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ग़बन उपन्यास भाग-36

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देवीदीन ने चाय की दूकान उसी दिन से बंद कर दी थी और दिन-भर उस अदालत की खाक छानता फिरता था जिसमें डकैती का मुकदमा पेश था और रमानाथ की शहादत हो रही थी। तीन दिन रमा की शहादात बराबर होती रही और तीनों दिन देवीदीन ने न कुछ खाया और न सोया। आज भी उसने घर आते ही आते कुरता उतार दिया और एक पंखिया लेकर झलने लगा। फागुन लग गया था और कुछ-कुछ गर्मी शुरू हो गई थी, पर इतनी गर्मी न थी कि पसीना बहे या पंखे

की ज़रूरत हो अफसर लोग तो जाड़ों के कपड़े पहने हुए थे, लेकिन देवीदीन पसीने में तर था। उसका चेहरा, जिस पर निष्कपट बुढ़ापा हंसता रहता था, खिसियाया हुआ था, मानो बेगार से लौटा हो जग्गो ने लोटे में पानी लाकर रख दिया और बोली,चिलम रख दूं? देवीदीन की आज तीन दिन से यह ख़ातिर हो रही थी। इसके पहले बुढिया कभी चिलम रखने को न पूछती थी। देवीदीन इसका मतलब समझता था। बुढिया को सदय नजरों से देखकर बोला,नहीं, रहने दो, चिलम न पिऊंगा।

‘तो मुंह-हाथ तो धो लो। गर्द पड़ी हुई है।’

‘धो लूंगा, जल्दी क्या है।’

बुढिया आज का हाल जानने को उत्सुक थी, पर डर रही थी कहीं देवीदीन झुंझला न पड़े। वह उसकी थकान मिटा देना चाहती थी, जिससे देवीदीन प्रसन्न होकर आप-ही-आप सारा वृत्तांत कह चले।

‘तो कुछ जलपान तो कर लो। दोपहर को भी तो कुछ नहीं खाया था,

मिठाई लाऊं- लाओ, पंखी मुझे दे दो।’

देवीदीन ने पंखिया दे दी। बुढिया झलने लगी। दो-तीन मिनट तक आँखेंं बंद करके बैठे रहने के बाद देवीदीन ने कहा, ‘आज भैया की गवाही खत्म हो गई!

बुढिया का हाथ रूक गया। बोली, ‘तो कल से वह घर आ जाएंगे?’

देवीदीन—‘अभी नहीं छुट्टी मिली जाती, यही बयान दीवानी में देना पड़ेगा। और अब वह यहां आने ही क्यों लगे! कोई अच्छी जगह मिल जायगी, घोड़े पर चढ़े-चढ़े घूमेंगे, मगर है ।डा पक्का मतलबीब पंद्रह बेगुनाहों को फंसा दिया। पांच-छह को तो फाँसी हो जाएगी। औरों को दस-दस बारह-बारह साल की सज़ा मिली रक्खी है। इसी के बयान से मुकदमा सबूत हो गया। कोई कितनी ही जिरह करे, क्या मजाल ज़रा भी हिचकिचाए। अब एक भी न बचेगा। किसने कर्म किया, किसने नहीं किया इसका हाल दैव जाने, पर मारे सब जाएंगे। घर से भी तो सरकारी रुपया खाकर भागा था। हमें बडा धोखा हुआ। जग्गो ने मीठे तिरस्कार से देखकर कहा, ‘अपनी नेकी-बदी अपने साथ है। मतलबी तो संसार है, कौन किसके लिए मरता है।’

देवीदीन ने तीव्र स्वर में कहा,’अपने मतलब के लिए जो दूसरों का गला काटे उसको ज़हर दे देना भी पाप नहीं है।’

सहसा दो प्राणी आकर खड़े हो गए। एक गोरा, ख़ूबसूरत लड़का था, जिसकी उम्र पंद्रह-सोलह साल से ज़्यादा न थी। दूसरा अधेड़ था और सूरत से चपरासी मालूम होता था। देवीदीन ने पूछा, ‘किसे खोजते हो?’

