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विष्णु भिखाजी गोखले (जन्म- 1825, मृत्यु- 1871) प्रसिद्ध समाज सुधारक और वैदिक धर्म के प्रचारक थे। हिंदू धर्म में जो रूढ़ियां थीं, उनका उन्होंने विरोध किया और उनमें सुधार के लिये भरसक प्रयास किये। विष्णु भिखाजी गोखले का सबसे बड़ा काम यह था कि उन्होंने उन ईसाई मिशनरियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया, जो हिंदू धर्म का उपहास करते थे।

परिचय

प्रसिद्ध समाज सुधारक विष्णु भिखाजी गोखले का जन्म 1825 ईस्वी में हुआ था। उनके पिता गांव के पुजारी थे। गरीबी के कारण उन्हें 10 वर्ष की उम्र में ही छोटी सी नौकरी में काम करना पड़ा, किंतु उनके अंदर का मन ज्ञान प्राप्ति के लिये मचल रहा था। नौकरी के साथ-साथ उन्होंने संस्कृत और मराठी में प्राचीन हिंदू धर्म ग्रंथों का भी अध्ययन किया। 20 वर्ष की उम्र में उन्होंने आत्म ज्ञान प्राप्ति की घोषणा कर दी और 23 वर्ष की उम्र में संन्यास ले लिया। कुछ समय तक एक पर्वत पर जाकर तपस्या करने के बाद वे पंडरपुर जाकर लोगों को उपदेश देने लगे। समाज सुधार के उद्देश्य से उन्होंने 'वेदोक्त धर्म प्रकाश', 'सहज स्थितीचा निबंध' आदि पुस्तकें लिखीं।[1]

प्राचीन रूढ़ियों के विरोधी

विष्णु भिखाजी गोखले वैदिक धर्म के प्रचारक थे। हिंदू धर्म में जो रूढ़ियां थीं, उनका उन्होंने विरोध किया और उनमें सुधार के लिये भरसक प्रयास किये। वे जाति-पांत और छुआछूत को नहीं मानते थे। ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने पर भी पिछड़े वर्ग, मुसलमान, ईसाई आदि किसी के भी हाथ का पकाया हुआ भोजन कर लेते थे। नव-जागरण के आरंभिक काल में यह साधारण बात नहीं थी। उनका मानना था कि वैदिक काल की भांति समाज में महिलाओं को भी सम्मान मिलना चाहिए।

ईसाई मिशनरियों से शास्त्रार्थ

विष्णु भिखाजी गोखले का सबसे बड़ा काम यह था कि उन्होंने उन ईसाई मिशनरियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया, जो हिंदू धर्म का उपहास करते थे। उन दिनों ईसाई मिशनरियों ने एक 'ट्रैक सोसायटी' नाम की संस्था बना रखी थी। उस संस्था की ओर से हिंदू जीवन और धर्म की निंदा करने वाली छोटी-छोटी पुस्तिकाएं छपती थीं और लोगों में वितरित की जाती थीं। एक बार ईसाई मिशनरी वालों ने गोखले को खुलेआम शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी। विष्णु गोखले ने इसे स्वीकार किया और चौपाटी के मैदान में कई दिनों तक यह शास्त्रार्थ चला। अंत में अपने ज्ञान, तर्क प्रणाली और बुद्धि चातुर्य से उन्होंने मिशनरियों को पराजित कर दिया।

मृत्यु

प्रसिद्ध समाज सुधारक विष्णु भिखाजी गोखले का 1871 ई. को निधन हो गया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भारतीय चरित कोश |लेखक: लीलाधर शर्मा 'पर्वतीय' |प्रकाशक: शिक्षा भारती, मदरसा रोड, कश्मीरी गेट, दिल्ली |पृष्ठ संख्या: 803 |

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प्रसिद्ध समाज सुधारक विष्णु भिखाजी गोखले का जन्म 1825 ईस्वी में हुआ था। उनके पिता गांव के पुजारी थे गरीबी के कारण विष्णु को 10 वर्ष की उम्र में ही छोटी मोटी नौकरी में लगना पड़ा। लेकिन उनके अंदर ज्ञान प्राप्ति की लगन थी इसीलिए साथ-साथ वे संस्कृत और मराठी में प्राचीन हिंदू धर्म ग्रंथों का भी अध्ययन करते रहे 20 वर्ष की उम्र में उन्होंने आत्मज्ञान प्राप्ति की घोषणा की और 23 वर्ष की उम्र में सन्यास ले लिया। फिर कुछ समय तक एक पर्वत पर जाकर तपस्या की और उसके बाद पंडरपुर जाकर उपदेश देने लगे।

   वे वैदिक धर्म के प्रचारक थे। हिंदू धर्म में जो रूढ़ियां आ गई थी उनका उन्होंने विरोध किया वे जाति पांत और छुआछूत को नहीं मानते थे।  वे कहते थे की वैदिक काल की भांति समाज में महिलाओं को भी सम्मान मिलना चाहिए ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने पर भी पिछड़े वर्ग के  अंत्यज मुसलमान ईसाई किसी के भी हाथ का पकाया हुआ भोजन कर लेते थे।  नवजागरण के आरंभिक काल में यह साधारण बात नहीं थी।  समाज सुधार के उद्देश्य से उन्होंने 'वेदोक्त धर्म प्रकाश'  'सहज स्थितीचा निबंध' आदि पुस्तकें लिखी।  उनका सबसे बड़ा काम ईसाई मिशनरियों को जो हिंदू धर्म का  उपहास करते थे। शास्त्रार्थ में पराजित करना था।  उन दिनों ईसाई मिशनरियों ने एक  'ट्रैक सोसायटी' नामक संस्था बनाई थी। उसकी ओर से हिंदू जीवन और धर्म की निंदा करते हुए छोटी-छोटी  पुस्तिकाएं छपती थी और लोगों में वितरित की जाती।  विष्णु को उन लोगों ने खुलेआम शास्त्रार्थ की चुनौती  दी।  विष्णु ने इसे स्वीकार किया और चौपाटी के मैदान में कई दिनों तक यह शास्त्रार्थ चला।  अंत में अपने ज्ञान तर्क प्रणाली और बुद्धि चातुर्य से उन्होंने मिशनरियों को पराजित स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। इस समाज सुधारक का 1871 में देहांत हो गया।
भारतीय चरित कोश 803