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योग दर्शन का इतिहास 

‘योग’ अत्यन्त व्यापक विषय है। वेद, उपनिषद, भागवत आदि पुराण, रामायण, महाभारत, आयुर्वेद, अलंकार आदि ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं है, जिसमें 'योग' का उल्लेख न मिलता हो। पतंजलि कृत दर्शन में योग की व्यापक चर्चा होने के कारण उनका शास्त्र 'योग दर्शन' के नाम से विभूषित हुआ। योग की अनेक शाखा-प्रशाखाएँ हैं। विश्लेषण के आधार भिन्न-भिन्न होने से वह अनेकविध नामों से पुकारा जाने लगा। 'योगसिद्धान्तचन्द्रिका' के रचयिता नारायणतीर्थ ने ‘योग’ को क्रिया योग, चर्या योग, कर्म योग, हठ योग, मन्त्र योग, ज्ञान योग, अद्वैत योग, लक्ष्य योग, ब्रह्म योग, शिव योग, सिद्धि योग, वासना योग, लय योग, ध्यान योग तथा प्रेमभक्ति योग द्वारा साध्य माना है एवं अनेक योगों से ध्रुवीकृत योग अर्थात समाधि को राजयोग नाम से अभिहित किया है।[1]

  • योग-साहित्य को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है-
  1. पातंजलि योग-साहित्य तथा
  2. पातंजलितर योग-साहित्य

‘योग’ के आचार्यों की श्रृंखला बहुत लम्बी है। यहाँ योग-साहित्य के प्रथम वर्ग के आचार्यों का ही वर्णन किया जा रहा है।

हिरण्यगर्भ

योग दर्शन की प्राणप्रतिष्ठा यद्यपि पतंजलि कृत 'योग-सूत्रों' में ही हुई है तथापि पतंजलि को ‘योग’ का आदिप्रवर्तक नहीं माना जाता है। हिरण्यगर्भ योग के आदिप्रवर्तक हैं। यही कारण है कि महाभारत, अहिर्बुध्न्यसंहिता, मनुस्मृति, भामती, योगियाज्ञवल्क्य आदि ग्रन्थों में हिरण्यगर्भ को योग का आदिवक्ता कहा गया है।[2] योग के ये आदिवक्ता हिरण्यगर्भ कौन से व्यक्ति हैं- कपिल अथवा कपिल से पृथक कोई अन्य व्यक्ति? – इस विषय में इतिहासकारों में मतैक्य नहीं है। किन्तु इतना तो सभी इतिहासकार मानते हैं कि हिरण्यगर्भ नाम के जो योगी वैदिक युग में हुए वे ही योग के आदिवक्ता हैं।

पतंजलि

सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में आदि से अन्त तक विकीर्ण ‘योग’ के सिद्धान्तों को सूत्रात्मक शैली में उपनिबद्ध कर उसे योग दर्शन के नाम से प्रतिष्ठापित कराने में महर्षि पतंजलि का नाम आदरपूर्वक स्मरण किया जाता हैं। पतंजलि को योग-सिद्धान्तों का अनुशासनकर्त्ता माना जाता है। 'योगसूत्र' के प्रथम सूत्र में स्वयं पतंजलि ने इस बात की पुष्टि की है।[3] पं. उदयवीर शास्त्री ने पतंजलि नाम के अनेक आचार्यों को खोज निकाला है, [4] जिनका वर्णन इस प्रकार है-

  1. योग-सूत्र के रचयिता पतंजलि।
  2. व्याकरण-महाभाष्य के रचयिता पतंजलि।
  3. निदान-सूत्र के रचयिता पतंजलि।
  4. परमार्थसार के रचयिता पतंजलि।
  5. युक्तिदीपिका[5] तथा व्यासभाष्य[6] आदि ग्रन्थों में उल्लिखित सांख्याचार्य पतंजलि।
  6. आयुर्वेदाचार्य पतंजलि।
  7. कोषकार पतंजलि।[7]

पतंजलि के अनेक नाम

इतना ही नहीं, संस्कृत के प्राचीन ग्रन्थों में पतंजलि को देशनाम, मातृनाम तथा अवतारनाम आदि अनेक नामों से पुकारा गया है। पतंजलि के गोनर्दीय, गोणिकापुत्र, नागनाथ, अहिपति, फणिभृत्, फणिपति, शेष, वासुकि, भोगीन्द्र, चूर्णिकाकार, पदकार आदि अनेक नाम प्रसिद्ध हैं। इनमें से सम्भवत: गोनर्दीय देशनाम तथा गोणिकापुत्र मातृनाम पतंजलि का रहा होगा। इसके अतिरिक्त अहिपति, फणिभृत्, वासुकि आदि उनके भगवान शेष[8] का अवतार होने की मान्यता पर आधारित प्रतीत होते हैं।

कालक्रम से आगे बढ़ते हुए, तत्-तत् ग्रन्थों के अन्त:साक्ष्यों के आधार पर योगसूत्र के कर्त्ता, व्याकरण-महाभाष्य के कर्त्ता तथा आयुर्वेद के कर्त्ता एक ही पतंजलि नाम के व्यक्ति होने की मान्यता को पुष्टि मिली। इस सन्दर्भ में 'योग सूत्र' के वृत्तिकार 'भोज' तथा वाक्यपदीयकार 'भर्तृहरि' के एतत्सम्बन्धी विचार अवलोकनीय हैं-

भोजदेव के विचार

योगसूत्र के वृत्तिकार भोजदेव का योगविषयक ग्रन्थ 'भोजवृत्ति' अथवा 'राजमार्तण्य' के नाम से विख्यात है। सदृश ग्रन्थयत्र-निर्माण में पतंजलि के साथ अपनी समानता व्यक्त करते हुए भोजदेव ने एक श्लोक[9] में इन तीनों शास्त्रों का उल्लेख किया है। इससे भी तीनों शास्त्रों का कर्त्ता पतंजलि नाम का एक ही व्यक्ति सिद्ध होता है।

आधुनिक इतिहासकारों का मत

बीसवीं शताब्दी के इतिहासकार पं. उदयवीर शास्त्री ने अनेक ग्रन्थों के अन्त: एवं बाह्य साक्षों का पुनरीक्षण कर स्वलिखित 'सांख्य दर्शन का इतिहास' नामक ग्रन्थ में उक्त धारणा को निर्मूल बतलाते हुए उकसा प्रबल खण्डन किया है। वे शास्त्रत्रय का कर्त्ता पतंजलि नाम के एक ही व्यक्ति को नहीं मानते है। चरक संहिता के हिन्दी व्याख्याकार पं. ब्रह्मानन्द त्रिपाठी ने भी अपने पूर्ववर्ती इतिहासकार पं. उदयवीर शास्त्री के मत का समर्थन किया है। ग्रन्थ[10] के प्राक्कथन में वे लिखते हैं- ‘चरक संहिता के शरीर स्थान के एक तथा पाँचवें अध्यायों में जो योग और मोक्ष की चर्चा की गई है, वह पतंजलि योगसूत्र से समानता नहीं रखता है। अत: इन दोनों को एक सिद्ध करने का प्रयास अपने-अपने क्षेत्र में दिग्गज होने के रूप में भले ही कुछ अर्थ रखता हो, वैसे एकता वाली बात बुद्धिगम्य नहीं होती। काल-निर्द्धारण में कहीं भी सुभाषित सहायक नहीं होते हैं।’

पतंजलि का काल

योग-सूत्र को 'सांख्य प्रवचन' नाम से भी जाना जाता है। भाष्यकार व्यासदेव ने योगसूत्र के प्रत्येक पाद की समाप्ति पर 'सांख्यप्रवचनयोगशास्त्र'[11] शब्द का प्रयोग किया है। कई इतिहासकार योगसूत्र को षड्दर्शनों में सर्वाधिक प्राचीन मानते हुए उसकी रचना बौद्ध युग से पहले लगभग 700 ईस्वी पूर्व में बतलाते हैं। जब कि डॉ. राधाकृष्णन[12] आदि इतिहासविद योगसूत्र का काल 300 ईस्वी के निकट बतलाते हैं।

योगसूत्र पर लिखी गई टीकाएँ एवं वृत्तियाँ

पतंजलि के योगशास्त्र में निगूढ योग सिद्धान्तों को व्याख्यापित करने हेतु, जो व्याख्याएं लिखी गईं, उन्हें टीका-ग्रन्थों एवं वृत्ति-ग्रन्थों के रूप में विभक्त किया जा सकता है। योगसूत्र पर सबसे पहला व्याख्याग्रन्थ व्यासदेव का है, जो व्याख्याकार के नाम से ‘व्यासभाष्य’ तथा विषय के नाम से 'योगभाष्य' कहलाता है। इसके पश्चात व्यासभाष्य पर अनेक टीकाएँ लिखी गईं। इतना ही नहीं, योग-सूत्र में आये प्रत्येक शब्द के अर्थ को स्पष्ट करने हेतु आत्मकेन्द्रित करने वाले अनेक वृत्तिकारों ने वृत्तिग्रन्थ लिखकर पतंजलि योग-साहित्य की अभिवृद्धि की। योगसूत्र पर लिखी गई व्याख्याओं का विवरण अधोलिखित है-

योगसूत्र पर लिखी गई व्याख्याओं का विवरण
व्याख्याकार टीकाएँ और व्याख्याएँ आधारित भाष्य
1- व्यासदेव योगभाष्यम् योगसूत्र पर आधारित भाष्य
2- वाचस्पति मिश्र तत्त्ववैशारदी व्यासभाष्य की टीका
3- राघवानन्दसरस्वती पातञ्जलरहस्यम् तत्त्ववैशारदी की टीका
4- विज्ञानभिक्षु योगवार्त्तिकम् व्यासभाष्य की टीका
5- हरिहरानन्दङ्कर योगभाष्यविवरणम् व्यासभाष्य की टीका
6- नारायणतीर्थ योगसिद्धान्तचन्द्रिका व्यासभाष्य पर आधारित स्वतंत्र टीका
7- भोजदेव राजमार्तण्ड: योगसूत्र की वृत्ति
8- नारायणतीर्थ सूत्रार्थबोधिनी योगसूत्र की वृत्ति
9- नागोजीभट्ट योगसूत्रवृत्ति लघ्वी एवं बृहती वृत्ति
10- रामानन्दयति मणिप्रभा योगसूत्र की वृत्ति
11- अनन्तदेवपण्डित पदचन्द्रिका योगसूत्र की वृत्ति
12- सदाशिवेन्द्र सरस्वती योगसुधाकर: योगसूत्र की वृत्ति
13- बलदेवमिश्र योगप्रदीपिका योगसूत्र की वृत्ति
14- हरिहरानन्छ योगकारिका सरल टीका सहित
15- सत्यदेव योगरहस्य योगसूत्र की स्वतन्त्र टीका
  • योगसूत्र पर लिखे गये यहाँ तक के संस्कृत मूल के समस्त ग्रन्थ प्रकाशित हैं। इसके अतिरिक्त योग के उपलब्ध अप्रकाशित वृत्तिग्रन्थ अधोलिखित हैं, जो पाण्डुमातृकाओं के रूप में संस्कृत के प्राच्य-विद्या-प्रतिष्ठानों में संरक्षित हैं-
क्रम व्याख्याकार अप्रकाशित वृत्तिग्रन्थ
1 षिमानन्द योगसूत्रवृति:
2 भवदेवमिश्र योगसूत्रवृत्ति:
3 सुरेन्द्रतीर्थ योगसूत्रवृत्ति:
4 श्रीगोपालमिश्र योगसूत्रविवरणम्
5 पुरुषोत्तमतीर्थ योगसूत्रवृत्ति:
6 वृत्तिकार का नाम ज्ञात नहीं योगसूत्रवृत्ति:

व्यासभाष्य का वैशिष्ट्य

पतंजलि योगसूत्र पर लिखित ‘व्यासभाष्य’ में व्यासदेव ने योग के वेदमान्य सिद्धान्तों को व्यापक स्तर पर विश्लेषित किया है। व्यासभाष्य में व्यासदेव ने सांख्य-योग के पूर्ववर्ती आचार्यों की योग विषयक मान्यताओं को उनके नाम के साथ, व्याख्यापित करते हुए उनकी ऐतिहासिक परम्परा को उद्घाटित किया है। इससे सांख्य-योग प्राचीन आचार्यों की लुप्तप्राय परम्परा को पुर्नजीवित करने में अत्यन्त सुविधा होती है। ‘योगभाष्य’ ग्रन्थकर्त्ता के बहुशास्त्रीय ज्ञान का परिचायक है। उन्होंने अपनी प्रखर मेधा से विज्ञानवादी बौद्धों के क्षणिकवाद को निराधार, अव्यावहारिक एवं शास्त्रविरुद्ध सिद्ध करने हेतु व्यासभाष्य में अकाट्य युक्तियाँ प्रस्तुत की हैं।[13] उनका वक्तव्य है कि चित्त को नियत एवं स्थायी माने बिना योग-साधन द्वारा उसको एकाग्र बनाने का प्रयास हास्यास्पद बन जाता है। व्यासदेव में योग के पारिभाषिक शब्दों को उनके लक्षणपरक वाक्यों के द्वारा स्पष्टता प्रदान की हे। व्यासभाष्य में अत्यन्त सरल, सुबोध एवं प्रवाहमयी भाषा-शैली में दार्शनिक तथ्यों का गम्भीरता के साथ प्रस्तुतीकरण हुआ है। उन्होंने योग जैसे क्लिष्ट एवं आध्यात्मिक विषय को योग अध्येताओं को सुबोधगम्य कराने हेतु लौकिक दृष्टान्तों का बहुलतया समाश्रयण किया है।[14] फलत: दृष्टान्तों का दार्शनिक चिन्तन अधिक मुखरित हो सका है।

व्यासभाष्य के संस्करण

व्यासभाष्य के सम्पादित संस्कृतमूल के उपलब्ध प्रसिद्ध संस्करणों का विवरण इस प्रकार है-

  1. तत्त्ववैशारदीय टीकासहित व्यासभाष्य का संस्कृत मूल संस्करण, जो प्राचीनतम संस्करण है, सन 1911 ईस्वी में विद्या विलास प्रेस, वाराणसी से मुद्रित हुआ है। यह बालरामोदासीन की अत्यन्त उपयोगी संस्कृत टिप्पणी से विभूषित संस्करण है।
  2. व्यासभाष्य का एक अन्य संस्कृत मूल संस्करण, तत्त्ववैशारदी संस्कृत टीका के साथ, सन 1917 ईस्वी में बम्बई से निकला है। इस संस्करण से सम्पादक महामहोपाध्याय श्री राजाराम शास्त्री बोडस हैं। इस संस्करण में पाठ भेदों का भी निर्णय किया गया है।
  3. व्यासभाष्य का एक अन्य संस्कृत मूल संस्करण, भास्वती, तत्त्ववैशारदी, पातञ्जलरहस्य तथा योगवार्त्तिक नामक टीका- चतुष्टय के साथ, ‘सांगयोगदर्शनम्‘ नाम से सन 1935 ईस्वी में चौखम्बा संस्कृत सीरिज़ वाराणसी से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत संस्करण के सम्पादक पण्डित गोस्वामिदामोदरशास्त्री ने विवादास्पद स्थलों पर टिप्पणी करते हुए स्वमत को भी उद्घाटित किया है।
  4. पंडित जीवानन्द विद्यासागर द्वारा सम्पादित व्यासभाष्य का एक अन्य संस्कृत मूल संस्करण, तत्त्ववैशारदी टीकासहित, सन 1940 ईस्वी में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ है।
  5. पोलकर सु. श्रीरामशास्त्री एवं एस.आर. कृष्णमूर्ति शास्त्री इन सम्पादकद्वय द्वारा सम्पादित व्यासभाष्य का ‘विवरण‘ टीका सहित, पाँचवां संस्करण ‘पातञ्जलयोगसूत्रभाष्यविवरणम्’ नाम से सन 1952 ईस्वी में राजकीय प्राच्य पाण्डुलिपि ग्रन्थालय मद्रास से मुद्रित हुआ है।
  6. प्रो. श्रीनारायण मिश्र द्वारा सम्पादित तत्त्ववैशारदी एवं योगवार्त्तिक टीका सहित व्यासभाष्य का एक अन्य संस्कृत मूल संस्करण ‘योगदर्शनम्’ नाम से सन 1971 ईस्वी में भारती विद्या प्रकाशन, वाराणसी से प्रकाशित हुआ है।
  • व्यासभाष्य के संस्कृतमूल संस्करणों के अतिरिक्त कुछ हिन्दी व्याख्या प्रधान संस्करण भी मिलते हैं। इनका विवरण अधोलिखित है-
  1. श्रीयुत ब्रह्मलीन मुनि की हिन्दी व्याख्या सहित व्यासभाष्य का एक संस्करण सन 1958 ईस्वी में बड़ोदरा से प्रकाशित हुआ है।
  2. प्रो. सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव द्वारा लिखी गई हिन्दी व्याख्या के साथ व्यासभाष्य का एक अन्य संस्करण सन 1973 ईस्वी में हिन्दुस्तान प्रेस, इलाहाबाद से निकला है।
  3. व्यासभाष्य पर लिखित हरिहरानन्द आरण्यक की बंगला-व्याख्या के हिन्दी अनुवादक डॉ. रामशंकर भट्टाचार्य का टिप्पणी सहित व्यासभाष्य का एक अन्य संस्करण सन 1974 ईस्वी में मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी से प्रकाशित हुआ है।
  4. तत्त्ववैशारदी एवं योगवार्त्तिक टीकाओं के साथ व्यासभाष्य का सम्पादित संस्करण, पाठभेद तथा हिन्दी व्याख्यासहित, सन 1992 ईस्वी में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के तत्त्वावधान में रत्ना प्रिटिंग प्रेस कमच्छा, वाराणसी से मुद्रित हुआ है। संस्करण की लेखिका डॉ. विमला कर्णाटक ने योगसूत्र, व्यासभाष्य, तत्त्ववैशारदी एवं योगवार्त्तिक के पाठभेदों को मूल्यांकित करने हेतु टीकाओं की सम्बद्ध यथासम्भव उपलब्ध पाण्डुमातृकाओं का भी अध्ययन किया है।

व्यासदेव का ऐतिहासिक परिचय

अभी-अभी ऊपर जिस ‘योगभाष्य‘ अथवा ‘व्यासभाष्य’ की महनीयता एवं विद्वज्जनप्रियता पर प्रकाश डाला गया है, उसके लेखक कोई साधारण व्यक्ति नहीं, अपितु भारत की गौरवशाली ऋषि-परम्परा के शीर्ष आचार्य ‘व्यास’ हैं, जो वैदिक युग से दर्शन युग तक छाये रहे।

व्यास की अवतार के रूप में परिकल्पना

संस्कृत वांगमय में आद्यन्त विस्तीर्ण ‘व्यास’ को केवल ऋषि ही नहीं, अपितु देवता स्वरूप माना गया है। पुराण में व्यास अवतारी पुरुष के रूप में परिकल्पित हैं। वायु, गरुड तथा कूर्म पुराण में एक स्थल पर व्यास को विष्णु का अवतार, यहीं दूसरे स्थल पर शिव का अवतार, ब्रह्माण्ड पुराण में ब्रह्मा का अवतार तथा लिंग पुराण में ब्रह्मा के पुत्र का अवतार कहा गया है।

वैदिक संहिताओं के पृथक्कर्त्ता ‘व्यास’

वैदिक संहिताओं के पृथक्कर्ता तथा वैदिक शाखा के प्रवर्त्तकों के आद्य आचार्य के रूप में पाराशर्य ‘व्यास’ का नाम लिया जाता हैं ‘व्यास’- धर्म-शास्त्रकार ने एक स्मृतिग्रन्थ लिखा है। यह 'व्यास स्मृति' के नाम से विख्यात है। इसमें चार अध्याय एवं दो सौ पचास श्लोक हैं। इसमें वर्णाश्रम धर्म, नित्य कर्म, दान कर्म आदि शास्त्रीय विषयों की चर्चा, शास्त्रीय पद्धति से हुई है। यह स्मृति ग्रन्थ आनन्दाश्रम पूना तथा व्यंकटेश्वर प्रेस बम्बई से प्रकाशित हुआ है।

ब्रह्मसूत्रों के रचयिता ‘व्यास’

ब्रह्मसूत्रों के रचयिता के रूप में 'बादरायण व्यास' का नाम स्मरण किया जाता है। 'बदर' के वंशज होने के कारण ‘व्यास‘ को बादरायण नाम प्राप्त हुआ है। स्वयं शंकराचार्य भी बादरायण को ब्रह्मसूत्रों की रचना का श्रेय प्रदान करते हैं।[15] इस ग्रन्थ को 'उत्तर मीमांसा', 'बादरायणसूत्र', 'ब्रह्म मीमांसा', 'वेदान्त सूत्र', 'व्यास सूत्र' एवं 'शारीरक सूत्र' आदि नामों से भी पुकारा जाता है।

महाभारत के प्रणेता कृष्णद्वैपायन ‘व्यास’

महाभारत के रचयिता ‘व्यास’ के ‘कृष्णद्वैपायन’ नाम के विषय में यह कहा जाता है कि इनका जन्म यमुना द्वीप में हुआ था, जिस कारण उन्हें ‘द्वैपायन’ नाम दिया गया तथा उनकी माता का नाम काली होने से उन्हें ‘कृष्णद्वैपायन’ कहा गया। पुराण में धर्मशास्त्रकार व्यास एवं कृष्णद्वैपायन ‘वेदव्यास’ नाम के व्यक्ति का एक ही होने का निर्देश प्राप्त है। किन्तु इस सम्बन्ध में इतिहासकार एक निश्चित निर्णय तक नहीं पहुँच पाये हैं।

