प्रथम लोकसभा का गठन 17 अप्रैल, 1952 को हुआ था। इसकी पहली बैठक 13 मई, 1952 को हुई थी। लोकसभा के गठन के सम्बन्ध में संविधान के दो अनुच्छेद, यथा 81 तथा 331 में प्रावधान किया गया है। मूल संविधान में लोकसभा की सदस्य संख्या 500 निर्धारित की गयी थी, किन्तु बाद में इसमें वृद्धि की गयी। 31वें संविधान संशोधन, 1974 के द्वारा लोकसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 547 निश्चित की गयी। वर्तमान में गोवा, दमन और दीव पुनर्गठन अधिनियम, 1987 द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि लोकसभा अधिकतम सदस्य संख्या 552 हो सकती है। अनुच्छेद 81(1) (क) तथा (ख) के अनुसार लोकसभा का गठन राज्यों में प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने हुए 530 से अधिक न होने वाले सदस्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले 20 से अधिक न होने वाले सदस्यों के द्वारा किया जाएगा। इस प्रकार लोकसभा में भारत की जनसंख्या द्वारा निर्वाचित 550 सदस्य हो सकते हैं। अनुच्छेद 331 के अनुसार यदि राष्ट्रपति की राय में लोकसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व न मिला हो तो वह आंग्ल भारतीय समुदाय के दो व्यक्तियों को लोकसभा के लिए नामनिर्देशित कर सकता है। अत: लोकसभा की अधिकतम सदस्य संख्या 552 हो सकती है। यह संख्या लोकसभा के सदस्यों की सैद्धान्तिक गणना है और व्यहावहरत: वर्तमान समय में लोकसभा की प्रभावी संख्या 530 (राज्यों के प्रतिनिधि) + (संघ क्षेत्रों के प्रतिनिधि) + 2 राष्ट्रपति द्वारा नाम निर्देशित = 545 है।
स्थानों का आबंटन
लोकसभा में स्थानों को आबंटित करने के लिए दो प्रक्रिया अपनायी जाती हैं-
- पहला प्रत्येक राज्य को लोकसभा में स्थानों का आबंटन ऐसी रीति से किया जाता है कि स्थानों की संख्या से उस राज्य की जनसंख्या का अनुपात सभी राज्यों के लिए यथासाध्य एक ही हो, तथा
- दूसरा प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में ऐसी रीति से विभाजित किया जाता है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या का उसको आबंटित स्थानों की संख्या से अनुपात समस्त राज्य में यथासाध्य एक ही हो।
आंकड़ों का आधार
उक्त दोनों कार्य ऐसे प्राधिकारी द्वारा ऐसी रीति से, जिसे संसद विधि द्वारा सुनिश्चित करे, प्रत्येक जनगणना की समाप्ति पर प्रकाशित सुसंगत आंकड़ों के आधार पर किये जाते हैं। लेकिन 42वें संविधान संशोधन, 1976 के द्वारा यह प्रावधान कर दिया गया है कि जब तक 2001 की जनगणना के आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते, तब तक लोकसभा की सदस्य संख्या 545 ही रहेगी। 91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 2001 के द्वारा अब यह व्यवस्था 2026 तक यथावत बनी रहेगी।
परिसीमन अधिनियम
लोकसभा में राज्यों के स्थानों के आबंटन तथा राज्यों को प्रादेशिक क्षेत्रों में विभाजित करने के लिए संसद द्वारा परिसीमन अधिनियम, 1952 पारित किया गया है। परिसीमन अधिनियम, 1952 में प्रावधान किया गया है कि संसद प्रत्येक जनगणना के सुसंगत आंकड़ों के प्रकाशन के बाद परिसीमन आयोग का गठन करेगी। इस परिसीमन अधिनियम के अधीन त्रिसदस्यीय परिसीमन आयोग का गठन किया जाता है, जिसे नवीनतम जनगणना के आँकड़ों के आधार पर लोकसभा में विभिन्न राज्यों को स्थानों के आबंटन को, प्रत्येक राज्य की विधानसभाओं के कुल स्थानों का तथा लोकसभा और राज्य की विधान सभा के निर्वाचनों के प्रयोजन के लिए प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का पुन: समायोजन करने का कर्तव्य सौंपा जाता हैं इस प्रकार गठित आयोग ने 1974 में लोकसभा में राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों के स्थानों का आबंटन किया था, जिसके अनुसार 530 स्थान राज्यों के लिए तथा 13 स्थान संघ राज्यक्षेत्रों के लिए आबंटित किये गये थे।
