छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-5 खण्ड-3 से 10

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छान्दोग्य उपनिषद अध्याय-5 खण्ड-3 से 10
छान्दोग्य उपनिषद का आवरण पृष्ठ
विवरण 'छान्दोग्य उपनिषद' प्राचीनतम दस उपनिषदों में नवम एवं सबसे बृहदाकार है। नाम के अनुसार इस उपनिषद का आधार छन्द है।
अध्याय पाँचवाँ
कुल खण्ड 24 (चौबीस)
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अन्य जानकारी सामवेद की तलवकार शाखा में छान्दोग्य उपनिषद को मान्यता प्राप्त है। इसमें दस अध्याय हैं। इसके अन्तिम आठ अध्याय ही छान्दोग्य उपनिषद में लिये गये हैं।

छान्दोग्य उपनिषद के अध्याय पांचवें का यह तीसरे से दसवें खण्ड तक है।

  • अग्नि उपासना तथा देवयान और पितृयान मार्ग

इन खण्डों में अग्नि की उपासना के महत्त्व को प्रतिपादित किया गया है और देवयान मार्ग तथा पितृयान मार्ग के मर्म को समझाया गया है। ये दोनों मार्ग, मृत्यु, के पश्चात् जीव (आत्मा) जिन मार्गों से ब्रह्मलोक जाता है, उन्हीं के विषय को दर्शाते हैं। ये दोनों मार्ग भारतीय आपनिषदिक दर्शन की विशिष्ट संकल्पनाएं हैं। इनका उल्लेख 'कौषीतकि' और 'बृहदारण्यक' उपनिषदों में भी विस्तार से किया गया है।
एक बार आरुणि-पुत्र श्वेतकेतु पांचाल नरेश जीवल की राजसभा में पहुंचा। जीवल के पुत्र प्रवाहण ने उससे पूछा कि क्या उसने अपने पिता से शिक्षा ग्रहण की है? इस पर श्वेतकेतु ने 'हां' कहां तब प्रवाहण ने उससे कुछ प्रश्न किये-
प्रवाहण-'क्या तुम्हें पता है कि मृत्यु के बाद मनुष्य की आत्मा कहां जाती है? क्या तुम्हें पता है कि वह आत्मा इस लोक में किस प्रकार आती है? क्या तुम्हें देवयान और पितृयान मार्गों के अलग होने का स्थान पता है? क्या तुम्हें पता है कि पितृलोक क्यों नहीं मरता? क्या तुम्हें पता है कि पांचवीं आहुति के यजन कर दिये जाने पर घृत सहित सोमादि रस 'पुरुष' संज्ञा को कैसे प्राप्त करते हैं?'
प्रवाहण के इन प्रश्नों का उत्तर श्वेतकेतु ने नकारात्मक दियां तब प्रवाहण ने कहा-'फिर तुमने क्यों कहा कि तुम्हें शिक्षा प्रदान की गयी है?'
श्वेतकेतु इस प्रश्न का उत्तर भी नहीं दे सका। वह त्रस्त होकर अपने पिता के पास आया और उन्हें सारा वार्तालाप सुनाया। आरुणि ने भी उन प्रश्नों का उत्तर न जानने के बारे में कहा। तब दोनों पिता-पुत्र पांचाल नरेश जीवल के दरबार में पुन: आये और प्रश्नों के उत्तर जानने की जिज्ञासा प्रकट की।
राजा ने दोनों का स्वागत किया और कुछ काल अपने यहाँ रखकर एक दिन कहा-'हे गौतम! प्राचीनकाल में यह अग्नि-विद्या ब्राह्मणों के पास नहीं थी। इसी कारण यह विद्या क्षत्रियों के पास रही।'राजा ने आगे कहा-'हे गौतम! यह प्रसिद्ध द्युलोक ही अग्नि है। आदित्य अग्नि का ईधन है, किरणें धुआं हैं, शदिन ज्वाला है, चन्द्रमा अंगार है और नक्षत्र चिनगारियां हैं इस द्युलोक अग्नि में देवगण श्रद्धा से यजन करते हैं। वे जो आहुति डालते हैं, उससे 'सोम' राजा का प्रादुर्भाव होता है।'
राजा ने आगे कहा-'हे गौतम! इस अग्नि-विद्या में पर्जन्य ही अग्नि है। वायु समिधाएं हैं, बादल धूम्र हैं, विद्युत ज्वालाएं है, वज्र अंगार है और गर्जन चिनगारियां हैं। इस देवाग्नि में सोम की आहुति डालने से वर्षा प्रकट होती है।'
राजा ने फिर कहा-'हे गौतम! पृथ्वी ही अग्नि है, संवत्सर समिधाएं हैं, आकाश धूम्र है, रात्रि ज्वालाएं हैं, दिशाएं अंगारे हैं और उनके कोने चिनगारियां हैं। उस श्रेष्ठ दिव्याग्नि में वर्षा की आहुति पड़ने से अन्न् का प्रादुर्भाव होता है।'
राजा ने चौथे प्रश्न का उत्तर दिया-'हे गौतम! यह पुरुष ही दिव्याग्नि है, वाणी समिधाएं हैं, प्राण धूम्र है, जिह्वा ज्वाला है, नेत्र अंगारे हैं और कान चिनगारियां हैं। इस दिव्याग्नि में सभी देवता मिलकर जब अन्न की आहुति देते हैं, तो वीर्य, अर्थात् पुरुषार्थ की उत्पत्ति होती है।'
पांचवें प्रश्न का उत्तर देते हुए राजा ने कहा-'हे गौतम!उस अग्नि-विद्या की स्त्री ही दिव्याग्नि है, उसका गर्भाशय समिधा है, विचारों का आवेग धुआं है, उसकी योनि ज्वाला है, स्त्री-पुरुष के सहवास से उत्पन्न दिव्याग्नि अंगारे हैं और आनन्दानुभूति चिनगारियां हैं उस दिव्याग्नि में देवगण जब वीर्य की आहुति डालते हैं, तब श्रेष्ठ गर्भ का अवतरण होता है। इस पांचवीं आहुति के उपरान्त प्रथम आहुति में होमा गया 'आप:' (जल-मूल जीवन) काया में स्थित पुरुषवाचक 'जीव या प्राणी' के रूप में विकसित हो जाता है।
'समय आने पर यही जीव, जीवन-प्रवाह में पड़कर नया जन्म ले लेता है और निश्चित आयु तक जीवित रहता है। इसके बाद शरीर त्यागने पर कर्मवश परलोक को गमन करते हुए वह वहीं चला जाता है, जहां से वह आया था। जो साधक इस पंचग्नि-विद्या को जानकर श्रद्धापूर्वक उपासना करते हैं, वे सभी प्राणी, प्रयाण के उपरान्त 'देवयान मार्ग' और 'पितृयान मार्ग' से पुन: द्युलोक में चले जाते हैं।'
देवयान और पितृयान मार्ग