योगभाष्यकार ‘व्यासदेव’

जिज्ञासा का विषय है कि योग शास्त्रज्ञ-व्यास का पूर्ववर्ती ‘व्यास’ नाम के व्यक्तियों के साथ क्या सम्बन्ध रहा होगा? अनेक शताब्दियों तक यह प्रश्न अनुसंधानकर्ताओं के शोध का विषय बना रहेगा। फिर भी उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर कृष्णद्वैपायन वेदव्यास तथा योगभाष्य के प्रणेता व्यास को एक व्यक्ति मानने का मत असंगत प्रतीत होता है।

निर्विवाद रूप में इतना ही कहा जा सकता है कि 9वीं शताब्दी के आचार्य वाचस्पति मिश्र से कई सौ वर्ष पूर्व व्यासभाष्य की रचना हो गई थी। उस समय तक बौद्ध धर्म एव दर्शन का बहुत अधिक प्रचार-प्रसार हो चुका था। व्यासदेव को बौद्ध दर्शन की अनेक मान्यताएँ अव्यावहारिक एवं असंगत प्रतीत हुई। अत: बौद्धमत को उपस्थापित करते हुए उन्होंने व्यासभाष्य में उनका यथावसर खण्डन किया है। इतना ही नहीं, व्यासभाष्य में सांख्य-योग के प्राचीन आचार्य वार्षगण्य का मत भी उल्लिखित हुआ है। इतिहासकारों ने वार्षगण्य को वसुबन्धु का समकालिक माना है। वसुबन्धु का समय तीसरी-चौथी शताब्दी के आस-पास है। अत: व्यासभाष्य को चतुर्थ शताब्दी के बाद की रचना मानना युक्तियुक्त प्रतीत होता है।

तत्त्ववैशारदी की विशिष्टता

व्यासभाष्य की टीकाओं में वाचस्पति मिश्र की ‘तत्त्ववैशारदी’ योग की प्राचीनतम टीका है। सांख्य-योग को ‘प्रमेयशास्त्र’ कहते हैं, क्योंकि इसमें प्रमेयों का ही बहुलता से प्रतिपादन हुआ है। ‘तत्त्ववैशारदी’ नाम का भी व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ ऐसा ही है – तत्त्वानां विशदीकरणं यस्यां वर्तते सा (टीका) तत्त्ववैशारदी अर्थात् तत्त्वों का विस्तृत प्रतिपादन जिसमें विद्यमान है, उसे ‘तत्त्ववैशारदी’ कहते हैं। वाचस्पति मिश्र की अनेक शास्त्रों में अप्रतिहत गति रही। वे शास्त्रज्ञ थे। व्यासभाष्य पर लिखी गई उनकी तत्त्ववैशारदी शास्त्रसम्मत टीका है। पण्डित समाज में जितनी अधिक मान्यता उनकी तत्त्ववैशारदी को प्राप्त हुई है, उतनी योगभाष्य की किसी अन्य टीका को नहीं। व्यासभाष्य के परवर्ती टीकाकारों ने उनके योग के सिद्धान्तों को स्वीकृत किया। इस भाष्य-टीका की अनेक विशेषताओं में एक महती विशेषता यह है कि इसमें मत-मतान्तर से अभ्रमित सर्वदर्शननिष्णात वाचस्पति मिश्र की मेधा ने यौगिक सिद्धान्तों पर ही अपने को केन्द्रित रखकर उनको परिवर्द्धित, परिष्कृत एवं प्रकाशित किया है। फलत: व्यासभाष्य की टीका होते हुए 'तत्त्ववैशारदी' को योगशास्त्र का सन्दर्भ ग्रन्थ कह सकते हैं। व्यासदेव ने सांख्य-योग के जिन प्राचीन आचार्यों के योगविषयक सिद्धान्तों को ‘तथा चोक्तम्’ द्वारा व्यासभाष्य में उद्धृत किया है, वे उद्धृत वाक्य किन पूर्वाचार्यों के हैं उन्हें वाचस्पति मिश्र ने अधिकांशत: खोज निकाला है और व्यासभाष्य के परवर्ती टीकाकारों ने भी अधिकांशत: उन्हें स्वीकार भी किया है।[16]

तत्त्ववैशारदी के संस्करण

व्यासभाष्य के संस्करणों में प्रथम चार संस्करण तथा छठा संस्करण तत्त्ववैशारदी संस्कृत मूल टीका के साथ सम्पादित हुआ है। अत: ये पाँचों तत्त्ववैशारदी टीका के भी संस्करण कहे जाते हैं। तत्त्ववैशारदी के अनुदित संस्करणों की संख्या अद्यावधि दो ही है। तत्त्ववैशारदी का अनुदित एक संस्करण आंग्लभाषा में है तथा दूसरा अनूदित संस्करण राष्ट्रभाषा हिन्दी में है। ज्ञातव्य है कि व्यासभाष्य सहित तत्त्ववैशारदी का आंग्लभाषा में अनूदित संस्करण सन 1914 ईस्वी में हार्वड विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुआ है। पाश्चात्य विद्वान जेम्स हाग्टन वुड्स ने इसमें व्यासभाष्य तथा तत्त्ववैशारदी का संस्कृत मूल नहीं दिया गया है।

वाचस्पति मिश्र का समय

वाचस्पति मिश्र का काल- निर्धारित करने में स्वयं उनके ग्रन्थ अत्यन्त सहायक सिद्ध हुए हैं। तदर्थ न्यायवार्त्तिक तात्पर्य टीका की समाप्ति पर लिखा गया उपसंहारात्मक श्लोक अवलोकनीय है। श्लोक इस प्रकार है-

न्यायसूचीनिबन्धोऽसावकारि सुधियां मुदे।
श्रीवाचस्पतिमिश्रेण वस्वङ्कवसुवत्सरे ॥

इस श्लोक के आधार पर वाचस्पति मिश्र का स्थितिकाल सं. 898 विक्रम अर्थात 9वीं शताब्दी के आस-पास सिद्ध होता है। प्रो. वुड्स ने भी 'The Yoga system of Patanjali' नामक स्वलिखित ग्रन्थ की भूमिका में तत्त्ववैशारदी को ईस्वी सन 850 की रचना माना है।[17] उनके अन्य ग्रन्थों में सांख्यतत्त्वकौमुदी का न्यायवार्त्तिक तात्पर्य टीका के बाद की रचना होना सिद्ध होता है।[18] तथा उनको तत्त्ववैशारदी टीका को न्यायकणिका एवं ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा के बाद की रचना माना जाता है।

वाचस्पति मिश्र मैथिल ब्राह्मण थे तथा ‘नृग’ नामक किसी दानी एवं धार्मिक राजा के आश्रय में रहते थे। भामती के उपसंहारात्मक श्लोक में वाचस्पति मिश्र लिखते हैं-

नृणान्तराणां मनसाऽप्यगम्या भ्रूक्षेपमात्रेण चकार कीर्तिम्।
कार्तस्वरासारसुपूरितार्थ: स्वयं शास्त्रविचक्षणश्च॥
नरेश्वरा यच्चरितानुकारमिच्छन्ति कर्तु न च पारयन्ति।
तस्मिन्महीपे महनीयकीर्तौ रीमन्नृगेऽकारि मया निबन्ध:॥

उक्त श्लोक के अन्तिम चरण का ‘नृग’ पद राजा के ‘नरवाहन’ होने को स्पष्ट करता है- यह मत डॉ. गंगानाथ झा का है। इसके विपरीत पं. उदयवीर शास्त्री का विचार है कि वाचस्पति मिश्र ने भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध ‘नृग’ नामक राजा की देवपाल से समानता व्यक्त करने के लिये श्लोक में ‘नृग’ पद का प्रयोग किया है। और स्वमत को पुष्ट करने हेतु वाचस्पति मिश्र ने भामती के व्याख्या ग्रन्थ वेदान्तकल्पतरु के उस वाक्य को भी उद्धृत किया है जिससे भामती के उक्त पद्य का अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है। वाक्य इस प्रकार है- ‘तथाविध: सार्थो यस्य प्रकृतत्वेन वर्त्तते स नृगस्तथेत्यपर:। नृग इति राज्ञ आख्या।’ [19]

पातंजलिरहस्य एवं उसके रचयिता

राघवानन्द सरस्वती ने तत्त्ववैशारदी पर ‘पातंजलिरहस्य’ नाम की उपटीका लिखी है। राघवानन्द के गुरु का नाम विश्वेश्वर भगवत्पाद था। अद्वयभगवत्पाद इनके शिष्य थे। 'प्राचीन चरित्र कोश' [20] में विश्वेश्वर को शिव का अवतार कहा गया है। ये काशी में अवतीर्ण हुए थे। इन्हें ‘अविमुक्तेश्वर’ नाम से भी पुकारा जाता है।[21] ये राघवानन्द सरस्वती के गुरु अद्वयभगवत्पाद के भी गुरु थे- इस विषय में अभी प्रामाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। राघवानन्द सरस्वती ने पातंजलिरहस्य के प्रारम्भिक श्लोकों में योग के तीन आचार्यों पतंजलि, व्यासदेव एवं वाचस्पति मिश्र को यथाक्रम उल्लिखित किया है। उन्होंने योग के आचार्य विज्ञानभिक्षु का उल्लेख नहीं किया है। इससे इतना तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि राघवानन्छ सरस्वती विज्ञानभिक्षु से पूर्व हुए। मान्यता है कि संन्यास ग्रहण करने के पश्चात इन्हें ‘सरस्वती’ उपाधि प्रदान की गई। संन्यासी आचार्यों में ही ‘सरस्वती’ और ‘पति’ उपाधि का प्रयोग प्राय: मिलता है। इनके समय के विषय में अभी इतना ही कहा जा सकता है कि ये वाचस्पति मिश्र के समकालिक अथवा उनके बाद के 10वीं अथवा 11वीं शताब्दी के आचार्य रहे होंगे।

योगवार्त्तिक की महनीयता

आचार्य विज्ञानभिक्षु ने व्यासभाष्य पर ‘योगवार्त्तिक‘ टीका लिखी। यह टीका वार्त्तिक शैली पर आधारित है। पराशर पुराण में ‘वार्त्तिक’ का लक्षण[22] करते हुए कहा गया है- जिस ग्रन्थ में उक्त, अनुक्त तथा दुरुक्त विषय का चिन्तन प्रस्तुत किया जाता है, उस ग्रन्थ को वार्त्तिक के विज्ञ विद्वान ‘वार्तिक‘ कहते हैं।’ इसी आशय का एक दूसरा वाक्य भी मिलता है। वाक्य इस प्रकार है- ‘उक्तानुक्तदुरुक्तार्थव्यक्तकारि तु वार्त्तिकम्’। व्याकरण शास्त्र में पाणिनि के सूत्रों पर कात्यायन द्वारा लिखे गये व्याख्यापरक नियमों के लिये ‘वार्त्तिक’ शब्द का प्रयोग विशेष रूप से किया जाता है।

‘योगवार्त्तिक’ में योग के पूर्वाचार्यों द्वारा ‘उक्त’ वचनों का विश्लेषण, ‘अनुक्त’ वचनों का समावेश तथा ‘दुरुक्त’ मान्यताओं- अन्य दार्शनिकों द्वारा स्थापित सिद्धान्तों- का संयुक्तिक खण्डन किया गया है। इससे विज्ञानभिक्षु की योगवार्त्तिक टीका व्यासभाष्य की व्याख्या प्रस्तुत करने वाला ही ग्रन्थ नहीं रहा गया है, अपितु उसे योग के स्वतन्त्र ग्रन्थ की कोटि में रखा जा सकता है। यही कारण है कि योगवार्त्तिक का आकार भी बृहत हो गया है।

ग्रन्थारम्भ के मंगलाचरणपरक द्वितीय श्लोक में विज्ञानभिक्षु ने वेदव्यास को मुनियों में इन्द्रस्वरूप बतलाते हुए उनके प्रति समादर भाव व्यक्त किया है तथा उनके योगभाष्य को योगीन्द्रों का पेयामृत विज्ञानरत्नाकर बतलाया है। ऐसे ‘योगभाष्य’ रूप दुग्ध समुद्र से विज्ञान रूप नवनीत को निकालने के लिये यह ‘योगवार्त्तिक’ मथनीस्थानीय है। इस अभिप्राय का श्लोक अधोलिखित है-

श्रीपातञ्जलभाष्यदुग्धजलधिर्विज्ञानरत्नाकरो
वेदव्यासमुनीन्द्रबुद्धिखनित: योगीन्द्रपेयामृत:।
भूदेवैरमृतं तदत्र मथितुं विज्ञानविज्ञैरिह
श्रीमद्वात्तकमन्दरो गुरुतरो मन्थानदण्डोऽर्प्यते॥

सांख्य- योग के समान तन्त्र होने की पुष्टि

भारतीय दर्शन में न्याय वैशेषिक की भाँति सांख्य-योग को समान तन्त्र कहते हैं। शास्त्रीय सिद्धान्तों में विभिन्नता की अपेक्षा समानता अधिक होने के कारण दो शास्त्रों को ‘समानतन्त्र’ की संज्ञा प्रदान की जाती है। यही कारण है कि व्यासभाष्य के प्रत्येक पाद की समाप्ति पर व्यासदेव ने योग को ‘सांख्यप्रवचन योगशास्त्र’ कहा है।[23] आचार्य विज्ञानभिक्षु ने योगवार्त्तिक में सांख्य-योग के ‘समानतन्त्र’ होने की स्थान-स्थान पर पुष्टि की है। इसके कुछ प्रमुख प्रकरण अधोलिखित हैं –

सांख्य तथा योग दोनों दर्शनों में बुद्धि और पुरुष में अनादि स्वस्वामिभावसम्बन्ध को स्थापित किया गया है। पुरुषार्थवती बुद्धि प्रतिबिम्बविधया पुरुष का विषय बनती है। विषयप्रयोग और विवेकख्याति ये दो पुरुषार्थ बुद्धि के कहे जाते हैं। पुरुषार्थशून्य बुद्धि में पुरुष का विषय बनने की क्षमता नहीं है। योग के इस सिद्धान्त को विज्ञानभिक्षु समानतन्त्र सांख्य से परिपुष्ट करते हैं-

'अत एव पुरुषार्थवत्येव बुद्धि: पुरुषस्य विषय इति सांख्यसिद्धान्त:'[24]

योग का सिद्धान्त है कि इन्द्रिय रूप प्रणालिका के माध्यम से चित्त घट, पट आदि बाह्य विषयों के साथ उपरक्त होता है। घट, पट आदि विषयोपराग से चित्त की तदाकारा चित्तवृत्ति बनती है। इसे चित्त का विषयाकार परिणाम भी कहते हैं। चित्त की घट, पटादि विषय वाली वृत्ति का स्वरूप है - 'अयं घट:, अयं पट:।' विषयोपराग के पश्चात चित्तवृत्ति बनती है। अत: चित्तवृत्ति के प्रति विषयोपराग को 'करण' (प्रमाण) कहते हैं और 'अयं घट' आदि वृत्ति को 'प्रमा'। इस प्रमा का आधार बुद्धि है। अत: बुद्धिनिष्ठ होने से इस प्रमा को 'बौद्धप्रमा' भी कहते है। बौद्धप्रमा के पश्चात 'घटमहं जानामि' अर्थात मैं घट को जान रहा हू:- यह दूसरे प्रकार की प्रमा होती है। इस दूसरे प्रकार की प्रमा की उत्पत्ति का कारण पहले वाली प्रमा है। अत: द्वितीय प्रमा के प्रति प्रथम प्रमा को 'करण' (साधन), कहते हैं। पुरुषनिष्ठ होने से द्वितीय प्रमा को 'पौरुषेयबोध' कहते है। चक्षुरादि को घट, पट आदि के पौरुषेय बोध रूप मुख्य प्रमा को साक्षात 'करण' नहीं माना जा सकता है। योगशास्त्र की भाँति सांख्यशास्त्र में भी स्वीकृत दो प्रकार की प्रमाओं का स्मरण कराते हुए विज्ञानभिक्षु लिखते हैं –

‘.......प्रमाद्वयं च सांख्ये सूत्रितम्-द्वयोरेकतरस्य,
वाऽप्यसन्निकृष्टार्थपरिच्छित्ति: प्रमेति’।[25]

सांख्य में प्रतिपादित चौबीस तत्त्व योग के द्वितीय पाद के अट्ठारहवें एवं उन्नीसवें सूत्रों में वर्णित हुए हैं। इसे स्पष्ट करते हुए विज्ञानभिक्षु लिखते हैं-

‘तदेवं सांख्यशास्त्रे प्रपञ्चितानि चतुर्विशतितत्त्वानि,
अत्र संक्षेपत: सूत्रद्वयेनोक्तनि’। [26]

योगशास्त्र में परिणामशील महदादि तत्त्वों को कार्य तथा कारण के भेद से जो सत और असत रूप में वर्णित किया गया है, वह उनके नित्यानित्य उभय रूप होने के कारण है। ऐसे ही सांख्यानुसारी मत को इंगित करते हुए विज्ञानभिक्षु लिखते हैं-

‘.... प्रकृत्यादीनां ... नित्यानित्योभयरूपत्वस्थापनात्तेषां,
सद-सद्रूपत्वं सिद्धान्तितम् ‘‘सदसदख्यातिर्बाधाबाधाभ्यामि’’
ति सांख्यसूत्रानुसारात्’ ।[27]

योग दर्शन के अनुसार सुख-दु:ख आदि का भोग किसे होता है? इस विषय पर विचार करते हुए विज्ञानभिक्षु बतलाते हैं कि अंश भेद से सुख-दु:खादि का भोग बुद्धि और पुरुष दोनों को होता है। अन्तर इतना है कि बुद्धिपक्ष में भोग 'वास्तविक' है और पुरुष पक्ष में 'औपाधिक'। पुरुष में औपाधिक भोग की जन्मदात्री 'अविद्या' है। अत: पुरुष पक्ष में सुख दु:खादि भोग को 'गौण' कहा गया है। योग की भाँति सांख्य दर्शन में समर्थित उक्त मान्यता के सांख्यसूत्रों को उद्धृत करते हुए विज्ञानभिक्षु लिखते हैं –

‘तत्रैव गौणो भोग: सांख्ये प्रोक्त: ‘‘चिदवसानो भोग’’ इति।
स च पुरुषस्यैव न बुद्धे: ‘‘पुरुषोऽस्ति भोक्तृभावाद्’’
इति ‘सांख्यवाक्यात्’। [28]

सांख्य-योग दोनों दर्शनों में कारण को ‘धर्मी’ तथा कार्य को ‘धर्म’ संज्ञा प्रदान करते हुए समस्त तत्त्वों को विश्लेषित किया गया है। महतादि तत्त्वों के आविर्भाव-क्रम से उनका 'धर्म-धर्मी भाव सम्बन्ध' बदलता जाता है। उदाहरण के रूप में प्रकृति रूप धर्मी से आविर्भूत महत रूप धर्म तब धर्मी रूप में परिवर्तित हो जाता है। जब वह अहंकार रूप धर्म का अभिव्यक्ति कारण बनता है। लौकिक जगत में जैसे एक पिता का पुत्र अपने पुत्र का पिता बन जाता है। इस प्रकार 'धर्म-धर्मी भाव सम्बन्ध' पर अवलम्बित घट, पट आदि तत्त्वों की कार्य-कारण-परम्परा अनादि और अनन्त है। योग शास्त्र में वर्णित तत्त्वों को काल भेद से अनागत, वर्तमान तथा अतीत तीन लक्षण भेद वाला बतलाया गया है। अभिव्यक्ति से पूर्व घट-धर्म (कार्य) अपनी कारण भूता मृत्तिका में ‘अनागतलक्षण’ से अवस्थित रहता है, अभिव्यक्ति के पश्चात ‘वर्तमान लक्षण’ वाला कहलाता है और खण्डित हो जाने पर ‘अतीत लक्षण’ से अन्वित रहता है। ‘लक्षण’ शब्द से यहाँ घट-पटादि पदार्थ की तत-तत काल से सम्बन्धित स्थिति, दशा, अवस्था अथवा परिणति का अवबोध होता है। आज का प्रत्यक्षवादी वैज्ञानिक मृत्तिका-धर्मी (कारण) के घट-धर्म (कार्य) की ‘वर्तमान’ अवस्था (लक्षण) को तो स्वीकार करता है, किन्तु प्रत्यक्षानर्ह अनागत और अतीतकालिक घट-धर्म को शशश्रृंग की भाँति अवास्तविक (अलीक) मानता है। इसी भ्रान्ति को निरस्त करने हेतु विज्ञानभिक्षु ने योगिजन द्वारा प्रत्यक्ष योग्य अनागत और अतीतकालिक घटादि की सद्रूपता तथा योगिजन द्वारा भी प्रत्यक्षानर्ह शशश्रृंगादि की असद्रूपता को वर्णित किया है। साधारणजन को अनागत और अतीतकालिक घटादि धर्म का प्रत्यक्ष इसलिये नहीं होता है, क्योंकि उसका रूप स्फुट न होने से उसमें ‘सूक्ष्मता’ निहित रहती है और प्रत्यक्ष के बाधक घटकों में पदार्थगत सूक्ष्मता भी एक बाधक घटक है। यह सिद्धान्त सांख्य-योग दोनों दर्शनों में वर्णित हुआ है। स्वयं विज्ञानभिक्षु लिखते हैं –