चौथा परिसीमन आयोग
लोकसभा व विधानसभाओं के निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करने के लिय न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता में चौथा परिसीमन आयोग का गठन वर्ष 2001 में किया गया। आयोग ने अपना कार्य 2004 में प्रारम्भ किया। प्रारम्भ में परिसीमन का कार्य 1991 की जनगणना के आधार पर किया जाना था, परन्तु 23 अप्रैल, 2002 को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने इससे सम्बन्धित एक संशोधन विधेयक को अनुमोदित करते हुए यह निर्धारित किया कि निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन अब 2001 की जनगणना के आधार पर किया जाएगा। इसके लिए परिसीमन (87वां संशोधन) अधिनियम, 2003 को अधिनियंत्रित किया गया। निर्वाचन क्षेत्रों का यह परिसीमन 30 वर्षों के पश्चात् न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह की अध्यक्षता वाले चौथे परिसीमन आयोग ने अपना कार्यकाल 31 मई, 2008 को समाप्त घोषित किया। हालांकि आयोग का कार्यकाल 31 जुलाई, 2008 तक निर्धारित था। आयोग ने अपने कार्यकाल में लोकसभा के 543 एवं 24 विधानसभाओं के 4120 निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन किया है। पाँच राज्यों असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, नागालैण्ड और झारखण्ड में परिसीमन नहीं किया जा सका है, जबकि जम्मू-कश्मीर के लिए इसे लागू नहीं किया गया था। इन छ: राज्यों को छोड़कर शेष सभी राज्यों में नये परिसीमन के आधार पर मतदाता सूचियाँ तैयार की गई हैं।
परिसीमन आयोग ने सरकार से यह संस्तुति की है कि अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटों के लिए रोटेशन लागू करना चाहिए। इसके लिए 2002 के परिसीमन अधिनियम के साथ-साथ संविधान में भी संशोधन करना होगा। इसके साथ ही आयोग ने अब प्रति 10 वर्ष बाद नई जनगणना के आधार पर परिसीमन कराने की सिफ़ारिश की है। आयोग ने लोकतंत्र के तीनों चरणों पंचायत, विधान सभा और लोकसभा के निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन सुगम बनाये रखने के लिए आगामी जनगणना पंचायत के आधार पर कराने की संस्तुति की है। आयोग की यह सिफ़ारिश उसकी रिपोर्ट का भाग नहीं है, अत: यह सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं है। देश में पहला परिसीमन आयोग 1952 में, दूसरा 1962 में और तीसरा ऐसा आयोग 1973 में गठित किया गया था।
सीटों की संख्या और प्रकार
- सामान्य/आम निर्वाचन क्षेत्र - 423
- अनुसूचित जाति हेतु आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र - 79
- अनुसूचित जनजाति हेतु आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र - 41
- आंग्ल भारतीय समुदाय के मनोनयन के लिए निर्धारित सीट - 2
कुल सीटें = 545 (543+2)
स्थानों का आरक्षण