चपरासी ने कहा,’तुम्हारा ही नाम देवीदीन है न? मैं ‘प्रजा-मित्र’ के दफ़्तर से आया हूं। यह बाबू उन्हीं रमानाथ के भाई हैं जिन्हें सतरंज का इनाम मिला था। यह उन्हीं की खोज में दफ़्तर गए थे। संपादकजी ने तुम्हारे पास भेज दिया। तो मैं जाऊं न?’ यह कहता हुआ वह चला गया। देवीदीन ने गोपी को सिर से पांव तक देखा। आकृति रमा से मिलती थी। बोला, ‘आओ बेटा, बैठो। कब आए घर से?’गोपी ने एक खटिक की दूकान पर बैठना शान के ख़िलाफ़ समझा, खडा-खडा बोला, ‘आज ही तो आया हूं। भाभी भी साथ हैं। धर्मशाले में ठहरा हुआ हूं।’

देवीदीन ने खड़े होकर कहा, ‘तो जाकर बहू को यहां लाओ नब ऊपर तो रमा बाबू का कमरा है ही, आराम से रहो धरमसाले में क्यों पड़े रहोगे। नहीं चलो, मैं भी चलता हूं। यहां सब तरह का आराम है।’

उसने जग्गो को यह ख़बर सुनाई और ऊपर झाडू लगाने को कहकर गोपी के साथ धर्मशाले चल दिया। बुढिया ने तुरंत ऊपर जाकर झाडू। लगाया, लपककर हलवाई की दूकान से मिठाई और दही लाई, सुराही में पानी भरकर रख दिया। फिर अपना हाथ-मुंह धोया, एक रंगीन साड़ी निकाली, गहने पहने और बन-ठनकर बहू की राह देखने लगी।

इतने में फिटन भी आ पहुंची। बुढिया ने जाकर जालपा को उतारा। जालपा पहले तो साफ-भाजी की दूकान देखकर कुछ झिझकी, पर बुढिया का स्नेह-स्वागत देखकर उसकी झिझक दूर हो गई। उसके साथ ऊपर गई, तो हर एक चीज़ इसी तरह अपनी जगह पर पाई मानो अपना ही घर हो

जग्गो ने लोटे में पानी रखकर कहा, ‘इसी घर में भैया रहते थे, बेटी! आज पंद्रह रोज़ से घर सूना पडाहुआ है। हाथ-मुंह धोकर दही-चीनी खा लो न, बेटी! भैया का हाल तो अभी तुम्हें न मालूम हुआ होगा। ‘

जालपा ने सिर हिलाकर कहा, ‘कुछ ठीक-ठीक नहीं मालूम हुआ। वह जो पत्र छपता है, वहां मालूम हुआ था कि पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।‘

देवीदीन भी ऊपर आ गया था। बोला, ‘गिरफ्तार तो किया था, पर अब तो वह एक मुकदमे में सरकारी गवाह हो गए हैं। परागराज में अब उन पर कोई मुकदमा न चलेगा और साइत नौकरी-चाकरी भी मिल जाए। जालपा ने गर्व से कहा, ‘क्या इसी डर से वह सरकारी गवाह हो गए हैं?

वहां तो उन पर कोई मामला ही नहीं है। मुकदमा क्यों चलेगा?’

देवीदीन ने डरते-डरते कहा, ‘कुछ रुपये-पैसे का मुआमला था न?’

जालपा ने मानो आहत होकर कहा, ‘वह कोई बात न थी। ज्योंही हम लोगों को मालूम हुआ कि कुछ सरकारी रकम इनसे खर्च हो गई है, उसी वक्त पहुंचा दी। यह व्यर्थ घबडाकर चले आए और फिर ऐसी चुप्पी साधी कि अपनी ख़बर तक न दी।’

देवीदीन का चेहरा जगमगा उठा, मानो किसी व्यथा से आराम मिल गया हो बोला, ‘तो यह हम लोगों को क्या मालूम! बार-बार समझाया कि घर पर खत-पत्तर भेज दो, लोग घबडाते होंगे, पर मारे शर्म के लिखते ही न थे। इसी धोखे में पड़े रहे कि परागराज में मुकदमा चल गया होगा। जानते तो सरकारी गवाह क्यों बनते?’