‘त्रयमप्येतद्वस्तु स्वरूपसत्... न चानुपलम्भो बाधक: योगिप्रत्यक्षसिद्धस्य
सौक्ष्म्येणानुपलम्भोपपत्ते:। तथा च सांख्यसूत्रम् - ‘‘सौक्ष्म्यात्तदनुपलब्धि:’’
इति’। [29]

आकाशादि क्रम से महाभूत की उत्पत्ति श्रुति शास्त्र में जिस प्रकार वर्णित हुई है, उसी प्रकार योग के समानतन्त्र सांख्य में भी प्रतिपादित हुई है। स्वयं विज्ञानभिक्षु लिखते हैं-

‘श्रुतौ चाकाशादिक्रमेण महाभूतोत्पत्तिसिद्धेरिति समानतन्त्रन्यायेन
च सांख्येऽपीत्थमेव सिद्धान्त उन्नीयते’। [30]

इस प्रकार विज्ञानभिक्षु ने दोनों दर्शनों के ऐसे अनेक सन्दर्भों को उल्लिखित किया है, जिससे उनका समातन्त्रत्व सिद्ध हो सके।

सांख्य-योग में अन्तर- सांख्य-योग के समानतन्त्रत्व की पुष्टि हेतु विज्ञानभिक्षु ने जहाँ दोनों दर्शनों के समान सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला है, वहीं उनके अन्तर को भी योगवार्त्तिक में स्पष्ट किया है। विज्ञानभिक्षु का मत है कि सांख्य के समान योग में ‘अविद्या‘ शब्द का अर्थ ‘अविवेक’ नहीं है अपितु वैशेषिक आदि शास्त्रों के समान ‘अविद्या’ शब्द का अर्थ विशिष्ट ज्ञान है। स्वयं विज्ञानभिक्षु लिखते हैं- ‘अस्मिंश्च दर्शने सांख्यानामिवाविवेको नाविद्याशब्दार्थ:, किन्तु वैशेषिकादिवद् विशिष्टज्ञानमेवेति सांख्यसूत्राभ्यामवगन्तव्यम्’ [31] यहाँ अविद्या को विशिष्ट ज्ञान कहने का अभिप्राय उसके अभाव रूप (विद्या भाव रूप) का निषेध कर उसे विद्याविरोधी ज्ञानविशेष के रूप में स्थापित करना है। इस प्रकार विज्ञानभिक्षु ने सांख्य-योग में विद्यमान सैद्धान्तिक अन्तरों को भी स्थान-स्थान पर योगवार्त्तिक में प्रदर्शित किया है।

न्यायवैशेषिक सिद्धान्तों का खण्डन- योगवार्त्तिक में विज्ञानभिक्षु न्याय-वैशेषिक-सिद्धान्तों का भी यथावसर खण्डन करते चलते हैं। वे न्याय-वैशेषिक की पूर्वपक्ष स्थानीय मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में सांख्य योगाभिमत उत्तरपक्ष को प्रस्तुत करते हैं। इसके लिये योगवार्त्तिक के अधोलिखित वाक्य अवलोकनीय हैं-

  1. हि वैशेषिकादिवत् नित्येच्छाऽऽदिमान् रचत, एवेश्वरस्त्वयाऽप्यभ्युपगम्यते (1/24)।
  2. वैशेषिकैस्त्र्यणुकशब्देनोच्यते य: परिणामविशेष:, स एवात्राणीयानित्युक्: कार्येषु परमसूक्ष्मत्वाभावादिति (1/43)।
  3. तथेतरेतरसाहाय्येनोत्पादितावयविन: कार्यकारणाभेदेन, चारम्भवादाद्विशेष: (2/18)
  4. विशिष्यते व्यावर्त्यते द्रव्यान्तरादेभिरिति विशेषणानि विशेषगुणा:, वैशेषिकशास्त्रोक्ता: तै: कालत्रयेऽप्यसंबद्धा (चितिशाक्ति:) इत्यर्थ:। तेन संयोगसंख्यापरिमाणादिसत्त्वेऽप्यक्षति: (2/20)।
  5. ये तु वैशेषिकादयो ज्ञानाश्रयमात्मानं मन्यन्ते ते, श्रुतिस्मृतिविरोधनोपेक्षणीया: (2/20)।
  6. न वैशेषिकाणामिवोत्पत्तिकारणमस्मन्मते (2/28)।
  7. वैशेषिकोक्तपरमाणवोऽप्यस्माभिरभ्युपगम्यन्ते। ते चास्मद्दर्शने गुणशब्दवाच्या इत्येव विशेष: (3/52)।
  8. न हि नैयायिकानामिवास्माकम्, अन्त:करणभेदेनैकदाऽनवहितनानाशरीराधिष्ठानं न संभवेदिति (4/5)।
  9. ये तु वैशेषिकाश्चित्तम् अण्वेव सर्वदाऽभ्युपगचछन्ति, तन्मत एकदा, पञ्चेन्द्रियै: पञ्चवृत्त्यनुपपत्ति: (4।10)।
  10. एतेन चित्तनित्यत्वाभ्युपगमिनामपि न्यायवैशेषिकाणामुत्तरोत्तरज्ञानेन, पूर्वपूर्वज्ञानग्रहणकल्पना परास्ता (4।21)।

योगवार्त्तिक के संस्करण

अभी तक योगवार्त्तिक के चार संस्करण प्रकाशित हुए हैं। इनमें से तीन संस्कृत मूल के साथ मुद्रित हैं तथा चौथा पाठ भेद के साथ योगवार्त्तिक की हिन्दी व्याख्या वाला संस्करण है। योगवार्त्तिक के इन चार संस्करणों में से प्रथम संस्करण को छोड़कर शेष तीन संस्करणों का उल्लेख व्यासभाष्य के संस्करणों में किया गया है। योगवार्त्तिक का प्रथम संस्करण अन्य तीन संस्करणों की तुलना में सबसे पुराना है। सन 1883 ईस्वी में मुद्रित यह संस्करण मद्रास विश्वविद्यालय के केन्द्रीय ग्रन्थागार सन्दर्भ संख्या 52548 पर सरंक्षित है। इस संस्करण में योगवार्त्तिक के अतिरिक्त माधवीय धातुवृत्ति, कैवल्यरत्न, सटीकसंक्षेपशारीरक, चित्सुखी, वेदान्तपरिभाषा, पञ्चदशी, श्रौतपदार्थनिर्वचन, परिभाषेन्दुशेखर, खण्डनखण्डरवाद्य ये सभी दस ग्रन्थ संस्कृत मूल के साथ खण्डश: क्रमिक मुद्रित हुए हैं। दशग्रन्थीय इस संस्करण के प्रत्येक ग्रन्थ संस्कृत मूल के साथ खण्डश: क्रमिक मुद्रित हुए हैं। दशग्रन्थीय इस संस्करण के प्रत्येक ग्रन्थ का सम्पादन भिन्न-भिन्न विद्वानों द्वारा किया गया है। इसकी सचूना तत-तत ग्रन्थों के समाप्ति वाक्य से मिलती है। सांख्य योग के प्राध्यापक श्री तात्याशास्त्री रामकृष्ण तथा ज्योतिषशास्त्र के प्राध्यापक श्री केशवशास्त्री इन दो विद्वानों ने योगवार्त्तिक को सम्पादित किया है।

विज्ञानभिक्षु का समय

विज्ञानभिक्षु के समय के विषय में विद्वानों में मतभेद है। इनके स्थितकाल को लेकर दो विचारधाराएँ सामने आती हैं। कुछ इतिहासकार उन्हें सोलहवीं शताब्दी का बतलाते हैं तो कुछ विद्वान पीछे चौदहवीं शताब्दी में इन्हें ले जाते हैं। दोनों ने अपने-अपने मत के समर्थन में युक्तियाँ प्रस्तुत की हैं।

प्रथम मत- प्रो. ए. बी. कीथ, [32] श्रीयुत, एफ.ई. हाल,[33] रिचर्ड गार्वे,[34]प्रो. एस. विन्टरनित्स,[35] डॉ. एस.एन. दासगुप्ता,[36] तथा राधाकृष्णन् [37]आदि विद्वानों ने विज्ञानभिक्षु को सोलहवीं शताब्दी का आचार्य माना है। इन विद्वानों ने अपने मत के संदर्भ में निम्नलिखित युक्तियाँ प्रस्तुत की हैं-

  1. योगसूत्र के टीकाकार भावागणेश ने योगसूत्र पर वृत्तिग्रन्थ लिखते हुए ग्रन्थारम्भ[38] में विज्ञानभिक्षु के लिये ‘गुरु’ पद का प्रयोग किया है। इससे भावागणेश ने अपने को विज्ञानभिक्षु का शिष्य होना स्वीकार किया है। इससे गुरु-शिष्य की समकालिकता प्रतीत होता है। अत: विज्ञानभिक्षु के काल-निर्णय में भावागणेश की कृतियों को आधार बनाया जा सकता है।
  2. आयंगर पुस्तकालय मद्रास से सन 1944 ईस्वी में प्रकाशित बुलेटिन में अपने एक शोध-प्रपत्र में डॉ. पी.के. गोडे ने बनारस के मुक्ति-मण्डप पर लिखे गये ‘निर्णय-पत्र’ पर विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावागणेश के हस्ताक्षर अंकित होने की बात उद्घाटित की है।[39]इस निर्णय-पत्र का समय शक सं. 1505 (1583 ईस्वी) है। इससे विज्ञानभिक्षु का समय सोलहवीं शताब्दी सिद्ध होता है। ज्ञातव्य है कि इस ‘निर्णय-पत्र’ पर अंकित भावागणेश के हस्ताक्षर ‘भावये गणेश दीक्षित’ नाम से हैं। इन दो नाम-साम्यों का एक ही व्यक्ति विज्ञानभिक्षु का शिष्य भावागणेश सिद्ध होता है। इस मत की पुष्टि में गोडे महोदय आगे लिखते हैं कि तर्कभाषा की टीका तत्त्वबोधिनी के रचयिता गणेश दीक्षित (जिनके पिता का नाम गोविन्द और माता का नाम उमा था) और विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावागणेश दीक्षित (जिनके पिता का नाम विश्वनाथ और माता का नाम भवानी था) दोनों एक ही व्यक्ति हैं।

द्वितीय मत- आचार्य विज्ञानभिक्षु को चौदहवीं शताब्दी का आचार्य मानते हुए पं. उदयवीर शास्त्री[40] ने अपने ग्रन्थ ‘सांख्य दर्शन का इतिहास’ में पी.के. गोडे महोदय के उक्त मत के प्रति असहमति व्यक्त की है और अधोलिखित युक्तियाँ प्रस्तुत की हैं-

  1. निर्णय-पत्र पर अंकित ‘भावये गणेश दीक्षित’ के हस्ताक्षर को विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावागणेश का हस्ताक्षर मानना दो दृष्टियों से युक्तियुक्त नहीं है। पहली बात यह है कि दोनों व्यक्तियों के माता-पिता के नाम में परिलक्षित नाम-साम्य के आधार पर दोनों व्यक्तियों को एक नहीं कहा जा सकता है। दूसरी बात यह है कि ‘भावा’ और ‘भावये’ पद भिन्न-भिन्न हैं। ये दोनों पद किसी एक व्यक्ति के परिचायक नहीं हो सकते हैं। अत: ‘निर्णय-पत्र’ पर हस्ताक्षर करने वाले भावये गणेश दीक्षित को विज्ञानभिक्षु का शिष्य भावागणेश मानना उचित नहीं है। क्योंकि विज्ञानभिक्षु के शिष्य भावागणेश ने अपने नाम के साथ कहीं भी ‘दीक्षित’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है। अत: उक्त ‘निर्णय-पत्र’ को विज्ञानभिक्षु के काल-निर्धारण का मापदण्ड नहीं किया जा सकता है।
  2. प्रत्युत विज्ञानभिक्षु के काल-निर्धारण में उनसे पूर्ववर्ती एवं परवर्ती आचार्यों के अन्त:साक्ष्य ही सहायक सिद्ध हो सकते हैं। सदानन्दयति ने अद्वैत ब्रह्मसिद्धि में नामोल्लेख के साथ विज्ञानभिक्षु के मत का खण्डन [41] किया है। अत: विज्ञानभिक्षु सदानन्दयति के पूर्ववर्ती आचार्य है और अनिरुद्ध तथा महादेव वेदान्ती के परवर्ती आचार्य हैं। सांख्यप्रवचनभाष्य में विज्ञानभिक्षु ने अनिरुद्धवृत्ति में निर्दिष्ट पाठभेदों का स्थान-स्थान पर खण्डन किया है। उदाहरण के लिये अनिरुद्धसम्मत ‘प्रकृति-निबन्धना चेत्’ इस पाठ के आगे ‘बन्धना’ इस विशेषण पद का अध्याहार करने की बात विज्ञानभिक्षु ने की है।[42] एक दूसरे स्थान पर अनिरुद्धवृत्ति के ‘निमित्तकोऽप्यस्य’ पाठ के स्थान पर ‘निमित्ततोऽप्यस्य’ पाठ को विज्ञानभिक्षु ने उचित बतलाया है।[43] एक अन्य स्थान सपर ‘कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्च’ पाठ को साधु बतलाते हुए विज्ञानभिक्षु ने अनिरुद्धवृत्ति के ‘कैवल्यार्थं प्रकृते:’ पाठ को प्रामादिक होने से उपेक्षणीय कहा है।[44]
  3. सदानन्दयति ने अद्वैतब्रह्मसिद्धि में रामानुज तथा मध्व मत का तो खण्डन किया है किन्तु वल्लभ और निम्बादित्य के मत को उठाया ही नहीं है। इससे सदानन्दयति वल्लभ से पूर्व के आचार्य ठहरते हैं। वल्लभ का समय सन 1478 ईस्वी माना गया है। प्रो. कीथ ने भी सदानन्दयति को 1500 ईस्वी के आसपास माना है।[45]
  4. डॉ. सुरेश चन्द्र श्रीवास्तव ने अपने प्रकाशित शोध-प्रबन्ध ‘आचार्य विज्ञानभिक्षु और भारतीय जीवन में उनका स्थान’ में उपर्युक्त दोनों मतों में से किसी एक मत को पूर्णत: स्वीकार नहीं कर लिया है अपितु दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत युक्तियों में आंशिक असहमति व्यक्त करते हुए आचार्य विज्ञानभिक्षु को सोलहवीं शताब्दी का आचार्य मानने का प्रबल समर्थन किया है।

भास्वती का वैशिष्ट्य

हरिहरानन्द आरण्य ने व्यासभाष्य पर ‘भास्वती’ नाम की संस्कृत टीका लिखी। ग्रन्थारम्भ में उन्होंने योगयुक्त महर्षि व्यासदेव को सादर नमन किया है।[46] व्यथित व्यक्तियों के लिये योग दुरूह है और योगियों के लिये इष्टकामधुक है। यह महोज्ज्वल मणिस्तूप है और सत्यसंविदों का श्रेयमार्ग है।[47] हरिहरानन्द आरण्य ने भिन्न-भिन्न दार्शनिकों के प्रकथनों (मान्यताओं) के महार्णवस्वरूप व्यासभाष्य को योगप्रेमियों को आत्मसात कराने के लिये भास्वती टीका का प्रणयन किया।[48] उनकी भास्वती टीका तत्त्वनिश्चयप्रधाना, संक्षिप्ता तथा पदार्थावगाहिका है। फलत: शंका-समाधान की शास्त्रार्थपरक शैली से सर्वथा विनिर्मुक्त है।[49]

भास्वती के संस्करण

इस टीका के संस्करण देवनागरी एवं बंग लिपि में मिलते हैं। इनका विवरण अधोलिखित है –

  1. भास्वती का प्रथम संस्कृत मूल संस्करण पीछे व्यासभाष्य के उल्लिखित संस्करणों में तीसरा है। अत: वहीं द्रष्टव्य है।
  2. बंग लिपि में रूपान्तरित भास्वती के पाँच संस्करण हैं। ‘बंगला योगदर्शन’ नाम से कपिल मठ से मुद्रित भास्वती के दो संस्करण सन 1911 ईस्वी में तथा सन 1925 ईस्वी में प्रकाशित हुए हैं। शेष तीन संस्करण सन 1948, 1949 तथा 1967 ईस्वी में कलकत्ता विश्वविद्यालय से निकले हैं।

हरिहरानन्द आरण्य का समय

‘आरण्य’ हरिहरानन्द का उपनाम है जिससे उनका संन्यासी होना सिद्ध होता है। ये 18वीं शताब्दी के अन्तिम चरण के आचार्य हैं। त्रिलोकी आरण्य इनके गुरु थे। बिहार के मधुपुर नगर में निर्मित कृत्रिम गुफा में इन्होंने जीवन का अन्तिम भाग व्यतीत किया और वहीं संस्कृत भाषा में योगभाष्य पर भास्वती टीका का प्रणयन किया।

योगभाष्यविवरण का शब्द से ‘अण्’ प्रत्यय करके निष्पन्न ‘आरण्य’ शब्द का अर्थ संन्यासी है। इस प्रकार भौतिक सम्पदा एवं नगर के कोलाहल से दूर आत्मबोध में समाहित योगयुक्त को ‘आरण्य’ कहते हैं। श्रीमत शंकर भगवत्पाद ने योगभाष्य पर ‘विवरण’ टीका लिखी, जो ‘योगभाष्यविवरण’ नाम से प्रसिद्ध है। किसी मूल ग्रन्थ की व्याख्यान शैलियों में ‘विवरण’ भी एक शैली है। अप्रतिपत्ति, विप्रतिपत्ति तथा अन्यथाप्रतिपत्ति की परिधि से ऊपर निकाल कर किसी ग्रन्थ विशेष के शास्त्र सम्मत अभिप्रेत अर्थ को विवृत करना विवरणकार का दायित्व रहता है। योगभाष्यविवरणकार ने अपने दायित्व का सफल निर्वाह किया है। व्यासभाष्य पर लिखी गई इस संस्कृत टीका का महत्त्व तत्त्ववैशारदी एवं योगवार्त्तिक की तुलना में न्यून नहीं है। योगभाष्य पर लिखी गई यह स्वतन्त्र प्रौढ टीका है।

विषय प्रस्तुतीकरण में नवीनता

योगभाष्यविवरणकार ने अपनी मौलिक प्रतिभा से योगसूत्र तथा व्यासभाष्य के मर्म को विशदीकृत किया है। फलत: विषय-प्रस्तुतीकरण में नवीनता परिलक्षित होती है। उदाहरण के लिये ‘अथ योगानुशासनम्’ सूत्र की विवरण टीका का अवलोकन किया जाय। विवरणकार ने ग्रन्थारम्भ से पूर्व किसी भी शास्त्र, जैसे प्रकृत में योगशास्त्र, में पुरुष को प्रवृत्त कराने के लिये उस शास्त्रा विशेष के सम्बन्ध एवं प्रयोजन को सर्वप्रथम प्रकट करना आवश्यक बतलाया है, क्योंकि शास्त्रविशेष के सम्बन्ध एवं प्रयोजन के ज्ञात न रहने पर उस शास्त्र के प्रति पुरुष् की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती है। विवरणकार का मानना है कि इसीलिए योग के ‘परिणामतापसंस्कारदु:खैर्गुणवृत्तिविरोधच्च दु:खमेव सर्वं विवेकिसन: (1/15) सूत्र द्वारा योग का प्रयोजन निर्दिष्ट हुआ है। जिस प्रकार रोग, रोग हेतु, आरोग्य तथा भैषज्य ये चार चिकित्साशास्त्र के आधार स्तम्भ हैं, उसी प्रकार हेय, हेयहेतु, हान तथा हानोपाय ये चार योगशास्त्र के व्याख्येय बिन्दु हैं। ‘आरोग्य’ स्थानीय ‘कैवल्य’ योगशास्त्र का परम प्रयोजन है। योगभाष्यविवरण में ग्रन्थकर्ता ने अनेक नवीन प्रश्नों को उठाकर उनका समाधान पक्ष प्रस्तुत किया है। नूतन शब्द प्रयोग एवं विशिष्ट व्याख्यान-शैली से ओतप्रोत ‘योगभाष्यविवरण’ टीका विवरणकार की अनूठी कृति है।

योगभाष्यविवरण के संस्करण

योगभाष्यविवरण का एक ही संस्कृत मूल संस्करण सन 1952 ईस्वी में मद्रास से प्रकाशित हुआ है। प्रो. पोलकम मु. श्रीरामशास्त्री तथा प्रो. एस.आर. कृष्णमूर्त्ति ये दो विद्वान इस संस्करण के सम्पादक हैं। प्रस्तुत संस्करण के प्रास्ताविक में सम्पादकद्वय ने इसे एक ही पाण्डुमातृका का संशोधित रूप बतलाया है। सम्बद्ध पाण्डुमातृका भी राजकीय प्राच्य ग्रन्थाकारा, मद्रास में अद्यावधि सुरक्षित है। इसके सम्भावित पाठ भेदों को कोष्ठक में रखा गया है।

योगभाष्यविवरणकार भगवत्पाद शंकराचार्य एवं उनका समय=

जिस प्रकार योग-सूत्र एवं व्यासभाष्य के कर्त्ताओं के विषय में इतिहासवेत्ताओं में मतैक्य नहीं है, उसी प्रकार योगभाष्य की विवरणटीका के कर्त्ता के विषय में भी सन्देह बना हुआ है कि क्या श्रीपरमेश्वरावतारभूत भगवत्पाद श्रीशंकराचार्य ही योगभाष्य के विवरणकर्त्ता भी हैं अथवा इन दोनों शास्त्रों के रचयिता भगवत्पाद नाम के दो पृथक् व्यक्ति हैं?