अनुच्छेद 330 के तहत लोकसभा में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अनुच्छेद 331 के तहत आंग्ल भारतीय समुदाय के लोगों के लिए स्थानों के आरक्षण का प्रावधान है। किसी राज्य अथवा संघ शासित क्षेत्र में अनुसूचित जातियों या जनजातियों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या उप राज्य के लिए लोकसभा में आबंटित स्थानों की कुल संख्या और सम्बन्धित राज्य में अनुसूचित जातियों या जनजातियों की कुल संख्या के अनुपात के बराबर होगी।
अनुसुचित जातियों, जनजातियों व आंग्ल भारतीयों के लिए लोकसभा में सीटों के आरक्षण सम्बन्धी प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 334 के अंतर्गत मूलत: 10 वर्षों के लिए किया गया था, जिसे 1960 के आठवें संविधान संशोधन, 1969 के 23वें संविधान संशोधन, 1980 के 45वें संविधान संशोधन, 1989 के 62वें संशोधन तथा 1999 के 79वें संविधान संशोधन अधिनयम के द्वारा क्रमश: 10-10 वर्ष के लिए बढ़ाये गये। 1999 के 79वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा बढ़ाई गई 10 वर्ष की अवधि 25 जनवरी, 2010 को समाप्त होने से पूर्व संसद द्वारा अगस्त, 2009 में 190वां संविधान संशोधन विधेयक पारित करते हुए लोकसभा में अनुसूचित जातियों, जनजातियों व आंग्ल भारतियों की सीटों का यह आरक्षण आगामी 10 वर्षों अर्थात् जनवरी 2020 तक उपलब्ध रहेगा। इस संशोधन के तहत अनुच्छेद 334 में 60 वर्षों के स्थान पर 70 वर्ष शामिल किया गया है।
निर्वाचन
लोकसभा के सदस्य भारत के उन नागरिकों द्वारा चुने जाते हैं, जो कि वयस्क हो गये हैं। 61वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1989 के पूर्व उन नागरिकों को वयस्क माना जाता था, जो कि 21 वर्ष की आयु पूरी कर लेते थे, लेकिन इस संशोधन के द्वारा यह व्यवस्था कर दी गई कि 18 वर्ष की आयु पूरी करने वाला नागरिक लोकसभा या राज्य विधानसभा के सदस्यों को चुनने के लिए वयस्क माना जाएगा। लोकसभा के सदस्यों का चुनाव वयस्क मतदान के आधार पर होता है। भारत में 1952 से लेकर अब तक की अवधि में 15 लोकसभा चुनाव हुए हैं। 15 लोकसभा चुनाव हुए हैं।
अवधि
लोकसभा का गठन अपने प्रथम अधिवेशन की तिथि से पाँच वर्ष के लिए होता है, लेकिन प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा का विघटन राष्ट्रपति द्वारा 5 वर्ष के पहले भी किया जा सकता है। प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा का विघटन जब कर दिया जाता है, तब लोकसभा का मध्यावधि चुनाव होता है, क्योंकि संविधान के अनुसार लोकसभा विघटन की स्थिति में 6 मास से अधिक नहीं रह सकती। ऐसा इसीलिए भी आवश्यक है, क्योंकि लोकसभा के दो बैठकों के बीच का समयान्तराल 6 मास से अधिक नहीं होना चाहिए। अब तक लोकसभा का उसके गठन के बाद 5 वर्ष के भीतर चार बार अर्थात् 1970 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर, 1979 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चरण सिंह की सलाह पर, 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर की सलाह पर, 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्रकुमार गुजराल की सलाह पर और 1999 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सलाह पर विघटन हुआ और इस प्रकार मध्यावधि चुनाव कराये गये।