‘सरकारी गवाह’ का आशय जालपा से छिपा न था। समाज में उनकी जो निंदा और अपकीर्ति होती है, यह भी उससे छिपी न थी। सरकारी गवाह क्यों बनाए जाते हैं, किस तरह प्रलोभन दिया जाता है, किस भांति वह पुलिस के पुतले बनकर अपने ही मित्रों का गला घोंटते हैं, यह उसे मालूम था। मगर कोई आदमी अपने बुरे आचरण पर लज्जित होकर भी सत्य का उदघाटन करे,

छल और कपट का आवरण हटा दे, तो वह सज्जन है, उसके साहस की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। मगर शर्त यही है कि वह अपनी गोष्ठी के साथ किए का फल भोगने को तैयार रहे। हंसता-खेलता फाँसी पर चढ़जाए तो वह सच्चा वीर है, लेकिन अपने प्राणों की रक्षा के लिए स्वार्थ के नीच विचार से, दंड की कठोरता से भयभीत होकर अपने साथियों से दगा करे, आस्तीन का सांप बन जाए तो वह कायर है, पतित है, बेहया है। विश्वासघात डाकुओं और समाज

के शत्रुओं में भी उतना ही हेय है जितना किसी अन्य क्षो मेंब ऐसे प्राणी को समाज कभी क्षमा नहीं करता, कभी नहीं,जालपा इसे ख़ूब समझती थी। यहां तो समस्या और भी जटिल हो गई थी। रमा ने दंड के भय से अपने किए हुए पापों का परदा नहीं खोला था। उसमें कम-से-कम सच्चाई तो होती। निंदा होने पर भी आंशिक सच्चाई का एक गुण तो होता। यहां तो उन पापों का परदा खोला गया था, जिनकी हवा तक उसे न लगी थी। जालपा को सहसा इसका विश्वास

न आया। अवश्य कोई-न?कोई बात हुई होगी, जिसने रमा को सरकारी गवाह बनने पर मजबूर कर दिया होगा। सद्दचाती हुई बोली,’क्या यहां भी कोई---कोई बात हो गई थी?’

देवीदीन उसकी मनोव्यथा का अनुभव करता हुआ बोला, ‘कोई बात नहीं। यहां वह मेरे साथ ही परागराज से आए। जब से आए यहां से कहीं गए नहीं। बाहर निकलते ही न थे। बस एक दिन निकले और उसी दिन पुलिस ने पकड़ लिया। एक सिपाही को आते देखकर डरे कि मुझी को पकड़ने आ रहा है, भाग खड़े हुए। उस सिपाही को खटका हुआ। उसने शुबहे में गिरफ्तार कर लिया। मैं भी इनके पीछे थाने में पहुंचा। दारोग़ा पहले तो रिसवत मांगते थे, मगर जब मैं घर से रुपये लेकर गया, तो वहां और ही गुल खिल चुका था। अफसरों में न जाने क्या बातचीत हुई। उन्हें सरकारी गवाह बना लिया। मुझसे तो भैया ने कहा कि इस मुआमले में बिलकुल झूठ न बोलना पड़ेगा। पुलिस का मुकदमा सच्चा है। सच्ची बात कह देने में क्या हरज है। मैं चुप हो रहा। क्या करता।’ जग्गो—‘न जाने सबों ने कौनसी बूटी सुंघा दी। भैया तो ऐसे न थे। दिन भर अम्मां-अम्मां करते रहते थे। दूकान पर सभी तरह के लोग आते हैं, मर्द भी औरत भी, क्या मजाल कि किसी की ओर आंख उठाकर देखा हो ।’ देवीदीन—‘कोई बुराई न थी। मैंने तो ऐसा लड़का ही नहीं देखा। उसी धोखे में आ गए।’ जालपा ने एक मिनट सोचने के बाद कहा, ‘क्या उनका बयान हो गया?’

‘हां, तीन दिन बराबर होता रहा। आज खतम हो गया।’

जालपा ने उद्विग्न होकर कहा, ‘तो अब कुछ नहीं हो सकता? मैं उनसे मिल सकती हूं?’