ब्रह्मसूत्रभाष्य कर्ता तथा योगभाष्विवरण कर्त्ता एक व्यक्ति=

मुद्रित ‘योगभाष्यविवरण’ के सम्पादक मण्डल ने ब्रह्मसूत्र भाष्य तथा योगसूत्र विवरण की व्याख्यान-शैली में परिलक्षित एकरूपता के आधार पर दोनों टीकाओं का एक ही कर्ता होना स्वीकार किया है तथा अधोलिखित युक्तियाँ की हैं-

  1. प्रस्थानत्रय के भाष्यग्रन्थ एवं योगसूत्र के भाष्यविवरण के प्रत्येक पाद की समाप्ति पर एक जैसी शब्दावली का प्रयोग हुआ है।[50] इससे श्रीगोविन्द भगवत पूज्यपाद के शिष्य परमहंस परिव्राजकाचार्य श्रीशंकराचार्य को योगसूत्रभाष्य का विवरणकर्ता भी होना चाहिये। ऐसा आदर्शकोश में स्पष्टत: उल्लिखित हैं।
  2. जिस प्रकार से अन्य प्रस्थान-ग्रन्थों से भी पतंजलि का योगसूत्र का कर्ता होना तथा वेदव्यास का योगभाष्य का कर्त्ता होना सिद्ध होता है उस प्रकार से योगभाष्यविवरण के कर्त्ता भगवत्पाद श्रीशंकर के नाम की पुष्टि तो नहीं होती है, फिर भी योगभाष्यविवरण टीका के प्रत्येक पाद की पुष्पिका में उल्लिखित तथ्य को ही प्रमाणस्वरूप मानना चाहिए।
  3. अनेक ग्रन्थों के प्रारम्भ में परिलक्षित व्याख्यान-शैली की समानता से भी दोनों उक्त ग्रन्थों के कर्त्ता के भिन्न-भिन्न होने का सन्देह दूर हो जाता है। योगभाष्यविवरणकार की ग्रन्थारम्भ की शैली छान्दोग्य के भाष्योपक्रम तथा आपस्तम्ब धर्मसूत्र के प्रथम प्रश्न के अष्टम पटल के विवरणोपक्रम के समान है। अत: प्रस्थानत्रय के भाष्यकार भगवत्पाद श्रीशंकराचार्य को ही योगभाष्यविवरण का कर्त्ता भी मानना चाहिए। छान्दोग्य पर भाष्य प्रारम्भ करते हुए श्री भगवत्पाद लिखते हैं- ‘ओमित्येतदक्षरमित्याद्यष्टाध्यायी छान्दोग्योपनिषत्। तस्या: संक्षेपतोऽर्थजिज्ञासुभ्य: ऋजुविवरणमल्पग्रन्थमिदमारभ्यते।’ आपस्तम्ब धर्मसूत्र का प्रारम्भ करते हुए श्रीभगवत्पाद लिखते हैं- ‘अथ आध्यात्मिकान् योगान् इत्याद्यध्यात्मपटलस्य संक्षेपतो विवरणं प्रस्तूयते।‘ इसी प्रकार का प्रारम्भ योगभाष्य की विवरण टीका में मिलता है- ‘अथेत्यादिपातञ्जलयोगशास्त्रविवरणमारभ्यते।’
  4. इतना ही नहीं, तत-तत ग्रन्थों के प्रमेय-प्रतिपादन की शैली में परिलक्षित सादृश्य से भी इन ग्रन्थों के एक ही कर्ता भगवत्पाद शंकराचार्य के नाम की पुष्टि होती है-

