एक्स्प्रेशन त्रुटि: अनपेक्षित उद्गार चिन्ह "२"।

ग़बन उपन्यास भाग-44

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:भ्रमण, खोजें

रमा मोटर पर चला, तो उसे कुछ सूझता न था, कुछ समझ में न आता था, कहां जा रहा है। जाने हुए रास्ते उसके लिए अनजाने हो गए थे। उसे जालपा पर क्रोध न था, ज़रा भी नहीं। जग्गो पर भी उसे क्रोध न था। क्रोध था अपनी दुर्बलता पर, अपनी स्वार्थलोलुपता पर, अपनी कायरता पर। पुलिस के वातावरण में उसका औचित्य-ज्ञान भ्रष्ट हो गया था। वह कितना बडा अन्याय करने जा रहा है, उसका उसे केवल उस दिन ख़याल आया था, जब जालपा ने समझाया था। फिर यह शंका मन में उठी ही नहीं। अफसरों ने बडी-बडी आशाएं बंधकर उसे बहला रक्खा। वह कहते, अजी बीबी की कुछ फ़िक्र न करो। जिस वक्त तुम एक जडाऊ हार लेकर पहुंचोगे और रुपयों की थैली नज़र कर दोगे, बेगम साहब का सारा गुस्सा भाग जायगा। अपने सूबे में किसी अच्छी-सी जगह पर पहुंच जाओगे, आराम से ज़िंदगी कटेगी। कैसा गुस्सा! इसकी कितनी ही आंखों देखी मिसालें दी गई। रमा चक्कर में फंस गया। फिर उसे जालपा से मिलने का अवसर ही न मिला। पुलिस का रंग जमता गया। आज वह जडाऊ हार जेब में रखे जालपा को अपनी विजय की ख़ुशख़बरी देने गया था। वह जानता था जालपा पहले कुछ नाक-भौं सिकोड़ेगी पर यह भी जानता था कि यह हार देखकर वह ज़रूर ख़ुश हो जायगी। कल ही संयुक्त प्रांत के होम सेद्रेटरी के नाम कमिश्नर पुलिस का पत्र उसे मिल जाएगा। दो-चार दिन यहां ख़ूब सैर करके घर की राह लेगा। देवीदीन और जग्गो को भी वह अपने साथ ले जाना चाहता था। उनका एहसान वह कैसे भूल सकता था। यही मनसूबे मन में बांधकर वह जालपा के पास गया था, जैसे कोई भक्त फल और नैवेद्य लेकर देवता की उपासना करने जाय, पर देवता ने वरदान देने के बदले उसके थाल को ठुकरा दिया, उसके नैवेद्य उसकी ओर ताकने का साहस न कर सकता था। उसने सोचा, इसी वक्त ज़ज के पास चलूं और सारी कथा कह सुनाऊं। पुलिस मेरी दुश्मन हो जाय, मुझे जेल में सडा डाले, कोई परवा नहीं। सारी कलई खोल दूंगा। क्या जज अपना फैसला नहीं बदल सकता- अभी तो सभी मुज़िलम हवालात में हैं। पुलिस वाले खूब दांत पीसेंगे, खूब नाचे-यदेंगे, शायद मुझे कच्चा ही खा जायं। खा जायं! इसी दुर्बलता ने तो मेरे मुंह में कालिख लगा दी।

जालपा की वह क्रोधोन्मभा मूर्ति उसकी आंखों के सामने फिर गई। ओह, कितने गुस्से में थी! मैं जानता कि वह इतना बिगड़ेगी, तो चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाती, अपना बयान बदल देता। बडा चकमा दिया इन पुलिस वालों ने, अगर कहीं जज ने कुछ नहीं सुना और मुलिज़मों को बरी न किया, तो जालपा मेरा मुंह न देखेगी। मैं उसके पास कौन मुंह लेकर जाऊंगा। फिर जिंदा रहकर ही क्या करूंगा। किसके लिए?