विशेष परिस्थिति में लोकसभा की अवधि 1 वर्ष के लिए बढ़ायी जा सकती है। परन्तु लोकसभा की अवधि एक बार में 1 वर्ष से अधिक नहीं बढ़ायी जा सकती और किसी भी स्थिति में आपातकाल की उदघोषणा की समाप्ति के बाद लोकसभा की अवधि 6 माह से अधिक नहीं बढ़ायी जा सकती है, अर्थात् आपात उदघोषणा की समाप्ति के बाद 6 माह के अन्दर लोकसभा का सामान्य चुनाव कराकर उसका गठन आवश्यक है। भारत में पाँचवीं लोकसभा की अवधि 6 फ़रवरी, 1976 को 1 वर्ष के लिए अर्थात् 18 मार्च, 1976 से 18 मार्च, 1977 तक तथा बाद में नवम्बर, 1976 में 18 मार्च, 1977 से 18 मार्च, 1978 तक के लिए बढ़ा दी गयी थी, लेकिन जनवरी, 1977 को ही प्रधानमंत्री की सलाह पर लोकसभा का विघटन कर दिया गया और मार्च, 1977 में छठवीं लोकसभा का चुनाव कराया गया।
अधिवेशन
लोकसभा का अधिवेशन 1 वर्ष में कम से कम दो बार होना चाहिए लेकिन लोकसभा के पिछले अधिवेशन की अन्तिम बैठक की तिथि तथा आगामी अधिवेशन के प्रथम बैठक की तिथि के बीच 6 मास से अधिक का अन्तराल नहीं होना चाहिए, लेकिन यह अन्तराल 6 माह से अधिक का तब हो सकता है, जब आगामी अधिवेशन के पहले ही लोकसभा का विघटन कर दिया जाए। अनुच्छेद 85 के तहत राष्ट्रपति को समय-समय पर संसद के प्रत्येक सदन, राज्यसभा एवं लोकसभा को आहुत करने, उनका सत्रावसान करने तथा लोकसभा का विघटन करने का अधिकार प्राप्त है।
विशेष अधिवेशन
राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा को नामंज़ूर करने के लिए लोकसभा का विशेष अधिवेशन तब बुलाया जा सकता है, जब लोकसभा के अधिवेशन में न रहने की स्थिति में कम से कम 110 सदस्य राष्ट्रपति को अधिवेशन बुलाने के लिए लिखित सूचना दें या जब अधिवेशन चल रहा हो, तब लोकसभा को इस आशय की लिखित सूचना दें। ऐसी लिखित सूचना अधिवेशन बुलाने की तिथि के 14 दिन पूर्व देनी पड़ती है। ऐसी सूचना पर राष्ट्रपति या लोकसभाध्यक्ष अधिवेशन बुलाने के लिए बाध्य हैं।
पदाधिकारी
लोकसभा के निम्नलिखित दो पदाधिकारी होते हैं-
- अध्यक्ष और
- उपाध्यक्ष।
लोकसभाध्यक्ष
लोकसभा अध्यक्ष लोकसभा का प्रमुख पदाधिकारी होता है और लोकसभा की सभी कार्यवाहियों का संचालन करता है-
निर्वाचन
लोकसभा अध्यक्ष का निर्वाचन लोकसभा के सदस्यों के द्वारा किया जाता है। निर्वाचन किस तिथि को होगा, इसे राष्ट्रपति निश्चित करता है और राष्ट्रपति के द्वारा निश्चित की गयी तिथि की सूचना लोकसभा का महासचित सदस्यों को देता है। राष्ट्रपति के द्वारा निश्चित की गयी तिथि के पूर्व दिन के मध्याह्न से पहले कोई भी सदस्य किसी अन्य सदस्य को अध्यक्ष चुने जाने का प्रस्ताव महासचिव को लिखित रूप में देता है तथा इस प्रस्ताव का अनुमोदन तीसरे सदस्य द्वारा दिया जाता है। इस प्रस्ताव के साथ उस सदस्य, जिसे अध्यक्ष चुने जाने का प्रस्ताव किया जाता है, का यह कथन संलग्न होता है कि वह अध्यक्ष के रूप में कार्य करने के लिए तैयार है। इस तरह से एक या कई प्रस्ताव किये जाते हैं। यदि एक ही प्रस्ताव पेश किया जाता है, तो चुनाव सर्वसम्मत होता है और यदि एक से अधिक प्रस्ताव पेश किये जाते हैं, तो चुनाव मतदान के द्वारा होता है।
शपथ ग्रहण
लोकसभाध्यक्ष लोकसभा के अध्यक्ष के रूप में शपथ नहीं लेता है बल्कि वह सामान्य सदस्य के रूप में शपथ लेता है। उसे लोकसभा का कार्यकारी अध्यक्ष लोकसभा के सदस्य के रूप में शपथ ग्रहण कराता है। कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में उस व्यक्ति को नामजद किया जाता है, जो लोकसभा में सबसे अधिक उम्र हो होता है।
वेतन एवं भत्ते