पूर्वपक्ष- यहाँ कुछ विज्ञजन ऐसी आशंका करते हैं कि ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार भगवत्पाद को ही योगभाष्यविवरण का भी कर्त्ता मानना उचित नहीं है। क्योंकि वेदान्त दर्शन में ‘एतेन योग: प्रत्युक्त:’ वाक्य द्वारा योग को निराकृत किया है। इस प्रकार योगसूत्र की प्रामाणिकता पर सन्देह करने वाले एक ही भगवत्पाद शंकराचार्य को योगभाष्यविवरण का कर्त्ता मानना युक्तियुक्त नहीं हैं। उत्तरपक्ष - उक्त आशंका इस प्रकार समाधेय है- ब्रह्मसूत्र तथा उसके भाष्यकार द्वारा न तो योग का सर्वथा निराकरण किया गया है और न ही उसे अप्रमाण रूप से स्वीकार किया गया है। वेदव्यास के हृद्गत भाव को समझने वाले भगवत्पाद शंकराचार्य ने योगप्रयुक्त्यधिकरण में लिखा है कि ‘सम्यग्दर्शनाभ्युपायो हि योग: वेदे विहित:’ अर्थात् वेदमें सम्याग्दर्शन के उपायरूप से योग का प्रतिपादन हुआ है। उपनिषदों में आये योग के वचनों से भी भगवत्पाद के इस कथन को परिपुष्ट किया जा सकता है। जैसा कि ‘श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य: (बृहदारण्यक उप- 2/4/5), तथा ‘त्रिरुन्नतं स्थाप्य समं शरीरम्: (श्वेताश्वतर उप- 2/8) इन वाक्यों द्वारा श्वेताश्वतर आदि उपनिषदों में योग की स्थापना की गई है। इसी प्रकार योगविषयक अनेक वैदिक वाक्य भी मिलते हैं, जैसे- ‘तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्’ (का.उ. 2/6/11), ‘विद्यायेतां योगविधिं च कृत्स्नम्।’ योगशास्त्र में भी ‘अथ तत्त्वदर्शनाभ्युपायो योग:’ इस वाक्य द्वारा योग को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय कहा गया है। इससे औपनिषद योग की मान्यता ही समर्थित हुई है। तथ्यपूर्ण बात यह है कि वेदनिरपेक्ष रहकर सांख्यज्ञान अथवा योगमार्ग के द्वारा नि:श्रेयस की प्राप्ति ही नहीं हो सकती है। श्रुति भी आत्मैकत्व के प्रतिपादक वैदिक विज्ञानमार्ग से भिन्न किसी अन्य मार्ग को नि:श्रेयस का साधन होने का खण्डन करती है। श्रुतिवाक्य है -‘तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय’ (श्वेताश्वतर उप. 3/8)। इस प्रकार उपनिषत् प्रतिपादित तत्त्वज्ञान के प्रति अन्य शास्त्र की अपेक्षा रहने से उपकार की दृष्टि से वेदान्तदर्शन के भाष्यकार भगवत्पाद शंकराचार्य ने ही योगभाष्य पर ‘विवरण’ नामक टीका लिखी। ऐसा ग्रन्थान्तर्वर्ती प्रमाणों से सिद्ध होता है। वेदान्त की भाँति योग में आत्मा का एकत्व प्रतिपादित- भगवत्पाद ने उपनिषत् प्रतिपादित आत्मा के एकत्व (अद्वैत) ज्ञान को आलम्बन बनाकर न केवल योगभाष्यविवरण टीका का प्रणयन किया है, अपि तु स्वयं योगसूत्रकार भगवान् पतञ्जलि ने भी ‘आत्माद्वैत’ पक्ष का समर्थन किया है। ‘कृतार्थं प्रति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वात् (2/22)-इस सूत्र के द्वारा पतञ्जलि ने जगत् के मिथ्यात्व को व्यवहृत किया है। श्रीमाधवाचार्य ने सूतसंहिता-तात्पर्यदीपिका के यज्ञवैभव खण्ड के अष्टम अध्याय के विवरणावसर पर उक्त सूत्र द्वारा प्रतिपादित जगत् के मिथ्यात्वपक्ष के अभिप्राय को प्रदर्शित किया है। श्री माधवाचार्य का कथन है- सांख्य तथा पातञ्जल आचार्य यद्यपि व्यवहारदशा में प्रकृति-प्राकृत-लक्षणक प्रपञ्च (जगत्) का सत्यत्व तथा आत्मा का अनेकत्व प्रतिपादित करते हैं तथापि वे कैवल्य दशा में आत्मप्रकाश के अतिरिक्त सम्पूर्ण जगत् का अनवभास बतलाते हैं। क्योंकि आत्मा के यथार्थज्ञानलक्षणक प्रकृति-पुरुष के भेदज्ञान से कैवल्य की प्राप्ति होती है। इस प्रकार के ज्ञानोत्तर काल में जब प्रकृति-प्राकृतात्मक जगत् सर्वथा अनवभासित रहता है तब उसके अस्तित्व को कैसे प्रमाणित किया जा सकता है, क्योंकि ‘ज्ञेय’ की सिद्धि ज्ञान के अधीन होती है। अत: आत्मा के याथात्म्यज्ञान से जगत् की निवृत्ति हो जाती है। इस प्रकार अनवभासित प्रपञ्च की ज्ञान द्वारा निवृत्ति हो जाने से उसका मिथ्यात्व भी स्वत: सिद्ध हो जाता है। प्रकारान्तर से उक्त तथ्य को इस प्रकार व्याख्यायित किया है- ‘कृतार्थं प्रति... (2/22) इस सूत्र के द्वारा पतञ्जलि ने जगत् का ‘अभाव’ और ‘सद्भाव’ दोनों को प्रतिपादित किया है। मुक्त पुरुष की दृष्टि से पुरुष-प्राकृतिक स्वरूप जगत् नष्ट हो जाता है किन्तु बद्ध पुरुष की अपेक्षा से यह जगत् विद्यमान ही रहता है। पर्यवसित रूप से जगत् का मिथ्यात्व ही सिद्ध होता है। लौकिक जगत् में पुरुषविशेष की अपेक्षा से जैसे एक ही वस्तु का सद्भाव और असद्भाव दोनों शुक्तिरूप्यादि में परिलक्षित होते हैं। काच, कामलादि नेत्रदोष से युक्त व्यक्त् को शुक्ति में रजत का सद्भाव प्रतीत होता है तथा तद्भिन्न दोषरहित व्यक्ति शुक्ति को शुक्तित्व रूप से गृहीत करता हुआ उसमें रजत के असद्भाव को प्रतिपादित करता है। यह घटादि रूप जगत् पुरुषविशेष के प्रति पारमार्थिक रूप से एक साथ सद्भाव और असद्भाव दोनों को प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार स्वरूपज्ञान न होने तक विद्यमान रहने वाला और स्वरूपज्ञान के पश्चात् प्रतिभासित न होने वाला यह प्रपञ्च (जगत्) वेदान्तियों की भाँति सांख्यवादियों के मत में भी मिथ्या ही सिद्ध होता है। यद्यपि योगसूत्र 2/22 में ‘नष्ट’ शब्द ‘नाशोऽदर्शनम्’ के अनुसार ‘अदर्शन’ अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और योग के व्याख्याकारों ने भी ऐसा ही अर्थ किया है, तथापि मेय की सिद्धि मान के अधीन होने से युक्त पुरुष की दृष्टि से दर्शनागोचर प्रपञ्च का असद्भाव ही पर्यवसित होता है। इस विषय में किसी को विप्रतिपत्ति नहीं होनी चाहिए। क्योंकि इस सन्दर्भ में नाश को ‘अदर्शन’ रूप माना जाय अथवा उसे ‘निवृत्ति’ रूप कहा जाय, दोनों स्थितियों में फल तुल्य ही रहता है। इस दृष्टि से भी ब्रह्मसूत्र के भाष्यकर्त्ता और योगसूत्र भाष्य के विवरणकर्त्ता एक ही भगवत्पाद शंकराचार्य सिद्ध होते हैं। योगसिद्धान्तचन्द्रिका योगसूत्र की स्वतन्त्र टीका- योगसूत्र पर नारायणतीर्थ ने योगसिद्धान्तचन्द्रिका नाम की स्वतन्त्र टीका लिखी। व्यासभाष्यानुसारी होते हुए भी न तो इसे व्यासभाष्य की टीकाओं में परिगणित किया जा सकता है और न ही इसे योग के वृत्ति-ग्रन्थों की श्रेणी में रखा जा सकता है। क्योंकि सूत्रार्थ की परिधि से बाहर इसमें यौगिक सिद्धान्तों को व्यापक स्तर पर समझाया गया है और योगसूत्र पर सूत्रार्थबोधिनी नाम की वृत्ति नारायणतीर्थ ने लिखी है। योगसिद्धान्तचन्द्रिका में नवीन विषयों की उद्भावना- नारायणतीर्थ की पाण्डित्यपूर्ण मेधा जहाँ एक और योगभाष्य और भाष्यटीकाओं में प्रतिपादित योग के सिद्धान्तों का समर्थन करती है वहीं दूसरी ओर योगविषयक नवीन विषयों की उद्भावना भी करती है। नारायणतीर्थ की यह मौलिक कृति योग के विवादपूर्ण स्थलों के स्पष्टीकरण हेतु विभिन्न मतों में से किसी एक मत को जब अक्षरश: स्वीकार करती है तब अस्वीकृत मतों के खण्डनार्थ युक्तियों का ताना-बाना नहीं बुनती है। योग के पूर्वाचायों के मतों को यथावत् मानती चलती है। अवतारवाद, षट्कर्म, षट्चक्र, कुण्डलिनी आदि नवीन विषयों की चर्चा योगसिद्धान्तचन्द्रिका में हुई है। इससे पातञ्जल योग के नवीन विषयों की ओर अनुसन्धित्सुओं का ध्यान आकृष्ट कराया गया है। भारतीय दर्शन-धरा पर प्रवहमाण ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की त्रिधारा से कौन परिचित नहीं है। किन्तु नारायणतीर्थ की योगसिद्धान्तचन्द्रिका में योग की अनेक धाराओं का उल्लेख हुआ है।[51] ये राजयोग अर्थात् असम्प्रज्ञात योग को प्राप्त करने के क्रमिक सोपान हैं। नारायणतीर्थ की अलौकिक बुद्धि योग के अध्येताओं को तब सर्वाधिक प्रभावित करती है जब योग का लक्षण, निद्रा का स्वरूप, प्रणवार्थविवेचन तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा की उपादेयता स्थापित करने में उन्होंने पूर्वपक्षी के साथ प्रबल शास्त्रार्थ किया है। इनके द्वारा प्रतिपादित इन अकाटय युक्तियों से पातञ्जल योग के परम्परागत सिद्धान्तों को किसी प्रकार की क्षति भी नहीं पहुँचती है। नारायणतीर्थ ने अनेक स्थलों पर ‘अत्र भाष्यम्’[52] तथा ‘भाष्यार्थस्तु’[53] कहकर योगसिद्धान्तचन्द्रिका की भाष्यानुसारिता को प्रदर्शित किया है। योगसिद्धान्तचन्द्रिका के संस्करण- योगसिद्धान्तचन्द्रिका का सम्पादित संस्कृत मूल का एक ही संस्करण उपलब्ध है। यह चौखम्बा संस्कृत सीरिज वाराणसी से सन् 1911 ईस्वी में मुद्रित हुआ है। ज्ञातव्य है कि यह एक खण्डित संस्करण है। योगसूत्र के चतुर्थ पाद के तीसरे सूत्र की टीका पर्यन्त की यह संस्करण प्रकाशित हुआ है। इतना ही नहीं, ‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’ (1/22) सूत्र के आगे 26वें सूत्र तक की टीका भी इसमें नहीं मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रस्तुत टीका के सम्पादक को इसकी खण्डित पाण्डुमातृका ही हाथ लगी। अत: टीका भी खण्डित रूप में प्रकाशित हो सकी है। यह नैराश्य की बात है। नारायणतीर्थ का समय- नारायणतीर्थ के गुरु का नाम श्रीरामगोविन्द था। सांख्यकारिका पर चन्द्रिका[54] टीका लिखते समय उन्होंने इसे स्वीकार किया है। विज्ञानभिक्षु के बाद के ये आचार्य हैं। अत: नारायणतीर्थ का समय सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध अथवा सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध सिद्ध होता है। योगसूत्र पर लिखित वृत्तिग्रन्थ योगसूत्र पर लिखे गये वृत्तिग्रन्थों का विवरण प्रारम्भ करने से पूर्व ‘वृत्ति‘ पद के अर्थ को तथा वृत्तिकार द्वारा वृत्त्यात्मक टीका-लेखन के उद्देश्य को समझ लेना अत्यावश्यक है। ‘वृत्ति’ शब्द का अर्थ एवं वृत्तिकार का उद्देश्य- व्याकरण, न्याय, सांख्य, वेदान्त, काव्य आदि शास्त्रों में ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं है, जिसमें ‘वृत्ति’ शब्द का प्रयोग न मिलता, हो। तत्-तत् शास्त्रों में तत्-तत् अर्थविशेषों में रूढ ‘वृत्ति’ शब्द अपने-अपने शास्त्र के अभिप्रेत अर्थ में संकुचित रहता है। यहाँ शास्त्र की व्याख्यान-शैली की एक विधा को प्रदर्शित करने वाले ‘वृत्ति’ शब्द का अर्थ है- विवरण। इस अर्थ में ‘विवृत्ति’ शब्द का भी प्रयोग किया जाता है। सूत्रात्मक मूल ग्रन्थ पर टीका लिखने की यह एक विशिष्ट पद्धति है। ‘सूत्रार्थप्रधाना वृत्ति:’- वृत्ति के इस लक्षण से वृत्तिकार के वृत्त्यात्मक टीका-लेखन के उद्देश्य एवं ग्रन्थ की परिधि का बोध हो जाता है। सूत्रार्थ को प्रधान रूप से विवृत करने वाला ग्रन्थ वृत्तिग्रन्थ कहलाता है। ‘वृत्ति’ शब्द का यही अर्थ यहाँ अभिप्रेत हैं। वृत्त्यात्मक टीकाकार का ध्येय सूत्रार्थ-प्रतिपादन में ही अपने को केन्द्रित (सीमित) रखना होता है। उसकी लेखनी शास्त्र-शास्त्रान्तरों के मत-मतान्तरों के खण्डन-मण्डन के व्यामोह से सर्वथा दूर रहती है। इसका परिणाम यह होता है कि शास्त्रगत मूलभूत सिद्धान्तों को पाठकों तक पहुँचाने में वह अपने को समर्थ पाता है। अत: किसी मूल ग्रन्थ की व्याख्या-परक विधाओं में-भाष्य, वार्त्तिक , विवरण, टीका आदि पद्धतियों की तुलना में- ‘वृत्ति’ विधा का कुछ कम महत्व नहीं हैं। योगसूत्र पर अनेक वृत्तियाँ लिखी गईं। इन वृत्तियों को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- प्रकाशित वृत्तियाँ तथा अप्रकाशित वृत्तियाँ। योगसूत्र की प्रकाशित वृत्तियाँ- योगसूत्र की प्रकाशित वृत्तियों को पीछे गिनाया जा चुका है। अब वृत्ति और वृत्तिकर्त्ता का कलक्रमानुगत विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है- राजमार्तण्डवृत्ति का वैशिष्ट्य- योगसूत्र पर लिखी गई वृत्तियों में ‘राजमार्तण्ड’ प्राचीनतम प्रसिद्ध वृत्ति है। इस वृत्ति के रचयिता भोजदेव के नाम से इसे ‘भोजवृत्ति’ भी कहा जाता है। योगसूत्र पर लिखी गई वृत्तियों में इसे वृत्तिराज कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। ग्रन्थारम्भ में वृत्ति-टीका के उद्देश्य को रेखांङ्कित करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘‘इस ‘विवृत्ति’ टीका का उद्देश्य न तो ग्रन्थ-विस्तार है और न ही वितर्कजाल में फँसकर ग्रन्थ के सारतत्त्व का अन्तर्हित करना है। इसका प्रयोजन योग के अध्येताओं को योग-सूत्रों का एकमात्र सम्यक् अर्थावबोध कराना है’’।[55] उल्लेखनीय तथ्य यह है कि चतुर्थ पाद के अन्तिम 34वें सूत्र की भोजवृत्ति का अनुशीलन करते समय योग का अध्येता यह भूल जाता है कि वह किसी वृत्तिग्रन्थ की समापन-पंक्तियों का अध्यायन कर रहा है। इस सूत्र की वृत्ति में भोजदेव का मौलिक चिन्तन आत्मा के स्वरूप के विश्लेषण में चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुआ है। अन्य दार्शनिकों द्वारा मान्य आत्मा के स्वरूप का खण्डन तथा योगानुमोदित आत्मस्वरूप का प्रतिपादन जैसा इस वृत्तिग्रन्थ में मिलता है, वैसा विवेचन व्यासभाष्य अथवा भाष्य की किसी टीका में भी परिलक्षित नहीं होता है। भोजवृत्ति के संस्करण- योगसूत्र पर लिखी गई वृत्तियों में सर्वाधिक संस्करण भोजवृत्ति के ही उपलब्ध होते हैं। स्थानाभाववश भोजवृत्ति के प्रमुख प्राचीन संस्करणों को ही दिग्दर्शित किया जा रहा है- 1. आंग्लभाषा में अनूदित भोजवृत्ति का प्रथम संस्करण ‘पतञ्जलि योगसूत्र’ के नाम से सन् 1883 ईस्वी में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ है। 2. हिन्दी भाषा में अनूदित भोजवृत्ति का एक अन्य संस्करण सन् 1896 ईस्वी में दानापुर बिहार से प्रकाशित है। इसके अनुवादक एवं सम्पादक श्री रुद्रदत्त शर्मा हैं। 3. श्री काशीनथ शास्त्री अगासे द्वारा सम्पादित भोजवृत्ति का एक अन्य संस्कृत मूल संस्करण आनन्दाश्रम पूना मुद्रणालय से सन् 1919 ईस्वी में प्रकाशित हुआ है। 4. पं. ढुण्ढिराज शास्त्री ने योगसूत्र की छह वृत्तियों को सम्पादित किया। इसमें भोजवृत्ति भी है। यह संस्करण सन् 1930 ईस्वी में चौखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी से प्रकाशित हुआ है। सन् 1982 में इसकी द्वितीय आवृत्ति प्रकाशित होने के कारण यह संस्करण सरलतापूर्वक सुलभ है। 5. स्वामी विज्ञानाश्रम महाराज द्वारा हिन्दी में अनूदित भोजवृत्ति का एक अन्य संस्करण सन् 1961 ईस्वी में मदनलाल लक्ष्मीनिवास, अजमेर से प्रकाशित हुआ है। भोजदेव का स्थितिकाल- इतिहासकार ऐसा मानते हैं कि योगसूत्र के सुविख्यात वृत्तिकार भोजदेव शिशुपालवध के रचयिता माघ के समकालीन रहे। ये मालवदेश के शासक थे मालव को धारा नाम से भी जाना जाता था। अत: भोजदेव की ‘धारेश्वर’ नाम से भी प्रसिद्धि रही। ये दसवीं शताब्दी के अन्त में या ग्यारहवीं शताब्दी के आस-पास के हैं। डॉ. भण्डारकर ने अपने ग्रन्थ ‘अर्लि हिस्ट्री आफ दि डेक्कन’ में भोज को ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध का माना है।[56] डॉ. बुलहट ने विक्रमाङ्कदेवचरित की भूमिका में पृष्ट संख्या उन्नीस पर भोज का समय इससे कुछ बाद का माना है और उसके प्रमाण रूप में राजतरङ्गिणी के अधोलिखित श्लोक को उद्धृत किया है- स च भोज नरेन्द्रश्च दानोत्कर्षेण विश्रुतौ। सूदि तस्मिन् क्षणे तुल्यौ द्वावास्तां कविबान्धवौ॥ इस प्रकार राजमार्तण्ड के रचयिता भोजदेव इतिहासप्रसिद्ध आचार्य हैं। सूत्रार्थबोधिनी का परिचय- सूत्रार्थबोधिनी के रचयिता नारायणतीर्थ हैं। इनका ऐतिहासिक परिचय योगसिद्धान्तचन्द्रिका के प्रकरणावसर पर पीछे दिया जा चुका है। योगसूत्र पर ‘सूत्रार्थबोधिनी’ इनकी दूसरी रचना है। इनका यह वृत्तिग्रन्थ योगसिद्धान्तचन्द्रिका की भाँति खण्डित नहीं है। यह सम्पूर्ण प्रकाशित हुआ है। अभी तक इसका एक ही संस्कृतमूल संस्करण निकला है। यह संस्करण सन् 1911 ईस्वी में चौखम्भा संस्कृत सीरिज, वाराणसी से प्रकाशित हुआ है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि एक ही टीकाकार नारायणतीर्थ के योगिविषयक विचार उनकी इन दोनों टीकाओं में कुछ पृथक् रूप से रेखांङिकत हुए हैं। एक ओर जहाँ वे वाचस्पति मिश्र के योगविषयक मान्यताओं का प्रबल समर्थन करते हैं, वहीं दूसरी ओर वाचस्पति मिश्र से भिन्न विचारधारा वाले विज्ञानभिक्षु की योग-दृष्टि से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। अत: योगसिद्धान्तचन्द्रिका से सूत्रार्थबोधिनी का महत्त्व कम नहीं है। योगदीपिकावृत्ति का स्वरूप- भावागणेश ने योगसूत्र पर ‘योगदीपिका’ वृत्ति लिखी। यह ‘भावागणेशीय योगसूत्रवृत्ति’ नाम से भी विख्यात है। इस वृत्ति में भाष्य में प्रतिपादित एवं योगवार्त्तिक में व्यापक स्तर पर परीक्षित सिद्धान्तों को ही संक्षेप से प्रस्तुत किया गया है। ऐसी वृत्तिकार प्रतिज्ञा करते हैं।[57] इस प्रकार योगदीपिका को विज्ञानभिक्षुमतानुसारी वृत्ति कहा जा सकता है। किन्तु योगवार्त्तिक की भाँति यह टीका बृहत् नहीं है। इसमें पञ्चतप्य:, संवेग:, ज्वलनम्, विदुष: आदि योगसूत्रीय पदों की व्याख्या द्रष्टव्य हैं। योगदीपिका के संस्करण- भावागणेशीय योगसूत्रवृत्ति ‘योगदीपिका’ मूल के दो संस्करण ही मिलते हैं। वर्णन अधोलिखित हैं- 1. पंडित महादेव शास्त्री द्वारा सम्पादित योगदीपिका का संस्कृत मूल का संस्करण सन् 1917 ईस्वी में निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित हुआ है। यह संस्करण दुर्लभप्राय है। 2. इसका द्वितीय संस्करण भोजवृत्ति वाला चतुर्थ संस्करण है। भावागणेश का समय- सांख्य और योग के व्याख्याकार भावागणेश का ‘भट्ट’ उपनाम था। इस बात की पुष्टि योगदीपिका की पादसमापिका पुष्पिका[58] से होती है। ये विज्ञानभिक्षु के श्रेष्ठ शिष्यों में एक थे। अत: भावागणेश का विज्ञानभिक्षु का समकालिक आचार्य होना सिद्ध होता है। नागेशभट्टीय योगसूत्रवत्ति का वैशिष्टय- नागेशभट्ट ने योगसूत्र पर ‘लघ्वी’ और ‘बृहती’ दो टीकाएँ लिखी हैं। ये दोनों टीकाएँ नागेशभट्ट के नाम से विख्यात हैं। इनकी लघ्वी योगसूत्रवृत्ति योगवार्त्तिकानुसारी है। इसमें योगसूत्र के विवादित पदों का अर्थ विज्ञानभिक्षु के अनुसार किया है। इनकी बृहती योगसूत्र-टीका की दो दृष्टियों से विलक्षणता है। इसमें विज्ञानभिक्षु के योगसम्मत मतों के साथ-साथ वाचस्पति मिश्र के विज्ञानभिक्षु विरोधी सिद्धान्तों को भी यथावसर स्वीकार किया गया है। यह इसकी पहली विलक्षणता है। इसकी आश्चर्यमयी द्वितीय विलक्षणता यह है कि इसकी भाषा-शैली अक्षरश: योगवार्त्तिक की है। योगवार्त्तिक के ग्रन्थारम्भ सम्बन्धी प्रारम्भिक अंश को यदि छोड़ दिया जाय तो नागेशभट्ट की यह ‘बृहती योगसूत्रवृत्ति’ को ‘योगवार्त्तिक’ की प्रतिलिपि कहा जा सकता है। यहाँ इतने बड़े प्रथित ख्यातिमन्त उद्भट वैयाकरण नागेशभट्ट की इस बृहती वृत्ति का योगवार्त्तिक की प्रतिच्छाया प्रतीत होना उसके ग्रन्थकार के विषय में सन्देह को उत्पन्न करता है। किसी पूर्ववर्ती आचार्य द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का प्रबल पक्षधर होने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि उसकी भाषा-शैली को भी अक्षरश: आत्मसात् कर लिया जाय? एक ही विषय पर तत्-तत् टीकाकारों द्वारा लिखी गई अनेक टीकाओं में समाविष्ट भाषा-शैली की विविधता एवं नवीनता ही अपने-अपने ढंग से मूल ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय का बोध कराने में परम सहायक सिद्ध होती है। नागेशभट्टीय योगसूत्रवृत्ति के संस्करण- नागेशभट्ट की बृहती योगसूत्रवृत्ति का एक ही संस्करण मिलता है। यह संस्करण डिपार्टमैन्ट आफ पब्लिक इन्स्ट्रक्शन, बम्बई से सन् 1917 ईस्वी में प्रकाशित हुआ है । इसके सम्पादक पं. वासुदेव शास्त्री हैं। लघ्वीयोगसूत्रवृत्ति के दो संस्करण हैं। पण्डित महादेव शास्त्री द्वारा सम्पादित इसका प्रथम संस्करण सन् 1917 ईस्वी में निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित हुआ है। इसका द्वितीय संस्करण राजमार्तण्ड का चतुर्थ संस्करण है। नागेशभट्ट का काल- निर्धारण- संस्कृत ग्रन्थों में नागेश भट्ट का नागोजी भट्ट नाम भी मिलता है। योगसूत्र की पाद- समापिका पुष्पिका में भी उन्होंने नागोजी भट्ट नाम का प्रयोग किया है।