उसने मोटर रोकी और इधर-उधर देखने लगा। कुछ समझ में न आया, कहां आ गया। सहसा एक चौकीदार नज़र आया। उसने उससे जज साहब के बंगले का पता पूछाब चौकीदार हंसकर बोला, ‘हुज़ूर तो बहुत दूर निकल आए। यहां से तो छह-सात मील से कम न होगा, वह उधर चौरंगी की ओर रहते हैं।‘

रमा चौरंगी का रास्ता पूछकर फिर चला। नौ बज गए थे। उसने सोचा,जज साहब से मुलाकात न हुई, तो सारा खेल बिगड़ जाएगा। बिना मिले हटूंगा ही नहीं। अगर उन्होंने सुन लिया तो ठीक ही है, नहीं कल हाईकोर्ट के जजों से कहूंगा। कोई तो सुनेगा। सारा वृत्तांत समाचार-पत्रों में छपवा दूंगा, तब तो सबकी आँखें खुलेंगी।

मोटर तीस मील की चाल से चल रही थी। दस मिनट ही में चौरंगी आ पहुंची। यहां अभी तक वही चहल-पहल थी,, मगर रमा उसी ज़न्नाटे से मोटर लिये जाता था। सहसा एक पुलिसमैन ने लाल बत्ती दिखाई। वह रूक गया और बाहर सिर निकालकर देखा, तो वही दारोग़ाजी!

दारोग़ा ने पूछा, ‘क्या अभी तक बंगले पर नहीं गए? इतनी तेज़ मोटर न चलाया कीजिए। कोई वारदात हो जायगी। कहिए, बेगम साहब से मुलाकात हुई? मैंने तो समझा था, वह भी आपके साथ होंगी। ख़ुश तो ख़ूब हुई होंगी!‘

रमा को ऐसा क्रोध आया कि मूंछें उखाड़ लूं, पर बात बनाकर बोला, ‘जी हां, बहुत ख़ुश हुई।‘

‘मैंने कहा था न, औरतों की नाराज़ी की वही दवा है। आप कांपे जाते थे। ‘

‘मेरी हिमाकत थी।’

‘चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूं। एक बाज़ी ताश उड़े और ज़रा सरूर जमेब डिप्टी साहब और इंस्पेक्टर साहब आएंगे। ज़ोहरा को बुलवा लेंगे। दो घड़ी की बहार रहेगी। अब आप मिसेज़ रमानाथ को बंगले ही पर क्यों नहीं बुला लेते। वहां उस खटिक के घर पड़ी हुई हैं।’

रमा ने कहा, ‘अभी तो मुझे एक ज़रूरत से दूसरी तरफ जाना है। आप मोटर ले जाएं ।मैं पांव-पांव चला आऊंगा।‘

दारोग़ा ने मोटर के अंदर जाकर कहा, ‘नहीं साहब, मुझे कोई जल्दी नहीं है। आप जहां चलना चाहें, चलिए। मैं ज़रा भी मुख़िल न हूंगा। रमा ने कुछ चिढ़कर कहा,लेकिन मैं अभी बंगले पर नहीं जा रहा हूं।‘

दारोग़ा ने मुस्कराकर कहा, ‘मैं समझ रहा हूं, लेकिन मैं ज़रा भी मुख़िल न हूंगा। वही बेगम साहब---‘

रमा ने बात काटकर कहा, ‘जी नहीं, वहां मुझे नहीं जाना है।‘

दारोग़ा –‘तो क्या कोई दूसरा शिकार है? बंगले पर भी आज कुछ कम बहार न रहेगी। वहीं आपके दिल-बहलाव का कुछ सामान हाज़िर हो जायगा।‘

रमा ने एकबारगी आँखें लाल करके कहा, ‘क्या आप मुझे शोहदा समझते हैं?मैं इतना जलील नहीं हूं।‘

दारोग़ा ने कुछ लज्जित होकर कहा, ‘अच्छा साहब, गुनाह हुआ, माफ कीजिए। अब कभी ऐसी गुस्ताखी न होगी लेकिन अभी आप अपने को खतरे से बाहर न समझेंब मैं आपको किसी ऐसी जगह न जाने दूंगा, जहां मुझे पूरा इत्मीनान न होगा। आपको ख़बर नहीं, आपके कितने दुश्मन हैं। मैं आप ही के फायदे के ख़याल से कह रहा हूं।‘