लोकसभा के अध्यक्ष को राज्यसभा के सभापति (उपराष्ट्रपति) के समान 1.25 रुपये मासिक वेतन एवं अन्य भत्ते मिलते हैं। 14 मई, 2002 को संसद द्वारा पारित एक संशोधन विधेयक के अनुसार यदि लोकसभा के अध्यक्ष की मृत्यु उसके पद पर रहने की अवधि में ही हो जाती है तो उसके परिवार यानी पति या पत्नी को पेंशन, आवास और स्वास्थ्य सुविधाएँ मिला करेंगी। ध्यातव्य है कि यह सुविधा अब तक राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति पदों के लिए ही थीं। साथ ही लोकसभाध्यक्ष को केन्द्रीय मंत्री के समान भत्ता देने का भी प्रावधान किया गया है।
पदावधि
लोकसभाध्यक्ष एक बार अध्यक्ष चुने जाने के बाद आगामी लोकसभा चुनाव के गठन के बाद उसके प्रथम अधिवेशन की प्रथम बैठक तक अपने पद पर बना रहता है। लेकिन वह निम्नलिखित स्थितियों में अध्यक्ष पद से मुक्त हो सकता है-
- यदि वह किसी कारण लोकसभा का सदस्य नहीं रह जाता,
- यदि वह उपाध्यक्ष को अपना त्यागपत्र दे देता है,
- यदि वह लोकसभा के सदस्यों के बहुमत से पारित संकल्प द्वारा अपने पद से हटा दिया जाता है। ऐसा कोई संकल्प लोकसभा में पेश करने के आशय की सूचना 14 दिन पूर्व ही दी जानी चाहिए।
जब लोकसभा में ऐसे किसी संकल्प पर बहस होती है, तो लोकसभा की अध्यक्षता उपाध्यक्ष या उसकी अनुपस्थिति में अन्य व्यक्ति, जिसे लोकसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियम द्वारा निर्धारित किया जाता है, द्वारा की जाती है। 18 दिसम्बर, 1954 को पहली बार लोकसभा के प्रथम अध्यक्ष गणेश वासुदेव मावलंकर के विरुद्ध उन्हें पद से हटाने के लिए एक प्रस्ताव लाया गया था। हालाँकि यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका था।
कार्य एवं शक्तियाँ
लोकसभाध्यक्ष का कार्य एवं शक्तियाँ लोकसभा के सम्बन्ध में काफ़ी अधिक है, जिनका वर्णन निम्न प्रकार किया जा सकता है-
व्यवस्था सम्बन्धी शक्तियाँ
लोकसभाध्यक्ष को लोकसभा में व्यवस्था बनाये रखने के सम्बन्ध में निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं-
- कार्रवाई संचालित करने के लिए सदन में व्यवस्था व मर्यादा बनाए रखना।
- सदन की कार्रवाई के लिए समय का निर्धारण करना।
- संविधान और सदन के प्रक्रिया सम्बन्धी नियमों की व्याख्या करना।
- विवादास्पद विषयों पर मतदान कराना और निर्णय की घोषणा करना।
- मतदान में पक्ष तथा विपक्ष में बराबर मत पड़ने की स्थिति में निर्णायक मत देना देना।
- प्रस्ताव, प्रतिवेदन और व्यवस्था के प्रश्नों को स्वीकार करना।
- मंत्रिपरिषद के किसी सदस्य को पदत्याग करने की स्थिति में उसे सदन के समक्ष अपना वक्तव्य देने की अनुमति देना।
- सदस्यों को जानकारी प्राप्त करने के लिए विचाराधीन महत्त्वपूर्ण विषयों की घोषणा करना।
- संविधान सम्बन्धी मामलों पर अपनी सम्मति देना।
- गणपूर्ति के अभाव में सदन की बैठक को स्थगित करना।
- किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में बोलने की अनुमति देना तथा उसके भाषण के हिन्दी और अंग्रेज़ी अनुवाद की व्यवस्था करना।
- सदन के नेता के अनुरोध पर सदन की गुप्त बैठक को आयोजित करने की स्वीकृति प्रदान करना।
निरीक्षण तथा भर्त्सना सम्बन्धी शक्तियाँ
अध्यक्ष की निरीक्षण तथा भर्त्सना सम्बन्धी शक्तियाँ निम्नलिखित हैं-
- संसदीय समितियों की अध्यक्षता करना।
- संसदीय समितियों के अध्यक्षों को निर्देश देना।
- सार्वजनिक हित में सदन या समिति को आवश्यक जानकारी प्रदान करने के लिए सरकार को निर्देश देना।
- सदन में असंसदीय तथा अनावश्यक विचार-विमर्श को रोकना।
- सदन में बोले गये असंसदीय तथा अश्लील सन्दर्भों को सदन की कार्रवाई से निकालना।
- सदन में बोलने के लिए सदस्यों को अनुमति देना।