देवीदीन जालपा के इस प्रश्न पर मुस्करा पड़ा। बोला, ‘हां, और क्या, जिसमें जाकर भंडागोड़ कर दो, सारा खेल बिगाड़ दो! पुलिस ऐसी गधी नहीं है। आजकल कोई भी उनसे नहीं मिलने पाता। कडा पहरा रहता है।’

इस प्रश्न पर इस समय और कोई बातचीत न हो सकती थी। इस गुत्थी को सुलझाना आसान न था। जालपा ने गोपी को बुलाया। वह छज्जे पर खडा सड़क का तमाशा देख रहा था। ऐसा शरमा रहा था, मानो ससुराल आया हो धीरे-धीरे आकर खडा हो गया। जालपा ने कहा, ‘मुंह-हाथ धोकर कुछ खा तो लो। दही तो तुम्हें बहुत अच्छा लगता है।’गोपी लजा कर फिर बाहर चला गया।

देवीदीन ने मुस्कराकर कहा, ‘हमारे सामने न खाएंगे। हम दोनों चले जाते हैं। तुम्हें जिस चीज़ की ज़रूरत हो, हमसे कह देना, बहूजी! तुम्हारा ही घर है।’

‘भैया को तो हम अपना ही समझते थे। और हमारे कौन बैठा हुआ है।’जग्गो ने गर्व से कहा, ‘वह तो मेरे हाथ का बनाया खा लेते थे।’

जालपा ने मुस्कराकर कहा, ‘अब तुम्हें भोजन न बनाना पड़ेगा, मांजी, मैं बना दिया करूंगी।’

जग्गो ने आपत्ति की, ‘हमारी बिरादरी में दूसरों के हाथ का खाना मना है, बहू, अब चार दिन के लिए बिरादरी में नक्य क्या बनूं!’

जालपा—‘हमारी बिरादरी में भी तो दूसरों का खाना मना है।’

जग्गो—‘यहां तुम्हें कौन देखने आता है। फिर पढ़े-लिखे आदमी इन बातों का विचार भी तो नहीं करते। हमारी बिरादरी तो मूरख लोगों की है। ’ जालपा—‘यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम बनाओ और मैं खाऊं। जिसे बहू बनाया, उसके हाथ का खाना पड़ेगा। नहीं खाना था, तो बहू क्यों बनाया।’

देवीदीन ने जग्गो की ओर प्रशंसा-सूचक नजरों से देखकर कहा, ‘बहू ने बात पते की कह दी। इसका जवाब सोचकर देना। अभी चलो। इन लोगों को ज़रा आराम करने दो।’

दोनों नीचे चले गए, तो गोपी ने आकर कहा, ‘भैया इसी खटिक के यहां रहते थे क्या? खटिक ही तो मालूम होते हैं।’

जालपा ने फटकारकर कहा, ‘खटिक हों या चमार हों, लेकिन हमसे और तुमसे सौगुने अच्छे हैं। एक परदेशी आदमी को छह महीने तक अपने घर में ठहराया, खिलाया, पिलाया। हममें है इतनी हिम्मत! यहां तो कोई मेहमान आ जाता है, तो वह भी भारी हो जाता है। अगर यह नीचे हैं, तो हम इनसे कहीं नीचे हैं।’

गोपी मुंह-हाथ धो चुका था। मिठाई खाता हुआ बोला, किसी को ठहरा लेने से कोई ऊंचा नहीं हो जाता। चमार कितना ही दानपुण्य करे, पर रहेगा तो चमार ही।’

जालपा—‘मैं उस चमार को उस पंडित से अच्छा समझूंगी, जो हमेशा दूसरों का धन खाया करता है।’