  • 'देवयान मार्ग' के अन्तर्गत प्राणी मृत्यु के उपरान्त अग्निलोक या प्रकाश पुंज रूप से दिन के प्रकाश में समाहित हो जाते हैं। चन्द्रमा के शुक्ल पक्ष से वे उत्तरायण सूर्य में आ जाते हैं। छह माह के इस संवत्सर को आदित्य में, आदित्य को चन्द्रमा में, चन्द्रमा को विद्युत में, विद्युत को ब्रह्म में पुन: समाहित होने का अवसर प्राप्त होता है। इसे ही आत्मा के प्रयाण का 'देवयान मार्ग' कहा जाता है। इस मार्ग से जाने वाले जीव का पुनर्जन्म नहीं होता।
  • 'पितृयान मार्ग' से वे प्राणी मृत्यु के उपरान्त जाते हैं, जिन्हें ब्रह्मज्ञान किंचित मात्रा में भी नहीं होता। वे लोग धुएं के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। धुएं के रूप में वे रात्रि में गमन करते हैं। रात्रि से कृष्ण पक्ष में और कृष्ण पक्ष से दक्षिणायन सूर्य में समाहित हो जाते हैं। ये लोग देवयान मार्ग से जाने वाले जीवों की भांति संवत्सर को प्राप्त नहीं होते। ये दक्षिणायन से पितृलोक आकाश में और आकाश से चन्द्रमा में चले जाते हैं। इससे आगे वे ब्रह्म को प्राप्त नहीं होते।

अपने कर्मों का पुण्य क्षय होने पर ये आत्माएं पुन: वर्षा के रूप में मृत्युलोक में लौट आती है। ये उसी मार्ग से वापस आती हैं, जिस मार्ग से ये चन्द्रमा में गयी थीं। वर्षा की बूंदों के रूप में जब ये पृथ्वी पर आती हैं, तो अन्न और वनस्पति-औषधियों के रूप में प्रकट होती हैं। तब उस अन्न और वनस्पति का जो-जो प्राणी भक्षण करता है, ये उसी के वीर्य में जीवाणु के रूप में पहुंच जाती हैं पुन: मातृयोनि के द्वारा जन्म लेती हैं।
पितृयान से जाने वाले जीव पुन: जन्म लेते हैं। फिर वह चाहे पशु योनि में आयें, चाहे मनुष्य योनि में। जीवन और मरण का यही रहस्य है।


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