- सदन के किसी सदस्य को असंसदीय व्यवहार के कारण निष्कासित करना अथवा उसे मार्शल द्वारा बाहर निकलवाना।
- सदन में अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न होने पर सदन की कार्यवही को स्थगित कना।
- सदन के सीमाक्षेत्र के अंतर्गत सदन के किसी सदस्य की गिरफ्तारी या उसके विरुद्ध कार्रवाई करने की अनुमति देना।
- सदन में पेश किये गये विशेषाधिकार प्रस्ताव को स्वीकार करना तथा जिसके ऊपर विशेषाधिकार हनन का आरोप लगाया गया है, उसके विरुद्ध गिरफ्तारी का आदेश जारी करना।
- किसी व्यक्ति को सदन की अवमानना करने या उसके विशेषाधिकार के उल्लघंन करने पर सदन द्वारा किये गये निर्णय को लागू करना॥
प्रशासन सम्बन्धी शक्तियाँ
अध्यक्ष को सदन के प्रशासन के सम्बन्ध में निम्नलिखत शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं-
- लोकसभा के सचिवालय पर नियत्रंण रखना।
- लोकसभा की दर्शक दीर्घा और प्रेस दीर्घा पर नियंत्रण रखना।
- लोकसभा सदस्यों के लिए आवास तथा अन्य सुविधाओं की व्यवस्था करना।
- लोकसभा तथा उसकी समितियों की बैठकों की व्यवस्था करना।
- संसदीय कार्रवाई के अभिलेखों को सुरक्षित रखने की व्यवस्था करना।
- लोकसभा के सदस्यों तथा कर्मचारियों के जीवन और सदन की सम्पत्ति की सुरक्षा की उपयुक्त व्यवस्था करना।
- लोकसभा के सदस्यों का त्यागपत्र स्वीकार करना अथवा उसे इस आधार पर अस्वीकार करना कि त्यागपत्र विवशता के कारण दिया गया है।
विधायी तथा अन्य कार्य
विधायी तथा अन्य कार्यों के सम्बन्ध में अध्यक्ष को निम्नलिखत शक्तियाँ प्राप्त हैं-
- लोकसभा द्वारा पारित विधेयक को प्रमाणित करना।
- कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं, इसका निर्णय करना।
- लोकसभा तथा राज्यसभा की संयुक्त बैठकों की अध्यक्षता करना।
- राष्ट्रपति तथा लोकसभा के बीच सम्पर्क सूत्र के रूप में कार्य करना।
- अर्न्तसंसदीय संघ में भारतीय संसदीय दल के नेता के रूप में कार्य करना।
- भारत में विधायिकाओं के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन की अध्यक्षता करना।
- विदेश जाने वाले संसदीय शिष्टमण्डल के लिए सदस्यों को मनोनीत करना।
- लोकसभा के द्वारा पारित विधेयक की स्पष्ट त्रुटियों का दूर करना।
- दल बदल क़ानून का उल्लघंन करने वाले लोकसभा के सदस्यों को सदन की सदस्यता के अयोग्य घोषित करना।
लोकसभा उपाध्यक्ष
लोकसभा के सदस्य सदन के उपाध्यक्ष का चुनाव करते हैं। उपाध्यक्ष के चुनाव में वही प्रक्रिया अपनायी जाती है, जो अध्यक्ष के चुनाव में अपनायी जाती है। उपाध्यक्ष तब तक अपने पद पर बना रहता है, जब तक वह सदन का सदस्य रहता है। वह लोकसभा अध्यक्ष को त्यागपत्र देकर अपना पद छोड़ सकता है, अपने पद से लोकसभा के सदस्यों के द्वारा पारित संकल्प के आधार पर हटाया जा सकता है। उपाध्यक्ष को उसके पद से हटाने के लिए कोई संकल्प लोकसभा में पेश करने के 14 दिन पूर्व उसकी सूचना उसे दी जानी चाहिए।
लोकसभा की शक्तियाँ
लोकसभा को निम्नलिखित शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं-
अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का निर्वाचन तथा उन्हें पद से हटाना
लोकसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष को निर्वाचित करने तथा उन्हें पद से मुक्त करने का अधिकार केवल लोकसभा के सदस्यों को प्रदान किया गया है। अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष को संकल्प पारित करके पदमुक्त किया जा सकता है। अभी तक लोकसभा के किसी भी अध्यक्ष को संकल्प पारित करके पदमुक्त नहीं किया गया है, लेकिन 18 दिसम्बर, 1954 को तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष जी. वी. मावलंकर, 1966 में तत्कालीन अध्यक्ष हुकम सिंह और 1988 में लोकसभाध्यक्ष बलराम जाखड़ को पदमुक्त करने के लिए लोकसभा में संकल्प पेश किया गया था।
मंत्रिपरिषद् पर नियंत्रण
मंत्रिपरिषद् संयुक्त रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है और लोकसभा मंत्रिपरिषद् पर पर्याप्त नियंत्रण रखती है। यदि लोकसभा मंत्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करे दे, तो मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देना पड़ता है या राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद् को बर्ख़ास्त कर देता है। अभी तक लोकसभा में केवल तीन बार मंत्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हो चुका है। हालाँकि इस तरह का प्रस्ताव कई बार पेश किया गया है। 1979 में श्री मोरारजी देसाई मंत्रिपरिद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित किये जाने की प्रबल सम्भावना थी, लेकिन मोरारजी देसाई ने अविश्वास प्रस्ताव के पारित होने की सम्भावना के कारण त्यागपत्र दे दिया था। 1979 में चौधरी चरण सिंह मंत्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित होने की सम्भावना थी, चरण सिंह ने त्यागपत्र देकर लोकसभा को भंग करने की सिफ़ारिश कर दी थी। पहली बार 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार, जिसके प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह थे, के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित हुआ था और मंत्रिपरिषद् को त्यागपत्र देना पड़ा था।
इसी प्रकार 1997 में एच. डी. देवगौड़ा के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार को कांग्रेस के द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद विश्वासमत प्राप्त नहीं होने के कारण त्यागपत्र देना पड़ा था। लेकिन बाद में संयुक्त मोर्चा सरकार के ही इन्द्र कुमार गुजराल के कांग्रेस द्वारा समर्थन वापसी के मुद्दे पर प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देते हुए लोकसभा भंग करने की सिफ़ारिश की थी। इसी प्रकार अप्रैल, 1999 में भारतीय जनता पार्टी गठबंधन सरकार, जिसके प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे, द्वारा मात्र एक मत के अन्तर से लोकसभा का विश्वास प्राप्त करने में असफल रहने के कारण मंत्रिपरिषद् को त्यागपत्र देना पड़ा। यदि लोकसभा सरकार के द्वारा पेश किये गये बजट को नामंज़ूर कर दे या राष्ट्रपति के अभिभाषण के लिए उसके धन्यवाद प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दे, तो भी मंत्रिपरिषद् को त्यागपत्र देना पड़ता है।
वित्त पर नियंत्रण
लोकसभा का वित्त पर पूर्ण नियंत्रण रहता है तथा राज्यसभा को इस सम्बन्ध में बहुत सीमित अधिकार हैं। वित्त विधेयक लोकसभा में ही पेश किये जाते हैं। लोकसभा द्वारा पारित किये जाने पर जब उसे राज्यसभा को पेश किया जाता है, तब राज्यसभा उसे केवल 14 दिन तक अपने पास रोक सकती है और यदि राज्यसभा वित्त विधेयक को पारित करके 14 दिन के अन्दर लोकसभा को नहीं भेजती है, तो विधेयक को पारित माना जाता है। यदि राज्यसभा वित्त विधेयक में कोई संशोधन करती है, तो लोकसभा के विवेक पर निर्भर है कि संशोधन को स्वीकार करे या अस्वीकार करे।