जलपान करके गोपी नीचे चला गया। शहर घूमने की उसकी बडी इच्छा थी। जालपा की इच्छा कुछ खाने की न हुई। उसके सामने एक जटिल समस्या खड़ी थी,रमा को कैसे इस दलदल से निकाले। उस निंदा और उपहास की कल्पना ही से उसका अभिमान आहत हो उठता था। हमेशा के लिए वह सबकी आंखों से फिर जाएंगे, किसी को मुंह न दिखा सकेंगे। फिर, बेगुनाहों का ख़ून किसकी गर्दन पर होगा। अभियुक्तों में न जाने कौन अपराधी है, कौन निरपराध है, कितने द्वेष के शिकार हैं, कितने लोभ के, सभी सज़ा पा जाएंगे। शायद दो-चार को फाँसी भी हो जाय। किस पर यह हत्या पड़ेगी? उसने फिर सोचा, माना किसी पर हत्या न पड़ेगी। कौन जानता है, हत्या पड़ती है या नहीं, लेकिन अपने स्वार्थ के लिए,ओह! कितनी बडी नीचता है। यह कैसे इस बात पर राज़ी हुए! अगर म्युनिसिपैलिटी के मुकदमा चलाने का भय भी था, तो दो-चार साल की कैद के सिवा और क्या होता, उससे बचने के लिए इतनी घोर नीचता पर उतर आए! अब अगर मालूम भी हो जाए कि म्युनिसिपैलिटी कुछ नहीं कर सकती, तो अब हो ही क्या सकता है। इनकी शहादत तो हो ही गई। सहसा एक बात किसी भारी कील की तरह उसके हृदय में चुभ गई।

क्यों न यह अपना बयान बदल दें। उन्हें मालूम हो जाए कि म्युनिसिपैलिटी उनका कुछ नहीं कर सकती, तो शायद वह ख़ुद ही अपना बयान बदल दें। यह बात उन्हें कैसे बताई जाए? किसी तरह संभव है। वह अधीर होकर नीचे उतर आई और देवीदीन को इशारे से बुलाकर बोली,’क्यों दादा, उनके पास कोई खत भी नहीं पहुंच सकता? पहरे वालों को दस-पांच रुपये देने से तो शायद ख़त पहुंच जाय।’ देवीदीन ने गर्दन हिलाकर कहा,’मुसकिल है। पहरे पर बडे जंचे हुए आदमी रखे गए हैं। मैं दो बार गया था। सबों ने फाटक के सामने खडाभी न होने दिया।’

‘उस बंगले के आसपास क्या है?’

‘एक ओर तो दूसरा बंगला है। एक ओर एक कलमी आम का बाग़ है और सामने सड़क है।’

‘हां, शाम को घूमने-घामने तो निकलते ही होंगे?’

‘हां, बाहर द्दरसी डालकर बैठते हैं। पुलिस के दो-एक अफसर भी साथ रहते हैं।’

‘अगर कोई उस बाग़ में छिपकर बैठे, तो कैसा हो! जब उन्हें अकेले देखे, ख़त फेंक दे। वह ज़रूर उठा लेंगे।’

देवीदीन ने चकित होकर कहा, ‘हां, हो तो सकता है, लेकिन अकेले मिलें तब तो!’

ज़रा और अंधेरा हुआ, तो जालपा ने देवीदीन को साथ लिया और रमानाथ का बंगला देखने चली। एक पत्र लिखकर जेब में रख लिया था। बार-बार देवीदीन से पूछती, अब कितनी दूर है? अच्छा! अभी इतनी ही दूर और! वहां हाते में रोशनी तो होगी ही। उसके दिल में लहरें-सी उठने लगीं। रमा अकेले टहलते हुए मिल जाएं, तो क्या पूछना। ईमाल में बांधकर ख़त को उनके सामने फेंक दूं। उनकी सूरत बदल गई होगी। सहसा उसे शंका हो गई,कहीं वह पत्र पढ़कर भी अपना बयान न बदलें, तब क्या होगा? कौन जाने अब मेरी याद भी उन्हें है या नहीं। कहीं मुझे देखकर वह मुंह उधर लें तो- इस शंका से वह सहम उठी। देवीदीन से बोली, ‘क्यों दादा,

वह कभी घर की चर्चा करते थे?’