[59] इनके पिता का नाम शिवभट्ट तथा माता का नाम सती देवी था। इनके व्याकरणशास्त्र के गुरु का नाम हरिदत्त दीक्षित था। ये भट्टोजिदीक्षित के पुत्र थे। नागेशभट्ट के शिष्यों में वैद्यनाथ पायगुंडे का नाम प्रसिद्ध हे। भावागणेश के परवर्ती आचार्यों की श्रृंखला में नागेशभट्ट आते हैं। अत: नागेशभट्ट का समय सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध अथवा सत्रहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना गया है। वाचस्पति गैरोला लिखते हैं-[60] ‘भानुदत्त की रसमञ्जरी पर लिखी गई नागेश की टीका की एक हस्तलिखित प्रति इण्डिया आफिस के सूची-पत्र में उद्धृत है, जिसे 1767 ईस्वी में लिख गया। अत: नागेशभट्ट इससे पूर्व हुए।’ मणिप्रभा टीका का विशिष्ट स्थान- रामानन्द यति ने योगसूत्र पर ‘मणिप्रभा’ वृत्ति लिखी। योग के वृत्तिग्रन्थों में पणिप्रभा का विशिष्ट स्थान है। वृत्ति के प्रारम्भिक श्लोक में पतञ्जलि एवं व्यासदेव को प्रमाण करते हुए रामानन्द यति ने मणिप्रभा को योगभाष्यानुसारी वृत्ति बतलाया है।[61] इसमें व्यासभाष्य की पंक्तियाँ स्थान-स्थान पर उद्धृत हैं। ये वाचस्पति मिश्र के योगविषयक विचारों से सर्वाधिक प्रभावित हुए। इन्होंने वाचस्पति मिश्र की भाँति स्पष्ट शब्दों में तन्मात्राओं को बुद्धिकारणक[62] बतलाया है। मणिप्रभा अत्यन्त लोकप्रिय वृत्ति है। इसकी भाषा-शैली अत्यन्त सरल, सरस एवं सुबोधगम्य है। मणिप्रभा के संस्करण- मणिप्रभा के अब तक दो संस्करण निकले हैं। इसका प्रथम संस्करण सन् 1903 ईस्वी में विद्या विलास प्रेस, वाराणसी से प्रकाशित हुआ है। इसका द्वितीय संस्करण छह वृत्तियों के साथ प्रकाशित भोजवृत्ति का पूर्व निर्दिष्ट चतुर्थ संस्करण है। रामानन्द यति का समय- संस्कृत ग्रन्थों में ‘संन्यासी’ अर्थ में ‘यति’ अथवा ‘सरस्वती’ उपाधि का प्रयोग मिलता है। ये संन्यासी थे। अत: रामानन्द सरस्वती नाम से ये पुकारे गये। इनके गुरु का नाम गोविन्दानन्द सरस्वती था।[63] ये सत्रहवीं शताब्दी के आचार्य हैं। पदचन्द्रिका का परिचय- योगसूत्र पर लिखी गई वृत्तियों में पदचन्द्रिका लघुतम वृत्ति है। इसके रचयिता अनन्तदेव पण्डित हैं। यह भोजवृत्ति पर आधारित वृत्ति है। इसमें सूत्रार्थ मात्र किया गया है। भोजवृत्ति में योगसूत्र के प्रास्ताविक पाठ-भेदों को इसमें स्वीकार किया गया है। इसमें नवीन पाठभेदों[64] एवं नवीन सूत्रों [65] का भी निर्देश मिलता है। किन्तु ज्ञातव्य है कि पदचन्द्रिकाकार अनन्तदेव पण्डित द्वारा समायोजित पाठभेद न तो अर्थभेदपरक हैं और न ही निर्दिष्ट नवीन सूत्रों से योगविषयक किसी नवीन विषय पर प्रकाश पड़ता है। पदचन्द्रिका के संस्करण- सम्प्रति, पदचन्द्रिका के दो ही संस्करण मिलते हैं। इसका पहला संस्करण सन् 1911 ईस्वी में विद्या विलास प्रेस, श्रीरङ्ग से मुद्रित हुआ है। भोजवृत्ति के पीदे उल्लिखित संस्करणों में से चौथे स्थान पर निर्दिष्ट संस्करण में संकलित योगसूत्र की छह वृत्तियों में एक पदचन्द्रिका वृत्ति भी है। अनन्तदेव पण्डित का समय- योगसूत्र के वृत्तिकारों में अनन्तदेव पण्डित बहुत बाद के वृत्तिकार हैं। पदचन्द्रिका के द्वितीय संस्करण के सम्पादक पण्डित ढुण्ढिराज शास्त्री ने अनन्तदेव पण्डित को उन्नीसवीं शताब्दी का आचार्य माना है। योगसुधाकर वृत्ति की भिन्नता- सदाशिवेन्द्र सरस्वती ने योगसुधाकर का प्रणयन किया। योगसूत्र की वृत्तियों में योगसुधाकर वृत्ति की व्याख्यान-शैली अन्य वृत्तियों से सर्वथा पृथक् है। इसमें भाषागत एवं विषयगत वैविध्य परिलक्षित होता है। विषय के पुष्ट्यर्थ इसमें उद्धृत उद्धरण योग की अन्य टीकाओं से भिन्न हैं। नियम के चतुर्थ भेद स्वाध्याय के अन्तर्गत मन्त्रों के प्रभेदों पर इसी वृत्ति में सर्वप्रथम प्रकाश डाला गया हैं प्रवाहमयी एवं मधुरमयी भाषा में लिखी गई योगसुधाकर वृत्ति सदाशिवेन्द्र सरस्वती की अनुपम कृति है। योगसुधाकर वृत्ति के संस्करण- इस वृत्ति के भी दो ही संस्करण मिलते हैं। इसका प्रथम संस्करण सन् 1912 ईस्वी में वाणी विलास प्रेस, श्रीरङ्ग से प्रकाशित हुआ है। इस संस्करण के सम्पादक ने अपनी भूमिका में योगी सदाशिवेन्द्र सरस्वती के जीवन-वृत्त से सम्बन्धिक अनेक रोचक दिव्य घटनाओं को रेखाङ्कित किया है। इसका द्वितीय संस्करण भोजवृत्ति का चतुर्थ संस्करण है। सदाशिवेन्द्र सरस्वती का काल- इनका स्थिति-काल अट्ठारहवीं शताब्दी का अन्तिम भाग अथवा उन्नीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध प्रतीत होता है। वाणी विलास प्रेस से प्रकाशित ‘योगसुधाकर वृत्ति’ संस्करण के सम्पादक इन्हें अट्ठारहवीं शताब्दी का आचार्य मानते हैं। जबकि ढुण्ढिराज शास्त्री ने इनका समय उन्नीसवीं शताब्दी माना है। योगप्रदीपिका का विवरण- योगसूत्र की वृत्तियों में योगप्रदीपिका अर्वाचीन वृत्ति है। इसके रचयिता पं. बलदेव मिश्र हैं। ग्रन्थारम्भ में वृत्तिकार स्वयं उद्घोषणा करते हैं। कि यद्यपि इसमें व्यासभाष्य, तत्त्वैशारदी एवं योगवार्त्तिक का सारतत्त्व संगृहीत हुआ है, फिर भी वाचस्पति मिश्र की मतानुगामिनी यह वृत्ति लिखी गई है।’ [66] योगप्रदीपिका के संस्करण- अभी तक इसका कएक ही संस्करण निकला है। चौखम्बा संस्कृत सीरिज, वाराणसी से प्रकाशित दुर्लभप्राय इस संस्करण की द्वितीय आवृत्ति सन् 1984 ईस्वी में निकली है। इसके सम्पादक ढुण्ढिराज शास्त्री हैं। मूल ग्रन्थ के साथ इसमें सम्पादक की टिप्पणी भी प्रकाशित हुई हैं। पण्डित बलदेव मिश्र का स्थितिकाल- पण्डित बलदेव मिश्र बीसवीं शताब्दी के आचार्य हैं। योगप्रदीपिका वृत्ति के प्रारम्भ में इन्हांने तेरह श्लोक लिखे हैं। इनसे पं. बलदेव मिश्र के जीवनवृत्त पर विशेष प्रकाश पड़ता है। ये मैथिल ब्राह्मण थे। वाराणसी इस कुछ की साधना-स्थली रही। इनके पिता का नाम श्रीधर तथा पितामह का नाम हलधर था। इनके द्वारा लिखे गये ग्रन्थों में योगप्रदीपिका इनकी अन्तिम कृति है। इसके अतिरिक्त योगसूत्र पर दो और टीकाएँ लिखी गईं हैं। योगकारिका- जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि कारिका- शैली में लिखी गई योगसूत्र की यह टीका है। इसके रचयिता हरिहरानन्द आरण्य हैं। योगकारिकाकार ने सूत्र के भाव को कारिका-शैली में उपनिबद्ध कर कारिकार्थ को संस्कृत में गद्यात्मक शैली से सुस्पष्ट किया है। इसका सरलाटीका नाम है। सन् 1935 ईस्वी में चौखम्बा संस्कृ त सीरिज, वाराणसी से प्रकाशित साङ्ग योगदर्शनम् (पातञ्जलदर्शनम्) संस्करण में अन्त में सरलाटीकासहित योगकारिका भी है। पतञ्जलि के हृद्गत भाव की प्रकाशिका ‘योगकारिका’ टीका हरिहरानन्द आरण्य की अनुपम कृति है। योगरहस्य- ’योगरहस्य’ को योगसूत्र की एक स्वतन्त्र संस्कृत टीका कहा जा सकता है। इसके रचयिता महर्षि सत्यदेव हैं। इस टीका की व्याख्यान-शैली योग की अन्य टीकाओं से सर्वथा पृथक् है। इसमें न तो सूत्रगत पदों को उठाकर उनका अर्थ किया गया और न ही योग भाष्यादि वाक्यों को उद्धृत किया गया है। योगरहस्यकार ने अत्यन्त पृथक् भाषा-शैली में गागर में सागर की भाँति योग सिद्धान्तों को अनूठे ढंग से इसमें समाविष्ट किया है। दु:ख की बात है कि योगसूत्र के द्वितीय पाद तक की टीका प्रकाशित हो सकी है। इसका संस्करण सन् 1979 ईस्वी में भारतीय विद्या प्रकाशन प्रेस, वाराणसी से निकला है। योगरहस्य का यह हिन्दी अनूदित संस्करण है। इसके हिन्दी अनुवादक डॉ. कोशलपति तिवारी हैं। योग के प्राचीन आचार्य- योग के आचार्यों की गौरवशाली श्रृंखला बहुत प्राचीन है। व्यासभाष्य का अध्ययन करने से विदित होता है कि व्यासदेव से पूर्व भी योग के अनेक आचार्य हुए। व्यासभाष्य में आगत योग के पूर्वाचार्यों के नाम एवं उनके उद्धरण-वाक्यों से इस बात की पुष्टि होती है। किन्तु इससे योग के पूर्वाचार्यों के योग पर लिखे गये ग्रन्थों की जानकारी प्राप्त नही होती है। योग के कुछ प्रमुख आचार्य इस प्रकार हैं- आसुरि- सांख्य-योग के प्राचीन आचार्यों में आसुरि का नाम सर्वप्रथम लिया जाता है। व्यासभाष्य में पञ्चशिख का एक ऐसा वचन उद्धृत हुआ है जिससे यह सूचना प्राप्त होती है कि आदि विद्वान् महर्षि कपिल से उपदेश प्राप्त आसुरि ने पञ्चशिख के प्रति सांख्ययोग का उपदेश किया।[67] इससे कपिल के शिष्य आसुरि और आसुरि के शिष्य पञ्चशिख की गुरु-शिष्य-परम्परा का अवबोध होता है। पञ्चशिख- व्यासभाष्य में योग के पूर्वाचार्यों के नाम से उद्धृत वाक्यों में सर्वाधिक संख्या पञ्चशिखाचार्य के वाक्यों की है। व्यासभाष्य के परवर्ती टीकाकारों ने भी उन उद्धृत वाक्यों को पञ्चशिखा का होना पुष्ट किया है। किन्तु इन संगृहीत वाक्यों के आधार पर पञ्वशिखनिर्मित योग-ग्रन्थ के स्वरूप का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है कि वह गद्यमय, पद्यमय अथवा किस रूप में रहा होगा। व्यासभाष्य में पञ्चशिख नाम से उद्धृत कुछ वाक्य अधोलिखित हैं- 1. एकमेव दर्शनं ख्यातिदेव दर्शनम् इति- ¼, 2. आदि विद्वान्निर्माणचित्तमधिष्ठाय ..... तन्त्रं प्रोवाचेति – 1/25, 3. तमणुमात्रमात्मानमनुविधास्मीत्येवं तावत्संप्रजानीते- 1/36, 4. व्यक्तमव्यक्तं वा ..... मन्वमान: स सर्वोऽप्रतिबद्ध इति – 2/5, 5. बुद्धित: परं पुरुषमाकारशीलविद्यादिभिर्विभक्तमनुपश्यन्.. मोहेन – 2/6, 6. स्यात्स्वल्प: संकर: सपरि हार: स.. स्वर्गोऽप्यपकर्षमल्पं करिष्यति -2/13, 7. तत्संयोगहेतुविवर्जनात्.. त्रित्वोपलब्धिसामर्ध्यादिति- 2/10, 8. अयं तु खलु त्रिषु गुणेषु.... दर्शनमन्यच्छङ्कत इति- 2/18, 9. अपरिणामिनी हि भोक्तृशक्तिरप्रतिसंक्रमा.. ज्ञानवृत्तिरित्याख्यायते- 2/50, 10. रूपातिशया वृत्त्यतिशयाश्च परस्परेण विरुध्यन्ते.. सह प्रवर्तन्ते- 3/13, 11. तुल्यदेशश्रवणानामेकदेशश्रुतित्वं सर्वेषां भवतीति – 3/41. वार्षगण्य- सांख्य-योग के ग्रन्थों में वार्षगण्य के सन्दर्भ-वाक्य ‘वृषगण: तथा ‘वार्षगणा:’ नाम से उल्लिखित हैं। इससे इनके द्वारा प्रवर्तित सांख्य-योग के किसी सम्प्रदायविशेष का अनुमान लगाया जा सकता है। ‘वृषगण’ पद से उनके पिता, ‘वार्षगण्य’ पद से उनके पुत्र तथा ‘वार्षगणा’’ पद से उनके अनुयायियों का बोध होता है। व्यासभाष्य में इनके नाम से एक ही वाक्य उद्धृत हुआ है। इसमें दो तुल्य पदार्थों के भेदक तत्त्व की मान्यता को स्पष्ट किया गया है।[68] जैगीषव्य- जैगीषव्य सिद्धिप्राप्त योगी थे। आवट्य-जैगीषव्यसंवाद से इनका योगी होना सिद्ध होता है। तभी वाचस्पति मिश्र ने उन्हें ‘परमर्षि’ नाम से तत्त्ववैशारदी में सम्बोधित किया है। व्यासभाष्य में इन्हें दो स्थान पर स्मरण किया गया है। प्रसङ्ग इस प्रकार हैं- इन्द्रियों की परमावश्यता के स्वरूप को निर्धारित करने हेतु दिये गये विकल्पों में एक विकल्प ‘जैगीषव्य’ नाम से भी व्यासभाष्य में संगृहीत है।[69] एक दूसरे स्थान पर आवटय को उपदेश करते हुए जैगीषव्य करते हैं कि- ‘विषय सुख की अपेक्षा सन्तोषजन्य सुख को अनुत्तम अवश्य कहा जा सकता है, किन्तु कैवल्यजनित सुख की तुलना में सब कुछ दु:खकोटि में ही न्यस्त होता है।[70] आवटय- व्यासभाष्य में आवटय नाम से कोई पृथक् वाक्य नहीं मिलता है। व्यासभाष्य में उद्धृत आवटय-जैगीषव्य संवाद अत्यन्त प्रसिद्ध है। संस्कार साक्षात्कार से पूर्वजाति (पूर्वजन्म) का अपरोक्ष ज्ञान होता है- [71] पतञ्जलि के इस आशय सूत्र को पौराणिक उपाख्यान द्वारा सत्यापित करने हेतु ही व्यासदेव ने ‘आवटय-जैगीषव्य-संवाद’ को योगभाष्य में रेखाङ्कित किया है। वस्तुतस्तु आवटय भी ऋषिकोटि के आचार्य थे। इसके अतिरिक्त, व्यासभाष्य में आगमिनां सम्मति:’ अथवा ‘पूर्वाचार्यवाक्यम्’ द्वारा योग को मान्यताओं के स्थापक उद्धरण-वाक्यों के योगाचार्यों के अनिर्दिष्ट नाम-संकेत से सहज अनुमान लगाया जात है कि योगाचार्यों की श्रृंखला बहुत लम्बी रही। पतञ्जलिप्रोक्त योग के सिद्धान्त पाशुपतयोग, महेश्वरयोग (नाकुलीयदर्शन, शैवदर्शन, प्रत्यभिज्ञादर्शन तथा रसेश्वरदर्शन भेद से चतुर्विध) तन्त्रयोग उनके अनेक शाखाओं से पतञ्जलिप्रोक्त योग पृथक् है। यहाँ पतञ्जलि द्वारा प्रवर्तित योग-सिद्धान्तों को ही विश्लेषित किया जा रहा है- ‘योग-विमर्श’ किसी भी शास्त्र का असन्दिग्ध यथार्थ ज्ञान तभी हो सकता है जब उस शास्त्रविशेष के अध्येता को उस शास्त्र के पारिभाषिक शब्दों का अर्थ ज्ञात रहे। जब एक शब्द अनेक शास्त्रों में भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त होता है, तभी भ्रान्तिबीज का उदय होता है। इसी भ्रान्तिबीज को उन्मूलित करते हैं तत्-तत् शास्त्रों के पारिभाषिक शब्द। इस प्रकार अनेक अर्थों का वाचक शब्द जब किसी शास्त्रविशेष में किसी अर्थविशेष में प्रयुक्त होता है, तब वह शब्द ‘पारिभाषिक शब्द’ की संज्ञा को धारण करता है। उदाहरण के लिये ‘योग’ शब्द को ही लिया जाय। ‘योग’ शब्द- वेदान्त में ‘जीवात्मा-परमात्मा के संयोग’ अर्थ में, व्याकरणशास्त्र में ’शब्द-व्युत्पत्ति’ अर्थ में, आयुर्वेद में ‘भेषज’ अर्थ में, ज्योतिष में ‘नक्षत्रों के सम्बन्ध-विशेष’, ‘समय-विभाग’, ‘रवि-चन्द्र के योगाधीन विष्कम्भादि’ अर्थ में, नारद पञ्चरात्र में ‘देवतानुसन्धान’ अर्थ में, योगाचार बौद्ध में ‘पर्यनुयोग’ अर्थ में, व्यवहारशास्त्र में ‘छल’ अर्थ में, मनुस्मृति में ‘कपट’ अर्थ में, गणितशास्त्र में ‘अङ्क-जोड़: अर्थ में, देवीभागवत में ‘प्रेम’ अर्थ में, अलंकारशास्त्र में ‘कामुक-कामिनी-सम्मिलन’ अर्थ में, हेमचन्द्र शास्त्र में ‘धन’ अर्थ में, इसी प्रकार उपाय, सङ्गति, वपुस्धैर्य अर्थ में-प्रयुक्त हुआ है।   पतञ्जलिसम्मत ‘योग’ शब्द का अर्थ- पतञ्जलि के अनुसार ‘योग’ शब्द का अर्थ ‘चित्तवृत्तिनिरोध’ है। दूसरे शब्दो में चित्त के वृत्त्यात्मक व्यापार को निरुद्ध करना, समुद्र में उत्पन्न होने वाली असंख्या तरङ्गों की भाँति चित्त में उठने वाली दिशाहीन असंख्य वृत्तियों के प्रवाह को नियन्त्रित करना, चित्त को योगसम्मत ध्येय पदार्थ का चिन्तन करने हेतु योग्य बनाना, चित्त को उसकी सहज प्राप्त क्षिप्त-मूढ-विक्षिप्त भूमियों से ऊपर उठाकर एकाग्र तथा निरुद्ध भूमि में क्रमश: अवस्थित करना, चित्त-नदी की संसाराभिमुखी धारा को मोक्षाभिमुखी बनाना, ध्येय-चिन्तन के अनभ्यासी चित्त को ध्येय तत्त्व-चिन्तन का अभ्यासी बनाना, बाह्य विषयों की प्राप्ति के प्रति सहज उद्वेलित रागात्मक चित्त में विषय-वैराग्य का बीज रोपित करना, चित्त की बन्धनकारी अविद्या-रज्जु को विद्या-शस्त्र द्वारा छिन्न करना, चित्त को चरिताधिकार (कर्तव्यशून्य) बनाकर ख्याति प्राप्त पुरुष को उसके स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित करना, वृत्तिनिरोध के शास्त्रसम्मत साधना-क्रम से सम्प्रज्ञात तथा असम्प्रज्ञात को प्राप्त करना- ‘योग’ है। ‘योग’ शब्द की व्याकरणसम्मत निरुक्ति- व्याकरणशास्त्र में ‘योग’ शब्द की निष्पत्ति दो धातुओं से की गई है। ‘युजिरयोगे’ धातु से निष्पन्न ‘योग’ शब्द ‘संयोग’ अर्थ का बोध कराता है और ‘युज् समाधौ’ धातु से निर्मित ‘योग’ शब्द ‘समाधि’ अर्थ का वाचक है। पतंजलिप्रोक्त योग में ‘संयोग’ अर्थ की अन्विति नहीं बैठती है। क्योंकि अग्नि से वियुक्त स्फुलिङ्ग की भाँति संसारावस्था में परमात्मा से विमुक्त हुआ जीव मोक्षावस्था में समुद्र में विलीन जलधारा की भाँति परमात्मा से विमुक्त हुआ जीव मोक्षावस्था में समुद्र में विलीन जलधारा की भाँति परमात्मा से संयुक्त हो जाता है- यह आध्यात्मिक पक्ष योगशास्त्र का प्रतिपाद्य विषय नहीं है। पतञ्जलिप्रोक्त ‘योग’ शब्द समाध्यर्थक होने से वह सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात समाधि के द्वारा साधक पुरुष को कैवल्यावस्था में ‘स्वस्वरूपावस्थित होने का प्रतिपादन करता है। पतञ्जलि और व्यासदेवकृत ‘योग’ लक्षणों में प्रातीतिक विसङ्गति- योग के प्रारम्भिक अध्येता ऐसा मानते हैं कि पतञ्जलि और व्यासदेव ने योग के दो पृथक् लक्षण किये हैं। उनके अनुसार पतञ्जलि ने योग का ‘योगाश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ लक्षण किया है और व्यासदेव ने ‘योग: समाधि:’ द्वारा योग को लक्षित किया है। अत: दोनों के योगलक्षणों में एकरूपता नहीं है। किन्तु बात ऐसी नहीं है। योग के उक्त दोनों लक्षणों में केवल शाब्दिक अन्तर है। दोनों की आत्मा एक है। दोनों का मूलभूत तत्त्व एक है। ‘चित्तवृत्तिनिरोध’ योग की पूर्वावस्था है और ‘समाधि’ योग की परावस्था है। चित्तवृत्तिनिरोध साधनावस्था है तो समाधि सिद्धावस्था है। शब्दान्तर में वृत्तिनिरोधात्मक योग की एक विशिष्ट अवस्था को समाधि कहते हैं। अत: योग के उक्त लक्षणों में विसङ्गति नहीं है। पतञ्जलि के ‘योगाश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ सूत्र में ‘योग:’ लक्ष्य पद है और ‘चित्तवृत्तिनिरोध:’ लक्षण पद है। चित्त - विमर्श सांख्य में अनुल्लिखित ‘चित्त’ योग में उल्लिखित – सांख्य में ‘चित्त’ नाम से किसी तत्त्व का उल्लेख नहीं मिलता है।[72] प्रकृति के आद्य कार्य के लिये ‘महत्’ शब्द का उल्लेख सांख्यकारिका संख्या आठ, बाईस तथा छप्पन में हुआ है। तथा तेईस, पैंतिस, छत्तीस तथा सैंतिसवीं कारिकाओं में ‘बुद्धि’ शब्द मिलता है। सङ्गति इस प्रकार है कि महत् और बुद्धि इन दोनों पदों से एक ही तत्त्व गृहीत होता है। ये दोनों पर्याय शब्द हैं। प्रकृति के आद्य कार्य की ‘महत्’ संज्ञा तीन दृष्टियों से अन्वर्थ है- प्रकृतिजात तत्त्वों में अग्रतम होने से, त्रयोदश करणों में प्रधानतम होने से तथा पुरुष के विषयज्ञान का प्रमुख आधार होने से। यही ‘महत्’ अध्यवसायात्मिका वृत्ति से अपने को लक्षित करने के कारण ‘बुद्धि’ संज्ञा का धारक बन गया। क्रियाभेद से नामभेद होता है। जैसे क्रियाभेद से एक ही व्यक्ति नर्तक, गायक, पाठक, वाचक आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है वैसे ही क्रियाभेद से एक ही तत्त्व की महत् तथा बुद्धि संज्ञा पड़ी। सांख्यसम्मत सृष्टि में ‘अहंकार’ से आविर्भूत ‘मन’ तत्त्व के किसी दूसरे नाम से सम्बन्धित कारिका भी नहीं मिलती है। इस प्रकार सांख्यदर्शन में ‘चित्त’ पद का उल्लेख नहीं हुआ है। जबकि योगदर्शन में ‘चित्त’ पद का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है। इसके लिये पातञ्जल योग के ½, 33, 37, 3/19, 11, 12, 19, 32, 4/4, 5, 15, 16, 17, 18, 23 तथा 26 – ये सभी सूत्र अवलोकनीय हैं। योग के तीन सूत्र विचारणीय हैं। एक सूत्र[73] में ‘मन’, दूसरे सूत्र[74] में चित्त और बुद्धि दोनों पदों का प्रयोग मिलता है। गुणपर्व से सम्बन्धित तीसरे सूत्र[75] के व्यासभाष्य में मन और महत् नाम से दो तत्त्व मिलते हैं। अत: योग में भी ‘चित्त’ नाम से कौन सा तत्त्व गृहीत किया जाय और सांख्य-योग की प्रातीतिक उक्त विसंगति को कैसे दूर किया जाय-यह विचारणीय है। बुद्धि, चित्त और मन की एकरूपता- एक ओर पतञ्जलि के सूत्रों में सर्वाधिक संख्या ‘चित्त’ पद के प्रयोग वाले सूत्रों की है तो दूसरी ओर गुणपर्व नाम से योग के परिगणित तत्त्वों में ‘चित्त’ पद का उल्लेख नहीं मिलता है। जब कि सम्पूर्ण योग-साधना चित्तावलिम्बत है।[76] फिर भी योगशास्त्र के अनुशीलन से तीनों पदों की एकरूपता अध्योलिखित प्रकार से वर्णित की जा सकती है- योग के चतुर्थ पाद के तेईसवें सूत्र[77] की पर्यालोचना करने से प्रतीत होता है कि पतञ्जलि ने ‘चित्त’ पद से जिस तत्त्व को गृहीत किया है उसी की वृत्ति को ‘बुद्धि’ नाम से विश्लेषित किया है। ‘बुद्धि’ शब्द का अर्थ ज्ञान है। अत: चित्त की ज्ञानात्मक वृत्ति के लिये यहाँ ‘बुद्धि’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जब कि सांख्य में ‘बुद्धि’ शब्द से एक तत्त्व वर्णित हुआ है। यहाँ क्रिया-क्रियावान् का अभेद चरितार्थ होता है। अत: सांख्य का ‘बुद्धि’ तत्त्व योग में ‘चित्त’ नाम का वाहक बना। योग के प्रथम पाद के सैंतिसवें सूत्र में प्रयुक्त ‘मन’ पद से भी ‘चित्त’ तत्त्व ही गृहीत होता है। ‘मनस: स्थितिनिबन्धनी’ सूत्रार्द्ध की व्याख्या व्यासदेव के अनुसार है- ‘चित्तं स्थितौ निबध्नन्ति।’ इसी सूत्र के वार्त्तिक में ‘मनश्चित्तयोरेकतेति बोध्यम्’ वाक्य द्वारा विज्ञानभिक्षु ने चित्त और मन की एकरूपता का उद्घोष कर अवशिष्ट सन्देह को भी दूर कर दिया। प्रकारान्तर से विषय-सङ्गति इस प्रकार लगाई जा सकती है- सांख्य में ‘बुद्धि’ शब्द का ही प्रयोग हुआ है और ‘पुरि शेते इति पुरुष:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार बुद्धिरूप पुर में जो शयन करता है, उसे ‘पुरुष’ कहते हैं। इस प्रकार बुद्धि-पुरुष की मान्यता पर सांख्य की तत्त्वमीमांसा प्रतिष्ठित हुई है। योग की साधना ‘चित्त-चिति’ की मान्यता पर स्थापित हुई है। चिति अथवा चित् शब्द का अर्थ पुरुष है। चित्त के समानान्तर चित् (चिति) पद का प्रयोग योग में मिलता है। चित्त को चितिशक्ति के तात्कालिक आविधिक ज्ञान का साधन माना जाता है। ‘चित्’ से ’करण’ अर्थ में ‘क्त’ प्रत्यय करने से ‘चित्त’ पद निष्पन्न होता है। श्रीमद्भागवत के टीकाकार श्रीधर स्वामी लिखते हैं कि अधिभूत रूप से जो ‘महान्’ संज्ञा वाला है, वही अध्यात्म रूप से ‘चित्त’ संज्ञा को धारण करता है। इस प्रकार सांख्य का ‘बुद्धि’ तत्त्व योग में ‘चित्त’ नाम से व्यवहृत हुआ है। योग-साधना के लिये उपयुक्त चित्त-भूमि- चित्त-भूमि पाँच प्रकार की है। इनका स्वरूप क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र तथा निरुद्ध नाम से रेखङ्कित किया गया है। जिस प्रकार बीज-वपन की आधारभूता भूमि की उर्वरक शक्ति के तारतम्य से उसके फलागत में भी वैचित्र्य परिलक्षित होता है, उसी प्रकार चित्त रूप भूमि सत्त्वादि गुणों की पारिमाणिक भिन्नता से पृथक्-पृथक् स्वरूप वाली वृत्तियों को उत्पन्न करती है। गुण-गुणी, आश्रय-आश्रयी तथा कार्य-कारण, का यह अटूट सिद्धान्त है। योग-साधना चित्त की एकाग्र-भूमि से प्रारम्भ होती है और निरुद्ध भूमि में समाप्त होती है ।चित्त की प्रथम तीन भूमियाँ योगाभ्यास के लिये सर्वथा अनुपयुक्त हैं। वृत्ति – विमर्श जिसके निरोधार्थ योग-साधना प्रशस्त होती है, वह चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है। वृत्तियों के नाम हैं- प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा तथा स्मृति। ये क्लिष्ट और अक्लिष्ट भेद से पाँच प्रकार की हैं। प्रत्येक वृत्ति के अवान्तर भेद हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम भेद से प्रमाण के तीन भेद हैं। भ्रमज्ञान को विपर्यय कहते हैं। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश भेद से विपर्यय पाँच प्रकार का है। विकल्प वृत्ति के वस्तु, क्रिया और अभाव तीन भेद हैं। निद्रा वृत्ति के सात्त्विकी, राजसी तथा तामसी तीन रूप हैं। भावित स्मर्तव्या तथा अभावित स्मर्तव्या भेद से ‘स्मृति’ के दो भेद हैं। स्थानाभाव के कारण विषय विस्तार सम्भव नहीं है। एक शब्द में ‘वृतुवर्तने’ धातु से ‘क्त’ प्रत्यय करके निष्पन्न ‘वृत्ति’ पद सांख्य-योग शास्त्र में चित्त आदि तेरह करणों के अपने-अपने विशिष्ट परिणामों का अभिधायक है। निरोध-विमर्श ‘नि’ उपसर्गपूर्वक ‘रुध्’ धातु से ’घञ्’ प्रत्यय करके ‘निरोध’ शब्द निष्पन्न होता है। ‘निरोध’ शब्द का साधारण अर्थ है- अवबाधा। अवबाधा की परिणति नाश है। अत: ‘नाश’ भी निरोधी पर का वाच्यार्थ है। योग दर्शन में ‘निरोध’ शब्द ‘नाश’ अर्थ में नहीं अपि तु ‘अवस्था विशेष’ अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इससे किसी धर्मी-सापेक्ष धर्म की अतीतावस्था गृहीत होती है। चित्त-धर्मी के वृत्ति-धर्म को निरुद्ध किया जाता है। योगसम्मत ‘निरोध’ यदि अभावस्वरूप होता तो अभावात्मक फल का कारण बनता। किन्तु वह स्वयं भावात्मक है अत: भावरूप कैवल्य-प्राप्ति का सोपान है। नियम है कि भाव की परिणति भावमूलक और अभाव की परिणति अभावमूलक होती है। कैवल्य पुरुष की उपाधिशून्य सर्वोच्च भावात्मक अवस्था, स्वस्वरूपावस्थिति है। अत: सिद्धान्तित होता है कि ‘निरोध’ अभावमूलक नहीं है, अपितु भावमूलक क्रिया की एक विशिष्ट अवस्था है। ‘निरोध’ पद वृत्ति-निरोध की आत्यन्तिक अतीतावस्था को, उसकी पूर्वकालिक वर्तमान अवस्था की भाँति, द्योतित करता है। योग का सिद्धान्त है कि कार्य (जैसे घट) अपने कारण (जैसे मृत्तिका) में अनागत, वर्तमान तथा अतीत तीनों कालों में भावरूप से निहित रहता है।[78] उसकी अनागत और अतीत स्थिति अनुमानगम्य है। उसकी ‘मध्य’ की वर्तमान अवस्था का ही प्रत्यक्ष होता है। ‘निरोध’ को रेखाङ्कित करते हुए विज्ञानभिक्षु योगवार्त्तिक में लिखते हैं- ‘निरोध’ लय रूप है। वह अधिकरण की एक विशिष्ट अवस्था है।[79] इन्धनरहित अग्नि के उपशम की भाँति व्यापाररहित चित्तवृत्तियों का अपने कारण में लय होना ‘निरोध’ है।[80] योग-भेद-विमर्श योग के लक्षणसूत्र ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ के लक्षणगत चित्त, वृत्ति और निरोध तीनों पदों की व्याख्या के पश्चात् लक्ष्यभूत ‘योग’ पद विवेच्य है। योग दो प्रकार का है- सम्प्रज्ञात योग तथा असम्प्रात योग। ये ‘समाधि’ नाम से भी कहे जाते हैं। सम्प्रज्ञात तथा उसके भेद-प्रभेद- क्षिप्त, मूढ तथा विक्षिप्त भूमियों से अतिक्रान्त चित्त जब एकाग्रभूमि में प्रविष्ट होता है तब उसकी ध्येयाभिमुखता, ध्येयप्रखरता, ध्येयप्रवणता, ध्येयपरायणता घनीभूत हो जाती है। व्युत्थित वृत्तियों से पराङ्मुख चित्त ध्येयानुसन्धानशील बन जाता है। चित्त की व्युत्थित वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती हैं। चित्त एकाग्रवृत्तिक होता है। अत: चित्त की एकाग्रभूमि को रेखाङ्कित करते हुए हरिहरानन्द आरण्य लिखते हैं- सर्वदा अभीष्ट विषय में चित्त की स्थितिशील अवस्था को ‘एकाग्रभमि’ कहते हैं।[81] ‘सम्प्रज्ञात’ शब्द से ही सुस्पष्ट है कि जिसमें ध्येय विषय का सम्यक् एवं प्रकृष्ट रूप से अपरोक्षज्ञान होता है, उसे ‘सम्प्रज्ञात’ कहते हैं।[82] सम्प्रज्ञात योग में चित्त की ध्येयविषयिणी एकाग्रवृत्ति चित्त को विषय की सम्यक् अवाप्ति होती है, अत: इसे समापत्ति भी कहते हैं। पतञ्जलि ने सम्प्रज्ञात-भेद के दो आधार माने हैं- इस विषयाधारित तथा दूसरा विषयसाक्षात्कारक्रमाधारित। योगसम्भव तत्त्वों को ग्रहीतृ, ग्रहण तथा ग्रह्य इन तीन वर्गों में विभक्त कर पतञ्जलि ने सम्प्रज्ञात के विषयाधारित तीन भेद किये हैं और सम्प्रज्ञात को ‘समापत्ति’ नाम से पुकारा है। सम्प्रज्ञात के ये तीन भेद हैं- ग्रहीतृसमापत्ति, ग्रहणसमापत्ति तथा ग्राह्यसमापत्ति। अभिजात मणि की निर्भ्रान्त प्रतिबिम्बाकारता की भाँति चित्त की सम्यक् ध्येयाकारता को बोधित करने हेतु पतञ्जलि ने ‘समापत्ति’ शब्द को ‘सम्प्रज्ञात’ के पर्याय रूप में प्रयुक्त किया है।[83] जिस प्रकार धनुर्विज्ञान में लक्ष्यभेदानुसन्धान स्थूल से सूक्ष्म की ओर अभिमुख होता है उसी प्रकार योग में एकाग्रभूमिक चित्त का विषय-साक्षात्काराभ्यास स्थूल की ओर अग्रसारित होता है। अत: विषयसाक्षात्कारक्रमाधारित सम्प्रज्ञात के चार भेद योगसूत्र में वर्णित है।[84] उनके नाम हैं- वितर्क, विचार, आनन्द तथा अस्मिता। इसमें योगरहस्य यह है कि एकाग्रता की क्रमिक प्रगाढता से साधक ध्यान के विषयभूत किसी एक स्थूल ध्येय पदार्थ में ही कार्य से कारण की उत्तरोत्तर श्रृंखला के आद्य प्रकृति तत्त्व को साक्षात्कृत करता है। एक ही स्थूल पदार्थ को ध्यान का आलम्बन बनाकर वितर्क से अस्मितासम्प्रज्ञात तक पहुँच जाता है। अत: सम्प्रज्ञात के विषयाधारित वितर्कादि भेदों में चित्त की एकाग्रवृत्ति का विषयगत भेद नहीं होता है। अन्यथा विषयभेद से एकाग्रता-भङ्ग (पूर्वपूर्वोपासना त्याग) का अनभिप्रेत प्रसङ्ग उपस्थित होगा।[85] योगसूत्र के व्यासभाष्य आदि ग्रन्थों में वितर्कादि के सवितर्क-निर्वितर्क आदि प्रभेदों को भी विस्तारपूर्वक विश्लेषित किया गया है। असम्प्रज्ञात और उसके भेद- एकाग्रभूमिक सम्प्रज्ञात के विजित होने पर योगी विरुद्धभूमिक असम्प्रज्ञात में प्रवेश करता है। ‘न तत्र किञ्चिद् प्रज्ञायते इति असम्प्रज्ञात:’- इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसमें कोई भी ज्ञानात्मक वृत्ति विद्यमान नहीं रहती है अर्थात् सम्प्रज्ञात काल की सर्वोच्च सत्त्वपुरुषख्यातिपरक अन्तिम वृत्ति भी निरुद्ध हो जाती है- निरोध-संस्कार शेष रह जाता है- उसे असम्प्रज्ञात योग कहते हैं।[86] असम्प्रज्ञात के दो भेद हैं- भवप्रत्यय तथा उपायप्रत्यय।[87] इनमें से उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात मुमुक्षार्थी के लिये उपादेय है।[88] अविद्यामूलक भवप्रत्यय असम्प्रज्ञात संसार में परिसमाप्त होता है। ‘भवन्ति जायन्ते जन्तवोऽस्यामिति भवोऽविद्या’- इस व्युत्पत्ति के अनुसार ‘भव’ शब्द का अर्थ ‘अविद्या’ है। अविद्यावश किसी भी अनात्मभूत ध्येय पदार्थ का आत्मत्वेन चिन्तन करते रहने से भी उसके पराकाष्ठा काल में साधक का निरुद्धभूमिक चित्त ‘सर्ववृत्ति-निरोध’ स्थिति वाला हो जाता है। परिणामत: उनका सर्ववृत्तिनिरोधात्मक संस्कार शेष चित्त अपने उपास्य में लीन हो जाता है और कैवल्यसम अवस्था का अनुभव करता है। किन्तु मृद्भाव को प्राप्त मण्डूक के वर्षाकाल में प्रादुर्भाव की भाँति एक निश्चित अवधि के पश्चात् उनकी संसारापत्ति होती है।[89] ऐसे भवप्रत्यय साधक उपासना के विषयभेद से दो प्रकार के हैं- विदेहलीन और प्रकृतिलीन। [90] विदेहलीन साधकों का उपास्य महाभूत तथा इन्द्रियाँ होती हैं। प्रकृतिलीन साधक पञ्वतन्मात्र, अहंकार, महत् तथा प्रकृति में से किसी जड़ तत्त्व की आत्मत्वेन उपासना करते हैं। इसके विपरीत उपायप्रत्यय असम्प्रज्ञात प्रज्ञज्ञमूलक[91] होने से आत्यन्तिक और ऐकान्तिक कैवल्य-प्राप्ति का कारण है। योग के सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञज्ञत इन दो भेदों को उनके स्वरूप के अनुसार सबीज-निर्बीज, सालम्बन-निरालम्बन तथा सवस्तुक-निर्वस्तुक रूप में भी वर्णित किया गया है। सम्प्रज्ञात में ध्येय रूप बीज विद्यमान रहता है। चित्त की ध्येयाकाराकारित प्रकृष्ट एकाग्रवृत्ति बनी रहती है। अत: सालम्बन अथवा सवस्तुक सम्प्रज्ञात को ‘सबीज’ नाम से अभिहित किया गया है। असम्प्रज्ञात में उक्त ध्येयाकाराकारित वृत्ति भी निरुद्ध हो जाती है। इसमें ध्येयरूप वृत्यात्मक बीज विद्यमान नहीं रहता है। अत: निरालम्बन अथवा निर्वस्तुक असम्प्रज्ञात को ‘निर्बीज’ योग कहा गया है। योग-प्राप्ति साधन- विमर्श योग का स्वरूप जानने के पश्चात् उसकी प्राप्ति के ‘साधन’ के विषय में जिज्ञासा होती है। अत: योगसूत्र में समाधि-पाद के पश्चात् साधन-पाद की अवतारणा हुई। योग-साधन भी पृथक्-पृथक् उपदिष्ट हैं। साधकों की तीन श्रेणियाँ हैं।– योगारूढ़ युञ्जान तथा आरुरुक्षु। इन्हें उत्तम, मध्यम तथा मन्द अधिकारी नाम से क्रमश: पुकारा गया हे।[92] उत्तमाधिकारी हेतु ‘अभ्यास-वैराग्य’- पूर्वजन्मीय योगाभ्यास से सम्पोषित उत्तमाधिकारी का एकाग्र-चित्त पूर्व की क्षिप्तादि भूमियों को बहुत पीछे छोड़ चुका होता है। ऐसे साधकों में संन्यासाश्रम के परमहंस संन्यासी आते है। जडभरतादि इसी श्रेणी के साधक रहे। ऐसे साधकों के लिये योग-प्राप्ति का साधन ‘अभ्यास-वैराग्य’ बतलाया गया है।[93] एकाग्र चित्त को ध्येयालम्बित प्रशान्तवाही स्थिति प्रदान करने हेतु सम्पादित ‘यत्न’ ‘अभ्यास’ कहलाता है।[94] यह अभ्यास परिपक्वता की दृढभूमि को तब संस्पर्शित करता है जब दीर्घकाल तब बिना किसी व्यवधान के पूर्ण आस्था के साथ सम्पादित किया जाता है।[95] ऐसा दृढभूमिक अभ्यास ही साधक के चित्त को ‘सम्प्रज्ञात’ योग के अनुकूल बनाता है। अभ्यास वैराग्यमूलक होता है। चित्त को एक ओर से वियुक्त करके ही उसे दूसरी ओर संयुक्त किया जा सकता है। अत: अभ्यास-वैराग्य में अविनाभाव सम्बन्ध है। वैराग्य के दो भेद हैं- अपर वैराग्य और पर वैराग्य। अपरवैराग्ययुक्त अभ्यास से सम्प्रज्ञात योग की प्राप्ति होती है। इसमें बुद्धि-पुरुष-भेद-विषयिकी प्रकृष्टा वृत्ति उदित होती है। सर्ववृत्ति निरोधरूप असम्प्रज्ञात के लिये यह प्रकृष्टा वृत्ति बाधारूपिणी है। अत: परवैराग्ययुक्त अभ्यास द्वारा विवेकख्यात्यात्मक प्रकृष्टा वृत्ति के प्रति अलंबुद्धि (हेयु बुद्धि) जागरित की जाती है।[96] परिणामत: साधक का चित्त सर्ववृत्तिनिरोधात्मक असम्प्रज्ञात में प्रतिष्ठित होता है। अत: परवैराग्य को असम्प्रज्ञात का साक्षात् साधन कहा गया है। मध्यमाधिकारी हेतु ‘क्रियायोग’ – योग का मध्यम अधिकारी वह है जिसमें योग-प्रवणता तो समय-समय पर परिलक्षित होती है किन्तु उत्तमाधिकारी जैसी चैत्तिक स्थिरता उसमें नहीं रहती है। परिणामस्वरूप उसका योग प्रदीप-तैलधारावत् अखंडित नहीं होता है। ऐसे मध्यम अधिकारियों के लिये योग-प्राप्ति का क्रियायोग साधन उपदिष्ट हुआ है। ‘क्रियायोग’ से तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान की क्रियाएँ गृहीत होती हैं।[97] मन्दाधिकारी हेतु ‘अष्टाङ्ग-योग’- अत्यन्त विक्षिप्त चित्त वाले गृहस्थादि को योग का मन्द अधिकारी कहा गया है। इन्होंने अभी तक योग-साधना प्रारम्भ ही नहीं की होती है। अत: मन्द अधिकारियों के लिये योग-प्राप्ति का साधन ‘अष्टाङ्ग-योग’ है। इसमें अभ्यास-वैराग्य तथा क्रियायोग साधन भी अन्तर्मुक्त हैं। योग के यम, नियम आदि आठ अङ्ग[98] अपने भेद-प्रभेदों के साथ योगशास्त्र में विस्तारपूर्वक वर्णित हुए हैं। विभूतिविमर्श किसी भी क्रिया के दो फल होते हैं- एक गौण फल तथा दूसरा मुख्य फल। उदाहरण के लिये भक्षण-क्रिया को ही लें। स्वादिष्ट भोजन का क्षुधा-शान्ति तात्कालिक गौण फल है तथा रसपरिपाक द्वारा शरीर-संवर्धन मुख्य फल है। इसी प्रकार यम, नियमादि योगसाधनपरक क्रियाओं से भी प्राप्यमाण मुख्य फल से पूर्व आनुषङ्गिक फल प्राप्त होते हैं। ये ‘विभूति’ नाम से योगसूत्र के तृतीय पाद में मुख्यत: विवेचित हुए हैं। तथा उनका मुख्य फल ‘कैवल्य’ नाम से चतुर्थपाद में वर्णित हुआ है। ‘विभूति’ शब्द का वाच्यार्थ ‘सामर्थ्यविशेष’ है। इसे ‘सिद्धि’ भी कहते हैं। अन्य क्रियाओं की भाँति योग-साधना कोई तात्कालिक क्रियाकलाप नहीं है। यह तो दीर्घकालीन संयमाभ्यास का मधुरफल, साधना की परिपक्वता का परिचायक है। किन्तु इन मोहक विभूतियों में आत्मविस्मृत होने वाला साधक योग के मुख्य फल तक नहीं पहुँच पाता है। अत: विभूतिसम्पन्न साधक को आत्मनिरीक्षणार्थ पतञ्जलि ने सचेत किया है।[99] कैवल्यविमर्श ‘कैवल्य’ योग का चरम फल है। ‘केवल’ शब्द से ‘ष्यञ्’ प्रत्यय करके ‘कैवल्य’ पद की निष्पत्ति होती है। एक शब्द में इसका अर्थ ‘पूर्ण पृथक्ता’ अथवा ‘अत्यन्त भिन्नता’ है। यहाँ प्रकृति से आत्मा का पार्थक्य अभिप्रेत है। मूलत: पृथक् दो पदार्थों की अभेद-प्रतीति अविद्यावश होती है। अत: विद्या से अभेद-प्रतीति छिन्न होती है, ऐसा सिद्धान्त है। किसी भी वस्तु के प्रातीतिक धर्म को ‘औपाधिक धर्म’ कहते हैं। उदाहरण के लिये जल में गन्ध की प्रतीति उसका औपाधिक धर्म है, जो उसे पृथ्वी से प्राप्त होता है। किसी भ वस्तु के औपाधिक धर्म की निवृत्ति तो सम्भव है किन्तु वास्तविक स्वरूप की नहीं। योग में बुद्धि- पुरुष का सर्वोपाधिवर्जितभाव ‘कैवल्य’ है। स्फटिक के निकट स्थित जपाकुसुम के हटा लेने पर जैसे स्फटिक, औपाधिक रक्तिमतारहित, अपने श्वेतिम रूप में प्रतिष्ठित हो जाता है वैसे ही पुरुष के स्वरूप को आच्छादित करने वाली अविद्या जब विद्या द्वारा नष्ट हो जाती है वैसे ही पुरुष के स्वरूप को आच्छादित करने वाली अविद्या जब विद्या द्वारा नष्ट हो जाती है तब वह अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है।[100] योगसम्मत कैवल्य ‘स्वस्वरूपावस्थिति’ रूप से जैसे पुरुषपक्ष में कहा गया है वैसे ही पुरुषार्थशून्यता रूप से वह बुद्धिपक्ष में भी उपचरित होता है।[101] इस प्रकार सत्त्व-पुरुष का शुद्धिसाम्य रूप ‘कैवल्य’ निष्पन्न होता है।[102] योग के कतिपय प्रमुख सिद्धान्त योगसूत्र में समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य नाम से उल्लिखित चार पादों में वर्णित उक्त चार विषयों के अतिरिक्त उन्हीं के पूरक रूप में कुछ अन्य बिन्दुओं पर भी प्रकाश डाला गया है। इनसे योग के कतिपय प्रमुख सिद्धान्तों को स्थापित किया गया है। योग की चतुर्व्यूहात्मक संरचना- योग-प्रासाद हेय, हेयहेतु, हान तथा हानोपाय के चतुर्भुज स्तम्भों पर अवलम्बित हैं। ऐसा ही चतुर्भुज रोग, रोगहेतु, आरोग्य तथा आरोग्योपाय नाग से आयुर्वेद शास्त्र में रेखाङ्कित हुआ है। इनसे दोनों शास्त्रों का प्रतिपाद्य विषय व्याख्यापित हुआ है। योगशास्त्र में दु:ख् की त्याज्यता[103] त्याज्य दु:ख की प्राप्ति की कारणता[104] त्याज्य दु:ख की निवृत्ति की साधनता[105] तथा दु:ख-निवृत्ति की स्वरूपता[106] को पतञ्जलि ने सूत्राङ्कित किया है। जड पदार्थों की पारिणामिक अवस्था- ‘परिणाम’ शब्द पदार्थगत तात्विक विशिष्ट अवस्था का वाचक है। इससे पदार्थगत परिवर्तन द्योतित होता है। पदार्थगत परिवर्तन दो प्रकार से होता है- एक तात्त्विक परिवर्तन तथा दूसरा अतात्त्विक परिवर्तन। योग में पदार्थगत परिवर्तन ‘परिणाम’ शब्द से वर्णित हुआ है और वेदान्त में पदार्थगत अतात्त्विक परिवर्तन ‘विवर्त: नाम से विश्लेषित हुआ है। ब्रह्मवादी वेदान्ती जगत् को ब्रह्म का ‘विवर्त’ (अतात्त्विक रूप) मानते हैं और प्रकृतिवादी सांख्य-योग जगत् को प्रकृति का परिणाम (तात्त्विक रूप) कहते हैं। सांख्य-योग के अनुसार चेतन तत्त्व पुरुष को छोड़कर प्रकृति-साम्राज्य परिणाम की अटूट श्रृंखला से आबद्ध है। परिणाम आद्य कारणरूपा प्रकृति का स्वभाव है, स्वरूप है। कालसम्बन्धी अतीतता और अनागतता से भी जड पदार्थनिष्ठ ‘परिणाम’ का सिद्धान्त बाधित नहीं होता है। प्रत्येक जड पदार्थ वैकलिक परिणाम से अचित रहता है। अत: पतञ्जलि ने भूतेन्द्रियों में धर्मपरिणाम, लक्षणपरिणाम तथा अवस्थापरिणाम को सूत्राङ्कित किया है।[107] तथा योगयुक्त चित्त में निरोधपरिणाम, [108] समाधिपरिणाम[109] तथा एकाग्रतापरिणाम[110] की विवेचना हुई हैं। स्फोट की मान्यता- यद्यपि ‘स्फोट’ व्याकरणशास्त्र का मुख्य सिद्धान्त है किन्तु योग में ‘सर्वभूतरुतज्ञान’[111] विषयक सिद्धि के प्रकरण में शब्द, अर्थ तथा ज्ञान का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए टीकाकारों ने योगाभिमत स्फोट पर भी प्रकाश डाला है। ‘स्फुटति व्यक्तीभर्वाते अर्थोऽस्मादिति स्फोट:’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे अर्थ स्फुट होता है, उसे स्फोट कहते हैं। कर्म एवं तज्जनित फलविषयक मान्यता- अटूट नियम है कि कर्म से तदनुरूप फल प्राप्त होता है। मोक्ष से पूर्व संसार के अन्तराल में प्राणिमात्र स्वकृत कर्मों के अनुसार जन्म-जमान्तरपर्यन्त फलों को भोगता रहता है। अत: दार्शनिकों ने प्राणी को कर्मजनित संस्कारों का पुञ्जमात्र कहा है। कर्मजनित संस्कार को कर्मवासना भी कहते हैं। पतञ्जलिने इसी को ‘कर्माशय’ नाम से अभिहित किया है। क्लेशमूलक कर्माशय, जो वर्तमान जीवन में फल प्रदान करता है, दृष्ट-जन्मवेदनीय कहा गया है तथा तद्भिन्न कर्माशय, जो अग्रिम जन्मों में फल प्रदान करता हा, अदृष्टजन्मवेदनीय कहा गया है।[112] कर्मजनित फल तीन प्रकार का है[113] जाति, आयु तथा भोग। यहाँ ‘जाति’ शब्द का अर्थ जन्म (किसी योनि की देहप्राप्ति) है। देहधारण की अल्प या दीर्ष अवधि को ‘आयु’ कहते हैं। सुख-दु:ख भोग के दो पक्ष कहे गये हैं। इनमें से दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय आयु और भोग रूप द्विविपाक का आरम्भक है। जबकि अदृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय से जाति, आयु तथा भोग तीनों फल प्राप्त होते हैं। अत: इसे त्रिविपाकारम्भी कहा गया है। यह बतलाना अप्रासङ्गिक न होगा कि नारायणतीर्थ ने उक्त विषयों के अतिरिक्त योगसिद्धान्तचन्द्रिका में कुछ नवीन विषयों पर भी योग के अध्येताओं का ध्यान आकृष्ट किया है। पुरुषविशेष ईश्वर की स्थापना के प्रसङ्ग में ‘अवतारवाद’, यथाभिमतध्यानाद्वा (1/39) सूत्र के प्रसङ्ग में तीर्थभावना, देवभावना, लोकभावना वर्णभावना आदि विषयों का संयोजन किया है।