रमा ने होंठ चबाकर कहा, ‘बेहतर हो कि आप मेरे फायदे का इतना ख़याल न करें। आप लोगों ने मुझे मलियामेट कर दिया और अब भी मेरा गला नहीं छोड़ते। मुझे अब अपने हाल पर मरने दीजिए।मैं इस ग़ुलामी से तंग आ गया हूं। मैं माँ के पीछे-पीछे चलने वाला बच्चा नहीं बनना चाहता। आप अपनी मोटर चाहते हैं, शौक़ से ले जाइए। मोटर की सवारी और बंगले में रहने के लिए पंद्रह आदमियों को कुर्बान करना पडाहै। कोई जगह पा जाऊं, तो शायद पंद्रह सौ आदमियों को कुर्बान करना पड़े। मेरी छाती इतनी मज़बूत नहीं है। आप अपनी मोटर ले जाइए।‘

यह कहता हुआ वह मोटर से उतर पडाऔर जल्दी से आगे बढ़गया।

दारोग़ा ने कई बार पुकारा, ‘ज़रा सुनिए, बात तो सुनिए, ‘ लेकिन उसने पीछे फिरकर देखा तक नहीं। ज़रा और आगे चलकर वह एक मोड़ से घूम गया। इसी सडक। पर जज का बंगला था। सड़क पर कोई आदमी न मिला। रमा कभी इस पटरी पर और कभी उस पटरी पर जा-जाकर बंगलों के नंबर पढ़ता चला जाता था। सहसा एक नंबर देखकर वह रूक गया। एक मिनट तक खडा देखता रहा कि कोई निकले तो उससे पूछूं साहब हैं या नहीं। अंदर जाने की उसकी हिम्मत

न पड़ती थी। ख़याल आया, जज ने पूछा, तुमने क्यों झूठी गवाही दी, तो क्या जवाब दूंगा। यह कहना कि पुलिस ने मुझसे जबरदस्ती गवाही दिलवाई, प्रलोभन दिया, मारने की धमकी दी, लज्जास्पद बात है। अगर वह पूछे कि तुमने केवल दो-तीन साल की सज़ा से बचने के लिए इतना बडा कलंक सिर पर ले लिया, इतने आदमियों की जान लेने पर उतारू हो गए, उस वक्त तुम्हारी बुद्धि कहां गई थी, तो उसका मेरे पास क्या जवाब है? ख्वामख्वाह लज्जित होना पड़ेगा।

बेवकूफ बनाया जाऊंगा। वह लौट पड़ा। इस लज्जा का सामना करने की उसमें सामर्थ्य न थी। लज्जा ने सदैव वीरों को परास्त किया है। जो काल से भी नहीं डरते, वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं करते। आग में झुंक जाना, तलवार के सामने खड़े हो जाना, इसकी अपेक्षा कहीं सहज है। लाज की रक्षा ही के लिए बड़े-बडे राज्य मिट गए हैं, रक्त की नदियां बह गई हैं, प्राणों की होली खेल डाली गई है। उसी लाज ने आज रमा के पग भी पीछे हटा दिए।

शायद जेल की सज़ा से वह इतना भयभीत न होता।

ग़बन उपन्यास
भाग-1 | भाग-2 | भाग-3 | भाग-4 | भाग-5 | भाग-6 | भाग-7 | भाग-8 | भाग-9 | भाग-10 | भाग-11 | भाग-12 | भाग-13 | भाग-14 | भाग-15 | भाग-16 | भाग-17 | भाग-18 | उभाग-19 | भाग-20 | भाग-21 | भाग-22 | भाग-23 | भाग-24 | भाग-25 | भाग-26 | भाग-27 | भाग-28 | भाग-29 | भाग-30 | भाग-31 | भाग-32 | भाग-33 | भाग-34 | भाग-35 | भाग-36 | भाग-37 | भाग-38 | भाग-39 | भाग-40 | भाग-41 | भाग-42 | भाग-43 | भाग-44 | भाग-45 | भाग-46 | भाग-47 | भाग-48 | भाग-49 | भाग-50 | भाग-51 | भाग-52 | भाग-53

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख