरे पास गहने नहीं, मेरा नसीब जल गया। सास- बहू में पटती न होगी। उनका कलह सुन-सुन जी और खट्टा हो गया होगा। रमानाथ—‘हां बाबा, बात यही है, तुम कैसे जान गए?

देवीदीन हंसकर बोला,’यह बडा भारी काम है भैया! इसे तेली की खोपड़ी पर जगाया जाता है। अभी लङके-बाले तो नहीं हैं न?’

रमानाथ—‘नहीं, अभी तो नहीं हैं।’

देवीदीन—‘छोटे भाई भी होंगे?’

रमा चकित होकर बोला,’हां दादा, ठीक कहते हो तुमने कैसे जाना?’

देवीदीन फिर ठटठा मारकर बोला,यह सब कर्मों का खेल है। ससुराल धनी होगी, क्यों? ’

रमानाथ—‘हां दादा, है तो।’

देवीदीन—‘मगर हिम्मत न होगी।’

रमानाथ—‘बहुत ठीक कहते हो, दादा। बडे कम-हिम्मत हैं। जब से विवाह हुआ अपनी लडकी तक को तो बुलाया नहीं।’

देवीदीन--‘समझ गया भैया, यही दुनिया का दस्तूर है। बेटे के लिए कहो चोरी करें, भीख मांगें, बेटी के लिए घर में कुछ है ही नहीं।’

तीन दिन से रमा को नींद न आई थी। दिनभर रुपये के लिए मारा-मारा फिरता, रात-भर चिंता में पडारहता। इस वक्त बातें करते-करते उसे नींद आ गई। गरदन झुकाकर झपकी लेने लगा। देवीदीन ने तुरंत अपनी गठरी खोली, उसमें से एक दरी निकाली, और तख्त पर बिछाकर बोला, ‘तुम यहां आकर लेट रहो, भैया! मैं तुम्हारी जगह पर बैठ जाता हूं।’

रमा लेट रहा। देवीदीन बार-बार उसे स्नेह-भरी आंखों से देखता था, मानो उसका पुत्र कहीं परदेश से लौटा हो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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