  1. निदिध्यासनञ्चैकतानतादिरूपो राजयोगापरपर्याय: समाधि:। तत्साधनं तु क्रियायोग:, चर्यायोग:, कर्मयोगो, हठयोगो, मन्त्रयोगो, ज्ञानयोग:, अद्वैतयोगो, लक्ष्ययोगो, ब्रह्मयोग:, शिवयोग:, सिद्धियोगो, वासनायोगो, लययोगो, ध्यानयोग:, प्रेमभक्तियोगश्च - योगसिद्धान्तचन्द्रिका पृ. सं. 2।
  2. महाभारत 11/3/49-65, अहिर्बुध्न्यसंहिता 12/39, मनुस्मृति 1/88-89, भामती 2/1/3, हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्य: पुरातन:- योगियाज्ञवल्क्य 12/5 ।
  3. अथ योगानुशासनम्- योगसूत्र 1/1
  4. सांख्य दर्शन का इतिहास, द्वितीय संस्करण 1979
  5. (1) एवं तर्हि नैवांहंकारो विद्यत इति पतञ्जलि:। महतोऽस्मिप्रत्ययरूपत्वाभ्युपगमात्- युक्तिदीपिका पृ.सं. 32 । (2)पातञ्जले तु सूक्ष्मशरीरं यत् सिद्धकाले पूर्वमिन्द्रियाणि बीजदेशं नयति, तत्र तत्कृताशयवशात् द्युदेशम् यातनास्थानं वा करणानि वा पापस्य निवर्तते- युक्तिदीपिका पृ. सं. 144 । (3) यत्तावत् पतञ्जलि: आह-सूक्ष्मशरीरं विनिवर्तते पुनश्चान्यदुत्पद्यते- युक्तिदीपिका पृ. सं. 145। (4) एवं त्रिविधभावपरिहारात्.... न सर्वं स्वत: पतञ्जलिवत्- युक्तिदीपिका पृ. सं. 148 ।
  6. समूहो द्रव्यमिति पतञ्जलि:- व्यासभाष्य 3/44
  7. विश्वप्रकाशकोष 1/16/19, महाभाष्यप्रदीप 4/2/92।
  8. प्रामाण्यं वासुकेर्व्याडेव्युत्पत्तिर्धनपालत:। प्रपञ्चश्च वाचस्पतिप्रभृतेरिह लक्ष्यताम्-हेमचन्द्रकृत अभिधानचिन्तामणि, श्लोक सं. 3 ।
  9. शब्दानामनुशासनं विदधता पातञ्जले कुर्वता वृत्तिं राजमृगाङ्कसंज्ञकमपि व्यातन्वता वैद्यके। वाक्चेतोवपुषां मल: फणिभृता मत्रैव येनोदृधृत- स्तस्य श्रीरणरङ्गमल्लनृपतेर्वाचो जयन्त्युज्ज्वला:॥ - भोजवृत्ति, मंगलाचरण, श्लोक सं. 2 ।
  10. चरकसंहिता (हिन्दी व्याख्या), चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन 1983
  11. इति श्रीपातञ्जले सांख्यप्रवचने योगशास्त्रे श्रीमद्व्यासभाष्ये प्रथम: समाधिपाद:- व्यासभाष्य 1/51 ।
  12. Indian Philosophy- Dr. Radhakrishnan, 2, 342 page.
  13. (क) यस्य तु प्रत्यर्थनियतं प्रत्ययमात्रं क्षणिकञ्च चित्तं, तस्य सर्वमेव चित्तमेकाग्रं नास्त्येव विक्षिप्तम्।.. तस्मादेकमनेकार्थमवस्थितं च चित्तम्- व्यासभाष्य 1/32 (ख) स्यान्मति: स्वरसनिरुद्धं चित्तं चित्तान्तरेण समनन्तरेण गृह्यत इति- व्यासभाष्य 4/21। (ग) तदनेन चित्तसारूप्येण भ्रान्ता: केचित्तदेव चेतन... मित्याहु। अपने चित्तमात्रमेवेदं सर्व नास्ति खल्वयं गवादिर्घटादिश्च सकारणो लोक इति – व्यासभाष्य 4/23 ।
  14. व्यासभाष्य- ¼, 1/7, 1/12, 1/30, 1/41, 2/4, 2/11, 2/15, 2/16, 1/33, 2/54, 3/44, 4/25 इत्यादि।
  15. ब्रह्मसूत्र- 4/4/22/
  16. (क) तथा चोक्तम्-आदिविद्वान् निर्माणचित्तमधिष्ठाय तन्त्रं प्रोवाचेति- व्यासभाष्य 1/25, पञ्चशिखाचार्येंण इति शेष:- तत्त्ववैशारदी 1/25, पञ्चशिखाचार्यवाक्यं सांख्यस्थं प्रमाणयति- तथा चौक्तम्- योगवार्त्तिक 1/25 । (ख) उक्तं च-रूपातिशया वृत्त्यतिशयाश्च परस्परेण विरुध्यन्ते, सामान्यानि त्वतिशयै: सह प्रवर्तन्ते-व्यासभाष्य 3/13, अत्रैव पञ्चशिखाचार्यसम्मतिमाह-उक्तं चेति-तत्त्ववैशारदी 3/13, अत्र पञ्चशिखवाकयं प्रमाणयति-उक्तं चेति-योगवार्त्तिक 3/13।
  17. Date of Vachaspati Misra’s Tattvavaisaradi about A.D. 850 – यह अंश द्रष्टव्य है।
  18. (क) सर्व चैतदस्माभिर्न्यायवार्त्तिकतात्पर्यटीकायां व्युत्पादितमिति नेहोक्तां विस्तरभयात् – सांख्यतत्त्वकौमुदी का. सं. 5 । (ख) सर्वानुमानोच्छेदप्रसङ्ग: इत्युत्पादितं न्यायवार्त्तिकतात्पर्यटीकायामस्माभि: - सांख्यतत्त्वकौमुदी का. सं. 17 ।
  19. निर्णय सागर प्रेस, बम्बई संस्करण पृ. सं. 1021 ।
  20. प्राचीन चरित्रकोश, पृ. सं. 878 ।
  21. शिवपुराण, कोटि 1 ।
  22. उक्तानुक्तानां चिन्ता यत्र प्रवर्तते। तं ग्रन्थं वार्त्तिकं प्राहुर्वार्त्तिकज्ञा मनीषिण:॥ - पराशर पु. अध्याय 18 ।
  23. इति श्रीपातञ्जले सांख्यप्रवचने योगशास्त्रे श्रीमद्व्यासभाष्ये प्रथम: समाधिपाद:- व्यासभाष्य 1/51 ।
  24. (योगवार्त्तिक 1/4)।
  25. (योगवार्तिक 1/7)
  26. (योगवार्त्तिक 2/19)
  27. (योगवार्त्तिक 3/12)
  28. (योगवार्त्तिक 3/35)
  29. (योगवार्त्तिक 4/12)
  30. (योगवार्त्तिक 4/14)
  31. (योगवार्त्तिक 2/5)
  32. Samkhya-System pp. 114 by A.B. Keith.
  33. Preface of the Samkhya Sara pp. 37 by FE Hall
  34. Preface to the Samkhya Sutra Vritti pp. 8 by Dr. R. Garbe
  35. Indian Literature (German Edition) pp. 457 by M. Winternitz
  36. History of Indian Philosophy Vol. 1 pp. 212, 221 by Dr. S.N. Das Gupta.
  37. Indian Philosophy Vol. II by Dr. S. Radhakrishnan.
  38. भाष्ये परीक्षितो योऽर्थो वार्त्तिके गुरुभि: स्वयम्। संक्षिप्त: सिद्धवत्सोऽस्यां युक्तिषूक्ताधिका क्वचित्॥ - भावागणेशीययोग-सूत्रवृत्ति:, श्लोक सं. 1।
  39. तत्र सम्मति:। भावये गणेश दीक्षित प्रमुखाचिंपोलणे- Chitle Bhatta Prakasana pp. 76 by R.S. Rimputkar, Bombay 1926.
  40. सांख्य दर्शन का इतिहास, उदयवीर शास्त्री पृ. सं. 359-365, संस्करण 1950।
  41. यच्चात्र सांख्यभाष्यकृता विज्ञानभिक्षुणा समाधानेन प्रलपितम्-अद्वैतब्रह्मसिद्धि, कलकत्ता विश्वविद्यालय, द्वितीय संस्करण, पृ. 27।
  42. प्रकृतिनिबन्धना चेदिति पाठे तु प्रकृतिनिबन्धना चेद् बन्धनेत्यर्थ: - सांख्यप्रवचनभाष्य 1/18 ।
  43. निमित्ततोऽप्यस्येति पाठस्तु समीचीन:- सांख्यप्रवचनभाष्य 1/27
  44. अत्र कैवल्यार्थ प्रकृतेरिति सूत्रपाठ:, प्रामादिकत्वादुपेक्षणीय:।... कारिकात् कैवल्यार्थं प्रवृत्तेश्चेति पाठाद् अर्थसङ्गतेश्चेति- साख्यप्रवचनभाष्य 1/144
  45. History of Sankdrit Literature, by A.B. Keith pp. 304 सांख्यदर्शन का इतिहास, उदयवीर शास्त्री पृ. सं. 304 ।
  46. मैत्रीद्रवान्त:करणाच्छरण्यं कृपाप्रतिष्ठाकृतसौम्यमूर्त्तिम्। तथा प्रशान्तं मुदिताप्रतिष्ठं तं भाष्यकृद्वयासमुनिं नमामि॥ भास्वती, श्लोक सं. 1।
  47. अयोगिनां दुरूहं यत् योगिनामिष्टकामधुक्। महोज्ज्वलमणिस्तूपो यच्छेय: सत्यसंविदाम्॥ - भास्वती, श्लोक सं. 2 ।
  48. रत्नाकर: प्रवादानां भाष्यं व्यासविनिर्मितम्। शिष्यानां सुखबोधार्थं टीकेयं तत्र भास्वती॥ - भास्वती श्लोक सं. 3 ।
  49. उपोद्घातप्रधानेयं संक्षिप्ता पदबोधिनी। शंकाविकल्पहीनाऽस्तु मुदायै योगिनां सताम्॥ - भास्वती श्लोक सं. 4 ।
  50. (क) इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीमच्छंकरभगवत्पूज्यपादकृतौ शारीरकमीमांसाभाष्ये प्रथमाध्यायस्य प्रथम: पाद: - ब्रह्मसूत्र-शांकरभाष्य। (ख) .... इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीशंकरभगवत्: कृतौ श्रीपातञ्जलयोग (शास्त्र) सूत्रभाष्यविवरणे प्रथम: पाद: - योगसूत्रभाष्यविवरण।
  51. 1/28, 1/33, 1/34, 1/35, 1/36, 1/37, 1/39, 1/40, 1/41, 2/1, 2/46, 3/23, 3/25, सूत्रों पर योगसिद्धान्तचन्द्रिका ।
  52. (क) तदुक्तं भाष्येऽपि-ग्रहणाकारपूर्वा बुद्धि: ग्राह्याकारपूर्वा स्मृति:- योगसिद्धान्तचन्द्रिका 1/11। (ख) अत्र भाष्यम्-अनित्ये कार्ये नित्यख्याति: - वहीं 2/5 ।
  53. (क) भाष्यार्थस्तु-सा च निद्रा तु सम्प्रबोधे जागरे- वहीं 1/10। (ख) भाष्यार्थस्तु-अनित्ये कार्ये कालनिष्ठाभावप्रतियोगिनि विकारेऽहंकारादौ नित्यख्याति: - वहीं 2/5 ।
  54. श्रीरामगोविन्दसुतीर्थपादकृपाविशेषादुपलभ्य बोधम्। श्रीवासुदेवादधिगम्य सर्वशास्त्राणि वक्तुं किमपि स्पृहा न:॥- सांख्यकारिका, नारायणीटीका (चन्द्रिका) पृ. 1 ।
  55. उत्सृज्य विस्तरमुदस्य विकल्पजालं फल्गुप्रकाशमवधार्य च सम्यगर्थान्। सम्यक्: पतञ्जलिमते विवृतिर्मयेयमातन्यते बुधजनप्रतिबोधहेतु:॥ - भोजवृत्ति 1/7
  56. Early History of the Deccan, pp. 60
  57. भाष्ये परीक्षितो योऽर्थो वार्त्तिके गुरुभि: स्वयम्। संक्षिप्त: सिद्धवत्सोऽस्यां युक्तिषूक्ताधिका क्वचित्॥ - योगदीपिका, मंगलाचरण श्लोक सं. 3।
  58. इति भावागणेशभट्टकृतायां योगदीपिकायां पातञ्जलवृत्तौ समाधिपाद: प्रथम: - योगदीपिका 1/51, पुष्पिका।
  59. इति नागोजीभट्टीयायां पातञ्जलवृत्तौ समाधिपाद: प्रथम:- लघुयोगसूत्रवृत्ति: 51 ।
  60. संस्कृत साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, वाचस्पति गैरोला, पृ. सं. 332 ।
  61. पतञ्जलिं सूत्रकृतं प्रणम्य व्यासं मुनिं भाष्यकृतं च भक्त्या। भाष्यानुगां योगमणिप्रभाख्यां वृत्तिं विधास्यामि यथामतीड्याम्॥ मणिप्रभा, मंगलाचरण, श्लोक संख्या 1 तदाह भाष्यकार:- ‘यस्त्वेकाग्रे चेतसि सद्भूतमर्थं प्रद्योतयति क्षिणोति च क्लेशान् कर्मबन्धनानि श्लथयति, निरोथमथिमुखं करोति स सम्प्रज्ञातो योग इत्याख्यायत इति- मणिप्रभा 1/1
  62. (क) अहंकारात् पञ्चतन्मात्राणि सांख्या:। अहंकारस्यानुजानि बुद्धेरपत्यानि तन्मात्राणीति योगा:- मणिप्रभा 2।19। (ख) पञ्च तन्मात्राणि बुद्धकारणकान्यविशेषत्वाद् अस्मितावत्- तत्त्ववैशारदी 3/19।
  63. इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य श्रीगोविन्दानन्दभगवत्पूज्यपाद- शिष्यश्रीरामानन्दसरस्वती (यति) कृतौ सांख्यप्रवचने योगमणिप्रभायाम्- मणिप्रभा 1/51।
  64. श्रुत.- श्रौत. 1/53, रूढ: - तन्वनुबन्ध: 2/9, क्षणतत्क्रमयो: - क्षणक्रमसंयमात् 3/53, प्रकृत्यापूरात् – प्रकृत्यापूरणात् 4/2, विभक्त: - विविक्त: 4/15 पदचन्द्रिका।
  65. गृहीतसम्बन्धलिङ्गानि सामान्यात्मनाऽध्यवसायोऽनुमानम् 1/8, आप्तवचनमागम: 1/9, प्रतिपरिणामं च संस्कार: 1/21, एतेन शब्दाद्यन्तर्धानमुक्तम् 3/22, पदचन्द्रिका।
  66. भाष्यं सवार्त्तिक दृष्ट्वा वाचस्पत्यं च कृत्स्नश:। तेभ्य: प्रोद्धृत्य संक्षेपाद्वाचस्पत्यानुगामिनीम्॥ करोमि योगसूत्रस्य व्याख्यां योगप्रदीपिकाम्। - योगप्रदीपिका, श्लोक सं. 12, 13।
  67. आदिविद्वान् निर्माणचित्तमधिष्ठाय कारुण्याद् भगवान् परमर्षिरासुरये जिज्ञासमानाय तन्त्रं प्रोवाच-व्यासभाष्य 1/25।
  68. मूर्तिव्यवधिजातिभेदाभावान्नास्ति मूलपृथक्त्वमिति वार्षगण्य:- व्यासभाष्य 3/53
  69. चित्तैकाग्रपादप्रतिपत्तिरेवेति जैगीषव्य: - व्यासभाष्य 2/55।
  70. भगवान् जैगीषव्य उवाच – विषयसुखापेक्षयैवेदमनुत्तमं सन्तोषसुखमुक्ताम् कैवल्यसुखत्रापेक्षया दु:खमेव- व्यासभाष्य 3/18।
  71. संस्कारसाक्षात्करणात् पूर्वजातिज्ञानम्- योगसूत्र 3/18।
  72. प्रकृतेर्महांस्ततोऽहङ्कारस्तस्माद् गणश्च षोडशक:। तस्मादपि षोडशकात् पञ्चभ्य: पञ्च भूतानि ॥ - सांख्यकारिका 22
  73. विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनस: स्थितिनिबन्धनी-योगसूत्र 1/35।
  74. चिन्तान्तरदृशयत्वे बुद्धिबुद्धेरतिप्रसङ्ग: स्मृतिसङ्करश्च- योगसूत्र 4/21।
  75. विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि- योगसूत्र 2/19।
  76. योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: - योगसूत्र 1/1।
  77. द्रष्ट्टदृश्योपरकक्तं चित्तं सर्वार्थम् – योगसूत्र 4/23।
  78. निरोध: (धर्म:) त्रिलक्षण: त्रिभिरध्वभिरतीतानागतादिकालभेदैर्युक्त....... अनागतो निरोधरूपो धर्मो वर्तमानभूतोऽतीतो भविष्यतीति त्रिलक्षणवियुक्त: भास्वती 3/9 ।
  79. निरोध:..... लयाख्याऽधिकरणस्यैवावस्थाविशेषोऽभावस्यास्मन्मतेऽधिकरणावस्थाविशेषरूपत्वात्- योगवार्त्तिक 1/1।
  80. निरोध: उपशमो निरिन्धनाग्निवत् स्वकारणे लय: - योगसिद्धान्तचन्द्रिका 1/2
  81. अभीष्टविषये सदैव स्थितिशीला चित्तावस्था एकाग्रभूमि:- भास्वती 1/ 2।
  82. सम्यक्ज्ञाकत्वेन योग: सम्प्रज्ञातनामा भवति – योगवार्त्तिक 1। 2 ।
  83. क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेर्ग्रहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदञ्जनता समापत्ति: - योगसूत्र 1/43।
  84. वितर्कविचारानन्दास्मितारूपानुगमात् सम्प्रज्ञात:- योगसूत्र 1/17 ।
  85. तत्र पूर्वपूर्वभूमिकात्यागेनोत्तरोत्तरभूम्यारोह एकत्रैवालम्बने कार्य: अन्यथा पूर्वपूर्वोपासनातगदोषापत्ते: नागेशमट्टीय बृहत्योगसूत्रवृत्ति 1/17
  86. तस्यापि निरोधे सर्ववृत्तिनिरोधान्निर्बीज: समाधि: - योगसूत्र 1/51।
  87. स खल्वयं द्विविध उपायप्रत्ययो भवप्रत्ययश्च- व्यासभाष्य 1/19 ।
  88. तयोर्मध्य उपायप्रत्ययो योगिनां मोक्षमाणानां भवति- तत्त्ववैशारदी 1/20
  89. यथा वर्षातिपातिमृद्भावमुपगतो मण्डूकदेह: पुनरम्भोदवारिधारावसेकान्मण्डूकदेहभावमनुभवति- तत्त्ववैशारदी 1/19।
  90. भवप्रत्ययो विदेहप्रकृतिलयानाम्- योगसूत्र 1/19।
  91. श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम्- योगसूत्र 1/20।
  92. तत्र मन्दमध्यमोत्तमभेदेन त्रिविधा योगाधिकारिणो भवन्त्यारुरुक्षुयुञ्जानयोगारूढरूपा: - योगसारसंग्रह पृ. सं. 37 ।
  93. अभ्यासवैराग्याभ्यां तत्रिरोध:- योगसूत्र 1/12 ।
  94. तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास: - योगसूत्र 1/13 ।
  95. स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमि:- योगसूत्र 1/14
  96. तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम् – योगसूत्र 1/16 ।
  97. तप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग:- योगसूत्र 2/1।
  98. यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाङ्गानि- योगसूत्र 2/29।
  99. स्थान्युपनिमन्त्रणे सङ्गस्मयाकरणं पुनरनिष्टप्रसङ्गात् – योगसूत्र 3/51।
  100. तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम्- योगसूत्र 1/3।
  101. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसव: कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्ति:- योगसूत्र 4/34।
  102. सत्त्वपुरुषयो: शुद्धिसाम्ये कैवल्यम्- योगसूत्र 3/55
  103. हेयं दु:खमनागतम्- योगसूत्र 2/16
  104. द्रष्ट्टश्ययो: संयोगो हेयहेतु: - योगसूत्र 2/17।
  105. विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपाय:- योगसूत्र 2/26 ।
  106. तदभावात्संयोगाभावो हानं तद्दृशे: कैवल्यम् 2/25।
  107. एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याता: - योगसूत्र 3/13।
  108. व्युत्थाननिरोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भावौ निरोधक्षणचित्तान्वयो निरोधपरिणाम:- योगसूत्र 3/9।
  109. सर्वार्थतैकाग्रतयो: क्षयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणाम: - योगसूत्र 3/11
  110. तत: पुन: शान्तोदितौ तुल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणाम: - योगसूत्र 3/12।
  111. शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्यासात्संकरस्त प्रविभागसंयमात्सर्वभूतरुतज्ञानम्- योगसूत्र 3/17
  112. क्लेशमूल: कर्माशयो दृष्टादृष्टजन्मवेदनीय: - योगसूत्र 2/12 ।
  113. सति मूले तद्वियाको जात्यायुर्भौगा: - योगसूत्र 2/13।