सदन में स्थान रिक्त घोषित करना
यदि लोकसभा का कोई सदस्य लोकसभा की अनुमति के बिना सदन से 60 दिन तक अनुपस्थित रहे, तो लोकसभा उस स्थान को रिक्त घोषित कर सकती है। लेकिन इस 60 दिन की अवधि की गणना करते समय उस अवधि को नहीं शामिल किया जाता, जब सदन का सत्र लगातार चार दिन तक स्थगित रहे या सदन का सत्रावसान रहे।
राष्ट्रीय आपात की उदघोषणा
लोकसभा अनुच्छेद 352 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा जारी राष्ट्रीय आपात की उदघोषणा को भी नामंज़ूर कर सकती है। ऐसी नामंज़ूरी लोकसभा का विशेष अधिवेशन बुलाकर की जाती है। सदन का विशेष अधिवेशन लोकसभा अध्यक्ष, जब सदन का अधिवेशन चल रहा हो, या राष्ट्रपति, जब लोकसभा का अधिवेशन न चल रहा हो, को सदन के 10% सदस्यों के द्वारा 14 दिन पूर्व लिखित सूचना देकर बुलाया जा सकता है। ऐसी सूचना की प्राप्ति पर लोकसभा अध्यक्ष या राष्ट्रपति विशेष अधिवेशन बुलाने के लिए बाध्य हैं।
सदन से सदस्य को निष्कासित करना तथा सदस्य के निष्कासन को रद्द करना
यदि लोकसभा का कोई सदस्य अपने कार्यों से लोकसभा की गरिमा का उल्लंघन करता है या सदन के विशेषाधिकारों का उल्लंघन करता है, तो लोकसभा उस सदस्य को सदन से निष्कासित कर सकती है। 1993 तक लोकसभा ने अब तक इस अधिकार केवल दो बार प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ, 1954 में एच. जी. बुद्गल, जिन पर रिश्वत लेकर लोकसभा में प्रश्न पूछने का आरोप था, के निष्कासन का प्रस्ताव तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के द्वारा पेश किया गया था, लेकिन निष्कासन की कार्रवाई पूरा होने के पहले ही उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। लोकसभा ने दूसरी बार इस अधिकार का प्रयोग श्रीमती इंदिरा गांधी के विरुद्ध किया था और उन्हें लोकसभा की सदस्यता से इसलिए निष्कासित कर दिया गया था कि उन्होंने मारुति उद्योग के सम्बन्ध में सूचना एकत्रित करने के कार्य में व्यवधान उपस्थित किया था। लोकसभा को सदस्य के निष्कासन को रद्द करने का अधिकार भी है। 1980 में लोकसभा ने श्रीमती इंदिरा गांधी, जिन्हें 1978 में निष्कासित किया गया था, का निष्कासन रद्द किया था।
जेल भेजन की शक्ति
जो व्यक्ति लोकसभा के विशेषाधिकारों का उल्लंघन करता है, उसे लोकसभा के द्वारा जल भेजा जा सकता है। इस अधिकार का प्रयोग सबसे पहले 1977 में किया गया था, जब इन्द्रदेव सिंह को लोकसभा में पर्चे फेंकने के कारण तिहाड़ जेल भेजा गया था। जब श्रीमती इंदिरा गांधी को 1978 में लोकसभा की सदस्यता से निष्कासित किया गया था, तब उन्हें भी संसद के अधिवेशन, जिसमें उन्हें निष्कासित किया गया था, तक के लिए भेज गया था।
नियम बनाने तथा निलम्बित करने की शक्ति
लोकसभा को सदन की कार्रवाई संचालित करने के लिए प्रक्रिया सम्बन्धी नियम बनाने की शक्ति प्राप्त है। साथ ही वह इन नियमों को निलम्बित भी कर सकती है।
विघटन का प्रभाव
लोकसभा के विघटन के निम्नलिखित प्रभाव होते हैं–
- लोकसभा के समक्ष लम्बित सभी विधेयक पास हो जाते हैं और यदि इन विधेयकों को पारित करना है, तो उन्हें अगले लोकसभा के समक्ष पुन: पेश करना होगा।
- राज्यसभा में लम्बित विधेयक, जिसे लोकसभा ने पारित नहीं किया है, समाप्त हो जाएँगे, लेकिन राज्यसभा में लम्बित विधेयक, जिसे लोकसभा ने पारित कर दिया है, समाप्त नहीं होंगे, यदि राष्ट्रपति घोषणा कर देता है कि उस विधेयक के सम्बन्ध में दोनों सदनो की संयुक्त बैठक होगी।
|
|
|
|
|