तारा सिंह
तारा सिंह
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अन्य नाम | मास्टर तारा सिंह, नानक चंद |
जन्म | जन्म- 24 जून, 1885 |
जन्म भूमि | रावलपिण्डी, पंजाब[1] |
मृत्यु | 22 नवम्बर, 1967 |
मृत्यु स्थान | चण्डीगढ़ |
अभिभावक | बख्शी गोपीचंद तथा मुल्लन देवी |
कर्म भूमि | भारत |
कर्म-क्षेत्र | सामाजिक कार्यकर्ता |
प्रसिद्धि | कट्टर सिक्ख राजनेता |
नागरिकता | भारतीय |
धर्म | सिक्ख |
अन्य जानकारी | तारा सिंह ने महात्मा गाँधी के 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन का समर्थन किया था। 1932 के ब्रिटिश सरकार के 'साम्प्रदायिक निर्णय' के वे विरोधी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय क्रिप्स प्रस्ताव का भी उन्होंने विरोध किया। |
मास्टर तारा सिंह (अंग्रेज़ी: Tara Singh ; जन्म- 24 जून, 1885, रावलपिण्डी, पंजाब[2]; मृत्यु- 22 नवम्बर, 1967, चण्डीगढ़) प्रसिद्ध कट्टर सिक्ख नेता थे, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय सिक्खों को सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया। इसी के परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने 1919 ई. के 'इण्डिया एक्ट' में मुस्लिमों की भांति सिक्खों को भी पृथक् साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया था। तारा सिंह एक सिक्ख नेता होने के साथ-साथ पत्रकार और लेखक भी थे। इन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' का भी समर्थन किया था। लायलपुर के स्कूल में प्रधान अध्यापक का कार्य इन्होंने किया था, जिस कारण इनके नाम के साथ 'मास्टर' शब्द हमेशा के लिए जुड़ गया।
जन्म
प्रसिद्ध सिक्ख नेता मास्टर तारा सिंह का जन्म 24 जून, 1885 ई. को ब्रिटिश शासन काल में पंजाब के रावलपिण्डी ज़िले के 'हरयाल' नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम बख्शी गोपीचंद तथा माता मुल्लन देवी थीं। तारा सिंह का बचपन का नाम नानक चंद था। उनके चार भाई तथा एक बहन थी। पिता बख्शी गोपीचंद गांव के पटवारी थे।
शिक्षा
तारा सिंह ने 17 वर्ष की उम्र में सिक्ख धर्म की दीक्षा ली और अपना पैतृक निवास छोड़कर गुरुद्वारे में रहने लगे। उनकी शिक्षा रावलपिण्डी और अमृतसर में हुई थी। लाहौर से तारा सिंह ने अध्यापन कार्य का प्रशिक्षण लिया और लायलपुर के हाईस्कूल में 15 रुपये मासिक वेतन पर प्रधान अध्यापक का काम करने लगे। यद्यपि बाद के जीवन में उनका अध्यापन कार्य से कोई संबंध नहीं रहा था, लेकिन नाम के साथ 'मास्टर' शब्द सदा के लिए जुड़ गया।[3]
मंत्री तथा अध्यक्ष
इन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध के समय राजनीति में प्रवेश किया। मास्टर तारा सिंह ने सिक्खों को अधिक-से-अधिक संख्या में सेना में भर्ती होने की प्रेरणा दी। इसके फलस्वरूप युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटिश सरकार ने 1919 ई. के 'इण्डिया एक्ट' में मुसलमानों की भांति सिक्खों को भी पृथक् सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया। इसके बाद तारा सिंह गुरुद्वारों के प्रबंध के ओर मुड़े। 1925 में गुरुद्वारों के प्रबंध का नया एक्ट बना। वे कई बार 'शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंध कमेटी' के मंत्री और अध्यक्ष रहे।
विभिन्न गतिविधियाँ
वर्ष 1928 ई. की नेहरू कमेटी का तारा सिंह ने विरोध किया, पर कांग्रेस के पूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव के वे समर्थक थे। महात्मा गाँधी के 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन का भी उन्होंने समर्थन किया। 1932 के ब्रिटिश सरकार के 'साम्प्रदायिक निर्णय' के वे विरोधी थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय क्रिप्स प्रस्ताव का भी उन्होंने विरोध किया। युद्ध के बाद शिमला सम्मेलन में मास्टर तारा सिंह का कहना था कि- "भारत को अविभाज्य रहना चाहिए। परंतु यदि पाकिस्तान की मांग स्वीकार की जाती है तो सिक्खों का भी एक स्वतंत्र राज्य बनाया जाए।"[3]
पृथक् राज्य की मांग
स्वतंत्रा के बाद तारा सिंह ने पृथक् पंजाबी भाषी राज्य बनाने के लिए आंदोलन किया। 1952 के प्रथम निर्वाचन के समय वे कांग्रेस कार्य समिति से पंजाबी भाषी प्रदेश के निर्माण और पंजाबी विश्वविद्यालय की स्थापना का निर्णय कराने में सफल हुए। बाद में इसके लिए उन्होंने 15 अगस्त, 1961 से आमरण अनशन किया, जो 43 दिन के बाद टूटा। धीरे-धीरे उनके नेतृत्व का प्रभाव घटने लगा और पंजाबी प्रदेश उनके निधन के बाद ही बन सका।
निधन
मास्टर तारा सिंह ने विभिन्न आंदोलनों में अनेक बार जेल की यात्राएं कीं। एक कट्टर सिक्ख नेता होने के साथ-साथ वे पत्रकार और लेखक भी थे। 22 नवंबर, 1967 को चंडीगढ़ के एक अस्पताल में उनका निधन हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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