देवीदीन ने सिर हिलाकर कहा,’कभी नहीं। मुझसे तो कभी नहीं की। उदास बहुत रहते थे। ’

इन शब्दों ने जालपा की शंका को और भी सजीव कर दिया। शहर की घनी बस्ती से ये लोग दूर निकल आए थे। चारों ओर सन्नाटा था। दिनभर वेग से चलने के बाद इस समय पवन भी विश्राम कर रहा था। सड़क के किनारे के वृक्ष और मैदान चन्द्रमा के मंद प्रकाश में हतोत्साह, निर्जीव-से मालूम होते थे। जालपा को ऐसा आभास होने लगा कि उसके प्रयास का कोई फल नहीं है, उसकी यात्रा का कोई लक्ष्य नहीं है, इस अनंत मार्ग में उसकी दशा उस अनाथ की-सी है जो मुत्तीभर अकै के लिए द्वार-द्वार फिरता हो वह जानता है, अगले द्वार पर उसे अकै न मिलेगा, गालियां ही मिलेंगी, फिर भी वह हाथ फैलाता है, बढ़ती मनाता है। उसे आशा का अवलंब नहीं निराशा ही का अवलंब है।

एकाएक सड़क के दाहनी तरफ बिजली का प्रकाश दिखाई दिया। देवीदीन ने एक बंगले की ओर उंगली उठाकर कहा, ‘यही उनका बंगला है।’

जालपा ने डरते-डरते उधर देखा, मगर बिलकुल सन्नाटा छाया हुआ था। कोई आदमी न था। फाटक पर ताला पडाहुआ था।

जालपा बोली,’यहां तो कोई नहीं है।’

देवीदीन ने फाटक के अंदर झांककर कहा, ‘हां, शायद यह बंगला छोड़ दिया।’

‘कहीं घूमने गए होंगे?’

‘घूमने जाते तो द्वार पर पहरा होता। यह बंगला छोड़ दिया।’

‘तो लौट चलें।’

‘नहीं, ज़रा पता लगाना चाहिए, गए कहां?’

बंगले की दाहनी तरफ आमों के बाग़ में प्रकाश दिखाई दिया। शायद खटिक बाग़ की रखवाली कर रहा था। देवीदीन ने बाग़ में आकर पुकारा, ‘कौन है यहां? किसने यह बाग़ लिया है?’

एक आदमी आमों के झुरमुट से निकल आया। देवीदीन ने उसे पहचानकर कहा ,

‘अरे! तुम हो जंगली? तुमने यह बाग़ लिया है?’

जगंली ठिगना-सा गठीला आदमी था, बोला,’हां दादा, ले लिया, पर कुछ है नहीं। डंड ही भरना पड़ेगा। तुम यहां कैसे आ गए?’

‘कुछ नहीं, यों ही चला आया था। इस बंगले वाले आदमी क्या हुए?’

जंगली ने इधर-उधर देखकर कनबतियों में कहा, ‘इसमें वही मुखबर टिका हुआ था। आज सब चले गए। सुनते हैं, पंद्रह-बीस दिन में आएंगे, जब फिर हाईकोर्ट में मुकदमा पेस होगा। पढ़े-लिखे आदमी भी ऐसे दगाबाज होते हैं, दादा! सरासर झूठी गवाही दी। न जाने इसके बाल-बच्चे हैं या नहीं, भगवान को भी नहीं डरा!’

जालपा वहीं खड़ी थी। देवीदीन ने जंगली को और ज़हर उगलने का अवसर न दिया। बोला, ‘तो पंद्रह-बीस दिन में आएंगे, ख़ूब मालूम है?

जंगली—‘हां, वही पहरे वाले कह रहे थे।’

‘कुछ मालूम हुआ, कहां गए हैं?’

‘वही मौक़ा देखने गए हैं जहां वारदात हुई थी।’

देवीदीन चिलम पीने लगा और जालपा सड़क पर आकर टहलने लगी। रमा की यह निंदा सुनकर उसका हृदय टुकड़े-टुकड़े हुआ जाता था। उसे रमा पर क्रोध न आया, ग्लानि न आई, उसे हाथों का सहारा देकर इस दलदल से निकालने के लिए उसका मन विकल हो उठा। रमा चाहे उसे दुत्कार ही क्यों न दे, उसे ठुकरा ही क्यों न दे, वह उसे अपयश के अंधेरे खडड में न फिरने

देगी। जब दोनों यहां से चले तो जालपा ने पूछा, ‘इस आदमी से कह दिया न कि जब वह आ जायं तो हमें ख़बर दे दे?’

‘हां, कह दिया।’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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